Changes

Jump to navigation Jump to search
सुधार जारी
Line 1: Line 1: −
दिन और रात की  सन्धि के समय में जो गायत्री की उपासना की जाती है उसे सन्ध्या कहते है यह एक द्विज मात्र के लिये अत्यावश्यक कर्म निर्धारित किया गया है और आधुनिक काल में इसके आचरण का लोप हो रहा है प्राचीन काल से वेद स्वाध्याय आदि वैदिक कर्मों को करने की योग्यता सन्ध्या वन्दन कर्म करने के उपरान्त होती है सन्ध्या वन्दन से हमारा प्रबल आरोग्य सूत्र भी सम्बद्ध है।
+
सन्ध्योपासन शब्द सन्ध्या और उपासन इन दो शब्दोंके मेलसे बना है ।यह एक द्विज मात्र के लिये अत्यावश्यक कर्म निर्धारित किया गया है और आधुनिक काल में इसके आचरण का लोप हो रहा है ।प्राचीन काल से वेद स्वाध्याय आदि वैदिक कर्मों को करने की योग्यता सन्ध्या वन्दन कर्म करने के उपरान्त होती है सन्ध्या वन्दन से हमारा प्रबल आरोग्य सूत्र भी सम्बद्ध है।
 +
 
 +
सन्ध्या शब्दकी व्युत्पत्ति है- <blockquote>सम्यग् ध्यायन्ति सम्यग् ध्यायते वा परब्रह्म यया यस्यां वा सा सन्ध्या।।</blockquote>वह क्रिया जिसमें परमात्माका भलीभाँति ध्यान या चिन्तन किया जाय सन्ध्या कहलाती है। सन्ध्या शब्द सन्धि+यत्+टाप् प्रत्यय लगकर बनता है या सम् उपसर्गपूर्वक ध्यै धातुसे अङ् प्रत्यय और फिर स्त्रीलिंगका टाप् प्रत्यय लगकर बनता है। सन्ध्या शब्दका अर्थ मिलाप, जोड़, प्रभाग आदि होता है। सन्ध्याका एक अर्थ और है-
 +
 
 +
अहोरात्रस्य या सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जिताः।सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥(दक्षस्मृति)
 +
 
 +
सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित दिन और रात्रिका जो सन्धिकाल है उसे ही तत्त्वदर्शी मुनियोंने सन्ध्या कहा है। इस प्रकार दिन और रात्रिकी दोनों सन्धियाँ (प्रातः सन्धिकाल और सायं सन्धिकाल)-में किया जानेवाला परमात्माका चिन्तन सन्ध्या और उसका अनुष्ठान या उपासन सन्ध्योपासन कहलाता है। इस प्रकार एक ओर सन्ध्या शब्द सन्धिकालपरक है, वहीं दूसरी ओर आराधनापरक भी है।  <blockquote>सन्धौ सन्ध्यामुपासीत् नोदितेनास्तगे रवौ।।</blockquote>इस वृद्ध याज्ञवल्क्यके वचनसे प्रातः रात्रि और दिनकी सन्धिवेलामें और सायंकाल दिन और रात्रिकी सन्धिवेलामें सन्ध्योपासन करना चाहिये। प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व जबकि आकाशमें तारे हों उस समयकी सन्ध्या उत्तम कही गयी है।
    
==परिचय==
 
==परिचय==
Line 9: Line 15:     
संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना। संध्याका प्रायः तीन अर्थोंमें व्यवहार होता है
 
संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना। संध्याका प्रायः तीन अर्थोंमें व्यवहार होता है
 +
* संध्याकाल  (दक्षस्मृति)।
   −
१-संध्याकाल  (दक्षस्मृति)।
+
* संध्याकर्म(तैत्तिरीय०)।
 
+
* सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)(व्यासस्मृति)।
२- संध्याकर्म(तैत्तिरीय०)।
  −
 
