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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
भारत में समाज चिंतन की प्रदीर्घ परम्परा है। चिरंतन या शाश्वत तत्त्वों के आधार पर युगानुकूल और देशानुकूल जीवन का विचार यह हर काल में हम करते आए हैं। लगभग १४००-१५०० वर्ष की हमारे समाज के अस्तित्व की लड़ाई के कारण यह चिंतन खंडित हो गया था। वर्तमान के सन्दर्भ में पुन: ऐसे समाज चिंतन की आवश्यकता निर्माण हुई हैं:  
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भारत में समाज चिंतन की प्रदीर्घ परम्परा है। चिरंतन या शाश्वत तत्वों के आधार पर युगानुकूल और देशानुकूल जीवन का विचार यह हर काल में हम करते आए हैं। लगभग १४००-१५०० वर्ष की हमारे समाज के अस्तित्व की लड़ाई के कारण यह चिंतन खंडित हो गया था। वर्तमान के सन्दर्भ में पुन: ऐसे समाज चिंतन की आवश्यकता निर्माण हुई हैं:  
 
# वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है।  
 
# वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है।  
 
# वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है।  
 
# वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है।  
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<li> शासन : सुरक्षा, धर्म का अनुपालन करवाना एवं विशेष आपात परिस्थितियों में धर्म के मार्गदर्शन में पहल करना आवश्यक। न्याय व्यवस्था शासन का ही एक अंग है।  
 
<li> शासन : सुरक्षा, धर्म का अनुपालन करवाना एवं विशेष आपात परिस्थितियों में धर्म के मार्गदर्शन में पहल करना आवश्यक। न्याय व्यवस्था शासन का ही एक अंग है।  
<li> समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से समाज में व्यावसायिक कौशलों का विकास करना होता है। प्रत्येक व्यक्ति के जन्मजात ‘स्व’भाव और जन्मजात व्यावसायिक कौशल का निर्माण परमात्मा सन्तुलन  के साथ करता है। इन की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन का सन्तुलन बनाए रखने के लिए इन्हें आनुवांशिक बनाने से अधिक सरल उपाय अबतक नहीं मिला है। ३.
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<li> समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से समाज में व्यावसायिक कौशलों का विकास करना होता है। प्रत्येक व्यक्ति के जन्मजात ‘स्व’भाव और जन्मजात व्यावसायिक कौशल का निर्माण परमात्मा सन्तुलन  के साथ करता है। इन की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन का सन्तुलन बनाए रखने के लिए इन्हें आनुवांशिक बनाने से अधिक सरल उपाय अबतक नहीं मिला है।
 
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== समाजधारणा के लिए मार्गदर्शक बातें ==
 
