Difference between revisions of "Place of Woman in Hindu Society (हिन्दू समाज में स्त्री का स्थान)"

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Revision as of 20:41, 23 June 2020

प्रस्तावना

गत कुछ वर्षों में स्त्रियों पर अत्याचार की वारदातों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है। आए दिन दूरदर्शन पर दी जानेवाली १०० खबरों में ५-७ तो स्त्रियों पर हुए अत्याचारों की होतीं ही हैं। यह तो जो घटनाएँ प्रकाश में आती हैं उनकी संख्या है। जो लज्जा के कारण, अन्यों के दबाव के कारण प्रकाश में नहीं आ पायीं उनकी संख्या अलग है। समाज की ५०% जनता इस प्रकार अत्याचार के साये में अपना जीवन बिताए, यह किसी भी समाज के लिए शोभादायक नहीं है।

धार्मिक (धार्मिक) समाज में तो स्त्री का स्थान अन्य समाजों जैसा पुरुष से नीचे कभी नहीं माना गया।

मनुस्मृति में कहा गया है – यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। यानि वह समाज श्रेष्ठ होता है, देवताओं का होता है, दैवी गुणों से युक्त होता है जिस समाज में नारी की पूजा होती है।

वास्तविकता भी यही है कि धार्मिक (धार्मिक) समाज में जिस प्रकार से विष्णु, गणेश, महेश आदि के जैसी ही लक्ष्मी, दुर्गा, काली, सरस्वती की पूजा होती है अन्य किसी भी समाज में नहीं की जाती। धार्मिक (धार्मिक) समाज जैसी अर्ध नारी नटेश्वर की कल्पना विश्व के अन्य किसी भी समाज में नहीं है।

मनुस्मृति में और भी कहा है कि स्त्री हमेशा सुरक्षित रहे यह सुनिश्चित करना चाहिए। कहा है[1]:

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।

पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हती।। 9.3 ।।

स्त्री यह समाज की अनमोल धरोहर है। इसे कभी भी अरक्षित न रखा जाए। बचपन में पिता, यौवन में पति, बुढ़ापे में बेटा उसकी सदैव रक्षा करे। ऐसा कहने में स्त्री और पुरुष की प्राकृतिक सहज प्रवृत्तियों, क्षमताओं और आवश्यकताओं की गहरी समझ हमारे पूर्वजों ने बताई है।

आजकल अधिकारों का बोलबाला है। यह समाज में सामाजिकता कम होकर व्यक्तिवादिता यानि स्वार्थ की भावना के बढ़ने के कारण है। सर्वप्रथम हमारे राजनेता यूनेस्को से लाये ‘मानवाधिकार’ फिर लाये ‘स्त्रियों के अधिकार’ फिर लाये ‘बच्चों के अधिकार‘। हमारा संविधान भी मुख्यत: (कर्तव्यों की बहुत कम और) अधिकारों की बात करता है। पूरी कानून व्यवस्था ही अधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई है। जब अधिकारों का बोलबाला होता है तो झगड़े, संघर्ष, अशांति, बलावानों द्वारा अत्याचार तो होते ही हैं। जब सामाजिक संबंधों का आधार कर्तव्य होता है समाज में सुख, शांति, समृद्धि निर्माण होती है। लेकिन अपने पूर्वजों से कुछ सीखने के स्थान पर हम पश्चिम का अन्धानुकरण करने को ही प्रगति मानने लगे हैं।

मानव की सहज स्वाभाविक सामाजिकता को विघटित कर उसे केवल व्यक्तिवादी बनानेवाले जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान (paradigm) को हम अपनाते जा रहे हैं। ये समस्याएँ तथाकथित प्रगत देशों में भी हैं। लेकिन इस प्रकार के अत्याचार उनके लिए नई बात नहीं है। यह बात तो उन समाजों में स्वाभाविक ही मानी जाती है। स्त्रियाँ भी बहुत बवंडर नहीं मचातीं हैं। यौवनावस्थातक जिसका कौमार्य भंग नहीं हुआ ऐसी लड़कियाँ हीन मानी जातीं हैं। लड़की का विवाह के समय कुंवारी होना अपवाद ही होता है। लेकिन हम धार्मिक (धार्मिक) तो ऐसे नहीं थे। हमारे यहाँ तो घर घर की गृहिणी अपने कर्तव्यों के प्रति, अपने बच्चे को संस्कारयुक्त बनाने की दृष्टि से जागरुक होती थी। अपनी बेटी अपने से भी श्रेष्ठ बने ऐसे संस्कारों से उसे सिंचित करती थी। अपने बेटों को मातृवत परदारेषु के संस्कार कराती थी। अपने श्रेष्ठ व्यवहार से समाज में सम्मान पाती थी। आवश्यकतानुसार परिवार की मुखिया भी हुआ करती थी। वास्तव में हमारी मान्यता के अनुसार तो घर या गृह गृहिणी से ही बनता है। वसुधैव कुटुम्बकम् का आधार ही घर घर की गृहिणी हुआ करती थी।[2]

