Difference between revisions of "Responsibilities at Personal Level (व्यक्तिगत धर्म अनुपालन)"

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हमने जाना है कि समाज के सुख, शांति, स्वतंत्रता, सुसंस्कृतता के लिए समाज का धर्मनिष्ठ होना आवश्यक होता है| यहाँ मोटे तौरपर धर्म से मतलब कर्तव्य से है| समाज धारणा के लिए कर्तव्योंपर आधारित जीवन अनिवार्य होता है| समाज धारणा के लिए धर्म-युक्त व्यवहार में आनेवाली जटिलताओं को और फिर भी उसका अनुपालन कैसे किया जाता है इसकी प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे|
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हमने जाना है कि समाज के सुख, शांति, स्वतंत्रता, सुसंस्कृतता के लिए समाज का धर्मनिष्ठ होना आवश्यक होता है। यहाँ मोटे तौर पर धर्म का मतलब कर्तव्य है। समाज धारणा के लिए कर्तव्यों पर आधारित जीवन अनिवार्य होता है। समाज धारणा के लिए धर्म-युक्त व्यवहार में आने वाली जटिलताओं को और फिर भी उसका अनुपालन कैसे किया जाता है, इसकी प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे।
विविध स्तर : मानव समाज में जीवन्त इकाईयों के कई स्तर हैं| ये स्तर निम्न हैं|
 
१ व्यक्ति  २ कुटुम्ब  ३ ग्राम   ४ व्यवसाय समूह
 
५ भाषिक समूह  ६ प्रादेशिक समूह  ७ राष्ट्र  ८ विश्व
 
ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं| इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं| इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है| निम्न स्तरकी ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का केवल अविरोधी ही नहीं तो पूरक और पोषक होना आवश्यक होता है| प्राकृतिक दृष्टी से तो यह होता ही है| लेकिन व्यक्ति का स्वार्थ उसे भिन्न व्यवहार के लिए प्रेरित करता है| ऐसा भिन्न व्यवहार कोई व्यक्ति न करे इसके लिए ही शिक्षा होती है| और जो शिक्षा मिलनेपर भी अपनी दुष्टता या मूर्खता के कारण उचित व्यवहार नहीं करता उसके लिए शासन या दंड व्यवस्था होती है| व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए| इतना ही नहीं वह इन धर्मों के लिए पूरक और पोषक भी होना चाहिए|
 
प्रत्येक मनुष्य जीवन में कई भूमिकाएं निभाता है| इन भूमिकाओं के मोटे मोटे दो हिस्से कर सकते हैं| अंजान वातावरण में व्यक्ति की भूमिका व्यक्ति के स्तर की होती है| जब की परिचित वातावरण में वह परिचितों को अपेक्षित भूमिका निभाए ऐसी उस से अपेक्षा होती है| उस समय वह किसी समूह का याने कुटुंब, ग्राम, व्यावसायिक समूह या जाति, प्रादेशिक समूह, भाषिक समूह, राष्ट्र आदि के सदस्य की भूमिका में होता है| मनुष्य को समूह के विभिन्न स्तरोंपर काम तो व्यक्ति के रूप में ही करना है| फिर भी सुविधा के लिए व्यक्ति के स्तर से ऊपर की इकाई का विचार हम अगले अध्याय, “जिम्मेदारी समूह” में करेंगे| यहाँ केवल व्यक्ति के स्तरपर क्या करना है इसका विचार करेंगे|
 
इसी का विभाजन यम और नियमों के रूप में अष्टांग योग में किया गया है| सामान्यत: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान इन पाँच नियमों का संबंध यक्तिगत स्तर के लिए अधिक होता है| अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य इन पाँच प्रकार के ‘यम’ का संबंध मुख्यत: समाज से होता है| इसलिए यहाँ व्यक्तिगत स्तरपर शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि के विषय में विचार करना उचित होगा|
 