== समाजधारणा के लिए मार्गदर्शक बातें ==
३.१ तत्त्वज्ञान और जीवन दृष्टी
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# तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि: तत्व : चर-अचर सृष्टि यह परमात्मा की ही भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसलिए चराचर में एकात्मता व्याप्त है। परमात्मा यह सारी सृष्टि का मूल “तत्व” है। इस तत्व का ज्ञान ही तत्वज्ञान है। जीवन दृष्टि : इस तत्वज्ञान से भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र उभरकर आते हैं, वे निम्न हैं:
तत्त्व : चर-अचर सृष्टि यह परमात्मा की ही भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसलिए चराचर में एकात्मता व्याप्त है। परमात्मा यह सारी सृष्टी का मूल “तत्त्व” है। इस तत्त्व का ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है।
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## चर और अचर सृष्टि एक ही आत्मतत्व से बनी होने के कारण सभी अस्तित्व एकात्म हैं। एकात्मता याने आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है।
जीवन दृष्टी : इस तत्त्वज्ञानसे भारतीय जीवन दृष्टी के सूत्र उभरकर आते हैं, वे निम्न हैं।
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## जीवन स्थल के सम्बन्ध में अखंड और काल के सन्दर्भ में एक है। सृष्टि के चर-अचर ऐसे सभी अस्तित्व परस्पर सम्बद्ध हैं। तथा जीवन पहले जन्म से लेकर अंतिम जन्मतक एक होता है।
३.१.१ चर और अचर सृष्टी एक ही आत्मतत्त्व से बनी होने के कारण सभी अस्तित्व एकात्म हैं। एकात्मता याने आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है।
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## कर्म ही जीवन का नियमन करते हैं। कर्म सिद्धांत इस नियमन का विवरण करता है।  
३.१.२ जीवन स्थल के सम्बन्ध में अखंड और काल के सन्दर्भ में एक है। सृष्टि के चर-अचर ऐसे सभी अस्तित्व परस्पर सम्बद्ध हैं। तथा जीवन पहले जन्म से लेकर अंतिम जन्मतक एक होता है।
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## सृष्टि की व्यवस्थाओं में चक्रियता है। उत्पत्ति-स्थिति-लय का चक्र चलता रहता है।  
3.1.३ कर्म ही जीवन का नियमन करते हैं। कर्म सिद्धांत इस नियमन का विवरण करता है।  
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## सुख की खोज ही मनुष्य की मूलभूत व प्रमुख प्रेरणा है। परमसुख की प्राप्ति ही मुक्ति, परमात्मपद प्राप्ति, परमात्मा से सात्म्य, पूर्णत्व, व्यक्ति का समग्र विकास आदि नामों से जाना जाता है।  
३.१.४ सृष्टि की व्यवस्थाओं में चक्रियता है। उत्पत्ति-स्थिति-लय का चक्र चलता रहता है।  
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# जीवनशैली के महत्वपूर्ण सूत्र इन सूत्रों की विशेषता यह है की किसी भी एक सूत्र को पूरी तरह जान लेने से तथा व्यवहार में लाने से अन्य सभी सूत्र अपने आप व्यवहार में आ जाते हैं। यह प्रत्येक सूत्र अपने आप में जीवन के लक्ष्य की याने मोक्ष की प्राप्ति के लिये पर्याप्त है:
३.१.५ सुख की खोज ही मनुष्य की मूलभूत व प्रमुख प्रेरणा है। परमसुख की प्राप्ति ही मुक्ति, परमात्मपद प्राप्ति, परमात्मा से सात्म्य, पूर्णत्व, व्यक्ति का समग्र विकास आदि नामों से जाना जाता है।  
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#* सर्वे भवन्तु सुखिन:
3.2 जीवनशैली के महत्वपूर्ण सूत्र इन सूत्रों की विशेषता यह है की किसी भी एक सूत्र को पूरी तरह जान लेने से तथा व्यवहार में लाने से अन्य सभी सूत्र अपने आप व्यवहार में आ जाते हैं। यह प्रत्येक सूत्र अपने आप में जीवन के लक्ष्य की याने मोक्ष की प्राप्ति के लिये पर्याप्त है।
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#* नर करनी करे तो नारायण बन जाए
- सर्वे भवन्तु सुखिन: - नर करनी करे तो नारायण बन जाए
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#* आत्मवत् सर्वभूतेषू
- आत्मवत् सर्वभूतेषू - वसुधैव कुटुम्बकम्
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#* वसुधैव कुटुम्बकम्
- कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - पुरूषार्थ चतुष्ट्य  
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#* कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
- ऋण सिद्धांत। कर्मसिद्धांत इसी को विषद करता है। - अष्टांग योग ... आदि।
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#* पुरूषार्थ चतुष्ट्य
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#* ऋण सिद्धांत। कर्मसिद्धांत इसी को विषद करता है।
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#* अष्टांग योग
    
== सामाजिक मान्यताएँ ==
 
== सामाजिक मान्यताएँ ==
 
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उपर्युक्त जीवनदृष्टी के कारण निम्न मान्यताएँ निर्माण होतीं है।
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उपर्युक्त जीवनदृष्टि के कारण निम्न मान्यताएँ निर्माण होतीं है।
 
४.1 वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत जैसे भारतीय और सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुकूल अन्य भारतीय और अभारतीय विचार भी स्वीकारार्ह हैं।
 
४.1 वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत जैसे भारतीय और सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुकूल अन्य भारतीय और अभारतीय विचार भी स्वीकारार्ह हैं।
 
