Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "फिर भी" to "तथापि"
Line 1: Line 1:  
{{One source|date=January 2019}}
 
{{One source|date=January 2019}}
   −
जीवन के भारतीय प्रतिमान की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए राष्ट्र के संगठन की विभिन्न प्रणालियों के स्तर पर उन कर्तव्यों का याने ईकाई धर्म का विचार और प्रत्यक्ष धर्म अनुपालन की प्रक्रिया कैसे चलेगी, ऐसा दो पहलुओं में हम परिवर्तन की प्रक्रिया का विचार करेंगे। वैसे तो धर्म अनुपालन की प्रक्रिया का विचार हमने समाज धारणा शास्त्र के विषय में किया है। फिर भी परिवर्तन प्रक्रिया को यहाँ फिर से दोहराना उपयुक्त होगा।   
+
जीवन के धार्मिक  प्रतिमान की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए राष्ट्र के संगठन की विभिन्न प्रणालियों के स्तर पर उन कर्तव्यों का याने ईकाई धर्म का विचार और प्रत्यक्ष धर्म अनुपालन की प्रक्रिया कैसे चलेगी, ऐसा दो पहलुओं में हम परिवर्तन की प्रक्रिया का विचार करेंगे। वैसे तो धर्म अनुपालन की प्रक्रिया का विचार हमने समाज धारणा शास्त्र के विषय में किया है। तथापि परिवर्तन प्रक्रिया को यहाँ फिर से दोहराना उपयुक्त होगा।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय ४४, लेखक - दिलीप केलकर</ref>    
    
== विभिन्न सामाजिक प्रणालियों के धर्म ==
 
== विभिन्न सामाजिक प्रणालियों के धर्म ==
    
=== कुटुम्ब ===
 
=== कुटुम्ब ===
कुटुम्ब परिवर्तन का सबसे जड़मूल का माध्यम है। समाज जीवन की वह नींव होता है। वह जितना सशक्त और व्यापक भूमिका का निर्वहन करेगा समाज उतना ही श्रेष्ठ बनेगा। कुटुम्ब में दो प्रकार के काम होते हैं। पहले हैं कुटुम्ब के लिए और दूसरे हैं कुटुम्ब में याने समाज, सृष्टि के लिए।  
+
कुटुम्ब परिवर्तन का सबसे जड़़मूल का माध्यम है। समाज जीवन की वह नींव होता है। वह जितना सशक्त और व्यापक भूमिका का निर्वहन करेगा समाज उतना ही श्रेष्ठ बनेगा। कुटुम्ब में दो प्रकार के काम होते हैं। पहले हैं कुटुम्ब के लिए और दूसरे हैं कुटुम्ब में याने समाज, सृष्टि के लिए।  
    
=== कुटुम्ब की – कुटुम्ब के लिए ===
 
=== कुटुम्ब की – कुटुम्ब के लिए ===
Line 59: Line 59:  
# शास्त्रीय शिक्षा का प्रावधान  
 
# शास्त्रीय शिक्षा का प्रावधान  
 
# श्रेष्ठ परम्पराओं के निर्माण की शिक्षा  
 
# श्रेष्ठ परम्पराओं के निर्माण की शिक्षा  
# जीवन के तत्त्वज्ञान और व्यवहार की शिक्षा  
+
# जीवन के तत्व ज्ञान और व्यवहार की शिक्षा  
 
# जीवन के लिए महत्वपूर्ण सामाजिक संगठन प्रणालियाँ और व्यवस्थाओं की समझ और यथाशक्ति योगदान की प्रेरणा।  
 
# जीवन के लिए महत्वपूर्ण सामाजिक संगठन प्रणालियाँ और व्यवस्थाओं की समझ और यथाशक्ति योगदान की प्रेरणा।  
   Line 73: Line 73:  
यह कोई नियमित व्यवस्था नहीं होती। यह जाग्रत, नि:स्वार्थी, सर्वभूतहित में सदैव प्रयासरत रहनेवाले पंडितों का समूह होता है। यह समूह सक्रिय होने से समाज ठीक चलता है। आवश्यकतानुसार इस समूह की जिम्मेदारियां बढ़ जातीं है। ऐसे आपद्धर्म के निर्वहन के लिए भी यह समूह पर्याप्त सामर्थ्यवान हो।  
 
यह कोई नियमित व्यवस्था नहीं होती। यह जाग्रत, नि:स्वार्थी, सर्वभूतहित में सदैव प्रयासरत रहनेवाले पंडितों का समूह होता है। यह समूह सक्रिय होने से समाज ठीक चलता है। आवश्यकतानुसार इस समूह की जिम्मेदारियां बढ़ जातीं है। ऐसे आपद्धर्म के निर्वहन के लिए भी यह समूह पर्याप्त सामर्थ्यवान हो।  
 
# कालानुरूप धर्म को व्याख्यायित करना।  
 
# कालानुरूप धर्म को व्याख्यायित करना।  
# वर्णों के ‘स्व’धर्मों का पालन करने की व्यवस्था की पस्तुति कर शिक्षा और शासन की मदद से समाज में उन्हें स्थापित करना। व्यक्तिगत और सामाजिक धर्म/संस्कृति के अनुसार व्यवहार का वातावरण बनाना। जब वर्ण-धर्म का पालन लोग करते हैं तब देश में संस्कृति का विकास और रक्षण होता है। जिनकी ओर देखकर लोग वर्ण धर्म का पालन कर सकें ऐसे ‘श्रेष्ठ’ लोगों का निर्माण करना।  
+
# वर्णों के ‘स्व’धर्मों का पालन करने की व्यवस्था की पस्तुति कर शिक्षा और शासन की सहायता से समाज में उन्हें स्थापित करना। व्यक्तिगत और सामाजिक धर्म/संस्कृति के अनुसार व्यवहार का वातावरण बनाना। जब वर्ण-धर्म का पालन लोग करते हैं तब देश में संस्कृति का विकास और रक्षण होता है। जिनकी ओर देखकर लोग वर्ण धर्म का पालन कर सकें ऐसे ‘श्रेष्ठ’ लोगोंं का निर्माण करना।  
 
# स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी सभी प्रकार की स्वतन्त्रता की रक्षा करना।  
 
# स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी सभी प्रकार की स्वतन्त्रता की रक्षा करना।  
 
# शासन पर अपने ज्ञान, त्याग, तपस्या, लोकसंग्रह तथा सदैव लोकहित के चिंतन के माध्यम से नैतिक दबाव निर्माण करना। शासन को सदाचारी, कुशल और सामर्थ्य संपन्न बनाए रखने के लिए मार्गदर्शन करना। अधर्माचरणी शासन को हटाकर धर्माचरणी शासन को प्रतिष्ठित करना।  
 
# शासन पर अपने ज्ञान, त्याग, तपस्या, लोकसंग्रह तथा सदैव लोकहित के चिंतन के माध्यम से नैतिक दबाव निर्माण करना। शासन को सदाचारी, कुशल और सामर्थ्य संपन्न बनाए रखने के लिए मार्गदर्शन करना। अधर्माचरणी शासन को हटाकर धर्माचरणी शासन को प्रतिष्ठित करना।  
Line 79: Line 79:     
=== शासन व्यवस्था ===
 
=== शासन व्यवस्था ===
# अंतर्बाह्य शत्रुओं से लोगों की शासनिक स्वतन्त्रता की रक्षा करना।   
+
# अंतर्बाह्य शत्रुओं से लोगोंं की शासनिक स्वतन्त्रता की रक्षा करना।   
 
# धर्म के दायरे में रहकर दुष्टों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।   
 
# धर्म के दायरे में रहकर दुष्टों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।   
 
# दंड व्यवस्था के अंतर्गत न्याय व्यवस्था का निर्माण करना। किसी पर अन्याय हो ही नहीं, ऐसी दंड व्यवस्था के निर्माण का प्रयास करना।   
 
# दंड व्यवस्था के अंतर्गत न्याय व्यवस्था का निर्माण करना। किसी पर अन्याय हो ही नहीं, ऐसी दंड व्यवस्था के निर्माण का प्रयास करना।   
Line 108: Line 108:     
=== प्रकृति सुसंगतता ===
 
=== प्रकृति सुसंगतता ===
समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है। विशाल उद्योग, बाजार की मंडियां, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है। लेकिन इनमें अनावश्यक केन्द्रीकरण न हो पाए। वनवासी या गिरिजन भी ग्राम व्यवस्था से ही जुड़े हुए होने चाहिए।  
+
समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है। विशाल उद्योग, बाजार की मंडियां, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है। लेकिन इनमें अनावश्यक केन्द्रीकरण न हो पाए। वनवासी या गिरिजन भी [[Grama_Kul_(ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]] से ही जुड़े हुए होने चाहिए।  
    
