Pranayama (प्राणायाम)

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सनातन धर्म में प्राणायाम का बहुत महत्व है। प्रत्येक द्विजाति सन्ध्याकाल में प्राणायाम अवश्य करता है। प्राणायाम द्वारा अशुद्ध विकारों को बाहर निकालकर शुद्ध वायु अन्दर प्रवेश होता है।इससे आयु तथा तेज कि वृद्धि होती है। प्राणायाम का तात्पर्य साधारणतया तो प्राणों का व्यायाम है किन्तु इसका वास्तविक तात्पर्य है प्राणशक्ति पर विजय(श्वास पर नियन्त्रण )प्राप्त करना है।

परिचय

भारतीय महर्षियों ने शरीर को चिरकाल तक स्वस्थ एवं कार्यकरने योग्य रखने के लिये व्यायाम पद्धति को दिनचर्या का अंग बनाया एवं मनुष्य के प्राण हृदय मन आदि आभ्यन्तरिक अवयवों को दृढ एवं पुष्ट बनाने के लिये प्राणायाम का भी आविष्कार किया।महर्षि पतञ्जलि ने अपने योगशास्त्र में अष्टांग योग का साधन मनुष्य के सर्वांगपूर्ण विकास के लिये बतलाया है।महर्षि पतञ्जलि के अनुसार आठ अंग इस प्रकार हैं-

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ॥पत०यो०सू०(२/२९)॥

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह योग के आठ अंग हैं। इनमें से पहले चार साधनों को बहिरंग योग साधन और अनन्तर चार साधनों को अन्तरंग योग साधन कहलाता है जो व्यक्ति योग के इन आठों अंगों को सिद्ध कर लेता है वह सभी क्लेशों से छूट जाता है।

परिभाषा

अष्टांग योग के क्रम में चतुर्थ अंग प्राणायाम है। प्राणायाम की परिभाषा करते हुये महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः॥पत०यो०सू०(२/४९)॥

प्रणीत योग सूत्र के अनुसारप्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है-

प्राणायाम की उपयोगिता

भजन,ध्यान,पाठ,पूजा आदि सात्विक कार्यों के लिये शान्त और सात्विक मन की परम आवश्यकता होती है। प्राणायाम द्वारा प्राणकी समगति(दो स्वरों से बराबर चलना) होने पर मन शान्त और सात्विक हो जाता है। यह प्राणायाम का आध्यत्मिक प्रयोजन है।प्राणायम से शारीरिक लाभ भी है।

  • प्राणायाम क्या हैॽ़

प्राणायाम इस पद में दो शब्द मिले हुये हैं-प्राण और आयाम। प्राण अर्थात् श्वास(सांस लेना) और प्रश्वास(सांस छोडना)।इसी क्रिया के द्वारा शरीर में प्राण शक्ति स्थिर रहती है। इसलिये इन दोनों क्रियाओं को मिलाकर प्राण संज्ञा दी गई है। और आयाम कहते हैं वश में करने को अथवा फैलाने को। संयुक्त प्राणायाम शब्द का अर्थ हुआ-प्राण को वश में करना अथवा उसको फैलाना।अर्थात् श्वास-प्रश्वास को अपने इच्छानुसार वश में करके,अव्यवस्थित गति का अवरोध करके, उसको फैलाना (उसकी अवधि को बढाना)।अर्थात् चाहे जितने काल तक हम प्राण को अपने अन्दर या बाहर रख सकें। इस क्रिया से प्राणशक्ति अपने वश में हो जाती है। इसीलिये योगाभ्यास में प्राणायाम का विशेष महत्व है।

प्राणायाम का मूल स्वरूप

शारीरिक दृष्टिसे प्राणायाम में केवल श्वासोपयोगी अंगों का ही सञ्चालन होता है। किन्तु प्राणायाम श्वास-प्रश्वास मात्र नहीं अपितु विज्ञान सम्मत मानसोपचार प्रक्रिया भी है। अपनी ओग दृष्टि से विश्लेषण कर आप्त पुरुषों ने प्राण को पॉंच उपविभागों तथा पॉंच उपप्राणों में विभाजित किया है। ऐसा माना जाता है कि प्राण शरीर प्राणमय कोष इन्हीं दस के सम्मिश्रण से बनता है।[1]

पॉंच मुख्य प्राण हैं-प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान तथा उपप्राण भी पॉंच हैं- देवदत्त, कृकल, कूर्म, नाग और धनञ्जय नाम दिया गया है। शरीर क्षेत्र में इन प्राणों के क्या-क्या कार्य हैं। इसका वर्णन आयुर्वेद शास्त्र में इस प्रकार किया गया है-

  • (१)प्राण-प्रकर्षेण नयति वा बलं ददाति आकर्षति च शक्तिः यः स प्राणः।जो वायु मुख और नासिका से लेकर हृदय तक शरीर का व्यापार चलाता है, उसको प्राणवायु कहते हैं । इसका मुख्य कार्य फेफड़ों में रक्तशुद्धि करना है और यह हृदय प्रदेश में रहती है।
  • (२)अपान-अपनयति प्रकर्षेण मलं निस्सारयति अपकर्षति च शक्तिमिति अपानः। यह वायु नाभि से लेकर नीचे पैरों के तलवों तक सञ्चार करके शरीर का व्यापार चलाता है । मलमूत्रविसर्जन और स्त्रियों में गर्भ को भी नीचे यही सरकाता है।
  • (३)व्यान-व्याप्नोति शरीरं यः स व्यानः। व्यान-यह वायु सारे शरीर सञ्चार किया करता है।
  • (४)उदान-उन्नयति यः उद् आनयति वा व्यानः। यह वायु कंठ से लेकर ऊपर मस्तक तक सञ्चार करके मस्तिष्क में रस, पहुँचाता है। शरीर से प्राणोत्क्रमण भी इसी के द्वारा होता है।
  • (५)समान-रस समं नयति सम्यक् प्रकारेण नयति इति समानः। यह वायु हृदय के नीचे नाभि तक सञ्चार करके नादियों को, उनके आवश्यकतानुसार, रस पहुँचाता है ।जैसा कि कहा गया है-

हृदि प्राणो गुदेऽपानः समानो नाभिमध्यगः । उदानः कण्ठदेशे तु व्यानः सर्वशरीरगः ॥

हृदय में प्राण, गुदा(गुह्य) में अपान, नाभि मण्डल में समान,कण्ठदेश में व्यान और उदानवायु सर्व शरीर में सञ्चार करती है।

पांच उप-प्राण

पांच उप-प्राण भी पूर्वोक्त पॉंचों प्रमुख प्राणों के साथ जुडे हुये होते हैं। और मानव शरीर के महत्त्वपूर्ण कार्यों को विनियमित करते हैं-

नाग - (डकारना) प्राण के साथ नाग। यह प्राण और अपान के मध्य उत्पन्न रुकावटों को दूर करता है और पाचन तन्त्र में वात (गैस) का बनना रोकता है। डकार को लगातार रोके रखने से हृदय-तन्त्र में गड़बड़ी हो सकती है। अन्य क्रियाओं में अपचन के कारण मितली को रोकने और समान प्राण के अवरोधों का हल करना सम्मिलित है।

कूर्मा - (झपकना) अपान के साथ कूर्म। यह उप-प्राण आंखों के क्षेत्र में क्रिया है, जिससे पलकों के खुलने और बन्द होने का नियन्त्रण होता है। इस उप-प्राण की ऊर्जा तब सक्रिय होती है, जब हम जाग रहे होते हैं और यह शक्ति जब हम सोते हैं पुन: प्राप्त हो जाती है। कूर्मा धूल और अन्य अवांछित वस्तुओं आदि को आंखों में घुसने से रोकता है। इस उप-प्राण में गड़बड़ी से पलकों का अनियन्त्रित झपकना और खिंचाव पैदा हो जाता है। ॐ उच्चारण की तरह त्राटक के अभ्यास से भी कूर्मा में सन्तुलन और सामर्थ्य प्राप्त होता है, गर्म हथेलियों को आंखों पर रखने और उन आसनों से जिनमें सिर आगे झुकाया जाता है।

देवदत्त- (जम्हाई) उदान के साथ देवदत्त। क्रिया भी समान प्राण क्रिया जैसी ही है। जम्हाई गैस को बाहर निकाल देती है, भोजन के बाद थकान को दूर करती है। खास खाद्य सामग्री जैसे अनाज, प्याज और लहसुन थकान उत्पन्न करते हैं। कई योगी केवल शाक-सब्जी और कुछ दुग्ध पदार्थों को ही लेते हैं, जिससे उनकी जीवन शक्ति बनी रहे और शिथिलता नहीं आये।

कृकला - (छींकना) समान के साथ कृकल। श्वास-तन्त्र में आये अवरोधों को दूर करता है। छींकने से सिर-दर्द में आराम हो सकता है, क्योंकि यह सिर और गर्दन में ऊर्जा प्रवाह की रुकावटों को दूर कर सुगम कर देता है। छींक को दबाना नहीं चाहिए, क्योंकि इससे ग्रीवा रीढ़ में कशेरुका प्रभावित हो सकती है। लोक-कथाओं में कहा जाता है कि जो जोर से और दृढ़तापूर्वक छींकता है, वह दीर्घकाल तक जीवित रहता है। कमजोर छींक कमजोर स्फूर्ति को दर्शाता है।

धनञ्जय - (हृदय वल्वों का खुलना व बन्द होना) व्यान के साथ धनञ्जय का सम्बन्ध है। धनन्जय हृदय के निकट स्थित होता है। यह समस्त शरीर को प्रभावित करता है और विशेष रूप से हृदय की मांसपेशियों को - हृदय के वाल्वों को खोल एवं बन्द करके। हृदय संबंधी अरहिथमिया व हृदय-घात भी धनन्जय की गम्भीर गड़बड़ी से हो सकते हैं।

मानव शरीर में 4 क्षेत्र ऐसे हैं, जहां प्राण का प्रवाह विशेष रूप में गहन होता है- दोनों पैरों के तलवों व दोनों हाथों की हथेलियों केमाध्यम से। पैरों का पृथ्वी तत्व से निकटतम संबंध है और वे ऋणात्मक ध्रुव का प्रतिनिधित्व करते हैं। अत: ध्यान में कभी भी पैरों (चरणों) पर चित्त एकाग्र नहीं करना चाहिए। इसके विपरीत, हथेलियों की ऊर्जा हृदय से उद् भूत होती है। इसका संबंध हवा तत्व से है और धनात्मक ध्रुवत्व पैदा करती है।

प्राणायाम की विधि

शास्त्रका कथन है कि पर्वतसे निकले धातुओंका मल जैसे अग्निसे जल जाता है, वैसे प्राणायामसे आन्तरिक पाप जल जाते हैंयथा पर्वतधातूनां दोषान् हरति पावकः । एवमन्तर्गतं पापं प्राणायामेन दह्यते ॥ (प्रयोगपारिजात, अत्रिस्मृ० २ । ३) प्राणायाम करनेवाला आगकी तरह चमक उठता है।

प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्तत्क्षणाज्ज्वलतेऽग्निवत् ॥(प्रयोगपारिजात)

यही बात शब्द-भेदसे अत्रिस्मृति (३।३) में कही गयी है। भगवान्ने कहा है कि प्राणायाम सिद्ध होनेपर हजारों वर्षोंकी लम्बी आयु प्राप्त होती है। अतः चलते-फिरते सदा प्राणायाम किया करें-

गच्छंस्तिष्ठन् सदा कालं वायुस्वीकरणं परम् । सर्वकालप्रयोगेण सहस्रायुर्भवेन्नरः॥

प्राणायामकी बड़ी महिमा कही गयी है। इससे पाप-ताप तो जल ही जाते हैं, शारीरिक उन्नति भी अद्भुत ढंगसे होती है। हजारों वर्षकी लंबी आयु भी इससे मिल सकती है । सुन्दरता और स्वास्थ्यके लिये तो यह मानो वरदान ही है । यदि प्राणायामके ये लाभ बुद्धिगम्य हो जायँ तो इसके प्रति आकर्षण बढ़ जाय और तब इससे राष्ट्रका बड़ा लाभ हो।

जब हम साँस लेते हैं, तब इसमें मिले हुए आक्सीजनसे फेफड़ोंमें पहुँचा हुआ अशुद्ध काला रक्त शुद्ध होकर लाल बन जाता है। इस शुद्ध रक्तका हृदय पंपिंग-क्रियाद्वारा शरीरमें संचार कर देता है। यह रक्त शरीरके सब घटकोंको खुराक बाँटता-बाँटता स्वयं काला पड़ जाता है। तब हृदय इस उपकारी तत्त्वको फिरसे शुद्ध होनेके लिये फेफड़ोंमें भेजता है। वहाँ साँसमें मिले प्राणवायु (आक्सीजन) के द्वारा यह फिर सशक्त हो जाता है और फिर सारे घटकोंको खुराक बाँटकर शरीरकी जीवनी-शक्तिको बनाये रखता है। यही कारण है कि साँसके बिना पाँच मिनट भी जीना कठिन हो जाता है।

किंतु रक्तकी शोधन-क्रियामें एक बाधा पड़ती रहती है। साधारण साँस फेफड़ोंकी सूक्ष्म कणिकाओतक पहुँच नहीं पाती। इसकी यह अनिवार्य आवश्यकता देख भगवान्ने प्रत्येक सत्कर्मके आरम्भमें इसका (प्राणायामका) संनिवेश कर दिया है। कभी-कभी तो सोलह सोलह प्राणायामोंका विधान कर दिया है-

द्वौ द्वौ प्रातस्तु मध्याह्ने त्रिभिः संध्यासुरार्चने । भोजनादौ भोजनान्ते प्राणायामास्तु षोडश ॥(देवीपुराण)

किंतु भगवान्की यह व्यवस्था तो शास्त्र मानकर चलनेवाले अधिकारी पुरुषोंके लिये हुई, पर प्राणायाम सभी प्राणियोंके लिये अपेक्षित है। अतः भगवान्ने प्राणायामकी दूसरी व्यवस्था प्रकृतिके द्वारा करवायी है। हम जो खर्राटे भरते हैं, वह वस्तुतः प्रकृतिके द्वारा हमसे कराया गया प्राणायाम ही है। इस प्राणायामका नाम 'भस्त्रिका-प्राणायाम' है। 'भस्त्रिका' का अर्थ है-'भाथी' । भाथी इस गहराईसे वायु खींचती है कि जिससे उसके प्रत्येक अवयवतक वायु पहुँच जाती है और वह पूरी फूल उठती है तथा वह इस भाँति वायु फेंकती है कि उसका प्रत्येक अवयव भलीभाँति सिकुड़ जाता है । इसी तरह भस्त्रिका-प्राणायाममें वायुको इस तरह खींचा जाता है कि फेफड़ेके प्रत्येक कणिकातक वह पहुँच जाय और छोड़ते समय प्रत्येक कणिकासे वह निकल जाय । इस प्राणायाममें 'कुम्भक' नहीं होता और न मन्त्रकी ही आवश्यकता पड़ती है। केवल ध्यानमात्र करना चाहिये

अगर्भो ध्यानमात्रं तु स चामन्त्रः प्रकीर्तितः ॥ (देवीपुराण ११ । २० । ३४)

स्वास्थ्य और सुन्दरता बढ़ानेके लिये तथा भगवान्के सांनिध्यको प्राप्त करनेके लिये तो प्राणायाम शत-शत अनुभूत है।

भस्त्रिका-प्राणायामकी अनेक विधियाँ हैं। उनमें एक प्रयोग लिखा जाता हैप्रातः खाली पेट शवासनसे लेट जाय । मेरुदण्ड सीधा होना चाहिये । इसलिये चौकी या जमीनपर लेट जाय, फिर मुँह बंद कर नाकसे धीरे-धीरे साँस खींचे । जब खींचना बंद हो जाय, तब मुँहसे फूंकते हुए धीरे-धीरे छोड़े, रोके नहीं। भगवान्का ध्यान चलता रहे। यह प्रयोग बीस मिनटसे कम न हो । यहाँ ध्यान देनेकी बात यह है कि साँसका लेना और छोड़ना अत्यन्त धीरे-धीरे हो । इतना धीरे-धीरे कि नाकके पास हाथमें रखा हुआ सत्तू भी उड़ न सके।

न प्राणेनाप्यपानेन वेगाद् वायुं समुच्छ्रसेत् । येन सक्तून् करस्थांश्च निःश्वासो नैवचालयेत्॥

प्रणवस्य ऋषिब्रह्मा गायत्री छन्द एव च। देवोऽग्निः परमात्मा स्याद् योगो वै सर्वकर्मसु॥(अग्निपु० २१५ । ३२)

प्राणायामं ततः कृत्वा प्रणवस्मृतिपूर्वकम् । गायत्रीं शिरसा सार्धं तुरीयपदसंयुताम्॥ २८ ॥