४.२ आज के प्रश्नों के उत्तर अपनी जीवनदृष्टि तथा आधुनिक ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को आत्मसात कर उनका समाजहित के लिए सदुपयोग करने से प्राप्त होंगे। वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान सहित जीवन के सभी अंगों और उपांगों का अंगी अध्यात्म विज्ञान है।
 
४.२ आज के प्रश्नों के उत्तर अपनी जीवनदृष्टि तथा आधुनिक ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को आत्मसात कर उनका समाजहित के लिए सदुपयोग करने से प्राप्त होंगे। वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान सहित जीवन के सभी अंगों और उपांगों का अंगी अध्यात्म विज्ञान है।
 
४.3 समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पडेगा।
 
४.3 समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पडेगा।
४.४ समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टी की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्माने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है(गीता ३.१०)। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे(गीता ३-११)।
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४.४ समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टि की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्माने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है(गीता ३.१०)। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे(गीता ३-११)।
 
४.५ सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयसकी ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं। ज्ञान और विज्ञान। परा और अपरा (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है।
 
४.५ सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयसकी ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं। ज्ञान और विज्ञान। परा और अपरा (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है।
 
४.६ धर्म की व्याख्या ‘धारयति इति धर्म:’ है। धर्म का अर्थ समाजधारणा के लिए उपयुक्त वैश्विक नियमों का समूह होता है। विशेष स्थल, काल और परिस्थिति के लिए आपद्धर्म होता है।  
 
४.६ धर्म की व्याख्या ‘धारयति इति धर्म:’ है। धर्म का अर्थ समाजधारणा के लिए उपयुक्त वैश्विक नियमों का समूह होता है। विशेष स्थल, काल और परिस्थिति के लिए आपद्धर्म होता है।  
 
४.७ सामाजिक हित की दृष्टि से आवश्यक/महत्वपूर्ण सुधार समाजमानस में परिवर्तन के द्वारा होते हैं।
 
४.७ सामाजिक हित की दृष्टि से आवश्यक/महत्वपूर्ण सुधार समाजमानस में परिवर्तन के द्वारा होते हैं।
 
४.८ व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चारित्र्य का निर्माण सुयोग्य समाजधारणा का आवश्यक अंग है। सदाचार, स्वतंत्रता, स्वदेशी, सादगी, स्वच्छता, स्वावलंबन, सहजता, श्रमप्रतिष्ठा ये समाज में वांछित बातें हैं।  
 
४.८ व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चारित्र्य का निर्माण सुयोग्य समाजधारणा का आवश्यक अंग है। सदाचार, स्वतंत्रता, स्वदेशी, सादगी, स्वच्छता, स्वावलंबन, सहजता, श्रमप्रतिष्ठा ये समाज में वांछित बातें हैं।  
४.९ शिक्षा का उद्देश्य : प्रत्येक व्यक्ति में एकही परमात्मा है यह आत्मौपम्य बु़द्धि जगाने का, जीवनदृष्टी को व्यवहारमें उतारकर अभ्युदय(भौतिक समृद्धि) तथा परम सुख की प्राप्तिका मार्ग धर्माचरणही है। धर्म सिखाने के लिए पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा और शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से बने चतुर्विध व्यक्तित्व में मन की शिक्षा, शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं।  
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४.९ शिक्षा का उद्देश्य : प्रत्येक व्यक्ति में एकही परमात्मा है यह आत्मौपम्य बु़द्धि जगाने का, जीवनदृष्टि को व्यवहारमें उतारकर अभ्युदय(भौतिक समृद्धि) तथा परम सुख की प्राप्तिका मार्ग धर्माचरणही है। धर्म सिखाने के लिए पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा और शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से बने चतुर्विध व्यक्तित्व में मन की शिक्षा, शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं।  
४.१० समाज (समष्टी) के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर, सृष्टी के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर यह मानव और मानव समाज के विकास का भारतीय मापदंड है। व्यक्तिवादिता या जंगल का क़ानून होने से स्पर्धा आती है। कुटुम्ब भावना के विकास से स्पर्धा का निराकरण अपने आप हो जाता है।  
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४.१० समाज (समष्टी) के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर, सृष्टि के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर यह मानव और मानव समाज के विकास का भारतीय मापदंड है। व्यक्तिवादिता या जंगल का क़ानून होने से स्पर्धा आती है। कुटुम्ब भावना के विकास से स्पर्धा का निराकरण अपने आप हो जाता है।  
 
४.११ प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार विकास का समान अवसर मिलना चाहिए।
 
४.११ प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार विकास का समान अवसर मिलना चाहिए।
 
४.१२ राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सुख के लिए संस्कृति और समृद्धि दोनों आवश्यक हैं। संस्कृति के बिना समृद्धि मनुष्य को आसुरी बना देती है। और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती।  
 
४.१२ राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सुख के लिए संस्कृति और समृद्धि दोनों आवश्यक हैं। संस्कृति के बिना समृद्धि मनुष्य को आसुरी बना देती है। और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती।  
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४.२५ सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है।
 
४.२५ सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है।
 
४.२६ किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडोंपर आँकी जानी चाहिए।
 
४.२६ किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडोंपर आँकी जानी चाहिए।
४.२७ समान जीवनदृष्टी वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टी की और इस जीवन दृष्टी के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है।  
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४.२७ समान जीवनदृष्टि वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टि की और इस जीवन दृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है।  
 
४.२८ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो।  
 
४.२८ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो।  
 
४.२९ सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है।
 
४.२९ सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है।
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== सम्यक् विकास के सूत्र ==
 
== सम्यक् विकास के सूत्र ==
   सम्यक विकास की भारतीय मान्यता व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टीगत ऐसे तीनों के विकास की है।   
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   सम्यक विकास की भारतीय मान्यता व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टिगत ऐसे तीनों के विकास की है।   
 
५.१ न्यूनतम उपभोग से मतलब उस उपभोग से है जिससे कम उपभोग के कारण मनुष्य की स्वाभाविक क्षमताओं को हानी होती हो। ऐसे धर्म अविरोधी न्यूनतम उपभोग की मानसिकता निर्माण करना यह शिक्षा का काम है।  
 
५.१ न्यूनतम उपभोग से मतलब उस उपभोग से है जिससे कम उपभोग के कारण मनुष्य की स्वाभाविक क्षमताओं को हानी होती हो। ऐसे धर्म अविरोधी न्यूनतम उपभोग की मानसिकता निर्माण करना यह शिक्षा का काम है।  
 
५.२ भौतिक समृद्धि की सीमा धारणाक्षम उपभोग के स्तर से तय होगी।  
 
५.२ भौतिक समृद्धि की सीमा धारणाक्षम उपभोग के स्तर से तय होगी।  
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६.७. शिक्षा सभी विषयों को जीवन की समग्रता के सन्दर्भ में समझने के लिए होती है। कंठस्थीकरण के साथ ही प्रयोग, आत्मसातीकरण तथा संस्कार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक संगठनों और व्यवस्थाओं का संचालन करने के लिए श्रेष्ठ लोग निर्माण करना भी शिक्षा का ही काम है।
 
६.७. शिक्षा सभी विषयों को जीवन की समग्रता के सन्दर्भ में समझने के लिए होती है। कंठस्थीकरण के साथ ही प्रयोग, आत्मसातीकरण तथा संस्कार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक संगठनों और व्यवस्थाओं का संचालन करने के लिए श्रेष्ठ लोग निर्माण करना भी शिक्षा का ही काम है।
 
६.८ शिक्षा जन्मजन्मान्तर तथा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। शिक्षा तो धर्माचरण की ही होगी। आयु की अवस्था के अनुसार उसका स्वरूप कुछ भिन्न होगा। पाठ्यक्रम में एकात्मता और सातत्य होना चाहिए।
 
६.८ शिक्षा जन्मजन्मान्तर तथा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। शिक्षा तो धर्माचरण की ही होगी। आयु की अवस्था के अनुसार उसका स्वरूप कुछ भिन्न होगा। पाठ्यक्रम में एकात्मता और सातत्य होना चाहिए।
६.९ हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज की जीवन दृष्टी के अनुसार ही होता है। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता।
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६.९ हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज की जीवन दृष्टि के अनुसार ही होता है। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता।
 
६.१० मूलत: प्रत्येक व्यक्ति सर्वज्ञानी है। ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित होता है। उसके प्रकटीकरण की प्रक्रिया शिक्षा है।  
 
६.१० मूलत: प्रत्येक व्यक्ति सर्वज्ञानी है। ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित होता है। उसके प्रकटीकरण की प्रक्रिया शिक्षा है।  
    
== अर्थव्यवहार के सूत्र ==
 
== अर्थव्यवहार के सूत्र ==
इस सन्दर्भ में सम्यक विकास के सभी बिंदु प्राथमिकता से लागू हैं। इसके अलावा समृद्धि व्यवस्था की दृष्टी से निम्न बिन्दु भी विचारणीय हैं।
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इस सन्दर्भ में सम्यक विकास के सभी बिंदु प्राथमिकता से लागू हैं। इसके अलावा समृद्धि व्यवस्था की दृष्टि से निम्न बिन्दु भी विचारणीय हैं।
 
७.१ कामनाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन सभी धर्म के अनुकूल होने चाहिए।
 
७.१ कामनाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन सभी धर्म के अनुकूल होने चाहिए।
 
७.२ कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हित में नियंत्रित करता है। बडी जोईंट स्टोक कम्पनियां समाज को आक्रामक, अनैतिक, महँगे विज्ञापनोंद्वारा अपने हित में नियंत्रित करती हैं।  
 
७.२ कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हित में नियंत्रित करता है। बडी जोईंट स्टोक कम्पनियां समाज को आक्रामक, अनैतिक, महँगे विज्ञापनोंद्वारा अपने हित में नियंत्रित करती हैं।  
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७.२० सुखस्य मूलम् धर्म:। धर्मस्य मूलम् अर्थ:। अर्थस्य मूलम राज्यं।राज्यस्य मूलम् इन्द्रीयजय। इन्द्रीयाजयास्य मूलम् विनयम्। विनयस्य मूलम् वृद्धोपसेवा। वृद्धसेवायां विज्ञानम्। विज्ञानेनात्मानम् सम्पादयेत्। संपादितात्मा जितात्मा भवति।   
 
७.२० सुखस्य मूलम् धर्म:। धर्मस्य मूलम् अर्थ:। अर्थस्य मूलम राज्यं।राज्यस्य मूलम् इन्द्रीयजय। इन्द्रीयाजयास्य मूलम् विनयम्। विनयस्य मूलम् वृद्धोपसेवा। वृद्धसेवायां विज्ञानम्। विज्ञानेनात्मानम् सम्पादयेत्। संपादितात्मा जितात्मा भवति।   
 
७.२१ विज्ञापनबाजी वर्जित हो।
 
७.२१ विज्ञापनबाजी वर्जित हो।
७.२२ वैश्विक स्थितियों को ध्यान में रखकर हमें सामरिक दृष्टी से सबसे बलवान बनना आवश्यक है। ऐसा समर्थ बनकर अपने श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण विश्व के सामने उपस्थित करना होगा।  
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७.२२ वैश्विक स्थितियों को ध्यान में रखकर हमें सामरिक दृष्टि से सबसे बलवान बनना आवश्यक है। ऐसा समर्थ बनकर अपने श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण विश्व के सामने उपस्थित करना होगा।  
७.२३ वर्तमान प्रदूषण निवारण की दृष्टी अपक्व है। केवल जल, हवा और भूमि के प्रदूषण की बात होती है। वास्तव में इन के साथ ही जबतक पंचमहाभूतों में से शेष बचे हुए तेज और आकाश इन महाभूतों के प्रदूषण का भी विचार आवश्यक है। वास्तव में प्रदूषित मन और बुद्धि ही समूचे प्रदूषण की जड़ हैं।  
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७.२३ वर्तमान प्रदूषण निवारण की दृष्टि अपक्व है। केवल जल, हवा और भूमि के प्रदूषण की बात होती है। वास्तव में इन के साथ ही जबतक पंचमहाभूतों में से शेष बचे हुए तेज और आकाश इन महाभूतों के प्रदूषण का भी विचार आवश्यक है। वास्तव में प्रदूषित मन और बुद्धि ही समूचे प्रदूषण की जड़ हैं।  
    
== अभिशासन (Governance) ==
 
== अभिशासन (Governance) ==
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८.८ शासनिक स्वतन्त्रता हो। याने प्रजा की स्वाभाविक गतिविधियों में शासन का हस्तक्षेप नहीं हो।  
 
८.८ शासनिक स्वतन्त्रता हो। याने प्रजा की स्वाभाविक गतिविधियों में शासन का हस्तक्षेप नहीं हो।  
 
८.९ धर्म और शिक्षा के पंडितों को तथा उन के श्रेष्ठ केन्द्रों को सहायता, समर्थन, सुरक्षा प्राप्त हो यह शासन का कर्तव्य है।  
 
८.९ धर्म और शिक्षा के पंडितों को तथा उन के श्रेष्ठ केन्द्रों को सहायता, समर्थन, सुरक्षा प्राप्त हो यह शासन का कर्तव्य है।  
८.१० धर्म व्यवस्थाद्वारा मार्गदर्शित संगठन और व्यवस्थाओं के नियमों का दुष्ट और मूर्खों से अनुपालन करवाना शासन का काम है। इस दृष्टी से पर-राज्यों से सम्बन्ध, वहाँ के भी सज्जन तथा दुष्ट और मूर्खों की गतिविधियाँ जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था सक्षम हो।
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८.१० धर्म व्यवस्थाद्वारा मार्गदर्शित संगठन और व्यवस्थाओं के नियमों का दुष्ट और मूर्खों से अनुपालन करवाना शासन का काम है। इस दृष्टि से पर-राज्यों से सम्बन्ध, वहाँ के भी सज्जन तथा दुष्ट और मूर्खों की गतिविधियाँ जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था सक्षम हो।
 
८.११ प्रशासन की दृष्टि से देश/राज्य के विभाग बनाये जाए। ग्राम स्तरपर प्रशासन की भूमिका केवल कर वसूली करने की हो। आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थितीमें शासन हस्तक्षेप करे।  
 
८.११ प्रशासन की दृष्टि से देश/राज्य के विभाग बनाये जाए। ग्राम स्तरपर प्रशासन की भूमिका केवल कर वसूली करने की हो। आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थितीमें शासन हस्तक्षेप करे।  
 
८.१२ शासक धर्म के मर्म को समझनेवाला, इंद्रियजयी, विवेकवान, शूरवीर, निर्भय, प्रजाहितदक्ष, चतुर एवं कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही, लोगों की अच्छी पहचान रखनेवाला, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।
 
८.१२ शासक धर्म के मर्म को समझनेवाला, इंद्रियजयी, विवेकवान, शूरवीर, निर्भय, प्रजाहितदक्ष, चतुर एवं कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही, लोगों की अच्छी पहचान रखनेवाला, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।
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   १०.५.१ श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन : श्रेष्ठ परंपरा निर्माण से श्रेष्ठता का सातत्य बना रहता है। सातत्य से स्वभाव बनता है। इसलिए श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ पिता-पुत्र, श्रेष्ठ माता-पुत्री, श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ राजा-राजपुत्र, श्रेष्ठ वणिक – वणिकपुत्रों की, त्याग की, तपस्या की, दान की, ज्ञानकी, कौशलोंकी, कला-कारीगरीकी, रीती-रिवाजोंकी आदि परम्पराओं का विकास और निर्वहन समाज या राष्ट्र की दीर्घायु के लिए आवश्यक होता है।
 
   १०.५.१ श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन : श्रेष्ठ परंपरा निर्माण से श्रेष्ठता का सातत्य बना रहता है। सातत्य से स्वभाव बनता है। इसलिए श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ पिता-पुत्र, श्रेष्ठ माता-पुत्री, श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ राजा-राजपुत्र, श्रेष्ठ वणिक – वणिकपुत्रों की, त्याग की, तपस्या की, दान की, ज्ञानकी, कौशलोंकी, कला-कारीगरीकी, रीती-रिवाजोंकी आदि परम्पराओं का विकास और निर्वहन समाज या राष्ट्र की दीर्घायु के लिए आवश्यक होता है।
 
