Six Seasons (छह ऋतुएँ)

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ऋतु का संबंध सूर्य की गति से है। सूर्य क्रान्तिवृत्त में जैसे भ्रमण करते हैं वैसे ही ऋतुओं में बदलाव आ जाता है। ऋतुओं की संख्या ६ है। प्रत्येक ऋतु दो मास के होते हैं। शरत्सम्पात् एवं वसन्तसम्पात् पर ही ६ ऋतुओं का प्रारम्भ निर्भर करता है। वसन्त सम्पात् से वसन्त ऋतु, शरत्सम्पात से शरद ऋतु, सायन मकर से शिशिर ऋतु, सायन कर्क से वर्षा ऋतु प्रारम्भ होती है। अतः सायन मकर या उत्तरायण बिन्दु ही शिशिर ऋतु का प्रारम्भ है। क्रमशः २-२ सौरमास की एक ऋतु होती है।

परिभाषा

इयर्ति गच्छति अशोक-पुष्पविकासान् साधारणलिङ्गमिति वसन्तादिकालविशेषऋतुः।

सूर्य की ऊष्मा प्रकाश के माध्यम से पृथ्वी पर पहुँचती है तथा सूर्य द्वारा प्रदत्त प्रकाश ही गर्मी शीत का मुख्य कारण होता है। जब हमें सूर्य द्वारा प्रदत्त प्रकाश में अधिक गर्मी का अनुभव होता है तो हम उसे ग्रीष्म ऋतु तथा जब कम अनुभव होता है तो हम उसे शरद् ऋतु की संज्ञा प्रदान करते हैं।

पृथ्वी की दो प्रकार की गतियाँ मानी गयी हैं, पहला दैनिक गति और दूसरा वार्षिक गति। दैनिक गति के अनुसार, पृथ्वी अपने अक्ष पर निरन्तर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती रहती है, जिसके कारण दिन और रात होते हैं तथा वार्षिक गति के अनुसार पृथ्वी अपने अक्ष पर निरन्तर घूमते हुये सूर्य का एक चक्कर एक वर्ष में पूर्ण कर लेती है जिसके कारण ऋतुओं का निर्माण एवं परिवर्तन होता है।[1]

पृथ्वी के वार्षिक परिक्रमण, दैनिक परिभ्रमण एवं अपने अक्ष पर झुकाव के कारण पूरे वर्ष पृथ्वी पर सर्वत्र एक सा मौसम नहीं रहता है। पृथ्वी पर कहीं गर्मी होती है तो कहीं सर्दी और कहीं पर वर्षा। पृथ्वी के प्रत्येक स्थान पर ऋतु परिवर्तन होता है।यदि ऋतु परिवर्तन नहीं होता तो शायद पृथ्वी पर जीव-जगत् का अस्तित्व ही संभव नहीं होता। पृथ्वी के जिस भाग पर दिन बडे होते हैं, वहाँ सूर्य से अधिक समय तक ऊष्मा प्राप्त होती है। अतः वहाँ गर्मी पडती है। जहाँ दिन छोटे होते हैं, वहाँ सूर्य से कम समय तक ऊष्मा प्राप्त होती है। अतः वहाँ सर्दी पडती है।[2]

परिचय॥ Introduction

प्रकृतिकृत शीतोष्णादि सम्पूर्ण कालको ऋषियोंने एक वर्षमें संवरण किया है, सूर्य एवं चन्द्रमाकी गति भेद से वर्षके दो विभाग किये गये हैं। जिन्हैं अयन कहते हैं। वे अयन दो हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन। उत्तरायणमें रात्रि छोटी तथा दिन बडे एवं दक्षिणायनमें दिन छोटे तथा रात्रि बडी होती होती है। इन अयनों में प्रत्येक के तीन-तीन उपविभाग किये गये हैं, जिन्हैं ऋतु कहते हैं। मुख्यतः उत्तरायण में शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म-ऋतुएँ तथा दक्षिणायन में वर्षा, शरद् और हेमन्त ऋतुएँ पडती हैं, इस प्रकार समग्र वर्ष में छः ऋतुएँ होती हैं।

ऋतु भेद

मृगादिराशिद्वयभानुभोगात् षडर्तवः स्युः शिशिरो वसन्तः। ग्रीष्मश्च वर्षाश्च शरच्च तदवत् हेमन्त नामा कथितोऽपि षष्ठः॥(बृह०अवक०)

अर्थात् सायन मकर-कुम्भ में शिशिर ऋतु, मीन-मेष में वसन्त ऋतु, वृष-मिथुन में ग्रीष्म ऋतु, कर्क-सिंह में वर्षा ऋतु, कन्या-तुला में शरद ऋतु, वृश्चिक-धनु में हेमन्त ऋतु होती है।सौर एवं चान्द्रमासों के अनुसार इन वसन्तादि ऋतुओं का स्पष्टार्थ सारिणी-

(ऋतु ज्ञान सारिणी)
ऋतु सौर मास चान्द्रमास ग्रेगरियन मास
वसन्त (Spring) मीन, मेष चैत्र, वैशाख (वैदिक मधु और माधव) मार्च से अप्रैल
ग्रीष्म (Summer) वृष, मिथुन ज्येष्ठ, आषाढ (वैदिक शुक्र और शुचि) मई से जून
वर्षा (Rainy) कर्क, सिंह श्रावण, भाद्रपद (वैदिक नभः और नभस्य) जुलाई से सितम्बर
शरद् (Autumn) कन्या, तुला आश्विन, कार्तिक (वैदिक इष और ऊर्ज) अक्टूबर से नवम्बर
हेमन्त (pre-Winter) वृश्चिक, धनु मार्गशीर्ष, पौष (वैदिक सहः और सहस्य) दिसम्बर से १५ जनवरी
शिशिर (Winter) मकर,कुंभ माघ, फाल्गुन (वैदिक तपः और तपस्य) १६ जनवरी से फरवरी

ऋतु परिवर्तन का कारण

ऋतु परिवर्तन का कारण पृथ्वीद्वारा सूर्य के चारों ओर परिक्रमण और पृथ्वी का अक्षीय झुलाव है। पृथ्वी का डी घूर्णन अक्ष इसके परिक्रमा पथ से बनने वाले समतल पर लगभग ६६,५ अंश का कोण बनता है जिसके कारण उत्तरी या दक्षिणी गोलार्द्धों में से कोई एक गोलार्द्ध सूर्य की झुका होता है। यह झुकाव सूर्य के चारो ओर परिक्रमा के कारण वर्ष के अलग-अलग समय में अलग-अलग होता है जिससे दिन-रात की अवधियों में घट-बढ का एक वार्षिक चक्र निर्मित होता है। यही ऋतु परिवर्तन का मूल कारण बनता है।

ऋतु परिवर्तन तथा भारतीय संस्कृति

ऋतुओं के नामों की सार्थकता

शास्त्रों में ऋतु के अनुसार ही वस्तुओं का परिणाम बताया गया है। प्रत्येक प्राणी, वृक्ष, लता इत्यादि का विकास ऋतुओं के अनुसार ही होता है।

अर्द्धरात्रं शरत्कालो हेमन्तश्च प्रभातकः । पूर्व्वाह्णश्च वसन्तः स्यात् मध्याह्नो ग्रीष्म एव च ॥ प्रावृडरूपोऽपराह्णः स्यात् प्रदोषः शिशिरः स्मृतः॥

वसन्त ऋतु

मधु एवं माधव ये दोनों ही शब्द। मधु से निष्पन्न है। मधु का अर्थ होता है एक प्रकार का रस। यह वृक्ष, लता तथा प्राणियों को मत्त करता है। इस रस की जिस ऋतु में प्राप्ति होती है उसे वसन्त कहते हैं। अतएव यह देखा जाता है कि इस ऋतु में वृष्टि के विना ही वृक्ष, लतादि पुष्पादि होते हैं एवं प्राणियों में मदन-विकार होता है। अतएव क्षीर स्वामी ने कहा है-

वसन्त्यस्मिन् सुखम् ।

अर्थात् जिसमें प्राणी सुख से रहते हैं। निष्कर्ष यह कि जिस ऋतु में सर्वत्र आनन्द एवं माधुर्य की व्याप्ति होती है उसे वसन्त कहते हैं।

ग्रीष्म ऋतु

शुक्रः शोचतेः। शुचिः शोचतेर्ज्वलित कर्मणः॥(निरुक्त २।५।१४)

इस व्युत्पत्ति के अनुसार शुक्र व शुचि शब्द शुच् धातु से निष्पन्न हैं। शुच् का अर्थ है जलना या सुखाना। जिस ऋतु में पृथ्वी का रस(जल) सूखता या जलता है उस ऋतु का नाम ग्रीष्म है

वर्षा ऋतु

नभ आदित्यो भवति। नेता रसानाम् । नेता भासाम् । ज्योतिषां प्रणयः, अपि वा मन एव स्याद्विपरीतः। न न भातीति वा॥(निरुक्त २।४।१४)

