Difference between revisions of "Panchamahayajna (पञ्चमहायज्ञ)"

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सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पञ्चमहायज्ञों के सम्पादन की व्यवस्था है।शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जन्म लेते ही तीन प्रकार के(देव, ऋषि एवं पितृ) ऋणों से ऋणी हो जाता है। <blockquote>जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते (तै० सं० ६।३।१०। ५) </blockquote>शास्त्रविधिके अनुसार तीनों ऋणों से अनृण होनेके लिये शास्त्रोंने नित्यकर्मका विधान किया है। जिसे करके मनुष्य <nowiki>''</nowiki>देव, ऋषि और पितृ<nowiki>''</nowiki>-सम्बन्धी तीनों ऋणोंसे मुक्त हो सकता है।नित्यकर्ममें शारीरिक शुद्धि, सन्ध्यावन्दन, तर्पण और देव-पूजन प्रभृति शास्त्रनिर्दिष्ट कर्म आते हैं। इनमें मुख्य निम्नलिखित छः कर्म बताये गये हैं-<blockquote>सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम् । वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने ।(बृ. प० स्मृ० १।३९) </blockquote>मनुष्यको स्नान, सन्ध्या, जप, देवपूजन, बलिवैश्वदेव और अतिथि सत्कार-ये छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिये। सामान्यतः लौकिक जीवन में मानव को स्वयं के भविष्य को सँवारने के लिये सन्ध्यावन्दन का विधान किया गया है। कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता और सदाचार के लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म-कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया जाता है। पंचमहायज्ञमें देवता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव-जन्तु, समाज, मानव आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है।
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सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पञ्चमहायज्ञों के सम्पादन की व्यवस्था है।शास्त्रों के अनुसार साधारणतया मनुष्य जन्म लेते ही तीन प्रकार के(देव, ऋषि एवं पितृ) ऋणों से ऋणी हो जाता है। जैसा कि तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है- <blockquote>जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते (तैत्ति० संहि० प्रश्न ३,अनु० १०, पञ्चा० )<ref>तैत्तिरीय संहिता ([https://sa.wikisource.org/s/9rh काण्ड ६]) </ref> </blockquote>स्वाभाविक है कि ऋण देने वाले भी हमसे कुछ न कुछ अपेक्षाऍं रखते हैं। इनके प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य बनता है। शास्त्रविधिके अनुसार तीनों ऋणों से अनृण होनेके लिये शास्त्रोंने नित्यकर्मका विधान किया है। जिसे करके मनुष्य देव, ऋषि और पितृ-सम्बन्धी तीनों ऋणोंसे मुक्त हो सकता है।नित्यकर्ममें शारीरिक शुद्धि, सन्ध्यावन्दन, तर्पण और देव-पूजन प्रभृति शास्त्रनिर्दिष्ट कर्म आते हैं। इनमें मुख्य निम्नलिखित छः कर्म बताये गये हैं-<blockquote>सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम् । वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने ।(परा० स्मृ० १-३९)<ref>पराशर स्मृति ([https://sa.wikisource.org/s/3ol अध्याय १])।</ref> </blockquote>मनुष्यको स्नान, सन्ध्या, जप, देवपूजन, बलिवैश्वदेव(पञ्चमहायज्ञों को ही बलिवैश्वदेव कहते हैं)<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़, '''यज्ञमीमांसा''',चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी (पृ०३३)।</ref> और अतिथि सत्कार-ये छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिये। सामान्यतः लौकिक जीवन में मानव को स्वयं के भविष्य को सँवारने के लिये सन्ध्यावन्दन का विधान किया गया है। कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता और सदाचार के लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म-कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया जाता है। पंचमहायज्ञमें देवता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव-जन्तु, समाज, मानव आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है।
  
 
== परिचय ==
 
== परिचय ==
सनातन धर्म में गृहस्थमात्र के लिये पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है।गृहस्थ प्रतिदिन झाडू-पोंछा, अग्निकुण्ड, चक्की, सूप, जलघट आदि स्थान या सामग्रीके द्वारा प्राणियोंको आहत करता है।शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है कि गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है-<blockquote>पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।</blockquote><blockquote>तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।</blockquote>'''अर्थ'''-चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें) तथा घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं इस तरहकी क्रियाओंके माध्यमसे सूक्ष्म जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसाको जिसे कि जीवनमें टाला नहीं जा सकता, शास्त्रों में सूना कहा गया है। इसकी संख्या पाँच होनेसे ये पंचसूना कहलाते हैं।  
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सनातन धर्म में गृहस्थमात्र के लिये पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है।गृहस्थ प्रतिदिन झाडू-पोंछा, अग्निकुण्ड, चक्की, सूप, जलघट आदि स्थान या सामग्रीके द्वारा प्राणियोंको आहत करता है।शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है कि गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है-<blockquote>पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।</blockquote><blockquote>तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।(मनु स्मृ०६-५८/५९)<ref>मनु स्मृति ([https://sa.wikisource.org/s/3mp अध्याय ६])।</ref></blockquote>'''अर्थ'''-चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें) तथा घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं इस तरहकी क्रियाओंके माध्यमसे सूक्ष्म जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसाको जिसे कि जीवनमें टाला नहीं जा सकता, शास्त्रों में सूना कहा गया है। इसकी संख्या पाँच होनेसे ये पंचसूना कहलाते हैं। किन्तु ब्रह्मचारी प्रथम तीन सूनाओं से अग्नि-होम, गुरु-सेवा एवं वेदाध्ययन के द्वारा छुटकारा पाते हैं ।गृहस्थ लोग एवं वानप्रस्थ लोग इन पाँचों सूनाओं से छुटकारा पाँच यज्ञ करके पाते हैं।यति (सन्न्यासी)लोग प्रथम दो सूनाओं से पवित्र ज्ञान एवं मनोयोग के द्वारा छुटकारा करते हैं।  
  