  −
३-सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)(व्यासस्मृति)।
  −
 
   
तीनों ही अर्थोके समर्थक शास्त्रीय वचन उपलब्ध होते हैं-<blockquote>अहोरात्रस्य यः संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः। सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥ (दक्षस्मृति)</blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित जो दिन-रातकी संधिका समय है, उसे तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्या कहा है। इस वचनमें संध्या शब्दका काल अर्थमें व्यवहार हुआ है।<blockquote>संधौ संध्यामुपासीत नोदिते नास्तगे रवौ। (वृद्ध याज्ञवल्क्य)</blockquote>सूर्योदय और सूर्यास्तके कुछ पहले संधिवेलामें संध्योपासना करनी चाहिये।<blockquote>अहरहः संध्यामुपासीत।(तैत्तिरीय०)</blockquote>प्रतिदिन संध्या करे।<blockquote>तस्माद् ब्राह्मणोऽहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपासते॥(छब्बीसवाँ ब्राह्मण, प्रण० ४, खं० ५)</blockquote>इसलिये ब्राह्मणोंको दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करनी चाहिये।
 
तीनों ही अर्थोके समर्थक शास्त्रीय वचन उपलब्ध होते हैं-<blockquote>अहोरात्रस्य यः संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः। सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥ (दक्षस्मृति)</blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित जो दिन-रातकी संधिका समय है, उसे तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्या कहा है। इस वचनमें संध्या शब्दका काल अर्थमें व्यवहार हुआ है।<blockquote>संधौ संध्यामुपासीत नोदिते नास्तगे रवौ। (वृद्ध याज्ञवल्क्य)</blockquote>सूर्योदय और सूर्यास्तके कुछ पहले संधिवेलामें संध्योपासना करनी चाहिये।<blockquote>अहरहः संध्यामुपासीत।(तैत्तिरीय०)</blockquote>प्रतिदिन संध्या करे।<blockquote>तस्माद् ब्राह्मणोऽहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपासते॥(छब्बीसवाँ ब्राह्मण, प्रण० ४, खं० ५)</blockquote>इसलिये ब्राह्मणोंको दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करनी चाहिये।
   Line 32: Line 35:  
== संध्योपासन विधि ==
 
== संध्योपासन विधि ==
 
[[File:Surya arghya.jpeg|right|frameless|340x340px]]
 
[[File:Surya arghya.jpeg|right|frameless|340x340px]]
सन्ध्या में  
+
संध्योपासन की प्रमुख क्रियायें इस प्रकार हैं-  
 
*आचमन
 
*आचमन
 
*[[Pranayama (प्राणायाम)]]
 
*[[Pranayama (प्राणायाम)]]
 
*मार्जन
 
*मार्जन
*मन्त्र प्रोक्षण
  −
*मन्त्राचमन
   
*अघमर्षण
 
*अघमर्षण
*सूर्यार्घ्य
+
*अर्घ्य
*गायत्री उपासना
+
*गायत्री जप
 
*उपस्थान
 
*उपस्थान
 
*[[Abhivadana (अभिवादन)]]
 
*[[Abhivadana (अभिवादन)]]
क्रियाओं में बड़ा रहस्य छिपा है और बड़े लाभ निहित हैं।
+
इन क्रियाओं में बड़ा रहस्य छिपा है और बड़े लाभ निहित हैं। आचमन की क्रिया सामान्यतः सभी धार्मिक क्रियायों में देखी जाती है। मुख्यतः आचमन विष्णु जी के तीन नामों (केशव,नारायण और माधव) के साथ जल को अधरों से स्पर्श करना चाहिये।कहीं कहीं आचमन में विष्णु जी के २४ नाम लिये जाते हैं।आचमन के द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
 +
 
 +
प्राणायाम में श्वास एवं प्रश्वास का गति विच्छेद कहा गया है ।गौतम ऋषि जी के अनुसार प्राणायाम के मुख्य तीन अंग हैं- पूरक (बाहरी वायु भीतर लेना),कुम्भक(लिये हुये श्वास को रोके रखना अर्थात न तो श्वास छोडना न ग्रहण करना) और रेचक(फेफडों से वायु बाहर निकलना) ।
 +
 