अर्थात् नभ का अर्थ आदित्य होता है। (सूर्य) जब पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं होता उस काल को नभस् कहते हैं। तात्पर्य यह कि जिस पदार्थ के द्वारा रस अर्थात् जल पहुँचाया जाता है

शरद् ऋतु

इष् और ऊर्ज् इन दोनों शब्दों का यद्यपि निघण्टु में अन्न ही अर्थ किया है तथापि निरुक्त के व्याख्याकार ने निरुक्त विवृत्ति मे इस प्रकार लिखा है-

इषम् अन्नम् ऊर्जम् पयोघृतादिरूपं रसं च॥(निरुक्तविवृत्ति)

इष का अर्थ अन्न और ऊर्ज् का अर्थ दुग्ध, घृत आदि रस माना है। इन्हीं इष् और ऊर्ज् शब्दों से इष और ऊर्ज स्गब्द बने हैं। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ है कि जिस ऋतु में अन्न और घृत-दुग्धादि का परिपाक और प्राप्ति होती है, उस ऋतु को शरद् कहते हैं। शरद् शब्द की निरुक्त में युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-

शरच्छृता अस्यामोषधयो भवन्ति, शीर्णा आप इति।(निरुक्त ४।४।२५)

उपर्युक्त व्युत्पत्ति के अनुसार यह भी सिद्ध होता है कि जिस ऋतु में ओषधियाँ (फसलें) पक जाती हैं अथवा जल (मैल को छोडकर) शीर्ण हो जाता है अर्थात् स्वच्छ हो जाता है उसे शरद् ऋतु कहते हैं।

हेमन्त ऋतु

सहस् शब्द का अर्थ निघण्टु में बल किया गया है। क्योंकि सहन करना प्रकारान्तर से बल का कार्य है। सहाः और सहस्य शब्द इसी सहस् शब्द से बने हैं। तात्पर्य यह कि जिस ऋतु में अन्न-पानादि के उपयोग से बल की वृद्धि होती है उस ऋतु को हेमन्त कहते हैं। यह एक स्पष्ट तथ्य है कि अन्नपानादि अन्य ऋतुओं की अपेक्षा हेमन्त में अधिक बलप्रद होते हैं एवं प्राणियों की कार्य क्षमता भी हेमन्त में अधिक हो जाती हैं।

शिशिर ऋटु

शिशिरं शृणारोः शम्नातेर्वा। तपस् शब्द तप सन्तापे धातु से बना है। अभिप्राय यह है कि जिस ऋतु में उष्णता की वृद्धि होने से वृक्षादि के पत्रादि पक कर गिरते हैं उसे शिशिर कहते हैं। शीर्यन्ते पर्णानि अस्मिन्निति शिशिरः। यह भी व्युतोअत्ति की गई है।

ऋतु महत्व

वसन्तो ग्रीष्मो वर्षा। ते देवाऽऋतवः शरद्धेमन्तः शिशिरस्ते पितरः॥(शतपथ ब्राह्मण)

उपरोक्त वचन के अनुसार वसन्त, ग्रीष्म एवं वर्षादि तीन दैवी ऋतुयें हैं तथा शरद् हेमन्त और शिशिर ये पितरों की ऋतुयें हैं। अतः इन ऋतुओं में यथोचित कर्म ही शुभ फल प्रदान करते हैं।

ऋतु फल

ऋतुएँ छः होती हैं- १, वृष और मिथुन के सूर्य हो तो ग्रीष्म ऋतु, २, कर्क और सिंह के सूर्य में वर्षा ऋतु, ३, कन्या और तुला के सूर्य में शरद ऋतु, ४, वृश्चिक और धनु के सूर्य में हेमन्त ऋतु, ६, मकर और कुम्भ के सूर्य में शिशिर ऋतु तथा ६, मीन और मेष के सूर्य में वसन्त ऋतु होती है।

दीर्घायुर्धनिको वसन्तसमये जातः सुगन्धप्रियो। ग्रीष्मर्तौ घनतोयसेव्यचतुरो भोगी कृशाङ्गः सुधीः॥

क्षारक्षीरकटुप्रियः सुवचनो वर्षर्तुजः स्वच्छधीः। पुण्यात्मा सुमुखः सुखी यदि शरत्कालोद्भवः कामुकः॥

योगीकृशाङ्गः कृषकश्च भोगी हेमन्तकालप्रभवः समर्थः। स्नानक्रियादानरतः स्वधर्मी मानी यशस्वी शिशिरर्तुजः स्यात् ॥