शास्त्र के अनुसार मुख्यतः कर्म तीन प्रकार के होते हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य।जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो और न करने से पाप लगे उन्हें नित्यकर्म कहते हैं; जैसे त्रिकालसन्ध्या, पञ्चमहायज्ञ इत्यादि।शास्त्रों में सन्ध्या वन्दन के उपरान्त पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है। पञ्चमहायज्ञ करने से पारलौकिक लाभ तो हैं ही ऐहलौकिक आत्मोन्नति आदि अवान्तर फल की प्राप्ति होने पर भी पञ्चसूना दोष से छुटकारा पाने के लिये शास्त्रकारों की आज्ञा है कि-<blockquote>सर्वैर्गृहस्थैः पञ्चमहायज्ञा अहरहः कर्तव्याः।</blockquote>अर्थात् गृहस्थमात्र को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ करने चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि पञ्चमहायज्ञ करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु न करने से पाप का प्रादुर्भाव अवश्य होता है ।अतःइसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- <blockquote>अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥मनुस्मृति(३/६०)</blockquote>'''भावार्थ'''-(१)ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, (२)पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, (३)देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, (४)भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, (५)मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।अतएव मनु जी ने कहा है-<blockquote>स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥मनुस्मृति(२।२८)</blockquote>'''भाषार्थ-''' वेदाध्ययनसे, मधु-मांसादिके त्यागरूप व्रतसे, हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृतर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य बनाया जाता है।शतपथ ब्राह्मण में पञ्चमहायज्ञों को महासत्र के नाम से व्यवहृत किया गया है-<blockquote>पञ्चैव महायज्ञाः। तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति । शतपथ ब्राह्मण ११।५।६।७।</blockquote>केवल पांच ही महायज्ञ हैं, वे महान् सत्र हैं और वे इस प्रकार हैं- भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ।<blockquote>कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति ।।</blockquote>'''अर्थ'''-कूटना, पीसना, चूल्हा, जल भरना और झाडू लगाना-पंचसूना जन्य इन सभी पापोंका शमन पंचमहायज्ञसे ही होता है। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार यह पंचमहायज्ञ करता है, सुतरां सभी पापोंसे वह मुक्ति पा लेता है।तैत्तिरीय आरण्यक के मतमें जहाँ ये पंचमहायज्ञ अजस्ररूपसे गृहस्थोंको धन-समृद्धिसे परिपूर्ण करते हैं ।तैत्तिरीय आरण्यक(११।१०)।
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शास्त्र के अनुसार मुख्यतः कर्म तीन प्रकार के होते हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य।जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो और न करने से पाप लगे उन्हें नित्यकर्म कहते हैं; जैसे त्रिकालसन्ध्या, पञ्चमहायज्ञ इत्यादि।शास्त्रों में सन्ध्या वन्दन के उपरान्त पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है। पञ्चमहायज्ञ करने से पारलौकिक लाभ तो हैं ही ऐहलौकिक आत्मोन्नति आदि अवान्तर फल की प्राप्ति होने पर भी पञ्चसूना दोष से छुटकारा पाने के लिये शास्त्रकारों की आज्ञा है कि-<blockquote>सर्वैर्गृहस्थैः पञ्चमहायज्ञा अहरहः कर्तव्याः॥(यज्ञ मीमांसा पृ०३५))<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़, '''''यज्ञमीमांसा''''', वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन।</ref></blockquote>अर्थात् गृहस्थमात्र को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ करने चाहिए।  
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इससे यह स्पष्ट है कि पञ्चमहायज्ञ करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु न करने से पाप का प्रादुर्भाव अवश्य होता है ।अतःइसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- <blockquote>अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् (मनु स्मृ० -६०)<ref>मनु स्मृति ([https://sa.wikisource.org/s/3mp अध्याय-३])</ref></blockquote>'''भावार्थ'''-ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।अतएव मनु जी ने कहा है-<blockquote>स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥(मनु स्मृ० २-२८)<ref>मनुस्मृति([https://sa.wikisource.org/s/3mo अध्याय २])।</ref></blockquote>'''भाषार्थ-''' वेदाध्ययनसे, मधु-मांसादिके त्यागरूप व्रतसे, हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृतर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य बनाया जाता है।शतपथ ब्राह्मण में पञ्चमहायज्ञों को महासत्र के नाम से व्यवहृत किया गया है-<blockquote>पञ्चैव महायज्ञाः। तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति ॥(शत०ब्रा० अध्य ५ । ब्राह्म ६ खण्ड ७।)<ref>शतपथ ब्राह्मण ([https://sa.wikisource.org/s/h7y काण्ड ११] अध्याय ५)।</ref></blockquote>केवल पांच ही महायज्ञ हैं, वे महान् सत्र हैं और वे इस प्रकार हैं- भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ।<blockquote>कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति॥(जीवनचर्या अंक)<ref>डॉ०श्री उदय नाथ जी झा,पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान-नित्यचर्या का अभिन्न अंग,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर(पृ०२८८)।</ref></blockquote>'''अर्थ'''-कूटना, पीसना, चूल्हा, जल भरना और झाडू लगाना-पंचसूना जन्य इन सभी पापोंका शमन पंचमहायज्ञसे ही होता है। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार यह पंचमहायज्ञ करता है सभी पापोंसे वह मुक्ति पा लेता है।
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== संस्कार ==
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सनातन धर्म में संस्कारों की अत्यन्त आवश्यकता एवं परम उपयोगिता है।संस्कार सम्पन्न मानव सुसंस्कृत और चरित्रवान् होता है।सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घञ् प्रत्यय होनेसे संस्कार शब्द निष्पन्न होता है। जिसका सामान्य अर्थ है- शारीरिक और मानसिक मलोंका अपाकरण । मानवजीवनके पवित्रकर और चमत्कार- विधायक विशिष्टकर्मको संस्कार कहते हैं। हमारे ऋषियोंने मानवजीवनमें गुणाधानके लिये संस्कारोंका विधान किया। संस्कारसे दो कर्म सम्पन्न होते हैं-मलापनयन और गुणाधान। प्रत्येक संस्कारों का उद्देश्य मानव की अशुभ शक्तियों से रक्षा करना एवं अभीष्ट इच्छाओं की प्राप्ति कराना है।अत: मानवजीवनमें संस्कारोंका अत्यन्त महत्त्व है। हमारे धर्मशास्त्रों में मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। गौतम ऋषि के मत में चालीस प्रकार के संस्कार हैं।डॉ० राजबली पाण्डेय जी ने हिन्दू संस्कार नामक स्वकीय ग्रन्थ में चालीस संस्कारों का उल्लेख इस प्रकार से किया है-<blockquote>चत्वारिंशत् संस्काराः अष्टौ आत्मगुणाः।(हिन्दू संस्का० पृ०२२/२३)<ref>डॉ० राजबली पाण्डेय, '''[https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.403230/page/n1/mode/2up हिन्दू संस्कार - समाजिक तथा धार्मिक अध्ययन]''', वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन  २०१४ (पृ०२२/२३)</ref></blockquote>
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* संस्कार (गौतम ऋषि के मत में १६ प्रमुख संस्कारों में से १० संस्कारों का समावेश किया गया है- गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन,जातकर्म,नामकरण,अन्नप्राशन,चौल,उपनयन, स्नान(समावर्तन)और सहधर्मिणी संयोग।
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* वेदव्रत (चार वेदों का व्रत)।
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* पञ्चमहायज्ञ (पांच दैनिक महायज्ञ)।
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* पाकयज्ञ (सात पाक यज्ञ)अष्टक,पार्वण,श्राद्ध,श्रावणी,आग्रहायणी,चैत्री,आश्वयुजी-इति सप्त पाक यज्ञसंस्थाः।
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* हविर्यज्ञ (सात हवियज्ञ)अग्न्याधेय,अग्निहोत्र,दर्शपौर्णमास्य,चातुर्मास्य,आग्रयाणेष्टि,निरूढ-पशुबन्ध,सौत्रामणि-इति सप्त हविर्यज्ञाः।
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* सोमयज्ञ ( सात सोम यज्ञ)अग्निष्टोम,अत्यग्निष्टोम,उक्थ्य,षोडशी,वाजपेय,अतिरात्र,आप्तोर्याम-इति सप्त सोमयज्ञ संस्थाः। 
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पंचमहायज्ञ गृहस्थ आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किये जाते हैं। एक छात्र के रूप में वह महान ऋषियों द्वारा दिए गए पवित्र शास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम में छात्रों का मुख्य लक्ष्य ज्ञान को आत्मसात करना है। उनके आध्यात्मिक विकास में योगदान के लिए देव ऋषि और पितृ (पूर्वजों) को कृतज्ञता के साथ याद किया जाता है।
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जब ब्रह्मचारी इस आश्रम को पार कर जाते हैं तो उनके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते ही कर्तव्य कई गुना हो जाते हैं। भौतिक शरीर पंचभूतों का गठन करता है और अपने माता-पिता से प्राप्त होता है। गायों के दूध, अनाज, सब्जियों और फलों से पोषित होता है। देव और पितृ उसे उसके दैनिक जीवन के नित्य नैमित्तिक पञ्चमहायज्ञादि अनुष्ठानों में आशीर्वाद प्रदान करते हैं।पांचों इंद्रियां जिनकी सहायता से वह अपना जीवन संचालित करता है। जिन्होंने उन्हें क्षमता और बुद्धि दी  वह इस प्रकार उन देवताओं के प्रति आभारी होना सीखता है।<ref>A Short History of Religious and Philosophic Thought In India By Swami Krishnananda. Divine Life Society</ref>
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मनुष्यों जैसे पशु, पक्षियों कीट-पतंगों, औषधीय पौधों और पेड़ों की रक्षा करना सनातन धर्म की एक अभिन्न प्रणाली रही है। जिस गृहस्थ के कंधों पर सभी चेतन और निर्जीवों की जिम्मेदारी और कल्याण का भार होता है। उन्हें इस प्रकार इन अवाक प्राणियों की उनके प्रति उचित सम्मान के साथ देखभाल करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। अन्न, दूध और बाकी सब इसी प्रकार प्रकृति से प्रचूर मात्रा में प्राप्त होते हैं मनुष्य श्रद्धापूर्वक पेड़-पौधों आदि का कृतज्ञ होता है। इस प्रकार मनुष्य उनकी रक्षा करके विनम्रता और करुणा सीखता है। इसलिए वह प्रकृति का पांच गुना कर्जदार है -
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* अपने माता-पिता और पूर्वजों का ऋणी (भौतिक शरीर और वंश के लिए)।
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* ऋषियों (वेदों के ज्ञान के लिए)।
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* देव (उनके आशीर्वाद के लिए)।
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* प्रकृति (चेतन यानी पौधों और जानवरों और निर्जीव यानी पंचभूत) ।
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* साथी मनुष्य (समाज में उनके समर्थन के लिए)।
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उसे प्रतिदिन इन पांच यज्ञों को करके अपना कर्ज चुकाना। इसके अलावा अनजाने में उसके द्वारा कई पाप हो जाते हैं। इन पांच यज्ञों के प्रदर्शन से उन पापों को हटा दिया जाता है।<ref>Mani, Vettam. (1975). ''Puranic encyclopaedia : A comprehensive dictionary with special reference to the epic and Puranic literature.'' Delhi:Motilal Banasidass.</ref>
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इन दैनिक संस्कारों के अलावा गृहस्थ को कुछ मासिक अनुष्ठान भी करने पड़ते हैं जैसे कि-अमावस्या के दिन पूर्वजों को श्राद्ध करना और एकादशी के व्रत का पालन (प्रत्येक चान्द्रमास के शुक्ल एवं कृष्ण दोनों पक्षों की एकादशी तिथि को)करना चाहिये ऐसा धर्मशास्त्रों का आदेश है।
  