 +
मार्जन में शरीर की पवित्रता हेतु आपो हि ष्ठा ० आदि तीन मन्त्रों के द्वारा जल से छिडकाव किया जाता है ।
 +
 
 +
अघमर्षण(पाप को भगाना) में गौ के कान के भॉंति दाहिने हाथ का रूप बनाकर,उसमें जल लेकर,नाक के पास रखकर,उस पर ऋतं च० आदि तीन मन्त्रों के साथ श्वास धीरे धीरे छोडें(इस भावना से कि अपना पाप भाग जाय) एवं पृथिवी पर बायीं ओर जल फेक दिया जाता है।
    
==== सन्ध्या करने के अधिकारी ====
 
==== सन्ध्या करने के अधिकारी ====
Line 59: Line 66:  
जो संध्या नहीं जानता अथवा जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता, वह जीते-जी शूद्रके समान है और मरनेपर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है। जो विप्र संकट प्राप्त हुए बिना ही संध्याका त्याग करता है, वह शूद्रके समान है। उसे प्रायश्चित्तका भागी और लोकमें निन्दित होना पड़ता है।<blockquote>संध्या येन न विज्ञाता संध्या नैवाप्युपासिता। जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote><blockquote>अनार्तश्चोत्सृजेद् यस्तु स विप्रः शूद्रसम्मितः। प्रायश्चित्ती भवेच्चैव लोके भवति निन्दितः॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote>संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है। उसका किसी भी द्विजकर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो कुछ भी दूसरा कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं मिलता। जो द्विज समयपर प्राप्त हुए संध्याकर्मका आलस्यवश उल्लंघन करता है, उसे सूर्यकी हिंसाका पाप लगता है और मृत्युके पश्चात् वह उल्लू होता है।<blockquote>संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ (दक्षस्मृति)</blockquote><blockquote>यः संध्यां कालतः प्राप्तामालस्यादतिवर्तते। सूर्यहत्यामवाप्नोति ह्युलूकत्वमियात् स च॥ (अत्रि)</blockquote>संध्याकर्मका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो संध्योपासना नहीं करता उसे सूर्यकी हत्याका दोष लगता है।<blockquote>तस्मान्नोल्लंघन कार्यं संध्योपासनाकर्मणः। २/८/५७</blockquote><blockquote>स हन्ति सूर्यं संध्याया नोपस्तिं कुस्ते तुयः॥ (विष्णुपुराण)</blockquote>
 
जो संध्या नहीं जानता अथवा जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता, वह जीते-जी शूद्रके समान है और मरनेपर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है। जो विप्र संकट प्राप्त हुए बिना ही संध्याका त्याग करता है, वह शूद्रके समान है। उसे प्रायश्चित्तका भागी और लोकमें निन्दित होना पड़ता है।<blockquote>संध्या येन न विज्ञाता संध्या नैवाप्युपासिता। जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote><blockquote>अनार्तश्चोत्सृजेद् यस्तु स विप्रः शूद्रसम्मितः। प्रायश्चित्ती भवेच्चैव लोके भवति निन्दितः॥ (याज्ञवल्क्य)</blockquote>संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है। उसका किसी भी द्विजकर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो कुछ भी दूसरा कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं मिलता। जो द्विज समयपर प्राप्त हुए संध्याकर्मका आलस्यवश उल्लंघन करता है, उसे सूर्यकी हिंसाका पाप लगता है और मृत्युके पश्चात् वह उल्लू होता है।<blockquote>संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ (दक्षस्मृति)</blockquote><blockquote>यः संध्यां कालतः प्राप्तामालस्यादतिवर्तते। सूर्यहत्यामवाप्नोति ह्युलूकत्वमियात् स च॥ (अत्रि)</blockquote>संध्याकर्मका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो संध्योपासना नहीं करता उसे सूर्यकी हत्याका दोष लगता है।<blockquote>तस्मान्नोल्लंघन कार्यं संध्योपासनाकर्मणः। २/८/५७</blockquote><blockquote>स हन्ति सूर्यं संध्याया नोपस्तिं कुस्ते तुयः॥ (विष्णुपुराण)</blockquote>
 