दक्षिणे रेचयेद्वायुं वामेन पूरितोदरम् । कुम्भेन धारयेन्नित्यं प्राणायामं विदुर्बुधा:॥ २९ ॥

पीडयेद्दक्षिणां नाडीमङ्गुष्ठेन तथोत्तराम् । कनिष्ठानामिकाभ्यां तु मध्यमां तर्जनीं त्यजेत्॥ ३० ॥

रेचक: पूरकश्चैव प्राणायामोऽथ कुम्भक: । प्रोच्यते सर्वशास्त्रेषु योगिभिर्यतमानसै:॥ ३१ ॥

रेचकः सृजते वायुं पूरकः पूरयेत्तु तम् । साम्येन संस्थितिर्यत्तत्कुम्भकः परिकीर्तितः॥ ३२ ॥

नीलोत्पलदलश्यामं नाभिमध्ये प्रतिष्ठितम् । चतुर्भुजं महात्मानं पूरके चिन्तयेद्धरिम्॥ ३३ ॥

कुम्भके तु हृदि स्थाने ध्यायेत्तु कमलासनम् । प्रजापतिं जगन्नाथं चतुर्वक्त्रं पितामहम्॥ ३४ ॥

रेचके शङ्‌करं ध्यायेल्ललाटस्थं महेश्वरम् । शुद्धस्फटिकसंकाशं निर्मलं पापनाशनम्॥ ३५ ॥

पूरके विष्णुसायुज्यं कुम्भके ब्रह्मणो गतिम् । रेचकेन तृतीयं तु प्राप्नुयादीश्वरं परम्॥ ३६ ॥

प्राणायामकी विधि-प्राणायामके तीन भेद होते हैं १. पूरक, २. कुम्भक और ३. रेचक।

  • रेचक-अंगूठे को हटाकर दाहिने छिद्रसे श्वासको धीरे-धीरे छोडने को रेचक प्राणायाम कहते हैं। इस समय ललाट में श्वेतवर्ण शंकर का ध्यान करना चाहिये एवं मनसे मन्त्र का जप करते रहना चाहिये।
  • कुम्भक-जब साँस खींचना रुक जाय, तब अनामिका और कनिष्ठिका अँगुलीसे नाकके बायें छिद्रको भी दबा दे । मन्त्र जपता रहे। यह कुम्भक प्राणायाम' हुआ। इस अवसरपर हृदयमें कमलपर विराजमान लाल वर्णवाले चतुर्मुख ब्रह्माका ध्यान करे।
  • पूरक-अँगूठेसे नाकके दाहिने छिद्रको दबाकर बायें छिद्रसे श्वासको धीरे-धीरे खींचनेको पूरक प्राणायाम कहते हैं। पूरक प्राणायाम करते समय उपर्युक्त मन्त्रोंका मनसे उच्चारण करते हुए नाभिदेशमें नीलकमलके दलके समान नीलवर्ण चतुर्भुज भगवान् विष्णुका ध्यान करें।

प्राणायाम का रहस्य

शारीरिक विकास

यद्यपि प्राणायाम का सम्बन्ध मानव जीवन के विभिन्न उपादानों के साथ है। मानव शरीर के विकास से प्रारम्भ करके मनुष्य को अमर बना देने की समस्या के हल तक उसकी पहुंच है,तथापि प्राणायम का फल जिसे सब लोग स्वयं अनुभव कर सकते है। इसके द्वारा पूर्ण शारीरिक विकास सम्भव है।

यह सर्वविदित बात है कि मानव जीवन के लिये तीन वस्तु सर्वाधिक अत्यावश्यक है-अन्न, जल, और वस्तु। उन तीनों में भी उत्तरोत्तर एक-दूसरे की अपेक्षा अत्याधिक आवश्यक है। अन्न अहोरात्र में एक बार भी मिल जाये,तो मनुष्य जो

प्राणायाम

श्वास साधना

मानसिक विकास

प्राणायाम से आयु वृद्धि

प्राणायाम की पूर्णता

प्राणायाम के भेद

प्राणायाम के लाभ

प्राणायाम से स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि

उद्धरण

  1. ब्रह्मवर्चस,(२००७) प्राणायाम से आधि-व्याधि निवारण, मथुरा: युग निर्माण योजना प्रेस अध्याय-०५ (पृ०५७)।