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मानव जीवन में परस्पर संबंधों के दो ही आधार होते हैं। एक है स्वार्थ। दूसरा है आत्मीयता। स्वार्थ का अर्थ ठीक से समझना आवश्यक है। मनुष्य की आवश्यकताएँ होतीं हैं। आवश्यकताएँ आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के कारण निर्माण होतीं हैं। प्राण की शक्ति मर्यादित होती है। इसलिये आवश्यकताएँ सीमित होतीं हैं। मनुष्य का मन इच्छा करता है। मन की शक्ति असीम है। इसलिये इच्छाएँ असीम होतीं हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति के आगे की इच्छाएँ और उन की पूर्ति के प्रयास स्वार्थ की कक्षा में आते हैं। आत्मीयता का ही दूसरा नाम कुटुम्ब भावना है।
 
मानव जीवन में परस्पर संबंधों के दो ही आधार होते हैं। एक है स्वार्थ। दूसरा है आत्मीयता। स्वार्थ का अर्थ ठीक से समझना आवश्यक है। मनुष्य की आवश्यकताएँ होतीं हैं। आवश्यकताएँ आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के कारण निर्माण होतीं हैं। प्राण की शक्ति मर्यादित होती है। इसलिये आवश्यकताएँ सीमित होतीं हैं। मनुष्य का मन इच्छा करता है। मन की शक्ति असीम है। इसलिये इच्छाएँ असीम होतीं हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति के आगे की इच्छाएँ और उन की पूर्ति के प्रयास स्वार्थ की कक्षा में आते हैं। आत्मीयता का ही दूसरा नाम कुटुम्ब भावना है।
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जब समाज के सभी लोग स्वार्थ को वरीयता देते हैं तब बलवानों की चलती है। दुर्बलों के स्वार्थ का कोई महत्त्व नहीं होता। स्वार्थ के लिये संघर्ष करना होता है। दुर्बल इस संघर्ष में हार जाते हैं। अधिकारों के लिये संघर्ष यह स्वार्थ भावना का ही फल होता है। अधिकारों के लिये संघर्ष होने से समाज में बलवानों के छोटे वर्ग को छोड़कर अन्य सभी लोग संघर्ष, अशांति, अस्थिरता, दु:ख, विषमता आदि से पीडित हो जाते हैं। सभी समाजों में व्यवस्थाएँ बनाने वाले बलवान ही होते हैं। स्वार्थ पर आधारित समाज में बलवानों के स्वार्थ के पोषण के लिये व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। जब जीवन का आधार स्वार्थ होता है तो स्वार्थ का व्यवहार हो सके ऐसी व्यवस्थाएँ भी बनतीं हैं। विचार, विचार के अनुसार व्यवहार करने के लिये उपयुक्त व्यवस्था समूह को मिलाकर ही उसे समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। शासन सबसे बलवान होने से शासन सर्वोपरि बन जाता है। अन्य सभी सामाजिक व्यवस्थाएँ शासक की सुविधा के लिये बनतीं हैं। इस प्रतिमान में लोगों की सामाजिकता को नष्ट किया जाता है। व्यक्ति को व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित बनाया जाता है। तब कोई भी अच्छे सामाजिक संगठन ऐसे समाज में पनप नहीं पाते। आज भी हम देख रहे हैं कि वर्तमान जीवन का अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान कुटुंब, स्वभाव समायोजन, कौशल समायोजन जैसी राष्ट्र के सामाजिक संगठन की प्रणालियों को ध्वस्त किये जा रहा है।
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जब समाज के सभी लोग स्वार्थ को वरीयता देते हैं तब बलवानों की चलती है। दुर्बलों के स्वार्थ का कोई महत्त्व नहीं होता। स्वार्थ के लिये संघर्ष करना होता है। दुर्बल इस संघर्ष में हार जाते हैं। अधिकारों के लिये संघर्ष यह स्वार्थ भावना का ही फल होता है। अधिकारों के लिये संघर्ष होने से समाज में बलवानों के छोटे वर्ग को छोड़कर अन्य सभी लोग संघर्ष, अशांति, अस्थिरता, दु:ख, विषमता आदि से पीडित हो जाते हैं। सभी समाजों में व्यवस्थाएँ बनाने वाले बलवान ही होते हैं। स्वार्थ पर आधारित समाज में बलवानों के स्वार्थ के पोषण के लिये व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। जब जीवन का आधार स्वार्थ होता है तो स्वार्थ का व्यवहार हो सके ऐसी व्यवस्थाएँ भी बनतीं हैं। विचार, विचार के अनुसार व्यवहार करने के लिये उपयुक्त व्यवस्था समूह को मिलाकर ही उसे समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। शासन सबसे बलवान होने से शासन सर्वोपरि बन जाता है। अन्य सभी सामाजिक व्यवस्थाएँ शासक की सुविधा के लिये बनतीं हैं। इस प्रतिमान में लोगों की सामाजिकता को नष्ट किया जाता है। व्यक्ति को व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित बनाया जाता है। तब कोई भी अच्छे सामाजिक संगठन ऐसे समाज में पनप नहीं पाते। आज भी हम देख रहे हैं कि वर्तमान जीवन का अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान कुटुंब, स्वभाव समायोजन, कौशल समायोजन जैसी राष्ट्र के सामाजिक संगठन की प्रणालियों को ध्वस्त किये जा रहा है।
    