==== कर्मलोपका प्रायश्चित्त ====
 
==== कर्मलोपका प्रायश्चित्त ====
संध्याकर्मके निश्चित कालका लोप हो जानेपर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है, फिर कर्मका लोप होनेपर तो कहना ही क्या है। कर्मका लोप तो कभी होना ही नहीं चाहिये। यदि कभी हो गया तो उसका स्मृतिके अनुसार प्रायश्चित्त कर लेना उचित है। प्रायश्चित्तके विषयमें जमदग्निका मत इस प्रकार है । यदि प्रमादवश एक दिन संध्याकर्म नहीं किया गया तो उसके लिये एक दिन-रातका उपवास करके दस हजार गायत्रीका जप करना चाहिये। शौनकमुनि तो यहाँतक कहते हैं कि यदि किसीके द्वारा प्रमादवश सात राततक संध्या-कर्मका उल्लंघन हो जाय अथवा जो उन्माद-दोषसे दूषित हुआ रहा हो, उस द्विजका पुनः उपनयन-संस्कार करना चाहिये। यदि निम्नांकित कारणोंसे विवश होकर कभी संध्याकर्म न बन सकातो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। राष्ट्रका ध्वंस हो रहा हो, राजाके चित्तमें क्षोभ हुआ हो अथवा अपना शरीर ही रोगग्रस्त हो जाय या जनन-मरणरूप अशौच प्राप्त हो जाय- इन कारणोंसे संध्याकर्ममें बाधा पड़े तो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं है।<blockquote>एकाहं समतिक्रम्य प्रमादादकृतं यदि। अहोरात्रोषितो भूत्वा गायत्र्याश्चायुतं जपेत्॥ (जमदग्नि)</blockquote><blockquote>संध्यातिक्रमणं यस्य सप्तरात्रमपि च्युतम्। उन्मत्तदोषयुक्तो वा पुनः संस्कारमर्हति॥(शौनक)</blockquote><blockquote>राष्ट्रभङ्गे नृपक्षोभे रोगाते सूतकेऽपि वा। संध्यावन्दनविच्छित्तिर्न शेषाय कथञ्चन॥(जमदग्नि)</blockquote>परंतु ऐसे समयमें भी मन-ही-मन मन्त्रोंका उच्चारण करके यथासम्भव कर्म करना आवश्यक है। अभिप्राय यह कि मानसिक संध्या कर लेनी चाहिये। संध्या नित्यकर्म है, अतः उसका अनुष्ठान जैसे भी हो, होना ही चाहिये। अकारण उसका त्याग किसी भी तरहसे क्षम्य नहीं है। यदि परदेशमें यात्रा करनेपर किसी समय प्रातः-सायं या मध्याह्म-संध्या नहीं बन पड़ी तो पूर्वकालके उल्लंघनका प्रायश्चित्त अगले समयकी संध्यामें पहले करके फिर उस समयका कर्म आरम्भ करना चाहिये। दिनमें प्रमादवश लुप्त हुए दैनिक कृत्यका अनुष्ठान उसी दिनकी रातके पहले पहरतक अवश्य कर लेना चाहिये।<blockquote>कालातीतेषु सर्वेषु प्राप्तवत्सूत्तरेषु च। कालातीतानि कृत्यैव विदध्यादुत्तराणि तु॥</blockquote><blockquote>दिवोदितानि कृत्यानि प्रमादादकृतानि वै। शर्वर्याः प्रथमे भागे तानि कुर्याद्यथाक्रमम्॥ (नागदेव)</blockquote>