=== प्रक्रियाएं ===
 
=== प्रक्रियाएं ===
धर्म के अनुपालन में बुद्धि के स्तरपर धर्म के प्रति पर्याप्त संज्ञान, मन के स्तरपर कौटुम्बिक भावना, अनुशासन और श्रद्धा (आज्ञाकारिता) का विकास तथा शारीरिक स्तरपर सहकारिता और परोपकार की आदतें अत्यंत आवश्यक हैं।  
+
धर्म के अनुपालन में बुद्धि के स्तर पर धर्म के प्रति पर्याप्त संज्ञान, मन के स्तर पर कौटुम्बिक भावना, अनुशासन और श्रद्धा (आज्ञाकारिता) का विकास तथा शारीरिक स्तर पर सहकारिता और परोपकार की आदतें अत्यंत आवश्यक हैं।
३.१ धर्म संज्ञान : ‘समझना’ यह बुद्धि का काम होता है। इसलिए जब बच्चे का बुद्धि का अंग विकसित हो रहा होता है उसे धर्म की बौद्धिक याने तर्क तथा कर्मसिद्धांत के आधारपर शिक्षा देना उचित होता है। इस दृष्टि से तर्कशास्त्र की समझ या सरल शब्दों में ‘किसी भी बात के करने से पहले चराचर के हित में उस बात को कैसे करना चाहिए’ इसे समझने की क्षमता का विकास आवश्यक होता है।
+
# धर्म संज्ञान : ‘समझना’ यह बुद्धि का काम होता है। अतः जब बच्चे का बुद्धि का अंग विकसित हो रहा होता है उसे धर्म की बौद्धिक याने तर्क तथा कर्मसिद्धांत के आधार पर शिक्षा देना उचित होता है। इस दृष्टि से तर्कशास्त्र की समझ या सरल शब्दों में ‘किसी भी बात के करने से पहले चराचर के हित में उस बात को कैसे करना चाहिए’ इसे समझने की क्षमता का विकास आवश्यक होता है।
३.२ कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है। दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं।
+
# कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है। दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं{{Citation needed}}:
जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: ।   जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।
+
<blockquote>जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।।</blockquote>
३.३ धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना मह्त्वपूर्ण बन जाता है। आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता। जब किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है तब वह आदत बन जाती है। और जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बन जातीं हैं।
+
 
 +
<ol start="3">
 +
<li>धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना मह्त्वपूर्ण बन जाता है। आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता। जब किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है तब वह आदत बन जाती है। और जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बन जातीं हैं।
 +
</ol>
    
=== धर्म के अनुपालन के स्तर और साधन ===
 
=== धर्म के अनुपालन के स्तर और साधन ===
:
+
# धर्म के अनुपालन करनेवालों के राष्ट्रभक्त, अराष्ट्रीय और राष्ट्रद्रोही ऐसे मोटे-मोटे तीन स्तर होते हैं।
४.१ धर्म के अनुपालन करनेवालों के राष्ट्रभक्त, अराष्ट्रीय और राष्ट्रद्रोही ऐसे मोटे-मोटे तीन स्तर होते हैं।  
+
# धर्म के अनुपालन के साधन : धर्म का अनुपालन पूर्व में बताए अनुसार शिक्षा, आदेश, प्रायश्चित्त/ पश्चात्ताप तथा दंड ऐसा चार प्रकार से होता है। शासन दुर्बल होने से समाज में प्रमाद करनेवालों की संख्या में वृद्धि होती है।
४.२ धर्म के अनुपालन के साधन : धर्म का अनुपालन पूर्व में बताए अनुसार शिक्षा, आदेश, प्रायश्चित्त/ पश्चात्ताप तथा दंड ऐसा चार प्रकार से होता है। शासन दुर्बल होने से समाज में प्रमाद करनेवालों की संख्या में वृद्धि होती है।
      
