Responsibilities at Societal Level (सामाजिक धर्म अनुपालन)

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जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए राष्ट्र के संगठन की विभिन्न प्रणालियों के स्तर पर उन कर्तव्यों का याने ईकाई धर्म का विचार और प्रत्यक्ष धर्म अनुपालन की प्रक्रिया कैसे चलेगी, ऐसा दो पहलुओं में हम परिवर्तन की प्रक्रिया का विचार करेंगे। वैसे तो धर्म अनुपालन की प्रक्रिया का विचार हमने समाज धारणा शास्त्र के विषय में किया है। फिर भी परिवर्तन प्रक्रिया को यहाँ फिर से दोहराना उपयुक्त होगा।[1]

विभिन्न सामाजिक प्रणालियों के धर्म

कुटुम्ब

कुटुम्ब परिवर्तन का सबसे जड़मूल का माध्यम है। समाज जीवन की वह नींव होता है। वह जितना सशक्त और व्यापक भूमिका का निर्वहन करेगा समाज उतना ही श्रेष्ठ बनेगा। कुटुम्ब में दो प्रकार के काम होते हैं। पहले हैं कुटुम्ब के लिए और दूसरे हैं कुटुम्ब में याने समाज, सृष्टि के लिए।

कुटुम्ब की – कुटुम्ब के लिए

  1. क्षमता और योग्यता आधारित कर्तव्य
  2. क्षमता और योग्यता के अनुसार सार्थक योगदान
  3. शुद्ध सस्नेहयुक्त सदाचारयुक्त परस्पर व्यवहार
  4. बड़ों का आदर, सेवा। छोटों के लिए आदर्श और प्यार।
  5. कुटुंबहित अपने हित से ऊपर। कर्त्तव्य परायणता। अपने कर्तव्यों के प्रति आग्रही।
  6. स्वावलंबन / परस्परावलंबन।
  7. कुटुम्ब के सभी काम करना आना और करना।
  8. एकात्मता का विस्तार – कुटुंब< समाज< सृष्टि< विश्व। लेकिन इसकी नींव कुटुंब जीवन में ही पड़ेगी और पक्की होगी।
  9. कौशल, ज्ञान, बल और पुण्य अर्जन की दृष्टी से अध्ययन और संस्कार
  10. कौटुम्बिक कुशलताएँ, आदतें, रीति-रिवाज, परम्पराएँ आदि
  11. कुटुम्ब प्रमुख सर्वोपरि : कुटुम्ब के सब ही सदस्यों को कुटुम्ब प्रमुख बनने की प्रेरणा और इस हेतु से उनके द्वारा अपना विवेक, कौशल, सयानापन, निर्णय क्षमता, अपार स्नेह आदि का विकास। कुटुम्ब प्रमुख की आज्ञाओं का पालन - आज्ञाकारिता।
  12. काया, वाचा, मनसा सभी से मधुर व्यवहार।
  13. अच्छा – बेटा/बेटी, भाई/बहन, पति/पत्नि, पिता/माता, गृहस्थ/गृहिणी, रिश्तेदार आदि बनना/बनाना।
  14. वर्णाश्रम धर्म का पालन – स्वभावज कर्म करते जाना।
    1. सवर्ण/सजातीय विवाह
    2. कौटुम्बिक व्यवसाय में सहभाग
    3. ज्ञान, कौशल, श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन, परिष्कार, निर्माण और अगली पीढी को अंतरण
    4. आयु की अवस्था के अनुसार ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आदि आश्रमों के धर्म की जिम्मेदारियों का निर्वहन।

