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पता -ck 8/21 गौमठ (संकठा जी मन्दिर मार्ग के पास) , चौक , वाराणसी
 
पता -ck 8/21 गौमठ (संकठा जी मन्दिर मार्ग के पास) , चौक , वाराणसी
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1.#किरातेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त
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2. #किरातेश्वर_महादेव #अर्जुन_द्वारा_स्थापित सिक्किम
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<nowiki>#</nowiki>काशी_में_किरातेश्वर स्वयम्भूलिंग है जो कि शिव जी के आह्वाहन पर , सिक्किम की धरती (किरात देश) से काशी में आये है , यहां ऐसी मान्यता है कि जो भी यहां दर्शन करेगा उसको सिक्किम में महाभारत काल मे अर्जुन द्वारा स्थापित किरातेश्वर लिंग के दर्शन का फल मिलेगा ।
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<nowiki>#</nowiki>सिक्किम_में_किरातेश्वर लिंग महान धनुर्धारी कुंती पुत्र अर्जुन द्वारा स्थापित है । इंद्र और श्री कृष्ण कहने पर यहां अर्जुन ने पाशुपतास्त्र पाने के इक्षा से एक शिव लिंग की स्थापना की और कठोर तप किया जिसके फल स्वरूप शिव जी प्रसन्न होकर  किरात के भेष में प्रकट हुवे और अर्जुन ने शिव की स्तुति कर उनको प्रसन्न किया और पाशुपताश्त्र प्राप्त किया ।
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वही लिंग जो अर्जुन द्वारा स्थापित किया गया था उसको किरातेश्वर महादेव नाम से जाना गया ।
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काशी में इनका स्थान ck52/15 , राजा दरवाज़ा , चौक नारायण एग्रीकल्चरल इंडस्ट्रीज में है ।
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Kirateshwer mahadev (kashikhandokt)
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<nowiki>#</nowiki>ढूंढी_विनायक        #काशी_खण्डोक्त
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प्रथम पूज्य श्री ढूंढी राज़ गणेश
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जब काशी में शिव जी द्वारा सभी गणों , देवी , देव , सूर्य , योगिनी , नक्षत्र , भैरव , गौरी को भेजा जा रहा था और सभी राजा दिवोदास के राज्य में खामी नही निकाल पाये और यही रुक गए , उसी क्रम में शिव जी ने अपने पुत्र गणेश को भेजा जो इस कार्य मे सफल होगये और वृद्ध ब्राह्मण बन कर ज्योतिष विद्या के माया प्रपंच से राजा दिवोदास की मति को भ्रमित करदिया और समस्त काशी को अपने वश में कर लिया।
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गणेश जी के वश में हो जाने के बाद विष्णु जी ने राजा को काशी से उच्चाटीत (मुक्त) कर के विश्वकर्मा के द्वारा नई काशी का निर्माण करवाया और शिव जी को मंदरांचल से काशी आने का निमंत्रण दिया ।
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<nowiki>#</nowiki>ढुंढिराज_की_महिमा
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शिव जी ने काशी आकर सर्वप्रथम कहा कि
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~यदहं प्राप्तवन्स्मि  पुरीं वाराणसी शुभाम् |
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मयाप्य्ति वदुस्प्राप्यं स् प्रसादोष्य वै शिशोः ||
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मुझे अपने लिए परम दुर्लभ बनी इस शुभा वाराणसी पुरी में जो मैं आ सका हूं यह सब इसी बालक(ढुंढिराज) का प्रसाद है
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~यदुस्प्रसाध्यं हि पितुरपि त्रिजगति तले |
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तत्सुनुना सुसाध्यं स्यादत्र दृष्तान्तता मयि ||
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त्रलोक्य मण्डल में जो पिता का भी दुसाध्य है( पिता जिस कार्य को पूरा नहीं कर सकता) पुत्र से वही शुसाध्य  हो जाता है इसका उदाहरण मैं स्वयं ही हूं ।
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~अन्वेषणे ढुढिरयं प्रथितोस्ति धातुः
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सर्वार्थः ढुढिततया तव ढुढिनाम |
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काशी प्रवेशमपि को लभतेत्र देहि
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तोषं विना तव विनायक ढुढिराज ||
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~ढूंढी नाम तोह ढूंढने के ही अर्थ में प्रसिद्ध है और समस्त अर्थों (वस्तुओं) को ढूंढने ही के कारण तुम्हारा नाम ढूंढी हुआ है । इस लोक में तुम्हारे संतोष(आज्ञा) के बिना काशी में कोई प्रवेश नही पा सकता ।
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ढूंढे प्रणम्य पुरतस्त्व पाद पद्मं
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यो मां नमस्यति पुमा निह काशी वाशी
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तत्तकर्णमूल मधिग्म्य पुरा दिशामि
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तत् किञ्चिदत्र न पुनःगर्भःवतास्ति येन
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हे ढुंढिराज जो काशीवासी प्रथम ही तुम्हारे चरणारविन्द में प्रणाम कर फिर मुझे नमस्कार करता है मैं उसके कान के पास पहुँचकर अंत समय मे कुछ ऐसा उपदेश देता हूं जिससे उसको दुबारा इस संसार मे जन्म नही लेना पड़ता
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प्रथमं ढुढि रजोसि मं दक्षिणो मनाक्
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आढुंढय सर्वभक्तेभयः सर्वाथार्न संप्रयच्सि
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अङ्गारवासरवतिःमिह यैचतुर्थी
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संप्राप्य मोदक भरै प्रमोद वदभि
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पूजा व्यधायि विविधा तव गन्ध माल्यै
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स्तानत्र पुत्र विदधामी गणान गणेशा
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प्रथम तो मेरे दक्षिण ओर् समीप ही मे तुम ढुंढिराज रूप से विराजमान हो , जो समस्त भक्तों को ढूंढ ढूंढ कर उनके सब कार्यो (अभिलाषा) को पूर्ण कर देते हो ।
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हे सुपुत्र गणेश जो लोग मंगलवार की चतुर्थी को सुगंध युक्त लड्डुओं से तुम्हारी विधिवत पूजा करते है, उनको मैं अपना पार्षद बनाता हूँ ।
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इति
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यह कथा काशी खण्ड पुस्तक से ली गयी है ।
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काशी विश्वनाथ जाने वाले गेट नंबर 1 पर ही इनका  मंदिर है (अन्नपूर्णा मंदिर के पहले)
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हो सकता है कि विश्वनाथ कॉरिडोर निर्माण के तहत इनको इनके स्थान से हटा दिया जाए ।
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काशी के जनता का आस्था इनसे विशेष रूप से जुड़ा हुआ है इसीलिए किसी अन्यायपूर्ण कार्य करने से पहले मंदिर परिषद को सोच समझ के कार्य करना चाहिए
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<nowiki>#</nowiki>बृहस्पतिश्वर_महादेव          #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>बृहस्पतिवार_काशी_यात्रा
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महाभारत के आदि पर्व के अनुसार देवताओं के गुरु वह पुरोहित बृहस्पति है , जो अंगिरा ऋषि के पुत्र है , इनकी माता का नाम सुरुपा है ।
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अंगिरा ऋषि के सुरुपा देवी से तीन पुत्र हुवे जिसमे
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सबसे ज्ञानी पुत्र  #बृहस्पति दूसरे #उतथ्य और तीसरे #अथर्व ऋषि हुवे ,
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अथर्व ऋषि ने ही शिव जी की कृपा से  #अथर्व_वेद की रचना की थी ।
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बृहस्पति  एक तपस्वी ऋषि थे। इन्हें 'तीक्ष्णशृंग' भी कहा गया है। धनुष बाण और सोने का परशु इनके हथियार थे और ताम्र रंग के घोड़े इनके रथ में जोते जाते थे। बृहस्पति को अत्यंत पराक्रमी बताया जाता है। इन्द्र को पराजित कर इन्होंने उनसे गायों को छुड़ाया था। युद्ध में अजय होने के कारण योद्धा लोग इनकी प्रार्थना करते थे। ये अत्यंत परोपकारी थे जो शुद्धाचारणवाले व्यक्ति को संकटों से छुड़ाते थे। इन्हें गृहपुरोहित भी कहा गया है, इनके बिना यज्ञयाग सफल नहीं होते।
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देव गुरु बृहस्पति जो सभ्य , सूंदर , अति ज्ञानी और नेतृत्व करने के क्षमता से परिपूर्ण है , जब यह  शिव लिंग की स्थापन करने के उद्देश्य से काशी आये तोह अपने द्वारा स्थापित शिव लिंग के सामने कठोर तपस्या में लीन होगये जिसमे उनकी तपस्या लगातार कई सहस्त्र वर्षो तक चली ।
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फलस्वरूप जब बृहस्पति ने  शिव जी को अपने सामने पाया तोह वह तरह तरह से शिव जी की स्तुति की जिसमे शिव जी स्तुति से प्रसन्न होकर उनको वाचस्पति होने का आशीर्वाद दिया और इसी नाम से संबोधन किया जिसका मतलब वाक(बोलने)में निपुडता होती है ।
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साथ ही शिव जी ने उन्हें वरदान स्वरूप देवो के गुरु होने का आशीर्वाद दिया साथ ही ग्रहत्व का भार भी प्रदान किया जिसमें आगे चल कर बृहस्पति को ग्रह के रूप में पूजा जाने लगा ।
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जो लोग यहां बृहस्पति लिंग की पूजा करते है उनको दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह अध्यापक होने के लक्षणों से परिपूर्ण होने लगते है ।
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इस जगत में जितने में अध्यापक(teacher) है वह सभी बृहस्पति ग्रह के शुभ लक्षणों के कारण ही है ।
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शिव जी के वरदान स्वरूप जो भी यहां लगातार 6 मास तक पूजा करेगा उसके जन्म जन्मांतर के पाप छूट जाएंगे और वह मोक्ष को प्राप्त करेगा ।
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पता- चौक पर सिंधिया घाट , आत्मविरेश्वर मंदिर के सामने
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<nowiki>#</nowiki>बुद्धेश्वर_महादेव        #काशीखण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>बुधवार_दर्शन_दैनिक_काशी_यात्रा
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बुध ग्रह द्वारा स्थापित वह पूजित लिंग