अर्थ- वसन्त ऋतु में उत्पन्न व्यक्ति दीर्घायु, धनवान और सुगन्धिप्रिय होता है, ग्रीष्म ऋतु में जन्मा व्यक्ति घनतोय सेवन करने वाला, चतुर, अनेक भोगों से युक्त, कृशतनु और विद्वान् होता है।

वर्षाऋतु में उत्पन्न व्यक्ति नमकीन और कडवे स्वादयुक्त पदार्थों और दूध का प्रेमी, निश्छल बुद्धि और मिष्टभाषी, शरद ऋतु में उत्पन्न व्यक्ति पुण्यात्मा, प्रियवक्ता, सुखी और कामातुर, हेमन्त ऋतु में उत्पन्न जातक योगी, कृषतनु, कृषक, भोगादि सम्पन्न और सामर्थ्यवान् ,शिशिर ऋतु में व्यक्ति स्वधर्मानुसार आचरण करने वाला, स्नान, दानादिकर्ता, मानयुक्त और यशस्वी होता है।

ऋतुचर्या एवं स्वस्थ जीवन

रोग की चिकित्सा करनेकी अपेक्षा रोग को न होने देना ही अधिक श्रेष्ठ है। चर्यात्रय अर्थात् ऋतुचर्या, दिनचर्या और रात्रिचर्या के अच्छी तरह परिपालन से रोगका निश्चित ही प्रतिरोध होता है। श्रेष्ठ पुरुष स्वास्थ्यको ही सदा चाहते हैं अतः आयुर्वेदशास्त्रमें वर्णित चर्यात्रय का नियम पूर्वक आचरण करने से मनुष्य सदा ही स्वस्थ रह सकता है। प्रकृतिकृत शीत-उष्णादि सम्पूर्ण काल को ऋषियोंने एक वर्षमें संवरण किया है। जिसके अन्तर्गत छः ऋतुओं का समावेश होता है। आयुर्वेदशास्त्रमें दोषोंके संचय, प्रकोप तथा उपशमके लिये इन्हीं छः ऋतुओंको मानते हैं।

स्वस्थ जीवन हेतु ऋतुचर्या संबंधि कुछ आवश्यक निर्देश-

  • ऋतु-विशेष में सेवनीय एवं त्याज्य पदार्थों का ज्ञान
  • ऋतु-सन्धि-काल का ज्ञान
  • ऋतुओं के प्रारम्भ एवं अवसान के समय ऋतु अनुकूल आहार-विहार का ज्ञान
  • ऋतु अनुकूल पृथक् -पृथक् रसों के सेवन का ज्ञान

वसन्त-ऋतु, ग्रीष्म-ऋतु, वर्षा-ऋतु, शरद् -ऋतु हेमन्त ऋतु और शिशिर ऋतुओं संबंधि ऋतुचर्या का ज्ञान स्वस्थ जीवन जीने में एवं जीवनचर्यामें सहायक सिद्ध होता है।[3]

विचार-विमर्श

मधुश्च मधवश्च वासन्तिकावृतू। (यजु० १३/२५)

शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू। (यजु०१४/०६)

नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू। (यजु०१४/१५)

ईषश्चोर्जश्च शारदावृतू। (यजु० १४/१६)

सहश्च सहस्यश्च हैमान्तिकावृतू। (यजु० १४/२७)

तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू। ( यजु० १५/५७)

तैत्तरीय संहिता में भी इन ऋतुओं का क्रम से यथावत् वर्णन प्राप्त होता है तथा आज भी ये ऋतुयें इन्हीं मासों में लोक में प्रचलित हैं।

उद्धरण॥ References

  1. ज्योति राय, वैदिक ज्योतिष आधुनिक और वैज्ञानिक विशलेषण, सन् २००७, वी०बी०एस०पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय(शोध गंगा) अध्याय०३, (पृ०१०२)।
  2. रामेश्वर प्रसाद शर्मा, भारतीय ज्योतिष में भौगोलिक विवेचन, सन् १९९५, डॉ०बी०आर०अम्बेडकर विश्वविद्यालय आगरा, (शोध गंगा), अध्याय०२, (पृ० ७५)।
  3. श्रीअनसूयाप्रसादजी मैठानी, आरोग्य अंक, स्वस्थ जीवनके लिये ऋतुचर्या का ज्ञान, सन् २००७, गोरखपुरः गीताप्रेस (पृ०सं०३४०/३४१)।