   १०.५.२ मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था : काल के प्रवाह में श्रेष्ठ परम्पराएं नष्ट या भ्रष्ट हो जातीं हैं। परम्पराओं को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिये निरंतर मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था होनी चाहिए।
 
   १०.५.२ मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था : काल के प्रवाह में श्रेष्ठ परम्पराएं नष्ट या भ्रष्ट हो जातीं हैं। परम्पराओं को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिये निरंतर मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था होनी चाहिए।
   १०.५.३ भौगोलिक और संख्यात्मक वृद्धि व्यवस्था : अपने जैसी जीवनदृष्टि वाले समाज की जनसंख्या में और ऐसा समाज जिस भूमिपर रहता है उस भूमि के क्षेत्र में भी वृद्धि से राष्ट्र वर्धिष्णू रहता है। चिरंजीवी बनता है। इस के कारक तत्त्व निम्न हैं।  
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   १०.५.३ भौगोलिक और संख्यात्मक वृद्धि व्यवस्था : अपने जैसी जीवनदृष्टि वाले समाज की जनसंख्या में और ऐसा समाज जिस भूमिपर रहता है उस भूमि के क्षेत्र में भी वृद्धि से राष्ट्र वर्धिष्णू रहता है। चिरंजीवी बनता है। इस के कारक तत्व निम्न हैं।  
 
  १०.५.३.१  विश्व के अन्य समाजों का भारतीय व्यापारियों के व्यवहार से प्रभावित होना।  
 
  १०.५.३.१  विश्व के अन्य समाजों का भारतीय व्यापारियों के व्यवहार से प्रभावित होना।  
 
     १०.५.३.२ श्रेष्ठ भारतीय विद्याकेंद्रों के माध्यम से अन्य समाजों का लाभान्वित और प्रभावित होना ।  
 
     १०.५.३.२ श्रेष्ठ भारतीय विद्याकेंद्रों के माध्यम से अन्य समाजों का लाभान्वित और प्रभावित होना ।  
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     ११.५.२ स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धनका अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।  
 
     ११.५.२ स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धनका अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।  
 
   ११.५.३ विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है।  
 
   ११.५.३ विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है।  
११.६  कारक तत्त्व : कारक तत्वों से मतलब है धर्मपालन में सहायता देनेवाले घटक। ये निम्न होते हैं।
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११.६  कारक तत्व : कारक तत्वों से मतलब है धर्मपालन में सहायता देनेवाले घटक। ये निम्न होते हैं।
 
   ११.६.१ धर्म व्यवस्था : शासन धर्मनिष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना धर्म व्यवस्था की जिम्मेदारी है। अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान, लोकसंग्रह, चराचर के हित का चिन्तन, समर्पण भाव और कार्यकुशलता के आधारपर समाज से प्राप्त समर्थन प्राप्त कर वह देखे की कोई अयोग्य व्यक्ति शासक नहीं बनें।
 
   ११.६.१ धर्म व्यवस्था : शासन धर्मनिष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना धर्म व्यवस्था की जिम्मेदारी है। अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान, लोकसंग्रह, चराचर के हित का चिन्तन, समर्पण भाव और कार्यकुशलता के आधारपर समाज से प्राप्त समर्थन प्राप्त कर वह देखे की कोई अयोग्य व्यक्ति शासक नहीं बनें।
 
   ११.६.२ शिक्षा : ११.६.१.१ कुटुम्ब शिक्षा ११.६.१.२ विद्याकेन्द्र की शिक्षा ११.६.१.३ लोकशिक्षा  
 
   ११.६.२ शिक्षा : ११.६.१.१ कुटुम्ब शिक्षा ११.६.१.२ विद्याकेन्द्र की शिक्षा ११.६.१.३ लोकशिक्षा  
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