=== धर्म के अनुपालन के अवरोध ===
 
=== धर्म के अनुपालन के अवरोध ===
: धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं।
+
धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं:
५.१ भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगों को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
+
# भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगोंं को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
५.२ स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तर की यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन,प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धनका अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।  
+
# स्वार्थ / संकुचित अस्मिताएँ : आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जीवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तर की यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। अतः यह आवश्यक है कि मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धन का अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।
५.३ विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है।  
+
# विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़़ होती है।
   −
=== कारक तत्त्व ===
+
=== कारक तत्व ===
: कारक तत्वों से मतलब है धर्मपालन में सहायता देनेवाले घटक। ये निम्न होते हैं।
+
कारक तत्वों से मतलब है धर्मपालन में सहायता देनेवाले घटक। ये निम्न होते हैं:
६.१ धर्म व्यवस्था : शासन धर्मनिष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना धर्म व्यवस्था की जिम्मेदारी है। अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान, लोकसंग्रह, चराचर के हित का चिन्तन, समर्पण भाव और कार्यकुशलता के आधारपर समाज से प्राप्त समर्थन प्राप्त कर वह देखे की कोई अयोग्य व्यक्ति शासक नहीं बनें।
+
# धर्म व्यवस्था : शासन धर्मनिष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना धर्म व्यवस्था की जिम्मेदारी है। अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान, लोकसंग्रह, चराचर के हित का चिन्तन, समर्पण भाव और कार्यकुशलता के आधार पर समाज से प्राप्त समर्थन प्राप्त कर वह देखे कि कोई अयोग्य व्यक्ति शासक नहीं बनें।
६.२ शिक्षा : ६.२.१ कुटुम्ब शिक्षा ६.२.२ विद्याकेन्द्र की शिक्षा ६.२.३ लोकशिक्षा  
+
# शिक्षा :  
६.३ धर्मनिष्ठ शासन : शासक का धर्मशास्त्र का जानकार होना और स्वयं धर्माचरणी होना भी आवश्यक होता है। जब शासन धर्म के अनुसार चलता है, धर्म व्यवस्थाद्वारा नियमित निर्देशित होता है तब धर्म भी स्थापित होता है और राज्य व्यवस्था भी श्रेष्ठ बनती है।
+
## कुटुम्ब शिक्षा
६.४ धर्मनिष्ठों का सामाजिक नेतृत्व : समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में धर्मनिष्ठ लोग जब अच्छी संख्या में दिखाई देते हैं तब समाज मानस धर्मनिष्ठ बनता है।  
+
## विद्याकेन्द्र की शिक्षा
 +
## लोकशिक्षा
 +
# धर्मनिष्ठ शासन: शासक का धर्मशास्त्र का जानकार होना और स्वयं धर्माचरणी होना भी आवश्यक होता है। जब शासन धर्म के अनुसार चलता है, धर्म व्यवस्थाद्वारा नियमित निर्देशित होता है तब धर्म भी स्थापित होता है और राज्य व्यवस्था भी श्रेष्ठ बनती है।
 +
# धर्मनिष्ठों का सामाजिक नेतृत्व : समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में धर्मनिष्ठ लोग जब अच्छी संख्या में दिखाई देते हैं तब समाज मानस धर्मनिष्ठ बनता है।
    
== चरण ==
 
== चरण ==
धर्म का अनुपालन जब लोग स्वेच्छा से करनेवाले समाज के निर्माण के लिए दो बातें अत्यंत महत्वपूर्ण होतीं हैं। एक गर्भ में श्रेष्ठ जीवात्मा की स्थापना और दूसरे शिक्षा और संस्कार।
+
धर्म का अनुपालन जब लोग स्वेच्छा से करनेवाले समाज के निर्माण के लिए दो बातें अत्यंत महत्वपूर्ण होतीं हैं। एक गर्भ में श्रेष्ठ जीवात्मा की स्थापना और दूसरे शिक्षा और संस्कार। शिक्षा और संस्कार में:
 
+
# जन्मपूर्व और शैशव काल में अधिजनन शास्त्र के आधार पर मार्गदर्शन।  
शिक्षा और संस्कार में -
+
# बाल्य काल : कुटुम्ब की शिक्षा के साथ विद्याकेन्द्र शिक्षा का समायोजन  
७.१ जन्मपूर्व और शैशव कालमें अधिजनन शास्त्र के आधारपर मार्गदर्शन।  
+
# यौवन काल: अहंकार, बुद्धि के सही मोड़ हेतु सत्संग, प्रेरणा, वातावरण, ज्ञानार्जन/बलार्जन/कौशलार्जन आदि
७.२ बाल्य काल : कुटुम्ब की शिक्षा के साथ विद्याकेन्द्र शिक्षा का समायोजन          
+
# प्रौढ़ावस्था: पूर्व ज्ञान/आदतों को व्यवस्थित करने के लिए सामाजिक वातावरण और मार्गदर्शन  
७.३ यौवन काल: अहंकार, बुद्धि के सही मोड़ हेतु सत्संग, प्रेरणा, वातावरण, ज्ञानार्जन/बलार्जन/कौशलार्जन आदि  
+
## पुरोहित  
७.४ प्रौढ़ावस्था : पूर्व ज्ञान/आदतों को व्यवस्थित करने के लिए सामाजिक वातावरण और मार्गदर्शन
+
## मेले/यात्राएं  
७.४.१ पुरोहित
+
## कीर्तनकार/प्रवचनकार  
७.४.२ मेले/यात्राएं
+
## धर्माचार्य  
७.४.३ कीर्तनकार/प्रवचनकार
+
## दृक्श्राव्य माध्यम –चित्रपट, दूरदर्शन आदि  
७.४.४ धर्माचार्य
+
## आन्तरजाल  
७.४.५ दृक्श्राव्य माध्यम –चित्रपट, दूरदर्शन आदि
+
## कानून का डर  
७.४.६ आन्तरजाल
  −
७.४.७ कानून का डर  
      