 
== पञ्चमहायज्ञों का महत्व ==
 
== पञ्चमहायज्ञों का महत्व ==
पञ्च महायज्ञों एवं श्रौत यज्ञों में दो प्रकार के अन्तर हैं। पञ्च महायज्ञों में गृहस्थ को किसी पुरोहित की सहायता की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु श्रौत यज्ञों में पुरोहित मुख्य हैं और गृहस्थ का स्थान केवल गौण रूप में रहता है। दूसरा अन्तर यह है कि पञ्च महायज्ञों में मुख्य उद्देश्य है देवता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना।
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पञ्च महायज्ञों एवं श्रौत यज्ञों में दो प्रकार के अन्तर हैं। पञ्च महायज्ञों में गृहस्थ को किसी पुरोहित की सहायता की अपेक्षा नहीं होती किन्तु श्रौत यज्ञों में पुरोहित मुख्य हैं। गृहस्थ का स्थान केवल गौण रूप में रहता है। दूसरा अन्तर यह है कि पञ्च महायज्ञों में मुख्य उद्देश्य हैं देवता, ऋषि, पितर, जीव एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की प्रमुख प्रेरणा है स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता एवं प्रगतिशीलता देखने में आती है।
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* पञ्चमहायज्ञों से आध्यात्मिकता एवं प्रगतिशीलता में वृद्धि
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* सभी जीवों एकात्म भावना
  