कुटुम्ब में – समाज के लिए

  1. सामाजिक कर्तव्यों का निर्वहन
    1. समाज संगठन की प्रणालियों (कुटुंब, जाति, ग्राम, राष्ट्र) में
    2. सामाजिक व्यवस्थाओं (रक्षण, पोषण और शिक्षण) में
  2. ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, बलार्जन और पुण्यार्जन की मानसिकता और केवल इन के लिए अटन।
  3. स्वावलंबन और परस्परावलंबन।
  4. शत्रुत्व भाववाले समाज के घटकों के साथ भी शान्ततापूर्ण और सुखी सहजीवन।
  5. एकात्मता (समाज और सृष्टि के साथ) का व्यवहार / सुख और दु:ख में सहानुभूति और सहभागिता।
  6. विभिन्न क्षेत्रों में - जैसे शासन, न्याय, समृद्धि आदि क्षेत्रों के नेता > आचार्य > धर्म । धर्म सर्वोपरि।
  7. सद्गुण, सदाचार, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सादगी, सहजता, सौन्दर्यबोध, स्वतंत्रता, संयम, स्वदेशी आदि का व्यवहार साथ ही में त्याग, तपस्या, समाधान, शान्ति, अभय, विजिगीषा आदि गुणों का विकास।
  8. मनसा, वाचा कर्मणा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के प्रयास।
  9. वर्ण-धर्म की और जाति-धर्म की शिक्षा देना। जब लोग अपने वर्ण के अनुसार आचरण करते हैं, तब राष्ट्र की संस्कृति का विकास और रक्षण होता है। और जब लोग अपने जातिधर्म के अनुसार व्यवसाय करते हैं तब देश समृद्ध बनता है, ओर बना रहता है।
  10. धर्माचरणी और समाजभक्त / देशभक्त / राष्ट्रभक्त / परमात्मा में श्रद्धा रखने वालों का निर्माण।
  11. धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा।
  12. संयमित उपभोग। न्यूनतम (इष्टतम) उपभोग।

ग्रामकुल

  1. ग्राम को स्वावलंबी ग्राम बनाना
  2. ग्राम की अर्थव्यवस्था को ठीक से बिठाना और चलाना
  3. संयुक्त कुटुंबों की प्रतिष्ठापना का वातावरण
  4. कौटुम्बिक उद्योगों की प्रतिष्ठापना का वातावरण
  5. कुटुम्ब भावना से प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था करना
  6. कौटुम्बिक उद्योग और जातियों में समन्वय रखना
  7. शासकीय व्यवस्थाओं के प्रति जिम्मेदारियां : कर देना, शिक्षण, पोषण और रक्षण की व्यवस्थाओं में श्रेष्ठ व्यक्तियों का और संसाधनों का योगदान देना
  8. ग्राम, एक कुल बने ऐसा वातावरण बनाए रखना।

गुरुकुल / विद्यालय

  1. वर्णशिक्षा की व्यवस्था
  2. ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, बलार्जन के लिए मार्गदर्शन
  3. शास्त्रीय शिक्षा का प्रावधान
  4. श्रेष्ठ परम्पराओं के निर्माण की शिक्षा
  5. जीवन के तत्व ज्ञान और व्यवहार की शिक्षा
  6. जीवन के लिए महत्वपूर्ण सामाजिक संगठन प्रणालियाँ और व्यवस्थाओं की समझ और यथाशक्ति योगदान की प्रेरणा।

कौशल विधा पंचायत

  1. समाज की किसी एक आवश्यकता की पूर्ति करना। कभी कोई कमी न हो यह सुनिश्चित करना।
  2. धर्म के मार्गदर्शन में अपने कौशल विधा-धर्म का निर्धारण और कौशल विधा प्रणाली में प्रचार प्रसार
  3. अन्य कौशल विधाओं के साथ समन्वय
  4. राष्ट्र सर्वोपरि यह भावना सदा जाग्रत रखना

व्यवस्थाओं के धर्म

धर्म व्यवस्था

यह कोई नियमित व्यवस्था नहीं होती। यह जाग्रत, नि:स्वार्थी, सर्वभूतहित में सदैव प्रयासरत रहनेवाले पंडितों का समूह होता है। यह समूह सक्रिय होने से समाज ठीक चलता है। आवश्यकतानुसार इस समूह की जिम्मेदारियां बढ़ जातीं है। ऐसे आपद्धर्म के निर्वहन के लिए भी यह समूह पर्याप्त सामर्थ्यवान हो।