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जब काशी में सभी देव,  नक्षत्र, गंधर्व , किन्नर , योगिनी , यक्ष सभी इस पुन्यात्मक धरती पर शिव लिंग स्थापन के उद्देश्य से काशी आरहे थे उसी में सभी ग्रह भी आये जिसमे ग्रहों में राजकुमार की श्रेणी में आने वाले बुद्ध ग्रह भी बुद्धेश्वर नामक शिव लिंग की स्थापना की ।
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बुद्ध ग्रह बौद्धिक छमता का प्रतीक है और व्यापार का कारक ग्रह है , इनके ही कृपा से मनुष्य अपने बौद्धिक छमता का इस्तमाल कर पता है , क्योंकि यह चंद्र देव के पुत्र है इसीलिए सौम्य और शीघ्र प्रसन्न होते है । यह शिव लिंग सिन्धिया घाट पर मौजूद आत्म वीरेश्वर महादेव के परिशर में स्थित है ।
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यहां नित्य दर्शन से कुंडली मे स्थित बुद्ध ग्रह शुभ फल देने लगते है , व्यापार और रोजगार में वृद्धि होती है ।
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सिंधिया घाट पर आत्मविरेश्वर मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>अंगारक_संकटहरा_चतुर्थी
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<nowiki>#</nowiki>श्रावण_मास_कृष्ण_पक्ष_चतुर्थी
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<nowiki>#</nowiki>काशीखण्डोक्त_दर्शन
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1. #मंगला_गौरी (गौरी दर्शन)पंचगंगा घाट पर
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2. #मंगल_विनायक (गणेश दर्शन) पंचगंगा घाट पर
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3. #मंगलेश्वर_महादेव (अंगारक लिंग दर्शन) सिंधिया घाट पर
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(अंगारक मंगलवार या मंगल ग्रह का दूसरा नाम है)
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आज दिनांक 27/7/21 मंगलवार को पड़ने वाली चतुर्थी जिसको अंगारक संकटहरा चतुर्थी बोलते है , आज के दिन चतुर्थी पड़ने के कारण गौरी और गणेश पूजा का रिवाज काशी में प्राचीन समय से ही चला आरहा है ।
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चतुर्थी तिथि अगर मंगलवार को पड़ती है तोह काशी में मंगलेश्वर (अंगारेश्वर)महादेव के भी दर्शन का विधान है और  यह काशी खण्डोक्त यात्रा है ।
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आज के दिन व्रत और गणेश पूजा से संतान की रक्षा होती है ,
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गौरी पूजा से शीघ्र  विवाह और मनचाहा वर प्राप्त होता है,
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और मंगलेश्वर लिंग के दर्शन से कुंडली से समस्त क्रूर ग्रहों की शांति होजाती है और मंगल ग्रह अच्छा फल देने लगते है ।
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यह योग साल में बहुत कम पड़ता है इसीलिए आज के दिन पूरे भारत वर्ष में गौरी , गणेश पूजा और काशी में गौरी गणेश के साथ साथ मंगलेश्वर लिंग की भी पूजा होती है ।
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सावन मास में मंगलवार के दिन मंगलेश्वर लिंग पर जलाभिषेक करने से अभिलाषित मनोकामना की पूर्ति होती है और भाग्य की वृद्धि होती है ।
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मंगलेश्वर महादेव सिंधिया घाट पर आत्मविरेश्वर मंदिर प्रांगण में मंगल ग्रह द्वारा स्थापित है ।
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<nowiki>#</nowiki>सारंग_नाथ_महादेव        #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>श्रावण_मास_नित्य_दर्शन 25/7/21 से 22/8/21 तक
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सावन में यदि एक बार सारंगनाथ के दर्शन हो जाएं तो काशी विश्वनाथ के दर्शन के बराबर पुण्य का भागी होता है मनुष्य। इस मंदिर में एक साथ मौजूद है दो शिवलिंग एक छोटा तो एक  बड़ा
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जब दक्ष प्रजापति अपनी पुत्री सती का विवाह किये तो उस समय उनके भाई सारंग ऋषि उपस्थित नहीं थे।  वो तपस्या के लिए कहीं गये हुए थे।  तपस्या के बाद जब सारंग ऋषि वहां पहुंचे तो उन्हें पता चला कि उनके पिता ने उनकी बहन का विवाह कैलाश पर रहने वाले एक औघड़ से कर दिया है।
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बहन की शादी एक औघड़ से होने की बात सुनकर सारंग ऋषि बहुत परेशान हुए।  वो सोचने लगे की मेरी बहन का विवाह एक भस्म पोतने वाले से हो गयी है।  उन्होंने पता किया कि विलुप्त नगरी काशी में उनकी बहन सती और उनके पति विचरण कर रहे हैं। जिसपर वो बहत ज्यादा धन लेकर अपनी बहन से मिलने पहुंचे। रस्ते में जहां आज मंदिर है वहीं थकान की वजह से उन्हें नींद आ गयी।  उन्होंने नींद में आये स्वप्न में देखा की उन्होंने काशी नगरी को स्वरण नगरी के रूप में देखा। जिसपर उन्हें बहुत ग्लानी हुई की उन्होंने क्या या सोचा था और क्या निकला।  जिसके बाद उन्होंने प्रण लिया की अब यहीं वो बाबा विश्वनाथ की तपस्या करेंगे उसके बाद ही वो अपनी बहन सती से मिलेंगे।
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इसी स्थान पर उन्होंने बाबा विश्वनाथ की तपस्या की।  तपस्या करते-करते उनके पूरे शरीर से लावे की तरह गोंद निकलने लगी।  जिसके बाद उन्होंने तपस्या जारी रखी अंत में उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भोले शंकर ने सती के साथ उन्हें दर्शन दिए। बाबा विश्वनाथ से जब सारंग ऋषि से इस जगह से चलने को कहा तो उन्होंने कहा कि अब हम यहां से नहीं जाना चाहते यह जगह संसार में सबसे अच्छी जगह हैं जिसपर भगवान शंकर ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि भविष्य काल में तुम सारंगनाथ के नाम से जाने जाओगे और कलयुग में तुम्हे गोंद चढ़ाने का रिवाज रहेगा और जो चर्म रोगी सच्चे मन से तुम्हे गोंद चढ़ाएगा तो उसे चरम रोग से मुक्ति मिल जाएगी।
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सारंग ऋषि का नाम उसी दिन से सारंगनाथ पड़ा और अपने साले की भक्ति देख प्रसन्न हुए बाबा विश्वनाथ भी यहां सोमनाथ के रूप में विराजमान हुए। इस मंदिर में जीजा साले की पूजा एक साथ होती है ।  इसलिए इस मंदिर को जीजा साले का भी मंदिर कहा जाता है।  कहा जाता है कि सावन में बाबा विश्वनाथ यहां निवास करते हैं और जो भी व्यक्ति सावन में काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन नहीं कर पाता वह एक दिन भी यदि सारंगनाथ का दर्शन करेगा उसे काशी विश्वनाथ मंदिर में जलाभिषेक के बराबर पुण्य मिलेगा।
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इस मंदिर में आने वाले श्रद्धालु  मंदिर को भगवान शिव की ससुराल भी कहतें हैं। दर्शन करने आते श्रद्धालुओं ने कहा कि भगवान् भोलेनाथ आपने साले सारंग ऋषि के साथ यहां विराजमान हैं।  वो सारंगनाथ और बाबा सोमनाथ के रूप में यहां है।  इन दोनों की साथ में पूजा होती है इसलिए ये बाबा की ससुराल है जहां वो अपने साले के साथ सदियों से हैं।
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मंदिर के पास में ही सारंग तालाब भी है जिसको सारंग ऋषि में बनवाया था यहां अब स्नान कर के दर्शन की बहुत मान्यता है।
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जो लोग स्नान नही कर सकते वो मार्जन( जल से हाथ , पैर , मुह धोना) कर के दर्शन कर ले तोह दर्शन का सम्पूर्ण फल मिलता है ।
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वाराणसी में सारनाथ क्षेत्र का नाम सारंग नाथ महादेव के नाम पर ही पड़ा है ।
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पता - सारनाथ में प्रसिद्ध मंदिर (सारंग नाथ)
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<nowiki>#</nowiki>व्यासेश्वर_महादेव          #व्यास_नगर_  (रामनगर)
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<nowiki>#</nowiki>बड़े_व्यासेश्वर      #व्यास_द्वारा_स्थापित
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<nowiki>#</nowiki>गुरु_पूर्णिमा_दर्शन_वार्षिक_यात्रा 24/7/21 आज
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विष्णु जी के परम भक्त व्यास जी जब नैमिशारण्य से शिव जी की महिमा को जानने के लिए अपने दस हजार शिष्यों के साथ काशी आये और काशी विश्वनाथ लिंग के सामने विष्णु जी की प्रशंसा में लीन होगये जिसमे उन्होंने हाथ उठा कर यह कहा कि समस्त लोको के एकमात्र पूजनीय देव विष्णु ही है , यह सुन कर मुख्यद्वार पर स्थापित नंदी ने क्रोधित स्वर में उन्हें श्राप दिया कि सम्पूर्ण जगत के परमेश्वर का अवज्ञा करने वाले महर्षि व्यास का हाथ वही स्थिर हो जाये और वाणी मूक होजाये ।
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इतने में सर्वज्ञानी विष्णु जी वहां प्रकट हुवे और और शिव जी को ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ बताया और उन्हें शिव जी का अनुशरण करने का आदेश दिया और क्षमा मांगने पर उनका हाथ और मुह पूर्वव्रत हुआ , और वह काशी में ही शिव लिंग स्थापना करके अपने दस हजार शिष्यों के साथ शिव पूजा में लग गए (काशी में उनके द्वारा स्थापित लिंग व्यासेश्वर नाम से जाना जाता है और करनघंटा पोखरा पर है)
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ऐसे ही नित्यकर्म चलता रहा पर एक दिन व्यास जी के शिष्यों को काशी में कही से भी भिक्षाटन में कुछ भी प्राप्त नही हुआ और बाकी के दिनों तक भी यही हाल था । व्यास जी बहुत चिंतित हुवे और क्रोधित होकर ऊँचे स्वर में समस्त काशी के लोगो को तीन पीढ़ी तक विद्या और मुक्ति से वंचित होजाने का श्राप दे दिया ।
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जब माता अन्नपूर्णा और शिव जी को यह बात पता चली तोह वह अत्यंत क्रोधित हुवे पर ब्राह्मण को सम्मान के साथ ही सज़ा देने के हिसाब से माता अन्नपूर्णा उनके सामने एक गृहणी के रूप में प्रकट हुई और भोजन दान देने की बात कही इसमें व्यास जी ने यह बोल कर राज़ी हुवे की वह बिना अपने शिष्यों को भोजन कराएं भोजन ग्रहण नही करते ।
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इसमें अन्नपूर्णा जी ने बोला कि मेरे भी पति का व्रत है कि बिना किसी को भोजन कराएं अन्नग्रहण नही करते , फिर माता उनको और उनके शिष्यों को विधिवत भोजन और वस्त्र भेट कर उनकी क्षुधा पूर्ति और सम्मान दिया ।
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इसपर प्रसन्न व्यास जी ने जब गृहणी (माता अन्नपूर्णा) को आशीर्वाद दिया तब माता ने बोला कि ऋषिवर आप तोह सर्वज्ञ हैं कृपा यह बताइये की तीर्थ यात्रियों का धर्म क्या है ?