इन पंचमहायज्ञोंका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है-
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* पञ्च महायज्ञों के मूल में क्या है ?
====ब्रह्मयज्ञ====
 
पॉंचों महायज्ञमें ब्रह्मयज्ञ प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है इसके करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति तो होती ही है  साथ ही विविध प्रकारके अभ्युदयकी सिद्धि भी कही गयी है। सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मणमें  शतपथ (११ । ५। ६।३-८)और सबसे विस्तृत वर्णन तैत्तिरीय आरण्यकमें देखा जाता है। शतपथ के अनुसार प्रतिदिन किया जानेवाला स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञके माध्यमसे देवताओंको दूध-घी-सोम आदि अर्पित किये जाते हैं, प्रतिफलमें देवता प्रसन्न होकर उन्हें सुरक्षा, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, दीप्ति- तेज, यश, बीज, सत्त्व, आध्यात्मिक उच्चता तथा सभी प्रकारके मंगलमय पदार्थ प्रदान करते हैं। साथ ही इनके पितरोंको घी एवं मधुकी धारासे सन्तुष्ट करते हैं। यहाँतक कि स्वाध्याय करनेवालेको लोकमें त्रिगुण फल प्राप्त होते हैं। शतपथब्राह्मणमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय (वेदाध्ययन तथा आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययन) करता है उसे उस व्यक्तिसे तिगुना फल प्राप्त होता है जो दान देने या पुरोहितोंको धन-धान्यसे पूर्ण सारा संसार देनेसे प्राप्त होता है।
 
  
ब्रह्मचर्यपूर्वक आचरण करते हुए पिता-माता गुरु आदि श्रेष्ठजनोंकी सेवा शुश्रूषा, उनकी आज्ञाओंका पालन गुरुजनोंके श्रीचरणोंमें बैठकर निष्ठापूर्वक वेदाध्ययन तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञका अंग माना गया है।
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* इनके पीछे कौन से स्थायी भाव हैं ?
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ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में वर्णित पवित्र श्रौत यज्ञों का सम्पादन सबके लिए सम्भव नहीं था। किन्तु अग्नि के मुख में एक समिधा डालकर सभी मनुष्य देवों के प्रति अपने सम्मान की भावना को अभिव्यक्त करते हैं वह देवयज्ञ कहलाता है।इसी प्रकार दो-एक श्लोकों का जप अथवा वेद का स्वाध्याय करके कोई भी प्राचीन ऋषियों, साहित्य एवं संस्कृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर सकता है वह  ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। एक अञ्जलि या एक पात्र जल के तर्पण से कोई भी पितरों के प्रति भक्ति एवं प्रिय स्मृति प्रकट कर सकता  और पितरों को सन्तुष्ट कर सकता है वह पितृयज्ञ कहलाता है। सारे विश्व के प्राणी एक ही सृष्टि-बीज के द्योतक हैं अतः सबमें आदान-प्रदान का प्रमुख सिद्धान्त कार्य रूप में उपस्थित रहना चाहिए अतिथियों को भोजन कराकर भोजन करना चाहिये यह मनुष्य यज्ञ कहलाता है एवं जीवों को बलि के रूप में भोजन का ग्रास अथवा पिण्ड अर्पित किये जाने से भूतयज्ञ कहलाता है। पञ्चमहायज्ञ करनेसे अन्नादिकी शुद्धि और पापोंका क्षय होता है। पञ्चमहायज्ञ किये बिना भोजन करनेसे पाप लगता है। जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण जी ने गीता में कहा है- <blockquote>यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥(भगवद्गीता ३-१३))<ref>श्रीमद्भग्वद्गीता ([https://sa.wikisource.org/s/3u अध्याय ३])। </ref></blockquote>'''अर्थ-'''यज्ञसे शेष बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष पञ्चहत्याजनित समस्त पापोंसे मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो पापी केवल अपने लिये ही पाक बनाते हैं, वे पापका ही भक्षण करते हैं।महाभारतमें भी कहा है-<blockquote>अहन्यहनि ये त्वेतानकृत्वा भुञ्जते स्वयम् । केवलं मलमश्नन्ति ते नरा न च संशयः॥(महाभारत 104-१६)<ref>महाभारत ([https://sa.wikisource.org/s/3u आश्वमेधिकपर्व-14])।</ref></blockquote>'''अर्थ-'''जो प्रतिदिन इन पञ्चमहायज्ञों को किये बिना भोजन करते हैं, वे केवल मल खाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं।मनु जी की आज्ञा है कि-<blockquote>पञ्चैतान् यो महायज्ञान्नहापति शक्तितः। स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषो न लिप्यते ॥( मनु स्मृ०३-६१ )<ref>मनु स्मृति([https://sa.wikisource.org/s/3mp अध्याय-३])।</ref></blockquote>'''अर्थ'''-जो गृहस्थ शक्ति के अनुकूल इन पञ्चमहायज्ञों का एक दिन भी परित्याग नहीं करते, वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी प्रतिदिन के पञ्चसूनाजनित पापके भागी नहीं होते। महाभारत में भी कहा है-<blockquote>पञ्चयज्ञांस्तु यो मोहान्न करोति गृहाश्रमी । तस्य नायं न च परो लोको भवति धर्मतः॥(महाभारत 145-७ )<ref>महाभारत([https://sa.wikisource.org/s/2v5 शांतिपर्व-१२])।</ref></blockquote>महर्षि हारीत का प्रमाण देते हुये यज्ञ मीमांसा में कहा गया है-<blockquote>यत्फलं सोमयागेन प्राप्नोति धनवान् द्विजः। सम्यक पञ्चमहायज्ञे दरिद्रस्तवामुयात् ॥(यज्ञ मीमांसा पृ०३२ )<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़, '''यज्ञमीमांसा''' ,वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन।</ref></blockquote>'''अर्थ'''-धनवान् द्विज सोमयाग करके जो फल प्राप्त करता है, उसी फलको दरिद्र पञ्चमहायज्ञ के द्वारा प्राप्त कर सकता है।अतः पञ्चमहायज्ञ करके ही गृहस्थोंको भोजन करना चाहिये। पञ्चमहायज्ञके महत्त्व एवं इसके यथार्थ स्वरूप को जानकर द्विजमात्र का कर्तव्य है कि वे अवश्य पञ्चमहायज्ञ किया करें-ऐसा करनेसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति होगी। उपर्युक्त वर्णित भक्ति, कृतज्ञता, सम्मान, प्रिय स्मृति, उदारता की भावनाओं ने  सनातन धर्म को मानने वालों के लिये पञ्च महायज्ञों के महत्व को प्रकट किया।
  
स्वाध्याय-ग्रन्थोंमें यद्यपि चारों वेद-ब्राह्मण-कल्प-पुराण आदि लिये जाते हैं, परंतु यह भी कहा गया है कि मनोयोगपूर्वक जितना ही स्वाध्याय किया जा सके  करना चाहिये।
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= पंचमहायज्ञों का विस्तृत विवेचन =
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पञ्चमहायज्ञ का वर्णन प्रायः सभी ऋषि मुनियों ने अपने-अपने धर्मग्रन्थों में किया है। महाभारत में युधिष्ठिर जी भगवान् श्री कृष्ण से पूछते हैं-<blockquote>पञ्च यज्ञाः कथं देव क्रियन्तेऽत्र द्विजातिभिः। तेषां नाम च देवेश वक्तुमर्हस्यशेषतः।।(महाभारत 104-८)<ref>महाभारत([https://sa.wikisource.org/s/35p आश्वमेधिकपर्व] १४)।</ref></blockquote>हे भगवन् ! द्विजातियोंको पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान किस प्रकार करना चाहिये एवं उन यज्ञोंके नाम भी बतानेकी कृपा कीजिये।भगवान् श्री कृष्ण जी कहते हैं-<blockquote>शृणु पञ्च महायज्ञान्कीर्त्यमानान्युधिष्ठिर। यैरेव ब्रह्मसालोक्यं लभ्यते गृहमेधिना।।(महाभारत १०४-९)<ref>महाभारत([https://sa.wikisource.org/s/35p आश्वमेधिकपर्व]१४)।</ref></blockquote>हे युधिष्ठिर ! जिनके अनुष्ठानसे गृहस्थ पुरुषोंको ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है उन पञ्चमहायज्ञोंका वर्णन करता हूँ। सुनो-
  
ब्रह्मयज्ञ में वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय होने से विद्या तथा ज्ञान प्राप्त होता है परमात्मा से आध्यात्मिक संबंध दृढ़ होता है और ऋषिऋण से छुटकारा मिल जाता है, कर्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी निर्णय के साथ साथ इहलोक और परलोक के लिए कल्याणमय निष्कण्टक पथ का अनुसन्धान हो जाता है और सदाचार की वृद्धि होती है । ज्ञानवृद्धि के कारण तेज तथा ओज की भी वृद्धि होती है।
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ऋभुयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, और पितृयज्ञ-ये पञ्चमहायज्ञ कहलाते हैं। इनमें ऋभुयज्ञ तर्पणको कहते हैं, ब्रह्मयज्ञ स्वाध्यायका नाम है, समस्त प्राणियोंके लिये अन्नको बलि देना भूतयज्ञ है। अतिथियोंकी पूजाको मनुष्ययज्ञ कहते हैं और पितरोंके उद्देश्यसे जो श्राद्ध आदि कर्म किये जाते हैं उनकी पितृयज्ञ संज्ञा है। हुत, अहुत, प्रहुत, पाशित और बलिदान-ये पाकयज्ञ कहलाते हैं। वैश्वदेव आदि कर्मों में जो देवताओंके निमित्त हवन किया जाता है उसे विद्वान् पुरुष हुत कहते हैं। दान दी हुई वस्तुको अहुत कहते हैं। ब्राह्मणोंको भोजन करानेका नाम प्रहुत है। प्राणाग्निहोत्रको विधिसे जो प्राणोंको पांच ग्रास अर्पण किये जाते हैं उनकी प्राशित संज्ञा है तथा गौ आदि प्राणियोंको तृप्तिके लिये जो अन्नकी बलि दी जाती है उसीका नाम बलिदान है। इन पांच कर्मोंको पाकयज्ञ कहते हैं। कितनेही विद्वान् इन पाकयज्ञोंको ही पञ्चमहायज्ञ कहते हैं किंतु दूसरे लोग जो महायज्ञके स्वरूपको जाननेवाले हैं ब्रह्मयज्ञ आदिको ही पञ्चमहायज्ञ मानते हैं। ये सभी सब प्रकारसे महायज्ञ बतलाये गये हैं। घरपर आये हुए भूखे ब्राह्मणोंको यथाशक्ति निराश नहीं लौटाना चाहिये। जो मनुष्य प्रतिदिन इन पांच यज्ञोंका अनुष्ठान किये बिना ही भोजन कर लेते हैं, वे केवल मल भोजन करते हैं। इसलिये विद्वान् द्विजको चाहिये कि वह प्रतिदिन स्नान करके इन यज्ञोंका अनुष्ठान करे। इन्हें किये बिना भोजन करनेवाला द्विज प्रायश्चित्तका भागी होता है।(संक्षिप्त महाभारत पृ०१६१४)<ref>श्री जयदयाल गोयन्दका [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.345673/page/n1/mode/2up?view=theater संक्षिप्त महाभरत],गीताप्रेस गोरखपुर(पृ०१६१४)।</ref>
====पितृयज्ञ====
 
पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्यपितर तथा परलोकगामी पितरों का तर्पण करना होता है जिससे उनके आत्मा की तृप्ति होती है। तर्पण में कहा जाता है कि-<blockquote>आब्रह्मभुवनाल्लोका देवर्षिपितृमानवः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमाता महादयः ।।</blockquote><blockquote>नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥</blockquote>अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा पिता, माता और मातामहादि पितरों की समस्त नरकों में जितने भी यातनाभोगी जीव हैं उनके उद्धार के लिए मैं यह जल प्रदान करता हूं। इससे पितृ जगत् से सम्बन्ध होता है ।
 