व्यक्ति के स्तरपर जिन अन्य धर्मों का समावेश भी होता है ऐसे इन नियमों से भिन्न, लेकिन साथ ही विचार करने योग्य पहलू निम्न होंगे|
 
अ) जन्मजात / स्वभावज : याने जन्म से जो सत्त्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना| इसे ही वर्णधर्म कहते हैं| इसे ही श्रीमद्भगवद्गीता में ‘स्वधर्म’ कहा है|  इसी तरह से जन्म से ही जो त्रिदोषात्मक शरीर मिला है उसे धर्मं साधना के लिए स्वस्थ रखना भी महत्वपूर्ण है| शरीर स्वस्थ रहे, निरोग रहे, बलवान रहे, लचीला रहे, कौशल्यवान रहे, तितिक्षावान रहे इस के लिए जो करणीय और अकरणीय बातें हैं उन्हें ही शरीरधर्म कहते हैं|
 
आ) स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना| स्त्री ने एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता, अच्छी समाज सदस्य, अच्छी राष्ट्रभक्त बनना| इसी तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा समाज सदस्य, अच्छा राष्ट्रभक्त बनना| iइस दृष्टी से अपने गुणों का विकास करना|  i
 
इन सब को मिलाकर करणीय और अकरणीय के तानेबाने का याने धर्मों का विचार कुछ निम्न जैसा होगा|
 
व्यक्तिगत धर्मों का तानाबाना
 
1.  ब्राह्मण वर्ण - ब्रह्मचर्य - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
- गृहस्थ - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
- उत्तरगृहस्थ - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
२. क्षत्रिय वर्ण - ब्रह्मचर्य - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
- गृहस्थ - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
- उत्तरगृहस्थ - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
३. वैश्य वर्ण - ब्रह्मचर्य - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
- गृहस्थ - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
- उत्तरगृहस्थ - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
४. शूद्र वर्ण - गृहस्थ - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
- उत्तरगृहस्थ - अपने लिए      (स्त्री और पुरुष)  : नियमों का अनुपालन
 
कुछ सभी को लागू हैं ऐसे बिंदु निम्न होंगे|
 
१. कोई भी बालक जन्म से शूद्र नहीं होता| ब्रह्मचर्य काल में और ब्रह्मचर्य कालतक कोई बालक शूद्र नहीं होता| इस काल में कोई शूद्र ही नहीं होता इसलिए शूद्र का धर्म भी बताने की आवश्यकता नहीं है| ब्रह्मचर्य का काल तो उसे भी त्रिवर्ण में से अपने योग्य वर्ण के गुण लक्षण प्रकट करने का समय होता है| जब वह त्रिवर्ण में से अपना वर्ण सिद्ध नहीं कर पाता है तब वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है| 
 
२. ब्रह्मचर्य यह अपने अपने जन्मजात वर्ण या स्वभाव के गुण लक्षणों की शुद्धि और वृद्धि का काल होता है| इसी तरह से अपने शरीर को श्रेष्ठ बनाने का काल होता है| ज्ञानार्जन, बलार्जन, कौशलार्जन आदि का काल होता है| योगशास्त्र के पाँच नियमों का पालन भी अनिवार्य रूप से होता रहना चाहिए|
 
३. गृहस्थ काल यह बल को बनाए रखने के लिए और ज्ञान और कुशलता में वृद्धि करने का काल होता है| इस दृष्टी से चिंतन, निदिध्यासन, प्रयोग, अनुसंधान आदि का काल होता है| ब्रह्मचर्य काल में जो सीखा है उसे प्रयोग करने का, उसे परिष्कृत करने का, उसे अधिक उन्नत करने का काल होता है| इसी के लिए तप होता है, स्वाध्याय होता है| स्वाध्याय की दिशा ही ईश्वर प्रणिधान की होती है| अपने अध्ययन के या व्यवसाय के विषय का ही अध्ययन और विकास इस तरह से करना जिससे मोक्षगामी बन सकें, परमात्मपद को प्राप्त कर सकें| 
 