वर्तमान की वास्तविकता

स्त्री और पुरुष संबन्धों के विषय में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य समझे बिना वर्तमान में स्त्री की दुर्दशा का समाधान नहीं निकल सकता। ये तथ्य निम्न हैं:

  1. धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों को परमात्मा ने साथ में निर्माण किया है। दोनों में स्पर्धा नहीं है। दोनों एक दुसरे के पूरक हैं। पूरक का अर्थ है एक दुसरे के अभाव में अधूरे होना। जब अधूरापन महसूस होता है तो मनुष्य उसकी पूर्ति करने के प्रयास करता है। स्त्री और पुरुष में जो स्वाभाविक आकर्षण है वह इसी अधूरेपन को पूरा करने के लिए होता है। इसलिए स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर पूरक हैं। इनमें दोनों अलग अलग सन्दर्भ में एक दूसरे से श्रेष्ठ हैं।
  2. सामान्यत: स्त्री शारीरिक दृष्टि से पुरुष से दुर्बल है। अपवाद हो सकते हैं। अपवादों से ही नियम सिद्ध होते हैं।
  3. नर और मादा तो सभी जीवों में होते ही है। उनमें आकर्षण भी स्वाभाविक ही है। मानवेतर किसी भी जीव-जाति के नर द्वारा उस जीव-जाति की मादा पर बलात्कार संभव नहीं है। उनकी शारीरिक रचना ही ऐसी बनी हुई है। शरीर रचना के अंतर के कारण केवल मानव जाति में नारी के ऊपर नर बलात्कार कर सकता है। इसलिए मानव जाति को सुखी, सौहार्दपूर्ण, सुसंस्कृत सहजीवन जीने के लिए संस्कारों की और शिक्षण प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। इसी हेतु से विवाह होते हैं। परिवारों की रचना स्त्री की सुरक्षा के लिए भी होती है। पिता, भाई और पति ये तीनों ही पारिवारिक रिश्ते ही तो हैं जिनसे स्त्री की रक्षा की अपेक्षा होती है। इसी दृष्टि से विद्यालयीन और लोक शिक्षा की व्यवस्था में भी मार्गदर्शन होना चाहिए।
  4. बच्चे को जन्म देने का काम स्त्री और पुरुष दोनों करते हैं। लेकिन नवजात शिशू के साथ पुरुष और स्त्री के संबंधों में स्वाभाविक भिन्नता होती है। नवजात शिशू को स्त्री अपनी कोख में ९ महीने पालती है। गर्भस्थ बच्चे की रक्षा के लिए जागरुक रहती है। हर संभव प्रयास से उसे सुरक्षा देती है। बच्चा भी ९ महीने माता के उदर में रहता है। माता की साँस के माध्यम से साँस लेता है। माता के अन्न खाने से पोषित होता है। माता की भाव भावनाओं से प्रभावित होता है। इन ९ महीनों में पुरुष की या पिता की भूमिका दुय्यम और माता की भूमिका अहम् होती है।
  5. यह सामान्य ज्ञान की बात है कि जिसका अन्न खाओगे उसकी चाकरी करोगे। यह सामान्य नियम है। बच्चे को भी लागु होता है। माता के दूध पिलाए बिना वह जी नहीं सकता। माता ही उसका जीवन है। इतना तो वह बच्चा भी समझता है। यह प्रकृति-प्रदत्त ऐसी स्थिति है। इसलिए माता का प्रभाव बच्चे पर अन्य किसी यानि पिता से भी अधिक होगा यह स्वाभाविक है। शिशु से पिता की पहचान भी तो माता ही कराती है।
  6. विवाह के समय पुरुष की आयु स्त्री से अधिक रखने के कई कारण हैं। स्त्री यानि लड़की आयु की अवस्था की दृष्टि से यौन संबंधों के सन्दर्भ में जल्दी सज्ञान बनती है। सामान्यत: ११ से १४ वर्ष की आयु में लड़कियाँ यौन आकर्षण का अनुभव करने लग जाती हैं। संपर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति आकर्षण अनुभव करने लग जाती है। उनका चिन्तन करने लग जाती हैं। पुरुष यानि लडके १४ – १६ वर्ष की आयु में सज्ञान होते हैं। इसी प्रकार से प्रसूतियों के कारण स्त्री के शरीर में जो कुछ कमी निर्माण हो जाती है उसका भी विचार किया गया है। पिछली सदी में बच्चे अधिक संख्या में पैदा होते थे। इसलिए पुरुष से स्त्री विवाह के समय ८-१० वर्ष कम आयु की हुआ करती थी। हम दो हमारे दो के काल में यह अंतर ४-५ वर्ष तक कम हो जाना स्वाभाविक ही है। इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर विवाह के समय पुरुष और स्त्री की आयु में अंतर रखा जाता है। स्त्री कम आयु की होती है। ऐसा करने के पीछे दोनों का सहजीवन और जीवन भी लगभग साथ में समाप्त हो ऐसा विचार होता है। साथी के बिना जीवन बिताने का समय न्यूनतम हो यही विवाह के समय स्त्री और पुरुष की आयु में अंतर रखने के पीछे भूमिका होती है। तीसरा कारण आयु अधिक होने से पत्नी के रक्षण की दृष्टि से पति को अधिक अनुभव रहे इससे भी है।