जीवन की सारी समस्याओं का प्रारंभ स्वार्थ भावना के कारण होता है। आत्मीयता बढने से स्वार्थ में कमी आती है। जीवन में सुख चैन बढते हैं। स्वार्थ भावना से मोक्ष की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। परोपकार की नि:स्वार्थ भावना और व्यवहार से मोक्षगामी हुआ जाता है। इसलिये स्वार्थ पर आधारित जीवन को मर्यादा डालकर आत्मीयता को बढावा देने वाले जीवन के प्रतिमान का विकास और स्वीकार करना होगा। मनुष्य जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकारों की समझ होती है। उस की केवल अधिकारों की समझ दूर कर उस के स्थान पर कर्तव्यों की समझ निर्माण करने से समाज सुखी बन जाता है। यह काम सामाजिक व्यवस्थाओं का है। कौटुम्बिक भावना का संबंध कर्तव्यों से होता है। समाज जीवन की सारी व्यवस्थाएँ कौटुम्बिक भावनापर आधारित होने से, कौटुम्बिक भावना के लिये पूरक होने से समाज में सुख, शांति, एकात्मता व्याप्त हो जाती है। जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान का आधार ‘आत्मीयता याने कुटुम्ब भावना” है।
 
जीवन की सारी समस्याओं का प्रारंभ स्वार्थ भावना के कारण होता है। आत्मीयता बढने से स्वार्थ में कमी आती है। जीवन में सुख चैन बढते हैं। स्वार्थ भावना से मोक्ष की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। परोपकार की नि:स्वार्थ भावना और व्यवहार से मोक्षगामी हुआ जाता है। इसलिये स्वार्थ पर आधारित जीवन को मर्यादा डालकर आत्मीयता को बढावा देने वाले जीवन के प्रतिमान का विकास और स्वीकार करना होगा। मनुष्य जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकारों की समझ होती है। उस की केवल अधिकारों की समझ दूर कर उस के स्थान पर कर्तव्यों की समझ निर्माण करने से समाज सुखी बन जाता है। यह काम सामाजिक व्यवस्थाओं का है। कौटुम्बिक भावना का संबंध कर्तव्यों से होता है। समाज जीवन की सारी व्यवस्थाएँ कौटुम्बिक भावनापर आधारित होने से, कौटुम्बिक भावना के लिये पूरक होने से समाज में सुख, शांति, एकात्मता व्याप्त हो जाती है। जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान का आधार ‘आत्मीयता याने कुटुम्ब भावना” है।
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उपर्युक्त सभी बिन्दुओं के अध्ययन से यह ध्यान में आएगा कि सभी समस्याओं की जड़ स्वार्थ आधारित जीवनदृष्टि है। सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ भी जीवन दृष्टि से सुसंगत ही होती हैं। संक्षेप में कहें तो सारी समस्याओं का मूल वर्तमान में हम जिस जीवन के प्रतिमान में जी रहे हैं वह जीवन का अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान है। इस प्रतिमान को केवल नकारने से समस्याएं नहीं सुलझनेवाली। साथ ही में जीवन के निर्दोष धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान की प्रतिष्ठापना भी करनी होगी।
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उपर्युक्त सभी बिन्दुओं के अध्ययन से यह ध्यान में आएगा कि सभी समस्याओं की जड़ स्वार्थ आधारित जीवनदृष्टि है। सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ भी जीवन दृष्टि से सुसंगत ही होती हैं। संक्षेप में कहें तो सारी समस्याओं का मूल वर्तमान में हम जिस जीवन के प्रतिमान में जी रहे हैं वह जीवन का अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान है। इस प्रतिमान को केवल नकारने से समस्याएं नहीं सुलझनेवाली। साथ ही में जीवन के निर्दोष धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान की प्रतिष्ठापना भी करनी होगी।
    
==References==
 
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