+
संध्याकर्मके निश्चित कालका लोप हो जानेपर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है, फिर कर्मका लोप होनेपर तो कहना ही क्या है। कर्मका लोप तो कभी होना ही नहीं चाहिये। यदि कभी हो गया तो उसका स्मृतिके अनुसार प्रायश्चित्त कर लेना उचित है। प्रायश्चित्तके विषयमें जमदग्निका मत इस प्रकार है । यदि प्रमादवश एक दिन संध्याकर्म नहीं किया गया तो उसके लिये एक दिन-रातका उपवास करके दस हजार गायत्रीका जप करना चाहिये। शौनकमुनि तो यहाँतक कहते हैं कि यदि किसीके द्वारा प्रमादवश सात राततक संध्या-कर्मका उल्लंघन हो जाय अथवा जो उन्माद-दोषसे दूषित हुआ रहा हो, उस द्विजका पुनः उपनयन-संस्कार करना चाहिये। यदि निम्नांकित कारणोंसे विवश होकर कभी संध्याकर्म न बन सकातो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। राष्ट्रका ध्वंस हो रहा हो, राजाके चित्तमें क्षोभ हुआ हो अथवा अपना शरीर ही रोगग्रस्त हो जाय या जनन-मरणरूप अशौच प्राप्त हो जाय- इन कारणोंसे संध्याकर्ममें बाधा पड़े तो उसके लिये प्रायश्चित्त नहीं है।<blockquote>एकाहं समतिक्रम्य प्रमादादकृतं यदि। अहोरात्रोषितो भूत्वा गायत्र्याश्चायुतं जपेत्॥ (जमदग्नि)</blockquote><blockquote>संध्यातिक्रमणं यस्य सप्तरात्रमपि च्युतम्। उन्मत्तदोषयुक्तो वा पुनः संस्कारमर्हति॥(शौनक)</blockquote><blockquote>राष्ट्रभङ्गे नृपक्षोभे रोगाते सूतकेऽपि वा। संध्यावन्दनविच्छित्तिर्न शेषाय कथञ्चन॥(जमदग्नि)</blockquote>परंतु ऐसे समयमें भी मन-ही-मन मन्त्रोंका उच्चारण करके यथासम्भव कर्म करना आवश्यक है। अभिप्राय यह कि मानसिक संध्या कर लेनी चाहिये। संध्या नित्यकर्म है, अतः उसका अनुष्ठान जैसे भी हो, होना ही चाहिये। अकारण उसका त्याग किसी भी तरहसे क्षम्य नहीं है। यदि परदेशमें यात्रा करनेपर किसी समय प्रातः-सायं या मध्याह्म-संध्या नहीं बन पड़ी तो पूर्वकालके उल्लंघनका प्रायश्चित्त अगले समयकी संध्यामें पहले करके फिर उस समयका कर्म आरम्भ करना चाहिये। दिनमें प्रमादवश लुप्त हुए दैनिक कृत्यका अनुष्ठान उसी दिनकी रातके पहले पहरतक अवश्य कर लेना चाहिये।
   −
== संध्याके लिये उत्तम देश ==
+
==== कालातीतेषु सर्वेषु प्राप्तवत्सूत्तरेषु च। कालातीतानि कृत्यैव विदध्यादुत्तराणि तु॥ ====
 +
<blockquote>दिवोदितानि कृत्यानि प्रमादादकृतानि वै। शर्वर्याः प्रथमे भागे तानि कुर्याद्यथाक्रमम्॥ (नागदेव)</blockquote>
 +
 
