Shoucha Achara(शौचाचार)

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प्राचीन भारत में मिट्टी से हाथ मलने का विधान था। मिट्टी से हाथ धोने पर पवित्रता और स्वच्छता दोनों आती है। साबुन, सर्फ या अन्य केमिकल से हाथ, पैर धोने से स्वच्छता तो आ सकती है पर पवित्रता नहीं आ सकती।


शौचाचार का पालन एवं आचरण मानव जीवन के लिये परम आवश्यक है। शौचाचार शब्द दो शब्दों के मेल से बना है-शौच एवं आचार। शौच शब्द शुच् धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है पवित्रता तथा आचार शब्द का अर्थ है आचरण करना। पवित्रता प्राप्त करने के लिये जो आचरण किया जाता है वह शौचाचार कहलाता है। प्रातःकाल उठने एवं उसके कृत्य के उपरान्त मल-मूत्र त्यागने का कृत्य है। शास्त्रों में धर्म, व्यवहार-नियम, नैतिक-नियम, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के लिये शौचाचार को मानव जीवन के दैनिक नित्य-नियम के रूप में देखा जाता है। वस्तुतः शरीर विभिन्न प्रकार के मलों से दूषित होता है अतः उन मलों से शुद्धता प्राप्त करने के लिये शौचाचार के नियमों का पालन किया जाता है।

परिचय॥ Introduction

शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए-

शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो द्विजः स्मृतः । शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥(दक्षस्मृ०५।२, बाधूलस्मृ० २०)

श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-

गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः । आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्दु/व्याघ्रपाद)

यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि- का कार्य करता रहे किन्तु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता, अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है। भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करें सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहना चाहिये।[1]याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि-

दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः। कुर्यान्मूत्र पुरीषं च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥( याज्ञ० )

अनु- जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करना चाहिये।

पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत्।(अत्रिस्मृति-३२०)

अनु- मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये ।

वाचं नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छ्वासवर्जितः।

अर्थात् शौच के समय बोलना, हांफना और थूकना आदि नहीं करना चाहिये।

शौचाचार के विभाग॥ Classification of Shoucha Achara

मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है। किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है।

शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥(वाधूलस्मृ.१९)

इस प्रकार बौधायन धर्मसूत्र एवं हारीत और दक्षस्मृति आदि शास्त्रों में शौच के ये दो प्रकार हैं-

  • बाह्य शौच- हारीत ने बाह्य शौच को तीन भागों में विभाजित किया है-
  1. कुल- कुल(परिवार) में जन्म एवं मरण के समय उत्पन्न अशौच से पवित्र होना।
  2. अर्थ- सभी प्रकार के पात्रों एवं पदार्थों को स्वच्छ रखना।
  3. शरीर- अपने शरीर को शुद्ध रखना।
  • आभ्यन्तर- उन्होंने आभ्यन्तर शौच को पाँच भागों में विभाजित किया है-
  1. मानस- मन के द्वारा पवित्र चिन्तन अर्थात् मन को पवित्र रखना।
  2. चाक्षुष- न देखने योग्य पदार्थों को न देखना।
  3. घ्राण्य- न सूँघने योग्य वस्तुओं को न सूँघना।
  4. वाच्य- वाणी के द्वारा कटु शब्दों का प्रयोग न करना।
  5. स्वाद्य- जिह्वा के द्वारा।

विष्णुधर्मसूत्र एवं अत्रि के अनुसार बारह प्रकार के मल कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं-

चर्बी, वीर्य, रक्त, मज्जा, मूत्र, विष्ठा, नासामल, खूँट, खखार(कफ), आँसू, नेत्रमल एवं पसीना ये बारह मल होते हैं। इनमें प्रथम छः पानी एवं मिट्टी से किन्तु अन्तिम छः केवल पानी से स्वच्छ हो जाते हैं।

शौचाचार का महत्व॥ Importance of Shoucha Achara

प्रातः समय शरीर-स्वच्छता तो सामान्य शौच का केवल एक अंग है। वस्तुतः शौच एक आत्मगुण है जैसा कि कहा गया है-