== धर्म निर्णय व्यवस्था ==
 
== धर्म निर्णय व्यवस्था ==
: सामान्यत: जब भी धर्म की समझसे सम्बन्धित समस्या हो तब धर्म निर्णय की व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिये। इस व्यवस्था के तीन स्तर होना आवश्यक है। पहला स्तर तो स्थानिक धर्म के जानकार, दूसरा जनपदीय या निकटके तीर्थक्षेत्र में धर्मज्ञ परिषद्, और तीसरा स्तर अखिल भारतीय या राष्ट्रीय धर्मज्ञ परिषद्।  
+
सामान्यत: जब भी धर्म की समझ से सम्बन्धित समस्या हो तब धर्म निर्णय की व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिये। इस व्यवस्था के तीन स्तर होना आवश्यक है। पहला स्तर तो स्थानिक धर्म के जानकार, दूसरा जनपदीय या निकट के तीर्थक्षेत्र में धर्मज्ञ परिषद्, और तीसरा स्तर अखिल धार्मिक  या राष्ट्रीय धर्मज्ञ परिषद्।
    
== माध्यम ==
 
== माध्यम ==
: धर्म अनुपालन करवाने के मुख्यत: दो प्रकारके माध्यम होते हैं।
+
धर्म अनुपालन करवाने के मुख्यत: दो प्रकार के माध्यम होते हैं:
९.१ कुटुम्ब के दायरे में : धर्म शिक्षा का अर्थ है सदाचार की शिक्षा। धर्म की शिक्षा के लिए कुटुम्ब यह सबसे श्रेष्ठ पाठशाला है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा तो कुटुम्ब में मिली धर्म शिक्षा की पुष्टि या आवश्यक सुधार के लिए ही होती है। कुटुम्ब में धर्म शिक्षा तीन तरह से होती है। गर्भपूर्व संस्कार, गर्भ संस्कार और शिशु संस्कार और आदतें। मनुष्य की आदतें भी बचपन में ही पक्की हो जातीं हैं।  
+
# कुटुम्ब के दायरे में : धर्म शिक्षा का अर्थ है सदाचार की शिक्षा। धर्म की शिक्षा के लिए कुटुम्ब यह सबसे श्रेष्ठ पाठशाला है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा तो कुटुम्ब में मिली धर्म शिक्षा की पुष्टि या आवश्यक सुधार के लिए ही होती है। कुटुम्ब में धर्म शिक्षा तीन तरह से होती है: गर्भपूर्व संस्कार, गर्भ संस्कार और शिशु संस्कार और आदतें। मनुष्य की आदतें भी बचपन में ही पक्की हो जातीं हैं।
९.२ कुटुम्ब से बाहर के माध्यम : मनुष्य तो हर पल सीखता ही रहता है। इसलिए कुटुम्ब से बाहर भी वह कई बातें सीखता है। माध्यमों में मित्र मंडली, विद्यालय, समाज का सांस्कृतिक स्तर और क़ानून व्यवस्था आदि।
+
# कुटुम्ब से बाहर के माध्यम : मनुष्य तो हर पल सीखता ही रहता है। अतः कुटुम्ब से बाहर भी वह कई बातें सीखता है। माध्यमों में मित्र मंडली, विद्यालय, समाज का सांस्कृतिक स्तर और क़ानून व्यवस्था आदि।
जीवन के भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना की प्रक्रिया से अपेक्षित परिणामों की चर्चा हम [[Form of an Ideal Society (आदर्श समाज का स्वरूप)|अगले]] अध्याय में करेंगे।
+
जीवन के धार्मिक  प्रतिमान की प्रतिष्ठापना की प्रक्रिया से अपेक्षित परिणामों की चर्चा हम [[Form of an Ideal Society (आदर्श समाज का स्वरूप)|अगले]] अध्याय में करेंगे।
 +
==References==
 +
<references />
 +
 
 +
अन्य स्रोत:
   −
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]
+
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 +
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग २)]]
 +
[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

Navigation menu