 +
== संध्याके लिये उत्तम स्थान ==
 
संध्याके लिये वही स्थान उपयोगी है, जो स्वभावतः पवित्र और एकान्त हो, अपवित्र या कोलाहलपूर्ण स्थानमें मनकी वृत्तियाँ चंचल होती हैं और हृदयमें दूषित विचार उठते रहते हैं। एकान्त स्थान एकाग्रतामें सहायक होता है, पवित्र स्थान मनमें पवित्रता लाता है और पवित्र गन्ध तथा पवित्र वायुके संयोगसे स्वास्थ्य भी ठीक रहता है, साथ ही सद्विचारोंका उद्गम होता है। इसलिये स्थानकी पवित्रताके सम्बन्धमें विशेष ध्यान देना चाहिये। शास्त्रोंमें संध्याके लिये निम्नांकत स्थानोंका निर्देश किया गया है-पुण्यक्षेत्र, नदीका तट, पर्वतोंकी गुहा और  शिखर, तीर्थस्थान, नदीसंगम, पवित्र जलाशय, एकान्त बगीचा, बिल्ववृक्षके नीचे, पर्वतकी उपत्यका, देवमन्दिर, समुद्रका किनारा और अपना घर ।<blockquote>पुण्यक्षेत्रं नदीतीरं गुहां पर्वतमस्तकम्। तीर्थप्रदेशाः सिन्धूनां सङ्गमः पावनं सरः॥ (शारदातिलक)</blockquote><blockquote>उद्यानानि विविक्तानि बिल्वमूलं तटं गिरेः। देवाद्यायतनं कूलं समुद्रस्य निजं गृहम्॥(आह्निकसूत्रावली)</blockquote>
 
संध्याके लिये वही स्थान उपयोगी है, जो स्वभावतः पवित्र और एकान्त हो, अपवित्र या कोलाहलपूर्ण स्थानमें मनकी वृत्तियाँ चंचल होती हैं और हृदयमें दूषित विचार उठते रहते हैं। एकान्त स्थान एकाग्रतामें सहायक होता है, पवित्र स्थान मनमें पवित्रता लाता है और पवित्र गन्ध तथा पवित्र वायुके संयोगसे स्वास्थ्य भी ठीक रहता है, साथ ही सद्विचारोंका उद्गम होता है। इसलिये स्थानकी पवित्रताके सम्बन्धमें विशेष ध्यान देना चाहिये। शास्त्रोंमें संध्याके लिये निम्नांकत स्थानोंका निर्देश किया गया है-पुण्यक्षेत्र, नदीका तट, पर्वतोंकी गुहा और  शिखर, तीर्थस्थान, नदीसंगम, पवित्र जलाशय, एकान्त बगीचा, बिल्ववृक्षके नीचे, पर्वतकी उपत्यका, देवमन्दिर, समुद्रका किनारा और अपना घर ।<blockquote>पुण्यक्षेत्रं नदीतीरं गुहां पर्वतमस्तकम्। तीर्थप्रदेशाः सिन्धूनां सङ्गमः पावनं सरः॥ (शारदातिलक)</blockquote><blockquote>उद्यानानि विविक्तानि बिल्वमूलं तटं गिरेः। देवाद्यायतनं कूलं समुद्रस्य निजं गृहम्॥(आह्निकसूत्रावली)</blockquote>
   −
== सन्ध्याका काल ==
+
==== सन्ध्या के लिये आवश्यक दिशा ====
 +
 
 +
==== सन्ध्याका काल ====
 
स्थानके ही समान कालकी  उत्तमताका भी ध्यान रखना चाहिये। प्रातःकाल सूर्योदयसे पूर्व और सायंकाल सूर्यास्तसे पहले संध्याके लिये उत्तम समय है। श्रुति भी यही कहती है-<blockquote>अहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपास्ते सज्योतिषि आज्योतिषो दर्शनात्।</blockquote>अर्थात् 'दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करे। सायंकालमें सूर्यके रहते-रहते संध्या आरम्भ करे और प्रातःकाल सूर्योदयके पहलेसे आरम्भ करके सूर्यके दर्शन होनेतक संध्योपासना करे।'  
 
स्थानके ही समान कालकी  उत्तमताका भी ध्यान रखना चाहिये। प्रातःकाल सूर्योदयसे पूर्व और सायंकाल सूर्यास्तसे पहले संध्याके लिये उत्तम समय है। श्रुति भी यही कहती है-<blockquote>अहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपास्ते सज्योतिषि आज्योतिषो दर्शनात्।</blockquote>अर्थात् 'दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करे। सायंकालमें सूर्यके रहते-रहते संध्या आरम्भ करे और प्रातःकाल सूर्योदयके पहलेसे आरम्भ करके सूर्यके दर्शन होनेतक संध्योपासना करे।'  
  
726

edits

Navigation menu