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तोह महर्षि व्यास जी ने बोला कि तीर्थ यात्री को शांत चित्त और निर्मल हृदय का होना चाहिए और और संयमित होना उनका परम् धर्म है , इसी में माता ने कहा कि महर्षि आप बताइए क्या अपने इस धर्म का अनुसरण किया है ?
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इतना सुन कर महर्षि निरुत्तर खड़े रहे तभी गृहणी के पति  (शिव) ने बोला कि आप ने जो इस नगर वाशियो को श्राप दिया है क्या यह आपका धर्म है ? साथ ही अपने जो कृत्य किया है यह तीर्थयात्री का धर्म नही है और ऐसे लोगो को काशी में निवास का कोई स्थान नही है यह बोल कर शिव जी ने उनको काशी से कही अन्यत्र चले जाने को कहा।
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पर अपने कृत्य पर प्रायश्चित करके व्यास जी ने सिर्फ अष्टमी तिथि को काशी में प्रवेश की अनुमति मांगी जिसको शिव जी ने सहजता से स्वीकार किया ।
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फिर व्यास जी काशी छोड़ गंगा के उस पार पर अपना ठिकाना बनाया और शिव जी से प्रभावित होकर यहां पर भी एक शिव लिंग स्थापित किया जिसका नाम व्यासेश्वर ही हुआ यह भी लिंग बहुत पुराना है और काशी खण्डोक्त है ।
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आज आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को यहां के भी दर्शन का बहुत महात्म्य है , ऐसा कहा जाता है कि व्यास जी यही निवास बनाये हुवे है और इसी शिव लिंग की पूजा करते है ।
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यहां एक टीला भी है जिसमे से व्यास जी काशी को निहारते थे और काशी नाम का जाप किया करते थे ।
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पता - व्यास नगर (व्यास काशी)रामनगर (साहूपुरी)
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<nowiki>#</nowiki>वेदव्यासेश्वर_महादेव          #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>गुरु_पूर्णिमा_विशेष.  24/7/21
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<nowiki>#</nowiki>आषाढ़_शुक्ल_पक्ष_पुर्णिमा_तिथि_वार्षिक_दर्शन
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~पाराशर्यस्तदारभ्य शंभु भक्ति परोःभवत |
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लिङ्गं व्यासेश्वरः स्थाप्य घण्टा कर्ण हृदाग्रतः ||
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विभूति भूषणो नित्यं नित्य रुद्राक्ष भूषणं |
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रुद्रसूक्तपरो नित्यम्  लिङ्गार्चकोः भवत् ||
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स् कृत्वा क्षेत्र संन्यासं त्यजेन्नाद्यापिकाशिकां |
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तत्वं क्षेत्रस्य विज्ञाय निर्वाण पददायिन ||
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(#शिव_पुराण)
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~वेदव्यास जी ने काशी में रहकर तपस्या किया । तब ही से पराशर पुत्र व्यास जी भगवान शंभू की भक्ति करने वाले हुए ।
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वहां पर घंटाकर्ण सरोवर के पास व्यास ईश्वर शिवलिंग की स्थापना की । तब से सदा विभूति धारण और रुद्राक्ष माला धारण तथा रूद्र अभिषेक का और शिवलिंग का चिंतन करने में तत्पर हुए । वे क्षेत्र सन्यास लेकर आज भी काशी का परित्याग नहीं करते , क्योंकि काशी मुक्तिदायिका का भूमि है
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~घण्टाकर्णहृद स्नात्वादृष्ट्वा व्यासेश्वरनरः |
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यत्रकुत्र मृतो वापि वाराणस्यां मृतोस्भ्वत् ||
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काश्यां व्यासेश्वरं लिङ्गम् पूजयित्वा नरोत्तमः |
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न ज्ञानाद भ्रश्यतेक्वापि पात कैर्नाभिभूयते ||
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व्यासेश्वर रस्य्ये भक्तानतेषाम् कलि कालतः |
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न पापतो भयं क्वापि न च क्षेत्रोप् सर्गतः ||
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व्यासेश्वरः प्रयत्नेन दृष्टव्यः काशी वासिभिः |
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(#लिंग_पुराण)
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~#घण्टाकर्ण सरोवर में स्नान करके और वेदव्यासेश्वर लिंग के दर्शन करके जो व्यक्ति जहाँ कही भी मरता है  उसकी मृत्यु वाराणसी में ही मानी जाती है । व्यक्ति काशी में वेद व्यासेश्वर शिवलिंग की अर्चना करके श्रेय ज्ञान से भ्रष्ट नही होता है न तोह कभी पापों से प्रताड़ित होता है । जो व्यासेश्वर के भक्त हैं कलिकाल , पाप तथा क्षेत्र जन्य उपसर्ग से भय नहीं होता । क्षेत्र के पापों से भयभीत तथा घंटाकर्ण सरोवर में स्नान करने वाले व्यक्तियों को व्यासेश्वर का दर्शन करना चाहिए ।
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आषाढ़ शुक्ल गुरु पूर्णिमा तिथि के दिन कर्णघंटा में वेदव्यासेश्वर दर्शन पूजन , वार्षिक यात्रा , पूजन कर के (अगर हो सके तोह काम से अवकाश ले कर दर्शन करें ) कर्ण घण्टा तीर्थ कुंड में स्नान या मार्जन कर कुंड के अंदर चार शंकर जी के मंदिर है इनको महोदरेश्वर , जैमिनीश्वर , कर्णघंटेश्वर , और वेदव्यासेश्वर  है ।
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वेदव्यासेश्वर मंदिर के पास आषाढ़ पुर्णिमा के दिन यज्ञ , कीर्तन , और प्रवचन होते है ।
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~घण्टाकर्णे महातीर्थे श्राद्धं कृत्वा विधानतः |
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अपि दुर्गतिमापन्नानुद्धः रेत्सप्त पुर्वजान ||
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(#काशीखण्ड)
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~इस घण्टकर्ण तीर्थ पर विधिपूर्वक श्राद्ध करने वाला अपने सात पूर्वज पुरषो का दुर्गति में पड़े रहने पर भी उद्धार कर सकता है।
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पता -60/67 कर्णघण्टा पोखरा  , कर्ण घण्टा मोहल्ला ,चौक , वाराणसी
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<nowiki>#</nowiki>आशाढेश्वर_महादेव        #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>आषाढ़_मास_शुक्ल_चतुर्दशी_वार्षिक_यात्रा 23/7/21
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चतुर्दशी तिथि के दिन काशी में शिव लिंग का दर्शन का बहुत ही महात्म्य है खासकर किसी काशी खण्डोक्त लिंग के दर्शन हो तोह अति सौभाग्यप्रद होजाता है ।
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शिव जी के अति प्रिय गण आषाढ़ जिनको शिव जी ने अपने पुत्र के संज्ञा से नवाजा था आज इन्ही की वार्षिक यात्रा है और यह लिंग आषाढ़ गण के द्वारा ही स्थापित है ।
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यहां आषाढ़ मास में दर्शन करने से आषाढ़ मास में हुवे सभी पापो का विमोचन होजाता है ऐसी यहां मान्यता है और नित्य दर्शन करने से जीवन के समस्त पापो का विमोचन होजाता है।
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इनके ठीक बगल वाला लिंग #दुर्वाशा ऋषि द्वारा स्थापित है और यह लिंग #दूर्वाशेश्वर के नाम से जाना जाता है ।
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पता k 63/53 नाखास रोड , काशी पूरा , लोहटिया ,वाराणसी
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<nowiki>#</nowiki>गभस्तीश्वर_महादेव      #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>आषाढ़_शुक्ल_त्रयोदशी_वार्षिक_दर्शन
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प्राचीन काल मे गभस्ती (#सूर्य_देव) शिव लिंग स्थापन करने उद्देश्य से काशी के प्रसिद्ध #पंचनद_तीर्थ(पंचगंगा) पर अवतरित हुवे और यही पर एक विशाल शिव लिंग स्थापना के साथ मंगला गौरी की भी मूर्ति स्थापित करके कठिन तपस्या में लीन होगये ।
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कठिन तप के फल स्वरूप उनके शरीर से उत्तपन्न हुवे बहुत तेज़ प्रकाश और गर्मी को सहन करना काशी में रहने वाले लोगो और पशु पक्षियो  के लिए दूभर(मुश्किल)होगया ।
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जब यह बात शिव और माता पार्वती को पता चली तब वह इसका कारण जानने के लिए तुरन्त गभस्ती (#सूर्य_देव) के सामने उपस्थित होगये और सूर्य देव को छुवा जिससे उनकी शरीर का ताप और रोशनी धीरे धीरे कम होते गई ।
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(बहुत तेज़ प्रकाश को संस्कृत में #मयूख बोला जाता है , जिससे इनका नाम मयुखादित्य भी पड़ गया और इसी नाम से इनकी मूर्ति भी स्थापित होगयी)
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जब सूर्य देव ने शिव और माता पार्वती को देखा तोह बहुत तरीके से शिव और माता पार्वती की स्तुति करने लगे जिसके फल स्वरूप शिव जी और माता पार्वती ने उनको कई वरदान दिए जिसमे उनको रवि की संज्ञा भी दी गयी और ग्रहत्व का भार भी प्रदान किया गया ।
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अंत मे शिव जी यह कहते हुवे अंतर्ध्यान होगये कि  आज से इस शिव लिंग का नाम गभस्तीश्वर होगा और जो व्यक्ति या महात्मा यहां #पंचनद_तीर्थ (पंचगंगा) पर स्नान कर गभस्तीश्वर का  दर्शन पूजन करेगा उसको सभी पापो से मुक्ति मिलेगी और अंत मे मोक्ष की प्राप्ति होगी ।
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साथ ही #मंगला गौरी के दर्शन करने से हमेशा दर्शनार्थियों का मंगल ही होता है और विवाह बाधा भी दूर होती है और मंगल ग्रह से मिल रहे परेशानियों से भी मुक्ति मिलती है ।
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जिनके कुंडली मे सूर्य से संबंधित परेशानियां होरही हो या सूर्य कमजोर , निर्बल , अस्त या किसी ग्रह द्वारा क्रूर दृष्टि से दृष्ट हो तो यहां गभस्तीश्वर और मयूखादित्य के  पूजन अर्चन करने से उनकी सारे परेशानियां दूर हो जाएंगी ।
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इसी दौरान कठिन तपस्या के कारण सूर्य के पसीने से किरणा नदी उतपन्न हुई जो जा कर गंगा जी मे मिल गयी थी ।
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वैसे तोह यहां नित्य दर्शन का प्रावधान है पर अगर रोज़ नही जा सकते तोह काशी वाशियो को प्रत्येक रविवार, रवि पुष्य नक्षत्र , मकरसंक्रांति ये सब दिन जरूर दर्शन करना चाहिए ।
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पता- पंचगंगा घाट के पास k 24/34 प्रसिद्ध मंगला गौरी मंदिर प्रांगण में
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<nowiki>#</nowiki>mayukhaditya #gabhasteeshwer #mangalagauri #varanasi #kashikhandokt #suryadev
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<nowiki>#</nowiki>नर्मदेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>आषाढ़_शुक्ल_द्वादशी_दर्शन  #वर्षिक_यात्रा
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माता #नर्मदा द्वारा स्थापित लिंग
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प्राचीन काल मे जब ऋषियो में नदियो की चर्चा हो रही तोह उसमे सर्वप्रथम
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1. #गंगा
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2. #यमुना
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3. #सरस्वती
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4 . #नर्मदा  नदी को क्रमबद्ध स्थान मिला ।
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जिसमे कि गंगा #ऋग्वेद को
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यमुना #यजुर्वेद को
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सरस्वती #अथर्ववेद को
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नर्मदा #सामवेद को प्रदर्शित करती है या इनकी प्रतीकात्मक है ।
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नर्मदा नदी को आखरी स्थान में गिनती होने के कारण उन्होंने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की जिसके फलस्वरूप ब्रह्मा जी उनको वरदान मांगने को कहा , जिसमे नर्मदा जी ने माँ गंगा के बराबर(समकक्ष) और पुण्यदायक हो जाने की बात कही पर ब्रम्हा जी यह कर के अंतर्ध्यान होगये कि कोई भी देवता शिव के समान नही होसकता ,, दूसरा  कोई भी मानव विष्णु समान नही हो सकता और कोई भी नदी गंगा समान नही हो सकती ।
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इस बात से असंतुष्ट माता नर्मदा काशी में आकर नर्मदर्श्वेर नामक शिव लिंग स्थापित किया और बगल में ही नर्मदा कूप(कुँवा) भी स्थापित करके उसी कुवे के जल से नर्मदेश्वर लिंग की पूजा और कठिन तपस्या किया , जिससे प्रसन्न हो शिव जी जब उनसे मनचाहा वर मांगने को कहा तभी भी उन्होंने ने वर में यही मांगा की वह गंगा नदी के समान पुण्यदायक हो जाये और उतना ही उनको भी सम्मान मिले ।
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तभी उनकी तपस्या से अति प्रसन्न शिव ने पहला वरदान दिया कि नर्मदा नदी में जितने भी पत्थर रहेंगे वह साक्षात शिवलिंग ही माने जाएंगे ।
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और दूसरे वरदान में ये कहा कि जो
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गंगा में एक बार स्नान करता है उसके सारे पाप मिट जाते
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यमुना में सात दिन स्नान करने से व्यक्ति के पाप मिट जाते है
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सरस्वती में तीन दिन स्नान करने से सारे पाप मिट जाते है
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और कहा कि आज से सिर्फ नर्मदा नदी को देख लेने मात्र से ही व्यक्ति के  सारे पाप मिट जाएंगे ।
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और अंत मे अंतर्ध्यान होने से पहले शिव जी ने यह भी वरदान दिया कि नर्मदेश्वर लिंग के पूजन करने वालो के सभी पाप मिट जाएंगे और अंत मे मोक्ष प्राप्त होगा ।
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<nowiki>#</nowiki>स्कन्द_पुराण के #काशी_खण्ड में ऐसा वर्णन है कि जो भी कन्या इस नर्मदा नदी की महिमा को सुनती है तोह उसके सारे पाप कट जाएंगे ।
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पता - #मछोदरी पर #त्रिलोचन_मंदिर के पीछे पीपल के पेड़ के नीचे वाले घर मे , वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>varanasi #narmadeshwer #trilochanghat #narmada #samved #shiv #kashikhand
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<nowiki>#</nowiki>गंगेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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जब #स्कन्द (कार्तिकेय) जी अगस्त्य ऋषि को काशी के महिमा बता रहे थे उसी में एक अध्याय गंगेश्वर लिंग का भी था जिसमे उन्होंने बताया कि जब माता गंगा अपने पूरे जल प्रवाह के साथ #काशी के तरफ बढ़ी आरही थी , तभी उनके मन मे  काशी में शिव लिंग स्थापन करने की इक्षा हुई ।
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जिसमे उन्होंने काशी विश्वनाथ के पूर्व में एक उत्तम लिंग की स्थापना की जिसको आगे चल कर #गंगेश्वर नाम से जाना गया जो लोग #गंगा_दशहरा के दिन यहां दर्शन पूजन करते है उनके जन्मों के पाप मिट जाते है ।
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<nowiki>#</nowiki>काशी_खण्ड_अध्याय 91 के अनुसार यहां दर्शन करने से गंगा स्नान का फल मिलता है और यहां के भक्तों की सभी मनोकामना पूर्ण होती है और अंत मे स्वर्ग प्राप्त होता है ।
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पता-  ck 13/78 चौक से मिसिर जी के मैदान से पशुपतेश्वर महादेव से आगे संकठा गली मार्ग पर
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<nowiki>#</nowiki>तिलपर्णेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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निरन्तर जब शिव गणों का काशी आगमन होते जा रहा था , और सभी गण राजा दिवोदास के राज्य की खामी ढूंढने में असमर्थ होते जा रहे थे उसी अंतराल में से एक #तिलपर्ण नामक शिव गण भी काशी आये और काशी की मनमोहकता और सौंदर्य देख कर काशी में ही शिव लिंग स्थापित कर काशी में ही वास् करने लगे ।
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इस शिव लिंग के दर्शन पूजन से सभी पाप नष्ट होजाते है ,
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और काशीखण्ड अध्याय 53 के वर्णन के अनुसार यहाँ गंगा जल और बेल पत्र चढ़ाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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जल चढ़ाने की महिमा के अनुसार इस लिंग को जलेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है ।
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पता- दुर्गाकुंड , दुर्गा देवी मंदिर में ।
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<nowiki>#</nowiki>कुक्कुटेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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परम् शिवभक्त(शिवगण) कुक्कुट द्वारा स्थापित लिंग
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जब काशी में राजा दिवोदास के राज्य की खामी को निकालने के लिए शिव जी अपने गणों को भेज रहे थे , पर सभी शिवगण अपने कार्य मे असमर्थ होते जा रहे थे और काशी में ही अपने नाम से शिव लिंग स्थापित कर के यही पर निवास करने लगे ।
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इसी प्रकार से श्री कुक्कुट का भी काशी आगमन हुआ और वह भी दिवोदास के राज्य में खामी नही निकाल पाए और काशी में ही अपने नाम से शिव लिंग स्थापित कर के रुक गए ।
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काशी से पहले श्री कुक्कुट का निवास मंदरांचल पर्वत पर था , पर काशी की सुंदरता देख कर यह काशी में ही रुक गए ।
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काशीखण्ड अध्याय 53 में ऐसा वर्णीत है कि यहां नित्यदर्शन पूजन से मोक्ष की प्राप्ती होती है और  माता के गर्भ से मुक्ति मिलती है ।
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पता- दुर्गाकुंड में दुर्गा देवी मंदिर परिसर में ।
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<nowiki>#</nowiki>रुक्मांगदेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>आषाढ़ शुक्ल पक्ष पंचमी वार्षिक यात्रा(15/7/21)
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यह शिव लिंग राजा #रुक्मांगद द्वारा स्थापित है , राजा रुक्मांगद प्राचीन काल के अत्यंत प्रतापी राजा और महान विष्णु भक्त हुआ करते थे ।
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<nowiki>#</nowiki>रुक्मांगद राजा के राज्य में सभी प्रजागण को #एकादशी व्रत करना अनिवार्य था , जो प्रजा उस दिन व्रत का पालन नही करती थी उसको दण्डित करने का भी प्रावधान राजा द्वारा बनाया गया था ।