शौचं नाम धर्मादिपथो ब्रह्मायतनं श्रियोधिवासो मनसः प्रसादनं देवानां प्रियं शरीरे क्षेत्रदर्शनं बुद्धिप्रबोधनम् ।( गृहस्थरत्नाकर पृ०५२२)

अर्थ- शौच धर्म की ओर प्रथम मार्ग है। यहाँ ब्रह्म(वेद) का निवास-स्थान है, श्री(लक्ष्मी) भी यही रहतीं हैं, इससे मन स्वच्छ होता है, देवता इससे प्रसन्न रहते हैं, इसके द्वारा आत्म-बोध होता है और इससे बुद्धि का जागरण होता है। मनु जी के अनुसार अग्नि और सूर्य आदि के सम्मुख मल-मूत्र त्यागने का निषेध है-

प्रत्यग्नि प्रतिसूर्यश्च प्रतिसोमोदकद्विजान् । प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥ (मनु० ४।५२/वशिष्ठ० ६।११)

अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है।

मलोत्सर्जन-नियम

आचार वसिष्ठ ने दिनचर्या के अन्तर्गत मलोत्सर्जन के लिये दिशा-निर्देश करते हुए कहा है-

उभे मूत्रपुरीषे च दिवा कुर्यादुदङ्मुखः। रात्रौ तु दक्षिणा कुर्यादेवं ह्यायुर्नरिष्यति॥

अर्थात् दिन में उत्तर और रात में दक्षिण की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग करें। प्रातःकाल और सायंकाल में दिन की तरह मलोत्सर्जन के लिये दिशा का प्रयोग करें। इसी प्रकार स्नातक-धर्म का पालन करने में भी मलोत्सर्जन के लिये कहा गया है-

परिवेष्टितशिरा भूमिमयज्ञियैस्तृणैरन्तर्धाय मूत्रपुरीषे कुर्यादुदङ्मुखश्चाहनि नक्तं दक्षिणामुखः संन्यामासीतोत्तरम् ।

अर्थात् सिर को कपडे से ढाँपकर तथा भूमि को यज्ञ में वर्जित घास से छुपाकर दिन में उत्तर की ओर रात्रि में दक्षिणाभिमुख होकर, सन्ध्या काल में उत्तर दिशा की ओर मुख करके मलोत्सर्जन करना चाहिये। इससे आयु की वृद्धि होती है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार शौच के आठ अंग कहे गये हैं-

शिरः परिवेष्टनं प्रथमं निवीतं द्वितीयं दिशोऽवलोकनं तृतीयमन्तद्धनिं चतुर्थं मौनं पञ्चमं पुरीषं षष्ठं मृत्तिकाग्रहणं सप्तममुदकमष्टममिति।(आपस्तम्बः)

अर्थ- शौच के ये आठ अंग होते हैं इन्हैं अवश्य पालन करना चाहिये-

  1. शिरः परिवेष्टन- शौच के समय कपडे से सिर, नाक, मुख, कान को ढँक कर रखना चाहिये।
  2. कर्णसूत्र- शौच के समय दाहिने हान पर यज्ञोपवीत या कुशा रखना चाहिये।
  3. दिशा अवलोकनम् - उत्तर या दक्षिण की ओर मुख करना।
  4. अन्तरद्धानि- भूमि को तृणादि के द्वारा ढँकना।
  5. मौनम्- मौन धारण।
  6. पुरीषम् - मल त्याग।
  7. मृत्तिकाग्रहणम् - मिट्टी द्वारा सफाई( वर्तमान के अनुसार साबुन द्वारा सफाई)।
  8. उदकग्रहणम् - कुल्ला(गण्डूष), हाथ, पैर की सफाई।

आज भी यह अष्टांग जीवित है। यज्ञोपवीत एवं कुशा की प्रक्रिया में कमी देखने को मिलती है।

शौचाचार के वैज्ञानिक अंश

तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भाँति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है-

दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन )

इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय मंदिर तथा विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा। स्वच्छता का वातावरण बना रहेगा। प्रात:काल के समय लोग मन्दिर में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य की दृष्टि से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है, और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीर्थ आदि स्थान पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारू रूप से सम्पन्न हो सकेंगे। अत: वातावरण को दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है। इसके द्वारा हम सभी का कल्याण ही है।

मूत्रत्याग के पश्चात् ठण्डे जल से इन्द्रिय धोना कहा गया है। कारण यह है कि मूत्र अत्यन्त पित्तप्रधान होने के कारण उसमें विषैली वस्तुएं रहती हैं, और वस्त्र आदि में यदि मूत्र बिन्दु रह गये तो अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। एक स्थान पर कई लोगों को मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिए इससे उपदंश आदि संक्रामक विकार होते हैं। क्योंकि मूत्र की धार का तारतम्य एक ही स्थान पर रहने के कारण इस रोग वाले कीटाणु धार के सहारे एक दूसरे को संक्रमित कर देते हैं।

ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। इस सन्दर्भ में वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय निर्माण करना एवं खुले में शौच मूत्रविसर्जन आदि करने पर प्रतिबन्ध लगाना इन सब के द्वारा संक्रामक विकारों को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है।

शौचाचार भारतीय एवं यूरोपीय पद्धति

ऋषियों ने दाहिने हाथ से भोजन और देव कर्म करने का विधान किया है तथा बायें हाथ से सफाई एवं अन्य शुद्धि कर्म का विधान किया है। यूरोपीय जीवन पद्धति में ऐसा निर्देश नहीं प्राप्त होता है। शरीर का मध्य भाग नाभि है। नाभि से नीचे बायें हाथ का उपयोग करना चाहिये जैसा कि देवी भागवत् में कहा गया है-

वामहस्तेन शौचं तु कुर्याद्वै दक्षिणेन न। नाभेरधो वामहस्तो नाभेरूर्ध्वं तु दक्षिणः॥(दे०भा० ११/२/२९)

नाभि से ऊपर दाहिने हाथ का प्रयोग करना चाहिये एवं नाभि से अधोभाग में वामहस्त(वायें हाथ) का प्रयोग विहित है।

साबुन का प्रयोग निषेध

वर्तमान के आधुनिक वातावरण में मिट्टी के स्थान पर साबुन से हाथ धोने का प्रचलन प्रचलित है, परंतु शास्त्रानुसार साबुनसे शुद्धि और पवित्रता नहीं होती। यह मिट्टी से ही प्राप्त होती है। आजकल तो अधिकतर चर्वीयुक्त साबुनबनते हैं, जो और भी अशुद्ध हैं। इससे हाथ धोने पर मात्र स्वच्छता की प्रतीति होती है किन्तु वास्तवमें पवित्रता प्राप्त नहीं होती। वैसे भी मलमें पित्तकी स्निग्धता रहती है उसकी शुद्धि क्षारयुक्त मिट्टी के द्वारा जितनी अच्छी तरह संभव है वह स्निग्ध साबुन से नहीं।[1]

शौचाचार एवं चिकित्सा विज्ञान

चिकित्सा विज्ञान के अनुसार मूत्र-मल विसर्जन करने के बाद -मल विसर्जन करने के बाद.दोनां इन्द्रियो करो पर्याप्त जल से धोना चाहिए। गुदामार्ग को स्वच्छ तथा क्षालित रखने से यह कान्ति तथा बलप्रद, पावित्रयकर, आयुष्यवर्धक तथा अलक्ष्मी-कलि-पापहर होता है-

गुदादिमलमार्गाणां शौचं कान्तिबलप्रदम्‌। पावित्र्यकरमायुष्यमलक्ष्मी कलिपापहृत्॥ (योगरत्नाकरः)

उद्धरण

  1. 1.0 1.1 राधेश्याम खेमका, जीवनचर्या अंक, सफलता के सोपान, सन् २०१०, गोरखपुरःगीताप्रेस, (पृ०२४)।