====देवयज्ञ====
 
गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रोंके अनुसार विभिन्न देवताओंके लिये यह यज्ञ किया जाता है। जिन देवताओंके निमित्त यह यज्ञ सम्पादित होता है उनके नाम अलग-अलग ग्रन्थों में अलग-अलग दिये गये हैं परंतु जो नाम मुख्य हैं वह इस प्रकार हैं-
 
  
सूर्य, अग्नि, प्रजापति, सोम, इन्द्र, वनस्पति, द्यौ, पृथिवी, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, ब्रह्मा आदि । यहाँ यह स्मरणीय है कि मदनपारिजात और स्मृतिचन्द्रिकाके अनुसार वैश्वदेवके देवता दो प्रकारके कहे गये हैं। प्रथम वे जो सबके लिये एक जैसे हैं और जिनके नाम मनुस्मृतिमें पाये जाते हैं। जबकि दूसरे देवता वे हैं, जिनके नाम अपने-अपने गृह्यसूत्रमें पाये जाते हैं। देवता-विशेषका नाम लेकर 'स्वाहा' शब्दके उच्चारणके साथ अग्निमें जब हवि या न्यूनातिन्यून एक भी समिधा डाली जाती है तो वह देवयज्ञ होता है। मनु (२।१७६) और याज्ञवल्क्य (१।१००)के अनुसार देवयजन देव पूजान्के पश्चात् किया जाता है।
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आपस्तम्बधर्मसूत्र एवं अन्य ग्रन्थों में पांचों यज्ञों का क्रम है -भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ(स्वाध्याय) किन्तु उनके सम्पादन के कालों के अनुसार उनका क्रम होना चाहिए ब्रह्मयज्ञ (जप आदि), देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ एवं मनुष्ययज्ञ। हम इसी क्रम से पांचों का विवेचन करेंगे। पञ्चमहायज्ञों का विवेचन इस प्रकार है-
  
इसके माध्यमसे देवताओंको प्रसन्न किया जाता है और उनके प्रसन्न होनेसे आत्माभ्युदय तथा सभी मंगलमय अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है। यज्ञमुखसे गृहस्थ देवताओंका सान्निध्य अनुभव करते हैं जिससे उनके व्यक्तित्वका विकास होता है। वैदिक धारणाके अनुसार देवता सत्यपरायण, उदार, पराक्रमी और सहायशील होते हैं और उनके सान्निध्यानुभवसे मनुष्य भी अपनी आत्मा और शरीरमें इन गुणोंको प्रतिष्ठित करते हैं।
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====ब्रह्मयज्ञ====
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पॉंचों महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है। इसके करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति तो होती ही है साथ ही विविध प्रकारके अभ्युदयकी सिद्धि भी कही गयी है। सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मणमें और सबसे विस्तृत वर्णन तैत्तिरीय आरण्यकमें देखा जाता है।(शत०ब्राह्म०)<ref>शतपथब्राह्मण [https://sa.wikisource.org/s/elq काण्ड-११] अध्याय-५ ब्राह्मण-६ खण्ड-३/८।</ref><blockquote>ब्रह्मयज्ञस्य लक्षणमाह - यत्स्वाध्यायमधीयीतैकामप्यृचं यजु: सामं वा तद्ब्रह्मयज्ञ: संतिष्ठते - इति।</blockquote><blockquote>स्वस्यासाधारणत्वेन पितृपितामहादिपरम्परया प्राप्ता वेदशाखा स्वाध्यायः | तत्र विद्यमानमृगादीनामन्यतममेकमपि वाक्यमधीयीतेति यत्सोऽयं ब्रह्मयज्ञः---॥(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक]सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>शतपथ के अनुसार प्रतिदिन किया जानेवाला स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञके माध्यमसे देवताओंको दूध-घी-सोम आदि अर्पित किये जाते हैं। प्रतिफलमें देवता प्रसन्न होकर उन्हें सुरक्षा, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, दीप्ति- तेज, यश, बीज, सत्त्व, आध्यात्मिक उच्चता तथा सभी प्रकारके मंगलमय पदार्थ प्रदान करते हैं। साथ ही इनके पितरोंको घी एवं मधुकी धारासे सन्तुष्ट करते हैं। यहाँतक कि स्वाध्याय करनेवालेको लोकमें त्रिगुण फल प्राप्त होते हैं।
  
देवयज्ञ में हवन का विधान किया है । हवन से केवल वायु ही शुद्ध नहीं होता दैवी जगत् से मन्त्रों द्वारा सम्बन्ध भी होता है और वे देवगण उससे तृप्त होकर बिना मांगे ही जीवों को इष्ट फल प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में गीता(३ । १०-१२) में बतलाया गया है।<blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥</blockquote>यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो और वे तुम्हारी उन्नति करेंगे इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति (३१७६) में बतलाया गया है कि अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न एवं अन्न से प्रजा होती है
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शतपथब्राह्मणमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय (वेदाध्ययन तथा आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययन) करता है। उसे उस व्यक्तिसे तिगुना फल प्राप्त होता है जो दान देने या पुरोहितोंको धन-धान्यसे पूर्ण सारा संसार देनेसे प्राप्त होता है।ब्रह्मचर्यपूर्वक आचरण करते हुए पिता-माता गुरु आदि श्रेष्ठजनोंकी सेवा शुश्रूषा, उनकी आज्ञाओंका पालन गुरुजनोंके श्रीचरणोंमें बैठकर निष्ठापूर्वक वेदाध्ययन तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञका अंग माना गया है।
  
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते आदित्याज्जायते वृष्टिवष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥
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स्वाध्याय-ग्रन्थोंमें यद्यपि चारों वेद-ब्राह्मण-कल्प-पुराण आदि लिये जाते हैं  परंतु यह भी कहा गया है कि मनोयोगपूर्वक जितना ही स्वाध्याय किया जा सके  करना चाहिये।ब्रह्मयज्ञ में वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय होने से विद्या तथा ज्ञान प्राप्त होता है परमात्मा से आध्यात्मिक संबंध दृढ़ होता है और ऋषि ऋण से छुटकारा मिल जाता है। कर्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी निर्णय के साथ साथ इहलोक और परलोक के लिए कल्याणमय निष्कण्टक पथ का अनुसन्धान हो जाता है और सदाचार की वृद्धि होती है ज्ञानवृद्धि के कारण तेज तथा ओज की भी वृद्धि होती है।
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====देवयज्ञ====
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तैत्तिरीय आरण्यक में देवयज्ञ का लक्षण इस प्रकार किया गया है-<blockquote>तत्र देवयज्ञस्य लक्षणमाह - यदग्नौ जुहोत्यपि समिधं तद्देवयज्ञ: संतिष्ठते - इति ॥</blockquote><blockquote>पुरोडाशादिहविर्मुख्यं तदलाभे समिधमप्यग्नौ देवानुद्दिशञ्जुहोतीति यत्सोऽयं देवयज्ञः॥(साय०भा०)<ref name=":0">तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक] सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रोंके अनुसार विभिन्न देवताओंके लिये यह यज्ञ किया जाता है। जिन देवताओंके निमित्त यह यज्ञ सम्पादित होता है उन देवताओं के ग्रन्थों में अलग-अलग नाम दिये गये हैं। परंतु जो नाम मुख्य हैं वह इस प्रकार हैं-
  
और भी
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सूर्य, अग्नि, प्रजापति, सोम, इन्द्र, वनस्पति, द्यौ, पृथिवी, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, ब्रह्मा आदि । यहाँ यह स्मरणीय है कि मदनपारिजात और स्मृतिचन्द्रिकाके अनुसार वैश्वदेवके देवता दो प्रकारके कहे गये हैं। प्रथम वे जो सबके लिये एक जैसे हैं और जिनके नाम मनुस्मृतिमें पाये जाते हैं। जबकि दूसरे देवता वह हैं, जिनके नाम अपने-अपने गृह्यसूत्रमें पाये जाते हैं। देवता-विशेषका नाम लेकर स्वाहा शब्दके उच्चारणके साथ अग्निमें जब हवि या न्यूनातिन्यून एक भी समिधा डाली जाती है तो वह देवयज्ञ होता है। मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार देवयजन देव पूजा के पश्चात् किया जाता है।<blockquote>नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम् । देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानं एव च ॥(मनु स्मृ० २-१७६)<ref>मनु स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/3mo अध्याय-२] श्लोक-१७६।</ref></blockquote><blockquote>उपेयादीश्वरं चैव योगक्षेमार्थसिद्धये ।स्नात्वा देवान्पितॄंश्चैव तर्पयेदर्चयेत्तथा ॥(याज्ञ०स्मृ० १-१००)<ref>याज्ञवल्क्य स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/56f अध्याय-१] श्लोक१००।</ref></blockquote>इसके माध्यमसे देवताओंको प्रसन्न किया जाता है और उनके प्रसन्न होनेसे आत्माभ्युदय तथा सभी मंगलमय अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है। यज्ञमुखसे गृहस्थ देवताओंका सान्निध्य अनुभव करते हैं। जिससे उनके व्यक्तित्वका विकास होता है। वैदिक धारणाके अनुसार देवता सत्यपरायण, उदार, पराक्रमी और सहायशील होते हैं और उनके सान्निध्यानुभवसे मनुष्य भी अपनी आत्मा और शरीरमें इन गुणोंको प्रतिष्ठित करते हैं।
  
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥(गीता ३।१४)
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देवयज्ञ में हवन का विधान किया है। हवन से केवल वायु ही शुद्ध नहीं होता दैवी जगत् से मन्त्रों द्वारा सम्बन्ध भी होता है और वे देवगण उससे तृप्त होकर बिना मांगे ही जीवों को इष्ट फल प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में गीता जी में बतलाया गया है-<blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥(श्रीमद्भग्वद्गीता ३-११)<ref>श्री मद्भग्वद्गीता(३ । ११)।[https://sa.wikisource.org/s/3u]</ref> </blockquote>यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो और वे तुम्हारी उन्नति करेंगे इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे।इसके अतिरिक्त अग्निपुराण में बतलाया गया है कि -<blockquote>अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नन्ततः प्रजाः ॥(अग्निपुराण २१६-११)<ref>अग्निपुराण [https://sa.wikisource.org/s/124z अध्याय-२१६] श्लोक-११।</ref></blockquote>अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है। सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न एवं अन्न से प्रजा होती है। गीता जी में भी उल्लेख प्राप्त होता है-<blockquote>अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥(श्रीमद्भग्वद्गीता ३-१४)<ref>श्रीमद्भगवद्गीता [https://sa.wikisource.org/s/3u अध्याय-३] श्लोक-१४।</ref></blockquote>अर्थात् अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होता है। इस प्रकार देवयज्ञरूपी नित्य कर्म में सम्पूर्ण प्राणियों का व्यापक हित निहित है।
  
अर्थात् अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होता है। इस प्रकार देवयज्ञरूपी नित्य कर्म में सम्पूर्ण प्राणियों का व्यापक हित निहित है।
 