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एकादशी व्रत के महिमा के प्रतिरूप में सारी जनता मृत्यु पश्च्यात विष्णु लोक में जाने लगी और नर्क बिल्कुल खाली सा होगया , यमदूतों और चित्रगुप्त के पास कोई काम नही बचा था।
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इसी बात को लेकर यमराज़ ब्रम्हा के पास गए राजा रुक्मांगद की महिमा सुन कर ब्रम्हा अत्यंत प्रसन्न हुवे साथ ही राजा की परीक्षा लेनी चाही ।
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काफी समय के अंतराल जब राजा ने प्रेमवस मोहिनी नाम की अति सुंदर कन्या को विवाह के  लिय इस बात पर राजी कर लिया कि वह जीवन मे एक बार मोहिनी को जरूर मुह मंगा वर देंगे ।
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<nowiki>#</nowiki>ब्रह्मा द्वारा भेजी मोहिनी अचानक से राजा का इम्तिहान लेने के लिए राजा को एकादशी व्रत न रखने के लिए बोला जिसमे राजा रुक्मांगद ने उनसे निवेदन कर के दूसरा वर मांगने को कहा पर मोहिनी उसी बात पर अडिग थी , तभी राजा का पुत्र धर्मांगद और पहली रानी संध्यावली ने भी मोहिनी से विनती की वह राजा को छोड़ कर न जाये , पर इन दोनों की बातों को सुन मोहिनी ने अपने दूसरे वर में राजा के पुत्र धर्मांगद का कटा हुआ सर मंगा (यह पूरा वाक्या सभी देवता गन और भगवान विष्णु देख रहे थे) ,
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इतना सुनते ही धर्मांगद खुशी ख़ुशी अपना सर कटवाने को तैयार होगया ।
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(राजा भी अपने वचन को निभाने के लिए अपने पुत्र का सर काटना उचित समझा पर अपना एकादशी का व्रत नही तोड़ा)
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<nowiki>#</nowiki>राजा ने जैसे ही धर्मांगद पर तलवार चलानी चाही वैसे ही वहां श्री हरि विष्णु उसकी तलवार को रोक लिए और देखते ही देखते राजा सहित उसका परिवार विष्णु जी मे समाहित होगया और वैकुंठ में चला गया ।
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साथ ही #मोहिनी को राजा के पुरोहित ने संकल्प ले कर अपने श्राप से भस्म कर दिया ।
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<nowiki>#</nowiki>यह शिव लिंग अत्यंत प्रतापी राजा रुक्मांगद द्वारा स्थापित होने के कारण जो भी यहां दर्शन पूजन करता है , वह विष्णु जी का भी प्रिय होजाता है और अंत मे वैकुंठ धाम को प्राप्त करता है ।
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पता- चौकी घाट , मकान नम्बर b 14/ 1 पीपल के पेड़ वाले हनुमान मंदिर में
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<nowiki>#</nowiki>ओम्कारेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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~एक ओंकारमालोक्य समस्ते क्षोणी मण्डले |
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लिङ्ग जातानि सर्वाणि दृष्टा निस्युनरसंशयः ||
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(#काशीखण्ड 73)
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~एक ओम्कारेश्वर लिंग का दर्शन कर लेने से समस्त पृथ्वीमण्डल में जितने भी लिंग है , सबका दर्शन कर लिया , इसमें संशय नही है ।
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~तत्र जागरण कृत्वा चतुरदर्शामुपोषितः |
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प्राप्नुवन्ति परं ज्ञानं यत्र कुत्रापि वै मृता ||
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~चतुर्दशी तिथि में उपवास रहकर ओम्कारेश्वर में जागरण करने से प्राणी कही पर भी मरने पर परम् ज्ञान प्राप्त करता है।
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ओम्कारेश्वर महादेव ( ॐकार लिंग) । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है , काशी  तीन भाग में विभाजित है , ॐकार खंड , विश्वेश्वर खंड और केदार खंड , यह ओम्कारेश्वर लिंग ॐकार खंड का प्रतिनिधि करते है। यहां खुद सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने सालो साल तप किया जिसके फल स्वरुप यहाँ तीन स्वयंभू लिंग प्रकट हुवे इन तीन शिव लिंग के शक्ति से ही ब्रह्मा जी को सृष्टि रचने की शक्ति मिली । अकार , ॐ कार  और मकार यह तीन शिव लिंग है ।
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काशी खंड 73 में ऐसा वर्णित है कि जो व्यक्ति अष्टमी तिथि और चतुर्दशी को मछोदरी तीर्थ में स्नान कर के यहाँ के दर्शन करता है वह जीवन के बंधन से मुक्त हो जाता है। काशी के तीनों खंडो में से सबसे प्रथम खंड यही है।
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पता -
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पठानी टोला A33/23 ,मछोदरी में यह लिंग विराजमान है । ब्रह्मा जी ने शिव जी से यहां सदैव निवास करने का निवेदन किया था जिसके फल स्वरुप शिव जी यहाँ निवास करते है।
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<nowiki>#</nowiki>पशुपतेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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इस स्वयम्भू लिंग का दर्शन करने से पशु  योनि से मुक्ति मिलती है ( किये गए बुरे कर्म जिनके फल स्वरूप इंसान को पशु योनि मिलती है )
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चैत्र मास शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को और रंगभरी एकादशी के दिन यहां विधिवत सृंगार होता है और महादेव सभी भक्तों की मुराद पूरी करते है ।
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जो लोग यहां नित्य दर्शन करते है उनको सभी प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है और व्यक्ति हर बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है, वैसे तोह यहां दिन में कभी भी दर्शन कर सकते है पर दर्शन का मुख्य समय शाम(संध्या) का है क्योंकि काशी खण्ड पुस्तक के अनुसार शाम के समय पशुपतेश्वेर लिंग में शिव जी खुद वास् करते है ।
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पता-ck13/66 पशुपतेश्वर गली , (मिशीर जी का मैदान)  चौक , वाराण
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<nowiki>#</nowiki>शत_कालेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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शतकालेश्वर महादेव में दर्शन पूजन करने वाले व्यक्ति को सौ वर्ष की आयु मिलती है , शत का मतलब सौ होता है ।
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प्राचीन काल से ही शतायु होने का आशीर्वाद सन्तो महात्माओं और ऋषि मुनिओ से मिलता आया है , पर यहां शत कालेश्वर लिंग का दर्शन पूजन करते रहने से सौ वर्ष की आयु बहुत सहज तरीके से ही मिल जाती है(काशी खंड पुस्तक अनुसार) स्थानीय निवासी यहां नित्य दर्शन करते है , और उनका मानना है कि यहां दर्शन से उनको स्वास्थ हमेशा ठीक रहता है।
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जमीन से थोड़ा नीचे और काफी छोटा मंदिर होने के कारण यहां मंदिर में अंदर जाने का रास्ता नही है , बाहर से ही दर्शन होता है यहां ।
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पता - चौक में ठठेरी बाजार , गली में , राम भंडार के आगे ,पीतल शिवाला नाम से प्रसिद्ध है यह मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>संकटा_देवी      #काशीखंडोक्त_मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>सिंधिया घाट के पास, “संकट विमुक्ति दायिनी देवी” देवी संकटा का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। इसके परिसर में शेर की एक विशाल प्रतिमा है। इसके अलावा यहां 9 ग्रहों के नौ मंदिर हैं।
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<nowiki>#</nowiki>इस मंदिर में हर संकट से मिलती है मुक्ति, पांडवों ने एक पैर पर खड़े होकर की थी मां की उपासना
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<nowiki>#</nowiki>कौरवों को युद्ध  किया था पराजित,
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भगवान शिव ने जब की थी अराधना तो दूर हुई थी उनकी व्याकुलता
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<nowiki>#</nowiki>वाराणसी. काशी को यू ही मोक्ष की नगरी नहीं कहा जाता है। यहां पर ऐसे-ऐसे सिद्धपीठ है, जहां पर दर्शन करने से भक्तों के सारे दु:ख खत्म हो जाते हैं। काशी की धार्मिक मान्यता है कि यहां के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर खुद भगवान शिव भक्तों को तारण मंत्र देकर जन्मों के बंधन से मुक्त करते हैं। यही से कुछ दूरी पर मां संकटा का मंदिर है, जहां पर दर्शन करने से जीवन में आने वाले सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं।
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<nowiki>#</nowiki>गंगा घाट किनारे स्थित मां संकटा का मंदिर सिद्धपीठ है। यहां पर माता की जितनी अलौकिक मूर्ति स्थापित है उतनी ही अद्भृत मंदिर की कहानी भी है। धार्मिक मान्यता है कि जब मां सती ने आत्मदाह किया था तो भगवान शिव बहुत व्याकुल हो गये थे। भगवान शिव ने खुद मा संकटा की पूजा की थी इसके बाद भगवान शिव की व्याकुलता खत्म हो गयी थी और मां पार्वती का साथ मिला था। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पांडवों जब अज्ञातवास में थे तो उस समय वह आनंद वन (काशी को पहले आनंद वन भी कहते थे) आये थे और मां संकटा की भव्य प्रतिमा स्थापित कर बिना अन्न-जल ग्रहण किये ही एक पैर पर खड़े होकर पांचों भाईयों ने पूजा की थी। इसके बाद मां संकटा प्रकट हुई और आशीर्वाद दिया कि गो माता की सेवा करने पर उन्हें लक्ष्मी व वैभव की प्राप्ति होगी। पांडवों के सारे संकट दूर हो जायेंगे।