  7. धार्मिक (धार्मिक) समाज में असंस्कृत घरों में स्त्री को जो दुय्यम स्थिति प्राप्त हुई है इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। पहला कारण बौद्ध कालीन है। आदि शंकराचार्य के समयतक भारत में बौद्ध मत अत्यंत प्रभावी बन गया था। राजाओं के आश्रय के कारण और मुक्त यौन संबंधों के कारण बौद्ध विहार व्यभिचार के अड्डे बन गए थे। यौन आकर्षण के कारण जवान लड़कियाँ संघों में शरण ले लेतीं थीं। एक बार संघ में शरण ले लेने के बाद उसे वहाँ से वापस लाना लगभग असंभव होता था। इसलिए लड़कियों के माता पिता लड़की के सज्ञान होने से पहले ही अपनी बेटियों के विवाह करा देते थे। इसलिए बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक (धार्मिक) समाज का इस काल में बहुत नुकसान हुआ। फिर हुए बर्बर मुस्लिम आक्रमण। ये आक्रमणकारी शत्रू की स्त्रियों पर बलात्कार, अत्याचार करना अपने मजहब के अनुसार उचित मानते थे। लड़कियों, स्त्रियों को भगाकर ले जाना, दासी बनाना, रखेली बनाना, गुलाम बनाना, बेचना ये सब बातें इनके लिए मजहबी दृष्टि से आवश्यक थीं। प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज की चाची को मुसलमान भगा ले गए थे। उसे शिवाजी के पिता शाहजी जैसा उस समय का एक जबरदस्त कद्दावर सेनापति भी वापस नहीं ला सका था। ऐसी परिस्थिति में स्त्री का घर से बाहर निकलना ही बंद हो गया। इसके परिणामस्वरूप भी स्त्री शिक्षा की अपार हानि हुई। अन्यथा शंकराचार्य के काल तक तो मंडन मिश्र की पत्नी भारती जैसी विदुषियों की भारत में उपलब्धता थी।
  8. अब स्त्रियों को शिक्षा के द्वार खुल गए हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि मिलने वाली शिक्षा विपरीत शिक्षा है। गुलामी की शिक्षा है। स्त्री को परायों के पास जाने को बाध्य करनेवाली और उनको नौकर बनानेवाली शिक्षा है। असंस्कृत समाज निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री को बरगलाने वाली शिक्षा है। संस्कारों का काम सरकार डंडे की मदद से करे ऐसी अपेक्षा समाज में निर्माण करनेवाली शिक्षा है। स्त्री-मुक्ति के नाम पर स्त्री का शोषण करने के लिये स्त्री को भोग वस्तु बनानेवाली शिक्षा है। स्त्री को अरक्षित करनेवाले अर्थशास्त्र को सिखाने वाली शिक्षा है। पारिवारिक सुरक्षा कवच को तोड़ने की स्त्री को प्रेरणा देनेवाली शिक्षा है। केवल स्त्री ही नहीं तो पुरुषों को भी कर्तव्यों के स्थानपर अधिकारों के लिए झगडा करने को प्रेरित करने वाली शिक्षा है। अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ किस में है इसका विवेक नष्ट करनेवाली शिक्षा है।
  9. स्वामी विवेकानंद कहते थे कि उनकी माता और पिता ने अच्छे बच्चे की प्राप्ति के लिए बहुत तप किया था। उनके काल में कई घरों में माता पिता श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए ऐसा तप करते थे। अब हालत यह है कि सामान्यत: बच्चे अपघात से पैदा हो रहे हैं। माता पिता का परिवार नियोजन चल रहा होता है। बच्चे की कोई चाहत होती नहीं है। लेकिन प्रकृति काम करती रहती है। किसी असावधानी के क्षण के कारण गर्भ ठहर जाता है। ऐसे माता पिताओं से और उनके द्वारा अपघात से पैदा हुए बच्चों से संस्कारों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
  10. सामाजिक दृष्टि से सम्मान की बात आती है तब भी माता का क्रम सबसे पहले आता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में जो समावर्तन संस्कार के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश है उसमें कहा गया है: मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव , माता का स्थान पिता से और गुरु से भी ऊपर का माना गया है।
  11. प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) आख्यायिका के अनुसार मूलत: विवाह का चलन ही स्त्री की सुरक्षा के लिए शुरू हुआ था। एक तेजस्वी बालक था। नाम था श्वेतकेतु। उस की माता का विरोध होते हुए भी कुछ बलवान पुरुष उसकी माता का विनय भंग करने लगे। पुत्र से यह देखा नहीं गया। लेकिन वह छोटा था। दुर्बल था। इस स्थिति को बदलने का उसने प्रण किया। उसने सार्वत्रिक जागृति कर विवाह की प्रथा को जन्म दिया। स्त्रियों को यानि समाज के ५० % घटकों को इससे सुरक्षा प्राप्त होने के कारण, सुविधा होने के कारण विवाह संस्था सर्वमान्य हो गई। अभी तक इससे श्रेष्ठ अन्य व्यवस्था कोई निर्माण नहीं कर पाया है।
  12. समाज में धर्म का अनुपालन करनेवाले लोगों की संख्या ९०-९५ % तक लाने का काम शिक्षा का है। बचे हुए ५-१० % लोगों के लिए ही शासन व्यवस्था होती है। जब तक शिक्षा अक्षम होती है अर्थात् शिक्षा समाज में धर्म का पालन करने वाले लोगों की संख्या को ९०-९५ % तक नहीं ले जाती, शासन ठीक से काम नहीं कर सकता। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों का अचूक आकलन और पूर्वजों का मार्गदर्शन इन दोनों के प्रकाश में हमें वर्तमान की स्त्रियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की समस्या का हल निकालना होगा।

समस्या के मूल

सर्व प्रथम यह समस्या जिन कारणों से निर्माण हुई है उनका हम उनकी व्यापकता के स्तर के अनुसार विचार करेंगे:

  1. पारिवारिक भावना पर आधारित जीवन के प्रतिमान के स्थान पर व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जडवादिता की जीवन दृष्टिपर पर आधारित जीवन के प्रतिमान का स्वीकार : जीवन के प्रतिमान से परे समाज जीवन और व्यक्ति के जीवन का कोई पहलू नहीं होता।
    1. व्यक्तिवादिता का अर्थ है स्वार्थ भाव। सारी सृष्टि मेरे उपभोग के लिए बनीं है ऐसी भावना लोगों में निर्माण होती है। स्वार्थ भावना वाले समाज में बलवानों की ही चलती है। शारीरिक दृष्टि से स्त्री दुर्बल होने से उसका शोषण, उस पर अत्याचार होना स्वाभाविक ही है।
    2. इहवादिता की भावना के कारण कर्मसिद्धांत के ऊपर विश्वास नहीं होता। इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में इस अत्याचार के परिणाम मुझे भोगने ही होंगे, ऐसी मान्यता नहीं होती। फलस्वरूप जहाँ कहीं अत्याचार कर छूट जाने की संभावनाएं होंगी वहाँ पुरुष अत्याचार कर गुजरता है।
    3. जडवादिता में मनुष्य को मात्र एक रासायनिक प्रक्रिया मान लेने से अत्याचार के कारण पीड़ित को होनेवाले क्लेश, दुख:, पीड़ा आदि की सह-अनुभूति होती ही नहीं है। लगभग पूरा समाज ही इस घटिया प्रतिमान में जी रहा होने के कारण समाज के अन्य घटकों की संवेदनशीलता भी कम ही होती है। महिलाएँ भी एक मोमबत्ती मोर्चा निकालकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा हुआ मान लेतीं हैं।
  2. वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है। इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होने पर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है। तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है। जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है। वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है। अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है। अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं। एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया कि फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं। परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है।
  3. विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है। यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है। यह बड़ा सरल होता है। स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। यह तो जन्मजात भावना होती है। बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है। अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता। लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है।
  4. परिवारों से पारिवारिक भावना और परिवार तत्व का नष्ट हो जाना : वर्तमान में परिवार रचना तेजी से टूट रही है। परिवारों की ‘फैमिली’ बन गई है। माता, पिता और उनके ऊपर निर्भर संतानें इतने सदस्यों तक ही फैमिली मर्यादित होती है। फिर आजकल विवाह भी समझौता (कोन्ट्रेक्ट) होता है। करार होता है। समझौता या करार यह दो लोगों ने अपने अपने स्वार्थ के लिए आपस में किया हुआ शर्तों का सूचीपत्र होता है। अपने अपने स्वार्थों के लिए, मुख्यत: अपनी यौवन सुलभ इच्छाओं की या वासना की पूर्ति के लिए जो स्त्री पुरुष साथ में रहते हें उनसे बच्चों को संस्कारित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। वे तो बच्चों को स्वार्थ ही सिखाएँगे। अधिकारों के लिए कैसे लड़ना यही सिखाएँगे। परिवार व्यवस्था का निर्माण ही वास्तव में केवल अधिकारों की समझ लेकर जन्म लिए हुए बच्चे को केवल कर्तव्यों के लिये जीने वाला मनुष्य बनाने के लिए किया गया है। घर के मुखिया के केवल कर्तव्य होते हैं। कोई अधिकार नहीं होते। इसी कारण ऐसा कहा जाता है की परिवार यह सामाजिकता की पाठशाला होती है। सामाजिकता का आधार अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देने की मानसिकता यही होता है।
  5. माताओं में गुरुत्व का अभाव : माँ के जने बिना कोई बच्चा जन्म नहीं लेता। बच्चे का पोषण माता ही करती है। जिसने जन्म दिया है और जो पोषण करती है उसके प्रति कृतज्ञता की भावना होना मानवता का लक्षण है। ऐसा होने के उपरांत भी बच्चे बिगड़ रहे हैं। स्त्रियों पर अत्याचार कर रहे हैं। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयीन शिक्षा होता है। धार्मिक (धार्मिक) माताएं भी ऐसा ही मानने लगीं हैं। वास्तव में बच्चे की ७५ – ८० % घडन तो घर-परिवार में ही होती है।

श्रेष्ठ मानव निर्माण के लिए दो बातें आवश्यक होतीं हैं। पहली बात है बीज का शुद्ध होना। दूसरी बात है संस्कार और शिक्षा। बीज में खोट होने से संस्कार और शिक्षा कितने भी श्रेष्ठ हों मायने नहीं रखते। संस्कार और शिक्षा भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। बीज को बंजर जमींन में फ़ेंक देने से कितना भी श्रेष्ठ बीज हो वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ बीज को जन्म देने का ५० % और श्रेष्ठ संस्कार देने का २५ % काम भी परिवार में ही होता है। शिक्षा की जिम्मेदारी तो बचे हुए महज २५ % की होती है। इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ मानव निर्माण की मुख्य जिम्मेदारी परिवार की यानि माता और पिता की होती है।

धार्मिक (धार्मिक) शैक्षिक चिंतन के अनुसार कहा गया है – माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो। अर्थ है श्रेष्ठ मानव निर्माण की जिम्मेदारी माता और पिता की साझी होती है। लेकिन उन में भी माता की जिम्मेदारी प्राथमिक और अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। बच्चे पर किये जाने वाले या होने वाले गर्भपूर्व और गर्भसंस्कार मुख्यत: माता के माध्यम से और माता चाहे तो ही होते हैं। इनमें पिता की भूमिका तो दुय्यम ही हो सकती है। सहयोगी की ही हो सकती है। ऐसी परिस्थिति में बच्चा यदि बिगड़ता है तो जिम्मेदारी पिता की तो है ही लेकिन यह जिम्मेदारी प्राथमिकता से माता की ही होगी। इसलिए इसे सुधारने के लिए किसी एक बिंदु से नहीं तो सभी बिन्दुओं को लेकर एक साथ पहल करने की आवश्यकता है। लेकिन स्त्री की सुरक्षा की दृष्टि से इन सभी बिन्दुओं में सुधार होने तक नहीं रुका जा सकता। जीवन का पूरा प्रतिमान, लोकतंत्र, विपरीत शिक्षा, परिवारों का सुदृढीकरण आदि सभी में पूरे समाज की यानि स्त्री और पुरुष दोनों की पहल और सहयोग आवश्यक है। जब कि माता प्रथमो गुरु: में केवल स्त्री की पहल और सक्रियता की आवश्यकता है।

माता प्रथमो गुरु: पिता द्वितीयो

बर्बर आक्रमण, गुलामी और वर्तमान जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण तथा गत १० पीढ़ियों से चल रही विपरीत शिक्षा के कारण श्रेष्ठ संतान कैसे निर्माण की जाती है यह बात वर्तमान में स्त्री भूल गई है। वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने कि दृष्टि से स्त्रियों के लिए माता प्रथमो गुरु: का अर्थ समझ लेना हितकारी है :

  1. गर्भपूर्व संस्कार : माता प्रथमो गुरु: बनने की तैयारी तो गर्भ धारणा से बहुत पहले से शुरू करनी होती है। वैसे तो यह तैयारी बाल्यावस्था में और कौमार्यावस्था में माँ कराए यह आवश्यक है। लेकिन जिन लड़कियों के बारे में उनकी माँ ने ऐसी तैयारी नहीं कराई है उन्हें अपने से ही और वह विवाहपूर्व जिस भी आयु की अवस्था में है उस अवस्था से इसे करना होगा। संयुक्त परिवारों में ज्येष्ठ और अनुभवी महिला इसमें बालिकाओं और युवतियों का मार्गदर्शन किया करती थीं। विभक्त परिवारों में तो यह जिम्मेदारी माता की ही है। इसमें निम्न बिन्दुओं का समावेश होगा। ये सभी बातें होनेवाले पिता (द्वितीयो गुरु:) के लिए भी आवश्यक है :
    1. ब्रह्मचर्य का पालन करना। अर्थात् मनपर संयम रखना। पति के रूप में पुरुष का चिन्तन नहीं करना। यह बहुत कठिन है लेकिन करना तो आवश्यक ही है। शायद इसीलिए बाल विवाह की प्रथा चली होगी? इससे मन श्रेष्ठ बनता है।
    2. अपनी आहार विहार और व्यायाम की आदतों को श्रेष्ठ रखना। स्वास्थ्य अच्छा रहे यह सुनिश्चित करना।
    3. आजकल स्त्रियों को भी नौकरी करने का शौक हो गया है। विपरीत शिक्षा के कारण अन्य किसी कौशल के ह्स्तगत नहीं होने से मजबूरी में पति नौकरी करे यह समझ में आता है। स्त्री को भी मजबूरी में नौकरी करनी पड़े यह भी समझ में आता है। किन्तु अच्छे कमाऊ पति के होते हुए भी पत्नी नौकरी करना ‘स्वाभिमान’ का लक्षण मानती है, यह बात समझ से बाहर है। विशेषत: माता यदि नौकर है तो बच्चे मालिक की मानसिकता के कैसे बनेंगे? माता कुमाता नहीं होती। ऐसी कहावत थी। लेकिन नौकर माँ क्या कुमाता नहीं होगी? नौकरों को जन्म देनेवाली नहीं होगी। इसलिए जिन्हें श्रेष्ठ माता बनना है उन्हें यथा संभव नौकर नहीं बनना चाहिए।
  2. गर्भधारणा के लिए
    1. केवल अपने पति का ही चिन्तन मन में रहे। पति भी पत्नी के प्रति निष्ठावान रहे।
    2. कैसे गुण लक्षणों की संतान की अपेक्षा है यह पति के साथ तय करना।
    3. योग्य वैद्यों तथा ज्योतिषाचार्यों की सलाह लेना। गर्भधारणा का समय तय करना। असावधानी के कारण अपघात से गलत समय पर गर्भधारणा न हो इसे ध्यान में रखना।
    4. गर्भधारणा से पहले कुछ मास तक पति और पत्नी दोनों ने कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना। ऐसा करने से माता का और पिता का दोनों का ओज बढ़ता है। पत्नी जब नौकरी नहीं करती उसे अन्य पुरुषों का सहवास नहीं मिलता। ऐसी स्त्रियों को ब्रह्मचर्य पालन कम कठिन होता है। समय का सार्थक उपयोग करने के लिए घर में अकेली माँ को निश्चय की आवश्यकता होती है। समय का सार्थक उपयोग करने के लिए संयुक्त परिवार में कई अच्छे अच्छे तरीके होते हैं। जैसे भजन मण्डली, कथाकथन, घर के काम, सिलाई, बुनाई आदि। इसलिए संयुक्त परिवारों में तो ब्रह्मचर्य पालन और भी कम कठिन होता है।
    5. जिन गुण लक्षणों वाली संतान की इच्छा है उस के गुण लक्षणों के अनुरूप और अनुकूल अपना व्यवहार रखना। उन गुण और लक्षणों का निरंतर चिंतन करना। उन गुण लक्षणों वाले महापुरुषों की कथाएँ पढ़ना। गीत सुनना। वैसा वातावरण बनाए रखना। पराई स्त्री माता के समान होती है इस भाव को मन पर अंकित करनेवाली कहानियाँ पढ़ना। स्त्री का आदर, सम्मान करनेवाली कहानियां पढ़ना, सुनना। अश्लील, हिंसक साहित्य, सिनेमा, दूरदर्शन की मलिकाओं से दूर रहना। माता पिता दोनों के लिए यह आवश्यक है।
  3. गर्भधारणा के बाद संतान के जन्म तक: इस काल में पिता की भूमिका दुय्यम हो जाती है। माता के सहायक की हो जाती है। मुख्य भूमिका माता की ही होती है।
    1. उपर्युक्त बिंदु २.५ में बताई बातों को ‘स्व’भाव बनाना।
    2. गर्भ को हानी हो ऐसा कुछ भी नहीं करना। अपनी हानिकारक पसंद या आदतों को बदलना। शरीर स्वास्थ्य अच्छा रखना।
    3. गर्भ में बच्चे के विभिन्न अवयवों के विकास क्रम को समझकर उन अवयवों के लिए पूरक पोषक आहार विहार का अनुपालन करना। योगाचार्यों के मार्गदर्शन के अनुसार व्यायाम करना। बच्चे का गर्भ में निरंतर विकास हो रहा है इसे ध्यान में रखकर मन सदैव प्रसन्न रखना।
  4. जन्म के उपरांत ५ वर्ष की आयुतक
    1. माता का दूध बच्चे के लिए आवश्यक होता है। दूध पीता बच्चा लोगों को पहचानने लगता है। बारबार माँ का दूध पीने से वह माँ को सबसे अधिक पहचानता है। चाहता है। आसपास माँ को न पाकर वह बेचैन हो जाता है। रोने लग जाता है। माँ की हर बात मानता है। गर्भधारणा के समय बच्चा अत्यंत संवेदनशील होता है। अत्यंत संस्कारक्षम होता है। जैसे जैसे गर्भ की आयु बढ़ती है उसकी संस्कार क्षमता कम होती जाती है। इस अवस्था में माँ बच्चे के जितनी निकट होती है, अन्य कोई नहीं। इस कारण माँ की आदतें, क्रियाकलाप बच्चे को बहुत प्रभावित करते हैं। बच्चे को उसका पिता कौन है इसका परिचय माता ही कराती है।
    2. जब तक बच्चा दूध पीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है। इसलिए इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है।
    3. बच्चे की ५ वर्ष तक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है। इस आयु में बच्चे पर संस्कार करना सरल होता है। लेकिन संस्कार क्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है। इसलिए इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है। बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए। संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है। इसलिए विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है। इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगों से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है।
    4. बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं। छोटे बच्चों को हर कोई टोकता रहता है। यह बच्चों को रास नहीं आता। इसलिए हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है। वह बड़ों का अनुकरण करता है। इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं। संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं। उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं। माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की मदद करने का होता है। इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये। माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए। इस में माँ अपने पति की मदद ले सकती है।
    5. अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है। वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगों में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है। लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं।
  5. बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होने पर:
    1. इस आयु से माता द्वितीयो और पिता प्रथमो गुरु: ऐसा भूमिकाओं में परिवर्तन होता है। पिता की जिम्मेदारी प्राथमिक और माता की भूमिका सहायक की हो जाती है। अब बच्चे के स्वभाव को उपयुक्त आकार देने के लिए ताडन की आवश्यकता भी होती है। ताडन का अर्थ मारना पीटना नहीं है। आवश्यकता के अनुसार कठोर व्यवहार से बच्चे को अच्छी आदतें लगाने से है। यह काम कोमल मन की माता, पिता जितना अच्छा नहीं कर सकती। लेकिन पिता अपने व्यवसायिक भागदौड़ में बच्चे को समय नहीं दे सकता यह ध्यान में रखकर ही गुरुकुलों की रचना की गई थी। बच्चा गुरु का मानसपुत्र ही माना गया है। किन्तु गुरुकुलों के अभाव में यह जिम्मेदारी पिता की ही होती है। संयुक्त परिवारों में घर के ज्येष्ठ पुरुष इस भूमिका का निर्वहन करते थे। अब तो स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (स्पेस) की आस और दुराग्रह के कारण घर में अन्य किसी का होना असहनीय हो जाता है। विवाह बढ़ी आयु में होने के कारण भी अन्यों के साथ समायोजन कठिन हो जाता है। किन्तु स्त्री की समस्याओं को सुलझाना हो तो कुछ मात्रा में अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को तिलांजलि देकर भी बच्चों पर संस्कार करने हेतु मार्गदर्शन करने के लिये घर में ज्येष्ठ लोग होंगे ऐसे संयुक्त परिवारों में विवाह करने की प्रथा को फिर से स्थापित करना होगा।