  1. कालानुरूप धर्म को व्याख्यायित करना।
  2. वर्णों के ‘स्व’धर्मों का पालन करने की व्यवस्था की पस्तुति कर शिक्षा और शासन की मदद से समाज में उन्हें स्थापित करना। व्यक्तिगत और सामाजिक धर्म/संस्कृति के अनुसार व्यवहार का वातावरण बनाना। जब वर्ण-धर्म का पालन लोग करते हैं तब देश में संस्कृति का विकास और रक्षण होता है। जिनकी ओर देखकर लोग वर्ण धर्म का पालन कर सकें ऐसे ‘श्रेष्ठ’ लोगों का निर्माण करना।
  3. स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी सभी प्रकार की स्वतन्त्रता की रक्षा करना।
  4. शासन पर अपने ज्ञान, त्याग, तपस्या, लोकसंग्रह तथा सदैव लोकहित के चिंतन के माध्यम से नैतिक दबाव निर्माण करना। शासन को सदाचारी, कुशल और सामर्थ्य संपन्न बनाए रखने के लिए मार्गदर्शन करना। अधर्माचरणी शासन को हटाकर धर्माचरणी शासन को प्रतिष्ठित करना।
  5. लोकशिक्षा (कुटुम्ब शिक्षा इसी का हिस्सा है) और विद्यालयीन शिक्षा की प्रभावी व्यवस्था करना। जैसे लिखा पढी न्यूनतम करने की दिशा में बढ़ना। वाणी / शब्द की प्रतिष्ठा बढ़ाना। जीवन को साधन सापेक्षता से साधना सापेक्षता की ओर ले जाने के लिए अपनी कथनी और करनी से मार्गदर्शन करना।

शासन व्यवस्था

  1. अंतर्बाह्य शत्रुओं से लोगों की शासनिक स्वतन्त्रता की रक्षा करना।
  2. धर्म के दायरे में रहकर दुष्टों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।
  3. दंड व्यवस्था के अंतर्गत न्याय व्यवस्था का निर्माण करना। किसी पर अन्याय हो ही नहीं, ऐसी दंड व्यवस्था के निर्माण का प्रयास करना।
  4. श्रेष्ठ शासक परम्परा निर्माण करना।
  5. प्रभावी, समाजहित की शिक्षा देनेवाले शिक्षा केन्द्रों को संरक्षण, समर्थन और सहायता देकर और प्रभावी बनाने के लिए यथाशक्ति प्रयास करना। ऐसा करने से शासन का काम काफी सरल हो जाता है।
  6. धर्म व्यवस्था से समय समय पर मार्गदर्शन प्राप्त करते रहना।

समृद्धि व्यवस्था

  1. योग्य शिक्षा के द्वारा समाज में धर्म के अविरोधी इच्छाओं का ही विकास हो यह सुनिश्चित करना।
  2. समाज के प्रत्येक घटक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करना, धर्म विरोधी इच्छाओं की नहीं। समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता को अबाधित रखना।
  3. प्राकृतिक संसाधनों का न्यूनतम उपयोग हो ऐसा वातावरण बनाना। संयमित उपभोग को प्रतिष्ठित करना।
  4. प्रकृति का प्रदूषण नहीं होने देना। प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखना।
  5. कौटुम्बिक उद्योग, जातियाँ और ग्राम मिलकर समृद्धि निर्माण होती है। ये तीनों ईकाईयाँ फलेफूले और इनका स्वस्थ ऐसा तानाबाना बना रहे ऐसा वातावरण रहे।
  6. पैसे का विनिमय न्यूनतम रहे ऐसी व्यवस्था निर्माण करना।

अब हम धर्म के अनुपालन की प्रक्रिया का विचार आगे करेंगे।

धर्म अनुपालन की प्रक्रिया

हमने जाना है कि समाज के सुख, शांति, स्वतंत्रता, सुसंस्कृतता के लिए समाज का धर्मनिष्ठ होना आवश्यक होता है। यहाँ मोटे तौर पर धर्म का मतलब कर्तव्य से है। समाज धारणा के लिए कर्तव्यों पर आधारित जीवन अनिवार्य होता है। समाज धारणा के लिए धर्म-युक्त व्यवहार में आनेवाली जटिलताओं को और उसके अनुपालन की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे। इन में व्यक्तिगत स्तर की बातों का हमने पूर्व के अध्याय में विचार किया है।

