Rama-Rajya (राम राज्य)

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

श्रीरामचन्द्र जी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गये, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से बैर नहीं करता। श्रीरामचन्द्रजी के प्रताप से सबकी विषमता (आतंरिक भेदभाव) मिट गयी। सब लोग अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल; धर्म में तत्पर हुए सदा वेदमार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय होता है और न कोई रोग ही सताता है। रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बतायी हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगतमें परिपूर्ण हो रहा है; स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परमगति (मोक्ष) के अधिकारी हैं। छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुन्दर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न कोई दु:खी है और न कोई दीन ही है। न कोई मुर्ख है न शुभ लक्षणों से हीन ही है। सभी दम्भ रहित हैं, धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान हैं। सभी गुणों का आदर करनेवाले और पंडित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ (दूसरे के उपकारों को माननेवाले) हैं, कपट चतुराई (धूर्तता) किसी में नहीं है।

(काकभुशुंडीजी कहते हैं- हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिए!) श्रीराम के राज्य में जड़़, चेतन सारे जगत में काल, कर्म, स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख: किसीको भी नहीं होते (अर्थात् इनके बंधनमें कोई नहीं है)। अयोध्या में हरि रघुनाथ जी सात समुद्रों की मेखला (करधनी) वाली पृथ्वी के एकमात्र राजा हैं। जिनके एक-एक रोम में अनेकों ब्रह्माण्ड हैं, उनके लिये सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है। रामराज्य की सुखसम्पत्ति का वर्णन शेषजी और सरस्वतीजी भी नहीं कर सकते। सभी नर नारी उदार हैं, सभी परोपकारी हैं और ब्राह्मण के चरणों के सेवक हैं। सभी पुरुष एकपत्निव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी मन, वचन और कर्म से पति का हित करनेवाली हैं। श्रीरामचन्द्रजीके राज्य में कोई शत्रु है ही नहीं इसलिये ‘जीतो’ शब्द केवल मन को जीतने के लिये ही कहा जाता है। कोई अपराध करता ही नहीं है। इसलिये किसी को दण्ड नहीं दिया जाता। दण्ड शब्द का उपयोग तो केवल संन्यासियों के हाथ में रहनेवाले दण्डों के लिये ही रह गया है। सभी अनुकुल होने के कारण भेदभाव का विषय ही नहीं है। अतः ‘भेद’ शब्द केवल ताल-सुरों के भेदके सन्दर्भ में ही काम में आता है। वनों में वृक्ष सदा फूलते और फलते हैं। हाथी और सिंह बैर भुलाकर एक साथ रहते हैं। पक्षी और पशु सभी ने स्वाभाविक बैर भुलाकर आपस में प्रेम बढा लिया है। पक्षी कुजते हैं, भांति-भांति के पशुओं के समूह वनमें निर्भय विचरते और आनंद करते हैं। शीतल, मंद, सुगन्धित पवन चलता रहता है। भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते हुए गुंजार करते जाते हैं। बेलें और वृक्ष माँगने से ही मधु टपका देते हैं। गौएँ मनचाहा दूध देतीं हैं। धरती सदा खेती से भरी रहती है। त्रेता में सत्ययुग की स्थिति हो जाती है। समस्त जगत के आत्मा भगवान को जगत का राजा जानकर पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खान प्रकट कर दी। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहाने लगीं हैं। समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों के द्वारा किनारों पर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य प्राप्त कर लेते हैं। सब तालाब कमलों से परिपूर्ण हैं। दसों दिशाओं के प्रदेश अत्यंत प्रसन्न हैं। चन्द्रमा अपनी अमृतमयी किरणों से पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं। सूर्य उतना ही तपते हैं जितनी आवश्यकता होती है और मेघ माँगने से जहाँ जितना चाहिये उतना ही जल देते हैं।[1]

References

  1. गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस - उत्तरकाण्ड में राम राज्य का वर्णन पृष्ठ २३,२४,२५ (गीता प्रेस गोरखपुर - टीकाकार हनुमानप्रसाद पोद्दार)

अन्य स्रोत: