Snana vidhi(स्नान विधि)

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सृष्टिका निर्माण स्वयं सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने मायाके द्वारा किया है। अत: मायामय जगत्की नश्वर एवं अपवित्र वस्तुका सम्पर्क शरीर अथवा शरीरके किसी तत्त्वसे हो जाय तो उसे अपवित्र माना जाता है। जिसकी शुद्धिहेतु सामान्य विधान स्नान ही है। स्नान करने के पश्चात् मनुष्य शुद्ध होकर सन्ध्या, जप, देवपूजन आदि समस्त कर्मों के योग्य बनता है।इसीलिये शास्त्रों में स्नान का विधान किया गया है।

परिचय

गुणा दश स्नानकृतो हि पुंसो रूपं च तेजश्च बलं च शौचम्। (विश्वा०स्मृ० १।८६)

स्नानसे मात्र शुद्धि ही नहीं, अपितु रूप, तेज, शौर्य आदिकी भी वृद्धि होती है।

उपर्युक्त श्लोकसे स्पष्ट है कि स्नान हमारे लिये न केवल आध्यात्मिकताकी दृष्टिसे ही आवश्यक है, अपितु यह शरीरकी बहुत बड़ी आवश्यकता भी है। नवजात बालक हो अथवा वृद्ध व्यक्ति विना स्नानके रोगोंका संक्रमण ही बढ़ेगा। अतः स्नान हमारी शारीरिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही आवश्यकता है; जिसे लगभग सभी व्यक्ति करते भी हैं, किंतु इसके बारेमें कुछ शास्त्रीय नियम भी हैं, जिन्हें अधिकांश व्यक्ति (बिना जानकारीके कारण) उपेक्षित कर देते हैं।

स्नान करनेमें सर्वप्रथम ध्यान देनेकी बात है कि स्नानसे शरीरको शुद्ध करना है, अतः स्नान भी शुद्ध जल एवं शुद्ध पात्रमें रखे जलसे ही करना चाहिये।

शुद्धोदकेन स्नात्वा नित्यकर्म समारभेत्।

आदि शास्त्रीय वाक्य स्पष्ट ही हैं। गंगादि पुण्यतोया नदियोंमें स्नान करना उत्तम माना गया है, तडागका मध्यम तथा घरका स्नान निम्न कोटिका है। सुधार लें अथवा समाजका सहयोग लें। अन्यथा स्वर्गरूपी गृह परागमन शिविर बनकर रह जायगा। पुरुष तो वृक्षके नीचे रहकर भी जी लेगा, पर स्त्रीका सुरक्षित आश्रय हमेशाके लिये नष्ट हो जायगा। इससे गृहणी गर्हित होगी, सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जायगा। अत: मर्यादामें रहकर गृहस्थाश्रम व्यवस्थाको आँच न आने दें। नारी ही इसकी मूलभित्ति और आधारशिला है।

उत्तमं तु नदीस्नानं तडागं मध्यम तथा। कनिष्ठं कूपस्नानं भाण्डस्नानं वृथा वृथा ॥

स्नानसे पूर्व संकल्प तथा किसी नदी आदिपर स्नानके समय स्नानांग-तर्पण करनेका भी विधान है।

स्नानाङ्गतर्पणं विद्वान् कदाचिन्नैव हापयेत्।

जल सृष्टिका प्रथम तत्त्व है और जलमें सभी देवताओंका भी निवास है-

अपां मध्ये स्थिता देवा सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम।

तथापि स्नानसे पूर्व जलमें जलाधिपति वरुण, गंगा-यमुना आदि नदियोंका आवाहन कर लेना चाहिये। गंगाजीके नन्दिनी-नलिनी आदि नामोंका स्मरणकर स्नान करनेपर उस जलमें स्वयं गंगाजीका ही वास होता है, ऐसा स्वयं भगवती गंगाजीका कथन है

नन्दिनी नलिनी सीता मालती च मलापहा। विष्णुपादाब्जसम्भूता गङ्गा त्रिपथगामिनी॥

भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी।द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये ॥

स्नानोद्यतः पठेजातु तत्र तत्र वसाम्यहम्।

स्नान की आवश्यकता

स्नान ताजे जलसे ही करे, गरम जलसे नहीं। यदि गरम जलसे स्नानकी आदत हो तो भी श्राद्धके दिन, अपने जन्म-दिन, संक्रान्ति, ग्रहण आदि पर्यों, किसी अपवित्रसे स्पर्श होनेपर तथा मृतकके सम्बन्धमें किया जानेवाला स्नान गरम जलसे न करे। चिकित्सा विज्ञान भी गरम जलसे स्नानको त्वचा एवं रक्तके लिये उचित नहीं मानता। तेलमालिश स्नानसे पूर्व ही करनी चाहिये; स्नानोपरान्त नहीं। स्नान करनेसे पूर्व हाथ-पैर-मुँह धोना चाहिये तथा इसके पश्चात् कटि (कमर) धोना चाहिये। यहाँ यह ध्यान रखें कि कमरपर पहना हुआ वस्त्र पूर्णरूपेण भीगा है। कि

नहीं? कहींसे सूखा न रह जाय, तत्पश्चात् सिरको नहीं, अपितु इस कार्यको अपवित्रतादायक माना गया है। गीलाकर स्नान करे-'आदौ पादौ कटिं तथा'। हाँ! इस वस्त्रको

बिना वस्त्रके (निर्वस्त्र-अवस्थामें) स्नान न करे। स्नान करते समय पालथी लगाकर बैठे या खड़े होकर स्नान करे, प्रौष्ठपाद (पाँव मोड़कर उकडू) बैठकर नहीं

स्नानं दानं जपं होमं भोजनं देवतार्चनं । प्रौढ़पादो न कुर्वीत स्वाध्यायं पितृतर्पणम्॥

स्नान घबड़ाहट या जल्दबाजीमें नहीं करना चाहिये। भोजनके बाद और रुग्णावस्था तथा अधिक रातमें स्नान नहीं करना चाहिये।

न स्नानमाचरेत् भुक्त्वा नातुरो न महानिशि।

यह बात आयुर्वेद एवं वर्तमान चिकित्सासे सम्मत है। स्नानके पश्चात् शरीरको तुरंत नहीं पोंछना चाहिये, कुछ क्षण रुककर पोंछे; क्योंकि इस समय शरीर (एवं बालों)-से गिरा हुआ जल अतृप्त आत्माओंको तृप्ति देनेवाला होता है। स्नानोपरान्त शरीरको पोंछने एवं पहननेके लिये शुद्ध एवं धुले हुए वस्त्रका ही प्रयोग करें। शरीरपर जो वस्त्र पहना हुआ है, उसीको निचोड़कर फिर उसीसे शरीरको पोंछनेका शास्त्रोंमें पूर्णतः निषेध ही पुन: जलसे धोकर शरीर पोंछ सकते हैं। तीर्थ-स्नानके बारेमें विशेष-किसी भी (गंगायमुना आदि नदी हो अथवा कुण्ड-सरोवर-आदि जलाशय) तीर्थपर स्नान अथवा दूसरी कोई भी क्रिया तीर्थकी भावनासे ही करे। अपने मनोरंजन, खेलकूद या पर्यटनकी भावनासे नहीं। वैसे जल-क्रीडा आदि घरपर भी नहीं करनी चाहिये। इससे जल-देवताका अपमान होता है।

किसी तीर्थ, देवनदी आदिपर स्नान करनेसे पूर्व भी एक बार घरमें स्नान करना ज्यादा उचित है; क्योंकि पहला स्नान नित्यका स्नान तथा दूसरा स्नान ही तीर्थ-स्नान होगा। भी ग्रहण आदिको छोड़कर किसी भी नदी आदिके सुनसान घाटपर अथवा मध्य रात्रिमें स्नान न करे–'न नक्तं स्नायात्'। तीर्थ-स्नानके पश्चात् शरीरको पोंछना नहीं चाहिये, अपितु वैसे ही सूखने देना चाहिये।

पुनः-स्नान-क्षौर (हजामत बनवानेपर), मालिश, विषय-भोग आदि क्रियाओंके पश्चात्, दुःस्वप्न अथवा भयंकर संकट-निवृत्तिके पश्चात् एवं अस्पृश्य (रजस्वलाकुत्ता आदि)-से स्पर्शके पश्चात् स्नान किये हुए व्यक्तिको भी स्नान करना चाहिये। पुत्र-जन्मोत्सव आदि कई अवसरोंपर सचैल (वस्त्र-सहित)-स्नानकी विधि है।

स्नान का महत्व

स्नान के भेद

स्नान के मुख्यतः दो भेद हैं-

स्नान के लाभ

उद्धरण