४. वानप्रस्थ या उत्तर गृहस्थाश्रम में जो उन्नत ज्ञान और कुशलता का विकास किया है उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करने का काल होता है| इस दृष्टी से जो मिले उसमें संतोष रखना होता है| ज्ञान और कौशल के हस्तांतरण के लिए तप करने की आवश्यकता होती है| मृत्यू से पूर्व अपने से भी श्रेष्ठ ज्ञान और/या कुशलता के क्षेत्र में उत्तराधिकारी निर्माण करना होता है| अपने कुटुम्ब में यदि ऐसा उत्तराधिकारी नहीं मिलता तो उसे बाहर समाज में से ढूँढना होता है|
 
इन में यहाँ हम उपर्युक्त में से हर वर्ण के और हर आश्रम के व्यक्ति के लिए केवल ‘अपने लिए’ जो करणीय और अकरणीय है उसी का याने शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का विचार करेंगे| व्यक्ति से ऊपर की इकाइयों का विचार हम अगले अध्याय में करेंगे|
 
सामाजिक घटकों के स्तर और धर्माचरण का अनुपालन 
 
१. धर्म की समझ रखनेवाला और धर्माचरण करनेवाला वर्ग : इसे शिक्षा के माध्यम से बनाया जाता है|
 
२. धर्म को केवल समझनेवाला लेकिन प्रत्यक्ष धर्माचरण में त्रुटियाँ होतीं हैं ऐसा वर्ग : ऐसे लोगों को ज्येष्ठ/श्रेष्ठ लोग या शासन के माध्यम से ठीक किया जा सकता है|
 
३. धर्म को न समझनेवाला लेकिन धर्म की अच्छी समझ किसे है यह समझनेवाला और उसका अनुसरण करनेवाला : सामान्यत: लोग ऐसे होते हैं| यह शिक्षा की श्रेष्ठता है कि ऐसे लोगों के मन बुद्धि के नियंत्रण में और और बुद्धि धर्माचरणी श्रेष्ठ लोगों के अनुसरण की रहे| आदेश से भी इनसे धर्माचरण करवाया जा सकता है| इस दृष्टी से आज्ञाकारिता का गुण बहुत महत्वपूर्ण है| कहा गया है –
 
तर्कोंऽप्रतिष्ठित: श्रुतयोर्विभिन्न: नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणं |
 
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहाय महाजनों येन गत: स पंथ: ||
 
अर्थ : जहाँ मेरा तर्क काम नहीं करता, श्रुतियों के अर्थघटन में भी मुझे भिन्न मार्गदर्शन मिलता है,  ऋषियोंद्वारा भी जो कहा गया है उसमें मुझे भिन्नता दिखाई देती है तब मैंने जो महाजन हैं, जो धर्म को जानकर और धर्म के अनुसार व्यवहार करनेवाले हैं, ऐसा प्रसिद्ध है, उनका अनुसरण करना चाहिए|
 
४. धर्म को न समझनेवाला ओर फिर भी यह माननेवाला की उसे धर्म की समझ है – इसे मूर्ख कहते हैं|
 
५. दुष्ट, अन्यों के साथ अधर्माचरण करने को उचित माननेवाला|
 
इस उपर्युक्त क्रम में मैं यथासंभव ऊपर के स्तरपर रहूँ ऐसा प्रयास प्रत्येकने करते रहना चाहिए|
 
  
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
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== विविध स्तर ==
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मानव समाज में जीवन्त इकाईयों के कई स्तर हैं। ये स्तर निम्न हैं:
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# व्यक्ति
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# कुटुम्ब
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# ग्राम
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# व्यवसाय समूह
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# भाषिक समूह
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# प्रादेशिक समूह
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# राष्ट्र
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# विश्व
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ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं। इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं। इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है। निम्न स्तर की ईकाई उससे बड़े स्तर की ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाई का धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का केवल अविरोधी ही नहीं, अपितु पूरक और पोषक होना आवश्यक होता है।
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प्राकृतिक दृष्टि से तो यह होता ही है। लेकिन व्यक्ति का स्वार्थ उसे भिन्न व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। ऐसा भिन्न व्यवहार कोई व्यक्ति न करे इसके लिए ही शिक्षा होती है। और जो शिक्षा मिलने पर भी अपनी दुष्टता या मूर्खता के कारण उचित व्यवहार नहीं करता उसके लिए शासन या दंड व्यवस्था होती है। व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू, कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए। इतना ही नहीं, वह इन धर्मों के लिए पूरक और पोषक भी होना चाहिए।
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प्रत्येक मनुष्य जीवन में कई भूमिकाएं निभाता है। इन भूमिकाओं के मोटे मोटे दो हिस्से कर सकते हैं। अंजान वातावरण में व्यक्ति की भूमिका व्यक्ति के स्तर की होती है। जबकि परिचित वातावरण में वह परिचितों को अपेक्षित, भूमिका निभाए ऐसी उस से अपेक्षा होती है। उस समय वह किसी समूह का याने कुटुंब, ग्राम, व्यावसायिक समूह या जाति, प्रादेशिक समूह, भाषिक समूह, राष्ट्र आदि के सदस्य की भूमिका में होता है। मनुष्य को समूह के विभिन्न स्तरों पर काम तो व्यक्ति के रूप में ही करना है। फिर भी सुविधा के लिए व्यक्ति के स्तर से ऊपर की इकाई का विचार हम अगले अध्याय, “जिम्मेदारी समूह” में करेंगे। यहाँ केवल व्यक्ति के स्तर पर क्या करना है इसका विचार करेंगे।
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इसी का विभाजन यम और नियमों के रूप में अष्टांग योग में किया गया है। सामान्यत: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान इन पाँच नियमों का संबंध व्यक्तिगत स्तर के लिए अधिक होता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य इन पाँच प्रकार के ‘यम’ का संबंध मुख्यत: समाज से होता है। इसलिए यहाँ व्यक्तिगत स्तर पर शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि के विषय में विचार करना उचित होगा।
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व्यक्ति के स्तर पर जिन अन्य धर्मों का समावेश भी होता है ऐसे इन नियमों से भिन्न, लेकिन साथ ही विचार करने योग्य पहलू निम्न होंगे:
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# जन्मजात / स्वभावज : याने जन्म से जो सत्त्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना। इसे ही वर्णधर्म कहते हैं। इसे ही श्रीमद्भगवद्गीता में ‘स्वधर्म’ कहा है। इसी तरह से जन्म से ही जो त्रिदोषात्मक शरीर मिला है उसे धर्म साधना के लिए स्वस्थ रखना भी महत्वपूर्ण है। शरीर स्वस्थ रहे, निरोग रहे, बलवान रहे, लचीला रहे, कौशल्यवान रहे, तितिक्षावान रहे इस के लिए जो करणीय और अकरणीय बातें हैं उन्हें ही शरीरधर्म कहते हैं।
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# स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना। स्त्री को एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता, अच्छी समाज सदस्य, अच्छी राष्ट्रभक्त बनना। इसी तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा समाज सदस्य, अच्छा राष्ट्रभक्त बनना। इस दृष्टि से अपने गुणों का विकास करना।
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इन सब को मिलाकर करणीय और अकरणीय के तानेबाने का याने धर्मों का विचार कुछ निम्न जैसा होगा:
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== व्यक्तिगत धर्मों का तानाबाना ==
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कुछ सभी को लागू हैं ऐसे बिंदु निम्न होंगे:
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# कोई भी बालक जन्म से शूद्र नहीं होता। ब्रह्मचर्य काल में और ब्रह्मचर्य काल तक कोई बालक शूद्र नहीं होता। इस काल में कोई शूद्र ही नहीं होता इसलिए शूद्र का धर्म भी बताने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मचर्य का काल तो उसे भी त्रिवर्ण में से अपने योग्य वर्ण के गुण लक्षण प्रकट करने का समय होता है। जब वह त्रिवर्ण में से अपना वर्ण सिद्ध नहीं कर पाता है तब वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है।
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# ब्रह्मचर्य यह अपने अपने जन्मजात वर्ण या स्वभाव के गुण लक्षणों की शुद्धि और वृद्धि का काल होता है। इसी तरह से अपने शरीर को श्रेष्ठ बनाने का काल होता है। ज्ञानार्जन, बलार्जन, कौशलार्जन आदि का काल होता है। योगशास्त्र के पाँच नियमों का पालन भी अनिवार्य रूप से होता रहना चाहिए।
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# गृहस्थ काल यह बल को बनाए रखने के लिए और ज्ञान और कुशलता में वृद्धि करने का काल होता है। इस दृष्टि से चिंतन, निदिध्यासन, प्रयोग, अनुसंधान आदि का काल होता है। ब्रह्मचर्य काल में जो सीखा है उसे प्रयोग करने का, उसे परिष्कृत करने का, उसे अधिक उन्नत करने का काल होता है। इसी के लिए तप होता है, स्वाध्याय होता है। स्वाध्याय की दिशा ही ईश्वर प्रणिधान की होती है। अपने अध्ययन के या व्यवसाय के विषय का ही अध्ययन और विकास इस तरह से करना जिससे मोक्षगामी बन सकें, परमात्मपद को प्राप्त कर सकें।
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# वानप्रस्थ या उत्तर गृहस्थाश्रम में जो उन्नत ज्ञान और कुशलता का विकास किया है उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करने का काल होता है। इस दृष्टि से जो मिले उसमें संतोष रखना होता है। ज्ञान और कौशल के हस्तांतरण के लिए तप करने की आवश्यकता होती है। मृत्यू से पूर्व अपने से भी श्रेष्ठ ज्ञान और/या कुशलता के क्षेत्र में उत्तराधिकारी निर्माण करना होता है। अपने कुटुम्ब में यदि ऐसा उत्तराधिकारी नहीं मिलता तो उसे बाहर समाज में से ढूँढना होता है।
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इन में यहाँ हम उपर्युक्त में से हर वर्ण के और हर आश्रम के व्यक्ति के लिए केवल ‘अपने लिए’ जो करणीय और अकरणीय है उसी का याने शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का विचार करेंगे। व्यक्ति से ऊपर की इकाइयों का विचार हम [[Responsibilities at Societal Level (सामाजिक धर्म अनुपालन)|इस]] अध्याय में करेंगे।
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== सामाजिक घटकों के स्तर और धर्माचरण का अनुपालन ==
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# धर्म की समझ रखने वाला और धर्माचरण करने वाला वर्ग : इसे शिक्षा के माध्यम से बनाया जाता है।
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# धर्म को केवल समझने वाला लेकिन प्रत्यक्ष धर्माचरण में त्रुटियाँ होतीं हैं ऐसा वर्ग : ऐसे लोगों को ज्येष्ठ / श्रेष्ठ लोग या शासन के माध्यम से ठीक किया जा सकता है।
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# धर्म को न समझने वाला लेकिन धर्म की अच्छी समझ किसे है यह समझने वाला और उसका अनुसरण करनेवाला : सामान्यत: लोग ऐसे होते हैं। यह शिक्षा की श्रेष्ठता है कि ऐसे लोगों के मन बुद्धि के नियंत्रण में और और बुद्धि धर्माचरणी श्रेष्ठ लोगों के अनुसरण की रहे। आदेश से भी इनसे धर्माचरण करवाया जा सकता है। इस दृष्टि से आज्ञाकारिता का गुण बहुत महत्वपूर्ण है। कहा गया है{{Citation needed}}:
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<blockquote>तर्कोंऽप्रतिष्ठित: श्रुतयोर्विभिन्न: नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणं ।</blockquote><blockquote>धर्मस्य तत्वं निहितं गुहाय महाजनों येन गत: स पंथ: ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : जहाँ मेरा तर्क काम नहीं करता, श्रुतियों के अर्थघटन में भी मुझे भिन्न मार्गदर्शन मिलता है, ऋषियों द्वारा भी जो कहा गया है उसमें मुझे भिन्नता दिखाई देती है तब मैंने जो महाजन हैं, जो धर्म को जानकर और धर्म के अनुसार व्यवहार करने वाले हैं, ऐसा प्रसिद्ध है, उनका अनुसरण करना चाहिए।</blockquote>
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<ol start="4">
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<li> धर्म को न समझनेवाला ओर फिर भी यह माननेवाला की उसे धर्म की समझ है – इसे मूर्ख कहते हैं।
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<li> दुष्ट, अन्यों के साथ अधर्माचरण करने को उचित मानने वाला।
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इस उपर्युक्त क्रम में मैं यथासंभव ऊपर के स्तर पर रहूँ ऐसा प्रयास प्रत्येक ने करते रहना चाहिए।
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==References==
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<references />
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अन्य स्रोत:
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[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान - भाग २)]]

Revision as of 04:15, 28 October 2019

हमने जाना है कि समाज के सुख, शांति, स्वतंत्रता, सुसंस्कृतता के लिए समाज का धर्मनिष्ठ होना आवश्यक होता है। यहाँ मोटे तौर पर धर्म का मतलब कर्तव्य है। समाज धारणा के लिए कर्तव्यों पर आधारित जीवन अनिवार्य होता है। समाज धारणा के लिए धर्म-युक्त व्यवहार में आने वाली जटिलताओं को और फिर भी उसका अनुपालन कैसे किया जाता है, इसकी प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे।

विविध स्तर

मानव समाज में जीवन्त इकाईयों के कई स्तर हैं। ये स्तर निम्न हैं:

  1. व्यक्ति
  2. कुटुम्ब
  3. ग्राम
  4. व्यवसाय समूह
  5. भाषिक समूह
  6. प्रादेशिक समूह
  7. राष्ट्र
  8. विश्व

ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं। इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं। इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है। निम्न स्तर की ईकाई उससे बड़े स्तर की ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाई का धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का केवल अविरोधी ही नहीं, अपितु पूरक और पोषक होना आवश्यक होता है।

प्राकृतिक दृष्टि से तो यह होता ही है। लेकिन व्यक्ति का स्वार्थ उसे भिन्न व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। ऐसा भिन्न व्यवहार कोई व्यक्ति न करे इसके लिए ही शिक्षा होती है। और जो शिक्षा मिलने पर भी अपनी दुष्टता या मूर्खता के कारण उचित व्यवहार नहीं करता उसके लिए शासन या दंड व्यवस्था होती है। व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू, कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए। इतना ही नहीं, वह इन धर्मों के लिए पूरक और पोषक भी होना चाहिए।

प्रत्येक मनुष्य जीवन में कई भूमिकाएं निभाता है। इन भूमिकाओं के मोटे मोटे दो हिस्से कर सकते हैं। अंजान वातावरण में व्यक्ति की भूमिका व्यक्ति के स्तर की होती है। जबकि परिचित वातावरण में वह परिचितों को अपेक्षित, भूमिका निभाए ऐसी उस से अपेक्षा होती है। उस समय वह किसी समूह का याने कुटुंब, ग्राम, व्यावसायिक समूह या जाति, प्रादेशिक समूह, भाषिक समूह, राष्ट्र आदि के सदस्य की भूमिका में होता है। मनुष्य को समूह के विभिन्न स्तरों पर काम तो व्यक्ति के रूप में ही करना है। फिर भी सुविधा के लिए व्यक्ति के स्तर से ऊपर की इकाई का विचार हम अगले अध्याय, “जिम्मेदारी समूह” में करेंगे। यहाँ केवल व्यक्ति के स्तर पर क्या करना है इसका विचार करेंगे।

इसी का विभाजन यम और नियमों के रूप में अष्टांग योग में किया गया है। सामान्यत: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान इन पाँच नियमों का संबंध व्यक्तिगत स्तर के लिए अधिक होता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य इन पाँच प्रकार के ‘यम’ का संबंध मुख्यत: समाज से होता है। इसलिए यहाँ व्यक्तिगत स्तर पर शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि के विषय में विचार करना उचित होगा।

व्यक्ति के स्तर पर जिन अन्य धर्मों का समावेश भी होता है ऐसे इन नियमों से भिन्न, लेकिन साथ ही विचार करने योग्य पहलू निम्न होंगे:

  1. जन्मजात / स्वभावज : याने जन्म से जो सत्त्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना। इसे ही वर्णधर्म कहते हैं। इसे ही श्रीमद्भगवद्गीता में ‘स्वधर्म’ कहा है। इसी तरह से जन्म से ही जो त्रिदोषात्मक शरीर मिला है उसे धर्म साधना के लिए स्वस्थ रखना भी महत्वपूर्ण है। शरीर स्वस्थ रहे, निरोग रहे, बलवान रहे, लचीला रहे, कौशल्यवान रहे, तितिक्षावान रहे इस के लिए जो करणीय और अकरणीय बातें हैं उन्हें ही शरीरधर्म कहते हैं।
  2. स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना। स्त्री को एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता, अच्छी समाज सदस्य, अच्छी राष्ट्रभक्त बनना। इसी तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा समाज सदस्य, अच्छा राष्ट्रभक्त बनना। इस दृष्टि से अपने गुणों का विकास करना।

इन सब को मिलाकर करणीय और अकरणीय के तानेबाने का याने धर्मों का विचार कुछ निम्न जैसा होगा:

व्यक्तिगत धर्मों का तानाबाना

ब्राह्मण वर्ण ब्रह्मचर्य अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
गृहस्थ अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
उत्तरगृहस्थ अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
क्षत्रिय वर्ण ब्रह्मचर्य अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
गृहस्थ अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
उत्तरगृहस्थ अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
वैश्य वर्ण ब्रह्मचर्य अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
गृहस्थ अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
उत्तरगृहस्थ अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
शूद्र वर्ण गृहस्थ अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन
उत्तरगृहस्थ अपने लिए (स्त्री और पुरुष) : नियमों का अनुपालन

कुछ सभी को लागू हैं ऐसे बिंदु निम्न होंगे:

  1. कोई भी बालक जन्म से शूद्र नहीं होता। ब्रह्मचर्य काल में और ब्रह्मचर्य काल तक कोई बालक शूद्र नहीं होता। इस काल में कोई शूद्र ही नहीं होता इसलिए शूद्र का धर्म भी बताने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मचर्य का काल तो उसे भी त्रिवर्ण में से अपने योग्य वर्ण के गुण लक्षण प्रकट करने का समय होता है। जब वह त्रिवर्ण में से अपना वर्ण सिद्ध नहीं कर पाता है तब वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है।
  2. ब्रह्मचर्य यह अपने अपने जन्मजात वर्ण या स्वभाव के गुण लक्षणों की शुद्धि और वृद्धि का काल होता है। इसी तरह से अपने शरीर को श्रेष्ठ बनाने का काल होता है। ज्ञानार्जन, बलार्जन, कौशलार्जन आदि का काल होता है। योगशास्त्र के पाँच नियमों का पालन भी अनिवार्य रूप से होता रहना चाहिए।
  3. गृहस्थ काल यह बल को बनाए रखने के लिए और ज्ञान और कुशलता में वृद्धि करने का काल होता है। इस दृष्टि से चिंतन, निदिध्यासन, प्रयोग, अनुसंधान आदि का काल होता है। ब्रह्मचर्य काल में जो सीखा है उसे प्रयोग करने का, उसे परिष्कृत करने का, उसे अधिक उन्नत करने का काल होता है। इसी के लिए तप होता है, स्वाध्याय होता है। स्वाध्याय की दिशा ही ईश्वर प्रणिधान की होती है। अपने अध्ययन के या व्यवसाय के विषय का ही अध्ययन और विकास इस तरह से करना जिससे मोक्षगामी बन सकें, परमात्मपद को प्राप्त कर सकें।
  4. वानप्रस्थ या उत्तर गृहस्थाश्रम में जो उन्नत ज्ञान और कुशलता का विकास किया है उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करने का काल होता है। इस दृष्टि से जो मिले उसमें संतोष रखना होता है। ज्ञान और कौशल के हस्तांतरण के लिए तप करने की आवश्यकता होती है। मृत्यू से पूर्व अपने से भी श्रेष्ठ ज्ञान और/या कुशलता के क्षेत्र में उत्तराधिकारी निर्माण करना होता है। अपने कुटुम्ब में यदि ऐसा उत्तराधिकारी नहीं मिलता तो उसे बाहर समाज में से ढूँढना होता है।

इन में यहाँ हम उपर्युक्त में से हर वर्ण के और हर आश्रम के व्यक्ति के लिए केवल ‘अपने लिए’ जो करणीय और अकरणीय है उसी का याने शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का विचार करेंगे। व्यक्ति से ऊपर की इकाइयों का विचार हम इस अध्याय में करेंगे।

सामाजिक घटकों के स्तर और धर्माचरण का अनुपालन

  1. धर्म की समझ रखने वाला और धर्माचरण करने वाला वर्ग : इसे शिक्षा के माध्यम से बनाया जाता है।
  2. धर्म को केवल समझने वाला लेकिन प्रत्यक्ष धर्माचरण में त्रुटियाँ होतीं हैं ऐसा वर्ग : ऐसे लोगों को ज्येष्ठ / श्रेष्ठ लोग या शासन के माध्यम से ठीक किया जा सकता है।
  3. धर्म को न समझने वाला लेकिन धर्म की अच्छी समझ किसे है यह समझने वाला और उसका अनुसरण करनेवाला : सामान्यत: लोग ऐसे होते हैं। यह शिक्षा की श्रेष्ठता है कि ऐसे लोगों के मन बुद्धि के नियंत्रण में और और बुद्धि धर्माचरणी श्रेष्ठ लोगों के अनुसरण की रहे। आदेश से भी इनसे धर्माचरण करवाया जा सकता है। इस दृष्टि से आज्ञाकारिता का गुण बहुत महत्वपूर्ण है। कहा गया है[citation needed]:

तर्कोंऽप्रतिष्ठित: श्रुतयोर्विभिन्न: नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणं ।

धर्मस्य तत्वं निहितं गुहाय महाजनों येन गत: स पंथ: ।।

अर्थ : जहाँ मेरा तर्क काम नहीं करता, श्रुतियों के अर्थघटन में भी मुझे भिन्न मार्गदर्शन मिलता है, ऋषियों द्वारा भी जो कहा गया है उसमें मुझे भिन्नता दिखाई देती है तब मैंने जो महाजन हैं, जो धर्म को जानकर और धर्म के अनुसार व्यवहार करने वाले हैं, ऐसा प्रसिद्ध है, उनका अनुसरण करना चाहिए।

  1. धर्म को न समझनेवाला ओर फिर भी यह माननेवाला की उसे धर्म की समझ है – इसे मूर्ख कहते हैं।
  2. दुष्ट, अन्यों के साथ अधर्माचरण करने को उचित मानने वाला।

इस उपर्युक्त क्रम में मैं यथासंभव ऊपर के स्तर पर रहूँ ऐसा प्रयास प्रत्येक ने करते रहना चाहिए।

References


अन्य स्रोत: