Srushti ki utapatti (सृष्टि की उत्पत्ति)

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सृष्टि की उत्पत्ति

ऋग्वेद में अनेक ऋषि-मुनियों जैसे-प्रजापति, परमेष्ठी नारायण तथा दीर्घतमा आदि ने सृष्टि रचना की आरंभिक अवस्था का वर्णन किया है।

हमारे ऋगवेद में नासदीय सूक्त तथा पुरुष सूक्त में सृष्टि रचना का उल्लेख मिलता है। पुरुष सूक्त के अनुसार विराट पुरुष से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। पुरुष सूक्त में नारायण ऋषि ने परम शक्ति परमात्मा की रचनात्मक शक्ति तथा सर्वव्यापकता का वर्णन किया है :

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्‌ स भूमिं विश्वतोवृत्वात्यतिष्दृशाडलम्‌

  टिप्पणी (ऋग्वेद, 10.90.1)

उक्त ऋचा में कहा गया हे सर्वशक्तिमान परमात्मा हजारों सिर वाला, हजारों नयन वाला तथा हजारों पादयुक्‍्त है, वो पूरे ब्रहाण्ड में व्याप्त है। परमात्मा जो कि जगत का निर्माता है, ने संपूर्ण प्रकृति को चारों तरफ से अपने स्वरुप से घेर रखा है। सम्पूर्ण प्रकृति को सब तरफ से घेर लेने के बाद भी वह इससे दश अंगुल पर शोभायमान होकर स्थित है। यहाँ पर सर्वशक्तिमान की कार्यरत शक्तियों के माध्यम से सृष्टि की रचना बताई गई है।

ऋग्वेद के ऋषि दीघतमा ने सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्य को उद्घाटित करते हुए कहा हे-

“द्वा सुपर्ण सयुजा सखया समानं वृक्षं परिषज्वजाते

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।।

  (ऋग्वेद 1.164.20)

अर्थात दो पक्षी एक ही वृक्ष पर पास-पास में बैठे हैं। इन दोनों पक्षियों में से एक पक्षी उस वृक्ष के फलों को चख कर स्वाद ले रहा है जबकि दूसरा पक्षी फलों को न खाते हुए उन फलों को खा रहे पहले पक्षी की गतिविधियों का सूक्ष्म निरीक्षण कर रहा है। इसमें जो पहला पक्षी है वह जीवात्मा का रुपक है, जो कर्म कर रहा है जबकि दूसरा निरीक्षण करने वाला पक्षी परमात्मा का रुपक है, जो उस पहले पक्षी को उसके कर्मो के हिसाब से फल देने के लिए उसकी गतिविधियों को सूक्ष्म निरीक्षण कर रहा है। इस ऋचा से यह व्यक्‍त होता है कि सृष्टि के निर्माण में दो प्रमुख तत्व है। अथर्ववेद के अनुसार सृष्टि प्रक्रिया में तीन प्रमुख तत्वों का उल्लेख मिलता हे-

"बालात्‌ एफम्‌ अणीयस्कम्‌ उत्‌ एवं नैव दृश्यते। ततःपरिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।।''

( अथर्ववेद 10.8.25)

अर्थात्‌-एक तत्त्व ऐसा है जो सूक्ष्म बाल से भी अति सूक्ष्म है, अणुतम है। यहजीव का रुपक है। दूसरा तत्त्व इतना अधिक सूक्ष्म है कि वह इन्द्रियातीत है।

यह सूक्ष्म अदुश्य प्रकृत्ति का रुपक है। तीसरा तत्त्व वह जिसमें प्रकृति को आलिंगनबद्ध किया हुआ हे। यही तीसरा तत्त्व सर्वव्यापक परमशक्तिमान मेरा प्रिय देवता हेै।


ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में प्रजापति परमेष्ठी के मतानुसार सृष्टि रचना के प्रारंभिक काल में एक “*स्वधा'' नामक पदार्थ था जो तरल अवस्था में था जिससे ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई हे-

यानीदवातं स्वधया तदेक तस्मादन्यन्न्परः किं चनास।''   (ऋग्वेद 10.129.2)

अर्थात्‌ अपनी अन्तर्निहित शक्तियों मात्र से उस एक ने बिना प्राणवायु के श्वास लिया। अर्थात्‌ उस एक के अलावा किसी की भी सत्ता नहीं थी।

“तम आसीत्रमसा मुलहमग्रेडप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्‌''

  (ऋग्वेद 10.129.3)

अर्थात्‌ सृष्टि रचाना से पहले प्रारंभ में गहन अंधेरा ढका हुआ था। केवल मात्र वही अतिसृक्ष्म तरल पदार्थ था।

उस तरल गतिमान पदार्थ की प्रकृति का वर्णन करते हुए ऋग्वेद को दीर्घतमा ऋषि कहते हैं कि-

“यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उयन्तसमुद्रादुत वा दुरीषात्‌ श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्पं महि जातं ते अर्वन्‌”

                                     (ऋग्वेद 1.163.1)


अर्थात्‌ सृष्टि के प्रारंभ में जो तत्त्व उत्पन्न हुआ यह घोर शब्द करता हुआ, सूर्य सदृश्य प्रकाशमान, बाज की बाहों की तरह विस्तीर्ण तथा हिरण के पैरों की तरह अत्यन्त वेग से ऊपर उठता हुआ चारों तरफ फैल गया तथा सर्वत्र फैल गया।