विभिन्न ईकाईयों के स्तर पर

  1. कुटुम्ब : समाज की सभी इकाइयों के विभिन्न स्तरोंपर उचित भूमिका निभानेवाले श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना। कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करना।
  2. ग्राम : ग्राम की भूमिका छोटे विश्व और बड़े कुटुम्ब की तरह ही होती है। जिस तरह कुटुम्ब के सदस्यों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता उसी तरह अच्छे ग्राम में कुटुम्बों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता। प्रत्येक की सम्मान और स्वतन्त्रता के साथ अन्न, वस्त्र, भवन, शिक्षा, आजीविका, सुरक्षा आदि सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
  3. कौशल विधा : समाज जीवन की आवश्यकताओं की हर विधा के अनुसार व्यवसाय विधा समूह बनते हैं। इन समूहों के भी सामान्य व्यक्ति से लेकर विश्व के स्तर तक के लिए करणीय और अकरणीय कार्य होते हैं। कर्तव्य होते हैं। इन्हें व्यवसाय विधा धर्म कहेंगे। इनमें पदार्थ के उत्पादन के रूप में आर्थिक स्वतन्त्रता के किसी एक पहलू की रक्षा में योगदान करना होता है। शिक्षा / संस्कार, वस्तुएं, भावनाएं, विचार, कला आदि में से समाज जीवन की आवश्यकता में से किसी एक विधा के पदार्थ की निरंतर आपूर्ति करना। पदार्थ का अर्थ केवल वस्तु नहीं है। जिस पद याने शब्द का अर्थ होता है वह पदार्थ कहलाता है। व्यावसायिक समूह का काम कौशल का विकास करना, कौशल का पीढ़ी दर पीढ़ी अंतरण करना और अन्य व्यवसायिक समूहों से समन्वय रखना आदि है।
  4. भाषिक समूह : भाषा का मुख्य उपयोग परस्पर संवाद है। संवाद विचारों की सटीक अभिव्यक्ति करने वाला हो इस हेतु से भाषाएँ बनतीं हैं। संवाद में सहजता, सरलता, सुगमता से आत्मीयता बढ़ती है। इसी हेतु से भाषिक समूह बनते हैं।
  5. प्रादेशिक समूह : शासनिक और व्यवस्थात्मक सुविधा की दृष्टि से प्रादेशिक स्तर का मह्त्व होता है।
  6. राष्ट्र : राष्ट्र अपने समाज के लिये विविध प्रकार के संगठनों का और व्यवस्थाओं का निर्माण करता है।
  7. विश्व : पूर्व में बताई हुई 1 से लेकर 6 तक की सभी इकाइयां वैश्विक हित की अविरोधी रहें।

प्रकृति सुसंगतता

समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है। विशाल उद्योग, बाजार की मंडियां, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है। लेकिन इनमें अनावश्यक केन्द्रीकरण न हो पाए। वनवासी या गिरिजन भी ग्राम व्यवस्था से ही जुड़े हुए होने चाहिए।

प्रक्रियाएं

धर्म के अनुपालन में बुद्धि के स्तर पर धर्म के प्रति पर्याप्त संज्ञान, मन के स्तर पर कौटुम्बिक भावना, अनुशासन और श्रद्धा (आज्ञाकारिता) का विकास तथा शारीरिक स्तर पर सहकारिता और परोपकार की आदतें अत्यंत आवश्यक हैं।

  1. धर्म संज्ञान : ‘समझना’ यह बुद्धि का काम होता है। इसलिए जब बच्चे का बुद्धि का अंग विकसित हो रहा होता है उसे धर्म की बौद्धिक याने तर्क तथा कर्मसिद्धांत के आधार पर शिक्षा देना उचित होता है। इस दृष्टि से तर्कशास्त्र की समझ या सरल शब्दों में ‘किसी भी बात के करने से पहले चराचर के हित में उस बात को कैसे करना चाहिए’ इसे समझने की क्षमता का विकास आवश्यक होता है।
  2. कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है। दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं[citation needed]:

जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।

  1. धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना मह्त्वपूर्ण बन जाता है। आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता। जब किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है तब वह आदत बन जाती है। और जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बन जातीं हैं।

धर्म के अनुपालन के स्तर और साधन

  1. धर्म के अनुपालन करनेवालों के राष्ट्रभक्त, अराष्ट्रीय और राष्ट्रद्रोही ऐसे मोटे-मोटे तीन स्तर होते हैं।
  2. धर्म के अनुपालन के साधन : धर्म का अनुपालन पूर्व में बताए अनुसार शिक्षा, आदेश, प्रायश्चित्त/ पश्चात्ताप तथा दंड ऐसा चार प्रकार से होता है। शासन दुर्बल होने से समाज में प्रमाद करनेवालों की संख्या में वृद्धि होती है।

धर्म के अनुपालन के अवरोध

धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं:

  1. भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगों को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
  2. स्वार्थ / संकुचित अस्मिताएँ : आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जीवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तर की यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धन का अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।
  3. विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है।

कारक तत्व

कारक तत्वों से मतलब है धर्मपालन में सहायता देनेवाले घटक। ये निम्न होते हैं:

  1. धर्म व्यवस्था : शासन धर्मनिष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना धर्म व्यवस्था की जिम्मेदारी है। अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान, लोकसंग्रह, चराचर के हित का चिन्तन, समर्पण भाव और कार्यकुशलता के आधार पर समाज से प्राप्त समर्थन प्राप्त कर वह देखे कि कोई अयोग्य व्यक्ति शासक नहीं बनें।
  2. शिक्षा :
    1. कुटुम्ब शिक्षा
    2. विद्याकेन्द्र की शिक्षा
    3. लोकशिक्षा
  3. धर्मनिष्ठ शासन: शासक का धर्मशास्त्र का जानकार होना और स्वयं धर्माचरणी होना भी आवश्यक होता है। जब शासन धर्म के अनुसार चलता है, धर्म व्यवस्थाद्वारा नियमित निर्देशित होता है तब धर्म भी स्थापित होता है और राज्य व्यवस्था भी श्रेष्ठ बनती है।
  4. धर्मनिष्ठों का सामाजिक नेतृत्व : समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में धर्मनिष्ठ लोग जब अच्छी संख्या में दिखाई देते हैं तब समाज मानस धर्मनिष्ठ बनता है।

चरण

धर्म का अनुपालन जब लोग स्वेच्छा से करनेवाले समाज के निर्माण के लिए दो बातें अत्यंत महत्वपूर्ण होतीं हैं। एक गर्भ में श्रेष्ठ जीवात्मा की स्थापना और दूसरे शिक्षा और संस्कार। शिक्षा और संस्कार में:

  1. जन्मपूर्व और शैशव काल में अधिजनन शास्त्र के आधार पर मार्गदर्शन।
  2. बाल्य काल : कुटुम्ब की शिक्षा के साथ विद्याकेन्द्र शिक्षा का समायोजन
  3. यौवन काल: अहंकार, बुद्धि के सही मोड़ हेतु सत्संग, प्रेरणा, वातावरण, ज्ञानार्जन/बलार्जन/कौशलार्जन आदि
  4. प्रौढ़ावस्था: पूर्व ज्ञान/आदतों को व्यवस्थित करने के लिए सामाजिक वातावरण और मार्गदर्शन
    1. पुरोहित
    2. मेले/यात्राएं
    3. कीर्तनकार/प्रवचनकार
    4. धर्माचार्य
    5. दृक्श्राव्य माध्यम –चित्रपट, दूरदर्शन आदि
    6. आन्तरजाल
    7. कानून का डर

धर्म निर्णय व्यवस्था

सामान्यत: जब भी धर्म की समझ से सम्बन्धित समस्या हो तब धर्म निर्णय की व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिये। इस व्यवस्था के तीन स्तर होना आवश्यक है। पहला स्तर तो स्थानिक धर्म के जानकार, दूसरा जनपदीय या निकट के तीर्थक्षेत्र में धर्मज्ञ परिषद्, और तीसरा स्तर अखिल धार्मिक (धार्मिक) या राष्ट्रीय धर्मज्ञ परिषद्।

माध्यम

धर्म अनुपालन करवाने के मुख्यत: दो प्रकार के माध्यम होते हैं:

  1. कुटुम्ब के दायरे में : धर्म शिक्षा का अर्थ है सदाचार की शिक्षा। धर्म की शिक्षा के लिए कुटुम्ब यह सबसे श्रेष्ठ पाठशाला है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा तो कुटुम्ब में मिली धर्म शिक्षा की पुष्टि या आवश्यक सुधार के लिए ही होती है। कुटुम्ब में धर्म शिक्षा तीन तरह से होती है: गर्भपूर्व संस्कार, गर्भ संस्कार और शिशु संस्कार और आदतें। मनुष्य की आदतें भी बचपन में ही पक्की हो जातीं हैं।
  2. कुटुम्ब से बाहर के माध्यम : मनुष्य तो हर पल सीखता ही रहता है। इसलिए कुटुम्ब से बाहर भी वह कई बातें सीखता है। माध्यमों में मित्र मंडली, विद्यालय, समाज का सांस्कृतिक स्तर और क़ानून व्यवस्था आदि।

जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की प्रतिष्ठापना की प्रक्रिया से अपेक्षित परिणामों की चर्चा हम अगले अध्याय में करेंगे।

References

  1. जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय ४४, लेखक - दिलीप केलकर

अन्य स्रोत: