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जड़ जगत यानी पृथ्वी, वायू, वरूण, अग्नि आदि देवताओं के विषय में मानव के और मानव समाज के संबंधों का विवरण ऊपर सृष्टि निर्माण की मान्यता में दिया है। पशू पक्षी, प्राणि वनस्पति आदि सजीवों के साथ संबंधों के बारे में भी बताया गया है कि सारी चराचर सृष्टि ही परमतत्व से बनीं है इसलिये इस में पूज्य भाव रखना चाहिये। इसीलिये साँप की पूजा, वटवृक्ष की पूजा, बेल, दूब आदि प्रकृति के घटकों के प्रति पवित्रता की भावना रखना आवश्यक है। आयुर्वेद में तो कहा गया है कि ऐसा कोई भी पेड, पौधा, जड़ी, बूटी नहीं है जिसका औषधी उपयोग नहीं है। और ऐसा किसी भी वनस्पति का उपयोग करने से पहले उस से प्रार्थना कर उस से क्षमा माँगने के उपरांत ही उस से छाल, पत्ते, फूल, मूल, फल या लकडी लेनी चाहिये।
 
जड़ जगत यानी पृथ्वी, वायू, वरूण, अग्नि आदि देवताओं के विषय में मानव के और मानव समाज के संबंधों का विवरण ऊपर सृष्टि निर्माण की मान्यता में दिया है। पशू पक्षी, प्राणि वनस्पति आदि सजीवों के साथ संबंधों के बारे में भी बताया गया है कि सारी चराचर सृष्टि ही परमतत्व से बनीं है इसलिये इस में पूज्य भाव रखना चाहिये। इसीलिये साँप की पूजा, वटवृक्ष की पूजा, बेल, दूब आदि प्रकृति के घटकों के प्रति पवित्रता की भावना रखना आवश्यक है। आयुर्वेद में तो कहा गया है कि ऐसा कोई भी पेड, पौधा, जड़ी, बूटी नहीं है जिसका औषधी उपयोग नहीं है। और ऐसा किसी भी वनस्पति का उपयोग करने से पहले उस से प्रार्थना कर उस से क्षमा माँगने के उपरांत ही उस से छाल, पत्ते, फूल, मूल, फल या लकडी लेनी चाहिये।
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सृष्टि के अन्य सब जीव भोग योनि के होते हैं। वे नहीं तो सृष्टि को बिगाडने की और न ही बिगडी हुई प्रकृति को सुधारने की क्षमता रखते हैं। केवल मानव योनि ही कर्म योनि है। इसे वह क्षमताएँ प्राप्त हैं की यह अपनी इच्छानुरूप प्रकृति के साथ व्यवहार कर सके। इसलिये हर मानव का यह व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत कर्तव्य बनता है कि अपने चिरंजीवी जीवन के लिये सृष्टि के व्यवहार में वह यथासंभव कोई बाधा निर्माण नहीं करे। वह सृष्टि के नियमों का पालन करे। इसी को धर्माचरण कहते हैं। यह आवश्यक बन जाता है कि समाज का हर व्यक्ति धर्माचरणी हो। प्रकृति के नियमों का पालन करनेवाला हो। समाज धर्म का भी पालन करनेवाला हो।
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सृष्टि के अन्य सब जीव भोग योनि के होते हैं। वे नहीं तो सृष्टि को बिगाड़ने की और न ही बिगडी हुई प्रकृति को सुधारने की क्षमता रखते हैं। केवल मानव योनि ही कर्म योनि है। इसे वह क्षमताएँ प्राप्त हैं की यह अपनी इच्छानुरूप प्रकृति के साथ व्यवहार कर सके। इसलिये हर मानव का यह व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत कर्तव्य बनता है कि अपने चिरंजीवी जीवन के लिये सृष्टि के व्यवहार में वह यथासंभव कोई बाधा निर्माण नहीं करे। वह सृष्टि के नियमों का पालन करे। इसी को धर्माचरण कहते हैं। यह आवश्यक बन जाता है कि समाज का हर व्यक्ति धर्माचरणी हो। प्रकृति के नियमों का पालन करनेवाला हो। समाज धर्म का भी पालन करनेवाला हो।
    
आहार के लिये मनुष्य को वनस्पति का उपयोग आवश्यक है। लेकिन ऐसा करते समय वनस्पति का दुरूपयोग या बिना कारण के नाश नहीं हो यह देखना आवश्यक है। अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय भी इस बात को ध्यान में रखना होगा। मानव का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना है। वनस्पति आहार की अनुपस्थिति में जब मांसाहार अनिवार्य होगा तब ही करना। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना। लेकिन इच्छाओं की पूर्ति के समय संयम रखना। यथासंभव प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग इच्छा पूर्ति के लिये नहीं करना। अनिवार्य हो तो न्यूनतम उपयोग करना। यही सृष्टिगत धर्म है। महात्मा गांधी ने कहा था ' प्रकृति में मानव की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये कुछ कमी नहीं है। लेकिन मानव की अमर्याद इच्छाओं (लोभ) कि पूर्ति के लिये पर्याप्त नहीं है।
 
आहार के लिये मनुष्य को वनस्पति का उपयोग आवश्यक है। लेकिन ऐसा करते समय वनस्पति का दुरूपयोग या बिना कारण के नाश नहीं हो यह देखना आवश्यक है। अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय भी इस बात को ध्यान में रखना होगा। मानव का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना है। वनस्पति आहार की अनुपस्थिति में जब मांसाहार अनिवार्य होगा तब ही करना। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना। लेकिन इच्छाओं की पूर्ति के समय संयम रखना। यथासंभव प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग इच्छा पूर्ति के लिये नहीं करना। अनिवार्य हो तो न्यूनतम उपयोग करना। यही सृष्टिगत धर्म है। महात्मा गांधी ने कहा था ' प्रकृति में मानव की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये कुछ कमी नहीं है। लेकिन मानव की अमर्याद इच्छाओं (लोभ) कि पूर्ति के लिये पर्याप्त नहीं है।

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