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<nowiki>#</nowiki>इसके बाद महाभारत के युद्ध में पांडवों ने कौरवों को पराजित किया था। मंदिर में दर्शन करने के बाद भक्त गो माता का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते हैं। मां संकटा के सेवादार अतुल शर्मा ने कहा कि इस सिद्धपीठ में जो भी भक्त सच्चे मन से मां को याद करते हुए उनकी पूजा करता है उसके सारे संकट दूर हो जाते हैं।
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<nowiki>#</nowiki>नारियल व चुनरी के प्रसाद से खुश हो जाती है मां संकटा
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मां संकटा को नारियल व चुनरी का प्रसाद चढ़ाया जाता है जिससे मां खुश हो जाती है। यहां पर चढ़ाये हुए नारियल का स्वाद भी बेहद अलग होता है। प्रसाद ग्रहण करते ही समझ मैं आ जाता है कि किसी सिद्धपीठ का दर्शन किया है।
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<nowiki>#</nowiki>भक्तों की ही नहीं देवाताओं का भी संकट दूर करती है मां
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मंा संकटा के मंदिर में इतनी ऊर्जा है कि वह देवताओं के साथ भक्तों का भी संकट दूर करती है इसलिए पार्वती की रुप माने जाने वाली माता को मां संकटा कहा जाता है। शुक्रवार को यहां पर दर्शन करने के लिए दूर-दराज से भक्त आते हैं और जीवन में आने वाला संकट दूर हो जाता है।
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पता- संकटा घाट (सिंधिया घाट के पास) प्रसिद्ध मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>कलयुगेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त
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स्कन्द पुराण में इस लिंग के बारे के बताया गया है कि कलयुग में इस लिंग का दर्शन करना अति अनिवार्य है , जो इस लिंग का कलिकाल(कलयुग) में दर्शन करेगा उसके सभी कार्य सिद्ध होंगे और उसको कलयुग के पापों से छुटकारा भी मिलेगा(जिन लोगो पर कलयुग हावी होजाता है वह पाप के मार्ग पर बढ़ते रहते है )
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काशी में इनका दर्शन उतना ही महत्वपूर्ण है जितना लोग कालभैरव ,माँ अन्नपूर्णा ,  का समझते है ।
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इनके दर्शन से ही काशी का सम्पूर्ण फल है ।
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पता --
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Siddheshwari devi n chadreshwer n chandrakoop(kashikhandokt)
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/Qus89YdedTy3JLKo6</nowiki>
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<nowiki>#</nowiki>एकादशीश्वर_महादेव #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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आज एकादशी 5/7/21
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प्रत्येक एकादशी को दर्शन करने से यहां बैकुंठ की प्राप्ति होती है , और वरलक्ष्मी की कृपा भी मिलती है ।
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एकादशी व्रत करने वालो को यहां दर्शन अवश्य करना चाहिए।
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<nowiki>#</nowiki>लांगलीश्वर_महादेव      #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>ज्येष्ठ_कृष्ण_पक्ष_अष्टमी_तिथि_यात्रा 2/7/21
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त्रिलोकी नाथ शिव जब बारी बारी काशी में अपने गणों को  राजा #दिवोदास  के राज्य की खामियां निकालने के लिये भेज रहे थे , तभी जितने गण यहां आते थे तोह वापस लौटने के बाजए वह काशी में ही अपने नाम से शिव लिंग स्थापित कर के शिव आराधना में लीन होजाते थे ।
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ऐसा माना जाता है कि शिवगण आज भी काशी में ही निवास कर काशी की रक्षा करते है ।
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ऐसे ही क्रमबद्ध तरीके से गणों का आना आरंभ रहा , जिसमे शिव जी के प्रिय गण श्री #लांगली भी काशी आये और यही शिव लिंग स्थापित कर के आराधना में लीन होगये , लांगली के नाम से ही लांगलीश्वर नाम पड़ा ।
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यहाँ दर्शन पूजन से शिव जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है क्योंकि लांगली शिव जी के अति प्रिय गण है ।
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यहां का पता , ck28/4 खोवा गली , चौक (खोवा गली में यह मंदिर बहुत प्रसिद्ध है)
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<nowiki>#</nowiki>स्वर्गद्वारेश्वर    #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>ज्येष्ठ_कृष्ण_पक्ष_षष्टी  30/6/21 आज के दिन मणिकर्णिका में स्नान कर इस मंदिर में दर्शन करने से मृत्यु के पश्च्यात स्वर्ग में स्थान मिलता है ऐसा काशी खंड पुस्तक में वर्णन है । यहां दर्शन करने से सारे कष्ट और पाप भी मिट जाते हैं।
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<nowiki>#</nowiki>विश्वनाथ_कॉरिडोर निर्माण में अब यह काशी खण्डोक्त मंदिर विलुप्त होगया है ।
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Ck10/16 #मणिकर्णिका घाट के पास ही यह मंदिर था ।
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काशी खण्ड में स्वर्गद्वारी का उल्लेख बहुत विस्तृत तरीके से किया गया है और यह काशी का अभिन्न अंग माना जाता था ।
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समय के साथ साथ इस मंदिर का अस्तित्व खत्म होजायेगा ऐसा कल्पना भी नही किया गया ।
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स्वर्गद्वारेश्वेर का यह फोटो सालों पहले मैंने लिया था ।
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<nowiki>#</nowiki>swargdwareshwer #varanasi
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<nowiki>#</nowiki>दण्डपाणी_भैरव        #काशी_खण्डोक्त
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प्राचीन काल में पूर्णभद्र नामक एक धर्मात्मा यक्ष गंधमादन पर्वत पर रहते थे ,
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निसंतान होने के कारण वह अपने पुत्र प्राप्ति के लिए हमेशा चिंतित रहते थे उसके चिंतित रहने के कारण उसकी पत्नी कनककुंडला ने उनसे शिवजी की आराधना करने की बात कही और यह भी कहा जब  शिलाद मुनि ने जिन की कृपा से मरण हीन नंदेश्वर नामक पुत्र को प्राप्त किया उन शिव की आराधना क्यों नही करते ।
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अपने स्त्री का वचन सुनकर यक्षराज ने गीत वाद्य आदि से #ओम्कारेश्वर(कोयला बाजार स्थित,काशी)
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का पूजन कर पुत्र की अभिलाषा पूर्ण की और शिव जी के कृपा के कारण पूर्णभद्र ने हरिकेश नामक पुत्र को प्राप्त किया जो आगे चलकर काशी में दंडपाणी भैरव नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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जब हरिकेश 8 वर्ष का था तभी से खेल खेल में बालू में शिवलिंग बनाकर दूर्वा से उनका पूजा करता था और अपने मित्रों को शिव नाम से ही पुकारता था और अपना सारा समय शिवपूजन में ही लगाया करता था।
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हरिकेश की यह दशा देखकर उसके पिता ने उसे गृह कार्य में लगाने की अनेक चेष्टा की पर उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ , अंत में हरिकेश घर से निकल गया और कुछ दूर जाकर उसे भ्रम हो गया और वह मन ही मन कहने लगा हे शंकर कहां जाऊं कहां रहने से मेरा कल्याण होगा उसने अपने मन में विचारों की जिनका कहीं ठिकाना नहीं है उनका आधार काशीपुरी है जो दिन-रात विपत्तियों से दबे हैं उनका काशीपुरी ही आधार है इस प्रकार निश्चय करके वह काशीपुरी को गया ।
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आनंदवन में जाकर ओम नमः शिवाय का जप करने लगा
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काफी समय के बाद शंकर जी पार्वती जी को अपना आनंदवन दिखाने के लिए काशी लाए और बोला जैसे तुम मुझको बहुत प्रिय हो वैसे ही आनंदवन भी मुझे परम प्रिय है हे देवी मेरे अनुग्रह से इस आनंद वन में मरे हुए जनों को जन्म मरण का बंधन नहीं होता अर्थात वह फिर से संसार में जन्म नहीं लेता और पुण्य आत्माओं के पाप के कर्म बीज विश्वनाथ जी की प्रज्वलित अग्नि में जल जाते हैं और फिर गर्भाशय में नहीं आते हैं ऐसे ही बात करते करते भगवान शिव और माता पार्वती उस स्थान पर पहुंच गए जहां पर हरिकेश यक्ष ने समाधि लगाए बैठे थे ।
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उनको देखकर पार्वती जी ने कहा हे ईश्वर यह आपका तपस्वी भक्त है इसको उचित वर देखकर उसका मनोरथ पूर्ण कीजिए इसका चित्त केवल आप में ही लगा है और इसका जीवन भी आपके ही अधीन है इतना सुनकर महादेव जी उस हरिकेश के समक्ष गए और हरिकेश को हाथों से स्पर्श किया । (कठिन तप के कारण हरिकेश कमजोर और दुर्बल होगये थे)
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दया सिंधु का स्पर्श पाकर हरिकेश यक्ष ने आंखें खोल कर अपने सम्मुख प्रत्यक्ष अपने अभीष्ट देव को देखा और गदगद स्वर से यक्ष ने कहा कि हे शंभू हे पार्वती पते हे शंकर आपकी जय हो आपके कर कमलों का स्पर्श पाकर मेरा यह शरीर अमृत स्वरूप हो गया इस प्रकार प्रिय वचन सुनकर आशुतोष भगवान बोले हे यक्ष तुम इसी क्षण मेरे वरदान से मेरे क्षेत्र के दंडनायक हो जाओ आज से तुम दुष्टों के दंड नायक और पुण्य वालों के सहायक बनो और दंडपाणी नाम से विख्यात होकर सभी गणों का नियंत्रण करो ।