उपसंहार

उपर्युक्त सभी बिंदु श्रेष्ठ मानव निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। महत्व क्रम की दृष्टि से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी घटकों द्वारा प्रभावित होती है। उसी प्रकार से माता की जिम्मेदारी अन्य सभी बिन्दुओं को भी प्रभावित करती है। इसलिए पहले सुधार कहाँ से शुरू हो यह समस्या खड़ी हो जाती है। पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी पहेली से भी अधिक यह पहेली बन जाती है। इस पहेली का उत्तर पहले अंडा यह है। मुर्गी को पकड़ना अति कठिन काम है। अंडे को पकड़ना सरल है। इसलिए बुद्धिमान लोग अंडे से शुरू करते हैं। स्त्रियों की दृष्टि से जो काम वे स्वत: कर सकतीं हैं वह उन्हें करना शुरू कर देना चाहिए। शासन, पुलिस, अत्याचारी, बलात्कारी आदि अन्यों की ओर उंगली बताना सरल है। योग्य भी है। किन्तु इसकी अपेक्षा तो अपना कर्तव्य निभाने के बाद ही की जा सकती है। विद्वानों का कहना है – उद्धरेदात्मनात्मानम्।

अर्थ है मेरा उद्धार मैं ही कर सकता हूँ कोई अन्य नहीं। जो चाहता है कि उसका उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए तप करना होता है। वर्तमान में स्त्री ही भुक्तभोगी होने के कारण स्त्री इसमें पहल करे यह उचित होगा। जो चाहता है कि मेरा उद्धार हो, उसे ही उद्धार के लिए पहल और कृति करनी होती है। इस दृष्टि से भी स्त्री को अत्याचारों से छुटकारा पाना है तो पहल और कृति स्त्री करे यह तो स्वाभाविक ही कहा जाएगा। वीरमाता जीजाबाई के देश में ‘मातृवत् परदारेषु’ यानि ‘पराई स्त्री माता के समान होती है’ इसका संस्कार अपने बच्चों पर करना यह कठिन बात नहीं है। बस ! माताएं मन में ठान लें।

References

  1. मनुस्मृति 9.3
  2. जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १३, लेखक - दिलीप केलकर

अन्य स्रोत: 1. अधिजनन शास्त्र- पुनरुत्थान ट्रस्ट प्रकाशन 2. चाणक्य सूत्र