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मनुष्यो में सम्भ्रम और उदभ्रम ये दोनों गण तुम्हारे साथ रहेंगे।
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तुम काशीवासी जनों के अन्नदाता । प्राणदाता , ज्ञान दाता होओ और मेरे मुख से निकले तारक मंत्र के उपदेश से मोक्ष दाता होकर नियमित रूप से काशी में निवास करो भगवान की कृपा से वही हरिकेश यक्ष काशी में दण्डपाणि के रूप में स्थित हो गए और भक्तों के कल्याण में लग गए ।
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<nowiki>#</nowiki>ज्ञानवापी में स्नान कर दण्डपाणि के दर्शन से सभी मनोकामना पूर्ण होती है ।
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/U8Z22PBVDx9RfV1GA</nowiki>
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<nowiki>#</nowiki>dandpani #harikesh #yaksh #banaras #varanas
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<nowiki>#</nowiki>मोक्षद्वारेश्वर_लिंग    #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>ज्येष्ठ_मास_कृष्ण_पक्ष_पंचमी को 29/6/21 इनका दर्शन होता है , विश्वनाथ कॉरिडोर में यह मंदिर तोड़ फोड़ होने के कारण अब विलुप्त होगया है ।
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लाहौरी टोला स्थित इस मंदिर में आज दर्शन पूजन का विशेष महत्व है । दैनिक दर्शन करने वाले लोगों को मोक्ष प्राप्त करना बहुत मामूली बात है यहां , पर अब यह मंदिर विलुप्त होगया है ।
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<nowiki>#</nowiki>अस्सी_संगमेश्वर    #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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काशी में अस्सी घाट पर असी नदी और गंगा जी का संगम स्थान है और घाट पर ऊपर सीढ़ी चढ़ कर संगमेश्वर महादेव का मंदिर है , ऐसी मान्यता है कि अस्सी घाट पर स्नान कर यहां दर्शन करना अति सौभाग्य दायक माना गया है ।
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काशी खण्ड पुस्तक में ऐसा वर्णन है कि अस्सी घाट पर स्नान करने से #हरिद्वार में स्नान करने का फल मिलता है ।
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<nowiki>#</nowiki>Assi_ghat. #sangmeshwer #haridwar #varanasi
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<nowiki>#</nowiki>बाबा_जागेश्वरनाथ_स्वयंभू_शिवलिंग
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<nowiki>#</nowiki>काशी_खण्ड पुस्तक में जितने भी स्वयंभू शिव लिंगो का वर्णन किया गया है , उसमे बाबा जागेश्वर नाथ का नाम चंद्रप्रभा के रूप में वर्णीत है।
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इनकी खोज लगभग 821 वर्ष पहले हुई ,
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किवदंतियों के जब अनुसार हाथीवान =(हाथी का मालिक हाथी के साथ) चारा काटने के लिए नदी के किनारे आया। वर्तमान में जहां शिवलिग है वहां विशाल वटवृक्ष था। उसी वृक्ष पर चढ़कर हाथीवान चारा(पेड़ की पत्तियां आदि) काटने लगा। इसी बीच कुल्हाड़ी ऊपर से गिर गयी और नीचे गोलाकार पत्थर कट गया जिससे रक्त की धार चलने लगी। यह देख हाथी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया। और चिघाड़ करते हुए जंगलों में भाग गया।
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यह बात जंगल में आग की तरह फैल गयी। आसपास बस्ती न होने के बावजूद कुछ दूर बसे गांव के लोग झाड़ी साफ कर पूजा पाठ करना शुरू कर दिये। धीरे-धीरे उक्त पत्थर शिवलिग का आकार लेकर विशालकाय होता गया।
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प्राचीन मान्यता है कि यह क्षेत्र ऋषि याज्ञवलकव्य की तपोभूमि थी , ऋषि के कठीन तप से प्रसन्न होकर  भगवान शिव स्वयंभू होकर प्रकट हुवे और उनको ढेरो वरदान दिए जिससे उनकी ख्याति तीनो लोक में फैल गई ।
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<nowiki>#</nowiki>Yaagyavalkavya
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याज्ञवल्क्य को वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों तथा उपदेष्टा आचार्यों में सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। ये महान् अध्यात्मवेत्ता, योगी, ज्ञानी, धर्मात्मा तथा श्री राम की कथा के मुख्य प्रवक्ता थे। भगवान सूर्य की प्रत्यक्ष कृपा इन्हें प्राप्त थी। पुराणों में इन्हें ब्रह्मा जी का अवतार बताया गया है। श्रीमद्भागवत[1] में आया है कि ये देवरात के पुत्र थे। महर्षि याज्ञवल्क्य के द्वारा वैदिक मन्त्रों को प्राप्त करने की रोचक कथा पुराणों में प्राप्त होती है। तदनुसार याज्ञवल्क्य वेदाचार्य महर्षि वैशम्पायन के शिष्य हुए थे। इन्हीं से उन्हें मन्त्र शक्ति तथा वेद आदि का ज्ञान प्राप्त हुआ था।
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<nowiki>#</nowiki>ब्रह्मा_के_अवतार
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ऐसी मान्यता है कि याज्ञवल्क्य ब्रह्मा जी के अवतार थे। यज्ञ में पत्नी सावित्री की जगह गायत्री को स्थान देने पर सावित्री ने क्रोधवश इन्हें श्राप दे दिया। इस शाप के कारण ही वे कालान्तर में याज्ञवल्क्य के रूप में चारण ऋषि के यहाँ उत्पन्न हुए। वैशम्पायन जी से यजुर्वेद संहिता एवं ऋगवेद संहिता वाष्कल मुनि से पढ़ी। वैशम्पायन के रुष्ट हो जाने पर यजुः श्रुतियों को वमन कर दिया, तब सुरम्य मन्त्रों को अन्य ऋषियों ने तीतर बनकर ग्रहण कर लिया। तत्पश्चात् सूर्यनारायण भगवान से वेदाध्ययन किया।
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इनके वेद ज्ञान हो जाने पर लोग बड़े उत्कृष्ट प्रश्न करते थे, तब सूर्य ने कहा, "जो तुमसे अतिप्रश्न तथा वाद-विवाद करेगा, उसका सिर फट जायेगा। यह जानते हुवे भी शाकल्य ऋषि ने उपहास किया तो तुरंग उनका सिर फट गया।
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<nowiki>#</nowiki>Baba_Jageshwar_Nath_Temple_Hetimpur_Chakia
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/2NW63Enkmx2xhXU76</nowiki>
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<nowiki>#</nowiki>varanasi #swayambhu #kashi #chandraprabha
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<nowiki>#</nowiki>वृद्धकालेश्वर      #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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~वृद्धकालेश्वेर नाम लिङ्गं मेतन्म हीपतेः |
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जानीस्नादमिसंसिद्धिनिमित्तं किन्तु वैभवान् ||
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दर्शनात्स्प शैर्नात्त्स्य् पुजाना चक्ष्वणातन्नतेः |
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वृद्धकालेश्वेर लिङ्गे सेविते न दरिद्रता ||
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नोपसर्गा न रोगा न पापं नाघजं फ़लम्
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<nowiki>#</nowiki>काशी_खण्ड
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~यह वृद्धकालेश्वर नाम का लिंग जो अनादि और सिद्ध है । इस वृद्धकालेश्वर के दर्शन , स्पर्श , पूजन एवं नाम श्रवण तथा नमस्कार से व्यक्ति मनोवांछित फल को पा लेता है , और दरिद्रता दूर होती है । वृद्धकालेश्वर के दर्शन सेवन से न तो दंड मिलता है ना उपसर्ग आदि रोग , ना पाप , न पाप जन्य फल ही प्रभावी होता है ।
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<nowiki>#</nowiki>उज्जपित_महात्म्य के अनुसार
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मृत्युंजय मंदिर में एक वर्ष तक कालोदक कूप में स्नान कर वृद्धकालेश्वर के दर्शन करने से सभी प्रकार के मनोकामना सिद्ध होजाती है , और मुँहमाँगा वरदान मिलता है ।
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पता - मृत्युंजय मंदिर परिसर में ।
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<nowiki>#</nowiki>Mrityunjay_Mahadev #vriddhkaal_ling #kashi
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/rvGp9qvcvMMbM8Fh6</nowiki>
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~यत्र साक्षान्महादेवो देहान्ते क्षय मीश्वरः |
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व्याचष्टे तारकं ब्रह्म , तथैव ह्यविमुक्तकम् ||
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~काशी में साक्षात शंकर जी जीव को मरण समय मे तारक ब्रह्म मन्त्र का उपदेश देते है । इस प्रकार की मोक्षदायनी यह काशीपुरी अविमुक्त नाम से प्रसिद्ध है ।
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<nowiki>#</nowiki>कूर्म_पुराण
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<nowiki>#</nowiki>श्री_काशी_विश्वनाथ_ज्योतिर्लिंग_दर्शन
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<nowiki>#</nowiki>भूत_भैरव      #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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18/6/21 आज अष्टमी तिथि के दिन काशी में भैरव यात्रा का प्रचलन काफी प्राचीन समय से चला आरहा है ।
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ज्येष्ठ मास में अष्टमी तिथि में भिषण भैरव (भूत भैरव) के दर्शन करने से कुंडली के समस्त क्रूर ग्रह शांत हो जाते है ।
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<nowiki>#</nowiki>विनय_पांडेय_(फोटो में) जी को बहुत बहुत धन्यवाद इस मंदिर की महिमा बताने के लिए ।
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<nowiki>#</nowiki>पता- करनघन्टा मोह्हले के पास , भूत भैरव गली में(नखास) ।
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<nowiki>#</nowiki>सिद्धि_विनायक        #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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काशी के श्रेष्ठतम तीर्थ मणिकर्णिका पर स्थित सिद्धि विनायक के मंदिर में भक्तों की फरियाद तुरन्त सुनी जाती है ।
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स्कंद पुराण में ऐसा वर्णीत है कि यहां के भक्तों को सभी प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है,
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बुधवार को होता है विशेष दर्शन जिसमे स्थानीय लोग अपने सामर्थ अनुसार विविध प्रकार से पूजा करते है जिसके फल स्वरूप सिद्धि विनायक उनके समस्त विघ्न हर लेते है ।
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पता- मणिकर्णिका घाट पर चकरपुष्कर्णी कुंड के बगल की सीढ़ी से ऊपर जा कर , गौमठ , गढ़वासी टोला चौक वाराणसी।
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यहां ऐसी मान्यता है कि गणेश #अथर्वशीर्ष का पाठ करने से  1 हजार गुना ज्यादा फल मिलता है ।
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=== दशाश्वमेधेश्वर शूलटंकेश्वर (काशी खण्डोक्त) ===
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<nowiki>#</nowiki>ज्येष्ठ_मासशुक्लपक्ष_यात्रा
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~ज्येष्ठे मासि  सितेपक्षे पक्षं  रुद्रेसरे नमः |
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कुर्वन वार्षिकी यात्रा न विघ्ने रभिभुयते ||
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(#काशी_खण्डे #स्कन्द_पुराण )
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~ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में रुद्र सरोवर तीर्थ दशाश्वमेध घाट में शूलटंकेश्वर के सामने गंगा जी मे है , स्नान करके दशाश्वमेधेश्वर और शूलटंकेश्वर के दर्शन कर वार्षिक यात्रा करने वाला व्यक्ति विघ्नों से आक्रांत नही होता अथवा वह व्यक्ति निर्विघ्न काशीवास करता है ।
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~ज्येष्ठे शुक्ल द्वितीयायां स्नात्वा रुद्र्सरोवरे |
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जन्मद्वयकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यन्ति ||
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(#काशी_खण्डे #स्कन्द_पुराणे)
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~ज्येष्ठ मास के शुक्ल द्वितीया तिथि को रुद्र सरोवर में स्नान करने वाला व्यक्ति दो जन्मों तक पापों से मुक्त हो जाता है ।
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ज्येष्ठ शुक्ल आज से शुरू हो रहा है 11/6/21 से 24 /6/21 तक रहेगा
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ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीय कल 12/6/21 को है ।
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पता- दशाश्वमेधेश्वर शिव लिंग शीतला मंदिर में और शूलटंकेश्वर लिंग दशाश्वमेध घाट (सीढी के पास) पर ही है ।
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<nowiki>#</nowiki>shooltankeshwer
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<nowiki>#</nowiki>dashaswamedheshwer
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<nowiki>#</nowiki>Varshikyatra
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<nowiki>#</nowiki>Ghats
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=== स्कन्दपुराण शिवरहस्य ===
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जले स्थलो अन्तरिक्षे वा कुत्रापि वा मृता: | तारकं ज्ञान मासाद्य कैवल्यपद भागिनः ||
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काशी क्षेत्र में पृथ्वी , जल , आकाश आदि किसी जगह भी यदि मृत्यु हो तोह वह प्राणी भगवान के तारक मंत्रोपदेश द्वारा मोक्ष पद का भागी होता है ।
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आज ऐसा समय आगया जिसमे लोग काशी खण्डोक्त मंदिरों को कब्जा समझ रहे है , यह कब्ज़ा नही की गई है, हजारों , लाखो साल पहले से इन मंदिरों का अस्तित्व है ।
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काशी खण्डोक्त  होना आम बात नही है, स्कंदपुराण के काशी खण्ड में उसका जिक्र होना आवश्यक है ।
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काशीखंड स्कंद महापुराण का एक खंड जिसमें काशी का परिचय, माहात्म्य तथा उसके आधिदैविक स्वरूप का विशद वर्णन है। काशी को आनंदवन एंव वाराणसी नाम से भी जाना जाता है। इसकी महिमा का आख्यान स्वयं भगवान विश्वनाथ ने एक बार भगवती पार्वती जी से किया था, जिसे उनके पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) ने अपनी माँ की गोद में बैठे-बैठे सुना था।
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उसी महिमा का वर्णन कार्तिकेय ने कालांतर में अगस्त्य ऋषि से किया और वही कथा स्कंदपुराण के अंतर्गत काशीखंड में वर्णित है।
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काशीखंड में १०० अध्याय तथा ११,००० से ऊपर श्लोक हैं। इसके माध्यम से काशी के तत्कालीन भूगोल, पुरातन मंदिरों के निर्माण की कथाएँ, मंदिरों में स्थित देवी-देवताओं के परिचय, नगरी के इतिहास और उसकी परंपराओं को भली-भाँति समझा जा सकता है।
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=== ज्ञानवापी(कुँवा) और ईशानेश्वर (काशी खण्डोक्त) ===
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ईशानकोण के दिगपाल जिनका नाम ईशान (ईश) था , उन्होंने काशी वास् के दौरान अपने त्रिशूल से इस ज्ञानवापी का निर्माण किया था ।
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इसी ज्ञानवापी के जल से नित्य वह शिव जी का जलाभिषेक किया करते थे , जिसके फलस्वरूप इस कुंड के जल पानी अत्यंत ही निर्मल और आत्मिक ज्ञान को बढ़ाने वाला होगया था ।
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इस ज्ञानवापी के ज्ञान  की महिमा काशी खण्ड के अध्याय 33 में दी हुई है , जिसमे एक कलावती नाम की काशी की राजकुमारी जिसको उसकी पिछले जन्म की यादाश्त बस ज्ञानवापी कुंड पर हाथ रखते ही आगयी थी ।
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ज्ञानवापी का पानी पीना काफी पुण्यदायक और ज्ञानवर्धक माना गया है , यहां नित्य स्नान से मुक्ति और श्राद्ध करने से पित्रो को मुक्ति मिलती है (अब स्नान और श्राद्ध की सुविधा नही है यहां) ।
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<nowiki>#</nowiki>ज्ञानवापी  काशी विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में ही स्थित है
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=== ईशानेश्वर लिंग (काशी खण्डोक्त) ===
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दिगपाल ईशान (ईश) के द्वारा स्थापित यह शिव लिंग भी मुक्ति का कारक है , ज्ञानवापी से कुछ ही दूरी पर स्थित यह शिव लिंग भी मुक्ति देने में सक्षम है , यहां ऐसी मान्यता है कि जो भी व्यक्ति चतुर्थी के दिन व्रत राह कर रात्रि जागरण करता है तोह उसके जीवन मे सभी खुशियां और अंत मे मोक्ष प्राप्त करता है
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मंदिर के स्थान पर मॉल बन जाने से प्राचीन लिंग के जगह नया लिंग स्थापित किया गया है , लोग इसी का दर्शन पूजन करते है अब ।
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पता = बांसफाटक ढाल पर शाहपुरी मॉल में स्थित है ।
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=== महाबल नरसिंह (काशी खण्डोक्त) ===
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श्री बिन्दु माधव उवाचः
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महाबलनृसिन्होःहमोंकारात्पूर्वतो    मुने | दूतान महाबलान्याम्यान्न पश्येत्तु तदर्चकः ||
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श्री बिंदु माधव ने अग्निबिन्दु ऋषि से कहा-
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हे मुने ! ओंकारेश्वर के पूर्वभाग में मैं ही महाबल नृसिंग के नाम से वास करता हूँ । मेरी पूजा करने वाला नर कभी यमराज के महाबली दूतों को नही देख पाता।
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काशी में अग्निबिन्दु ऋषि के पूछने पर श्री हरि विष्णु (बिंदु माधव) ने उनसे अपने कई रूपो और स्थानों का वर्णन किया था जिसमे की महाबल नर्सिंग का भी उल्लेख किया ।
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क्योंकि शिव ही विष्णु है और विष्णु ही शिव है , यह काशी नगरी में पहले श्री हरि विष्णु जी वास करते थे । बाद में काशी शिव जी की नगरी हुई ।
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महाबल नृसिंग काशी में अपने भक्तों की हमेशा रक्षा करते है और उनको मुक्ति का दान देते है ।
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अधिकतर लोग जो काशी के यात्राओं में रुचि रखते है वह यहां हर एकादशी  और हर साल नृसिंग जयंती पर यहां दर्शन जरूर करते है ।
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पता- त्रिलोचन घाट पर कामेश्वर महादेव मंदिर प्रांगण में , मछोदरी , वाराणसी
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