 
====भूतयज्ञ====
 
====भूतयज्ञ====
भूतयज्ञ में बलि-वैश्वदेव का विधान किया गया है जिससे कीट, पक्षी, पशु आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है।
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<blockquote>भूतयज्ञस्य लक्षणमाह - यद्भूतेभ्यो बलिँ्हरति तद्भूतयज्ञ: संतिष्ठते -इति॥</blockquote><blockquote>वैश्वदेवानुष्ठानादूर्ध्वं बहिर्देशे वायसादिभ्यो भूतेभ्यो यद्बलिप्रदानं सोऽयं भूतयज्ञ:॥(साय०भा०)<ref name=":0" /></blockquote>भूतयज्ञ में बलिवैश्वदेव का विधान किया गया है। जिससे पशु,पक्षी,कीट,आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है।भूतयज्ञ एक ऐसा व्रत है, जिसमें सभी प्रकराके जीवों का पोषण हो जाता है।मनुष्य,चाण्डाल, गाय, बैल, कुत्ता, कीट-पतंग आदि जितने भी भूत (प्राणी) हैं, उन सभीको अन्न, जल, आदि भोज्य देना इस यज्ञका उद्देश्य है। भूतयज्ञका यह उद्देश्य उपनिषद्के सर्वे भवन्तु सुखिन: वाक्यमें ही सन्निहित है।
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कृमि, कीट, पतङ्ग, पशु और पक्षी आदि की सेवाको भूतयज्ञ कहते हैं।ईश्वररचित सृष्टि के किसी भी अङ्ग की उपेक्षा कभी नहीं की जा सकती, क्योंकि सृष्टि के सिर्फ एक ही अङ्ग की सहायता से समस्त अङ्गों की सहायता समझी जाती है, अतः भूतयज्ञ भी परम धर्म है।प्रत्येक प्राणी अपने सुख के लिये अनेक भूतों ( जीवों) को प्रतिदिन क्लेश देता है, क्योंकि ऐसा हुए बिना क्षणमात्र भी शरीरयात्रा नहीं चल सकती।प्रत्येक मनुष्यके श्वास-प्रश्वास, भोजन-प्राशन, विहार-सञ्चार आदि में अगणित जीवों की हिंसा होती है। निरामिष भोजन करनेवाले लोगों के भोजन के समय भी अगणित जीवों का प्राण-वियोग होता है, आमिषभोजियों की तो कथा ही क्या है ? अतः भूतों (जीवों) से उऋण होने के लिये भूतयज्ञ करना आवश्यक है। भूतयज्ञसे कृमि, कीट, पशु, पक्षी आदिकी तृप्ति होती है।  
  
भूतयज्ञ एक ऐसा व्रत है, जिसमें सभी प्रकराके जीवों का पोषण हो जाता है।मनुष्य चाण्डाल गाय, बैल, कुत्ता, कीट-पतंग आदि जितने भी भूत (प्राणी) हैं, उन सभीको सावधानीपूर्वक अन्न, जल, पास आदि भोज्य देना इस यजका उद्देश्य है। भूतयज्ञका यह सोश्य उपनिषद्के 'सर्वे भवन्तु सुखिन: ' वाक्यमे ही सन्निहित है। सभी प्राणियोंके पोषक होने के कारण 'पुरुष' शब्दकी सार्थकता कही गयी है-'पूरयति सर्वमिति पुरुषः।'
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====पितृयज्ञ====
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पितृयज्ञ का लक्षण करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया है-<blockquote>पितृयज्ञस्य लक्षणमाह - यत्पितृभ्यः स्वधा करोत्यप्यपस्तत्पितृयज्ञः संतिष्ठते-इति ।</blockquote><blockquote>तत्र पिण्डदानासंभवे जलमात्रमपि पितृभ्यः स्वधाऽस्त्विति स्वधाशब्देन यद्ददाति सोऽयं पितृयज्ञः ---॥(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक]सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्यपितर तथा परलोकगामी पितरों का तर्पण करना होता है जिससे उनके आत्मा की तृप्ति होती है।पद्मपुराण का उद्धरण देकर नित्यकर्म पूजाप्रकाश में कहा गया है कि-<blockquote>आब्रह्मभुवनाल्लोका देवर्षिपितृमानवः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमाता महादयः ॥</blockquote><blockquote>नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥(नित्यक०पूजा०पृ०९८/९९)<ref>पं० लालबिहारी मिश्र , '''नित्यकर्म पूजाप्रकाश''', गीताप्रेस गोरखपुर।</ref></blockquote>अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा पिता, माता और मातामहादि पितरों की समस्त नरकों में जितने भी यातनाभोगी जीव हैं उनके उद्धार के लिए मैं यह जल प्रदान करता हूं। इससे पितृ जगत् से सम्बन्ध होता है ।अर्यमादि नित्य पितरों की तथा परलोकगामी नैमित्तिक पितरों की पिण्डप्रदानादि से किये जानेवाले सेवारूप यज्ञको पितृयज्ञ कहते हैं।<blockquote>देवेभ्यश्च हुतादनाच्छेषाद् भूतबलि हरेत् । अन्नं भूमौ श्वचाण्डालवायसेभ्यश्च निःक्षिपेत् ॥(याज्ञ०स्मृ०१-१०३)<ref>याज्ञवल्क्य स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/56f अध्याय- १] श्लोक-१०३।</ref> </blockquote>देवयज्ञसे बचे हुए अन्नको जीवों के लिये भूमि पर डाल देना चाहिये और वह अन्न पशु, पक्षी एवं गौ आदिको देना चाहिये
 
====नृयज्ञ====
 
====नृयज्ञ====
मनुष्ययज्ञ अतिथि-सेवा-रूप है। अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है। जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि कहा जाता है।यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर जाता है तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है<blockquote>आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् । एतद् वृडते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(कठो०१।१८)</blockquote>जिसके घर में ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किये रहता है, उस पुरुष की आशा, प्रतीक्षा, संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त इष्टापूर्तफल तथा पुत्र, पशु आदि नष्ट हो जाते हैं।
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मनुष्य(नृ) यज्ञ का लक्षण करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया है-<blockquote>मनुष्ययज्ञस्य लक्षणमाह - यद्ब्राह्मणेभ्योऽन्नं ददाति तन्मनुष्ययज्ञ: संतिष्ठते -इति।(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक] सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>मनुष्ययज्ञ अतिथि सेवा रूप है। अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है। जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि कहा जाता है।यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर जाता है तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है।पूरयति सर्वमिति पुरुषः-सभी प्राणियोंके पोषक होने के कारण पुरुष शब्दकी सार्थकता कही गयी है।<blockquote>आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् । एतद् वृडते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(कठो०१।१८)<ref>कठोपनिषद् [https://sa.wikisource.org/s/a8a अध्याय-१] प्रथमवल्ली-१ श्लोक-८।</ref></blockquote>जिसके घर में ब्राह्मण या अतिथि विना भोजन किये रहता है, उस पुरुष की आशा, प्रतीक्षा, संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त चेष्टापूर्तफल तथा पुत्र, पशु आदि नष्ट हो जाते हैं।
 
 
अथर्ववेद के अतिथिसूक्त में  कहा गया है कि-<blockquote>एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्च स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः।सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ॥(अथर्ववेद ५८)</blockquote>अतिथिप्रिय होना चाहिए भोजन कराने पर वह यजमान को स्वर्ग पहुंचा देता है और उसका पाप नष्ट कर देता है।
 
  
 
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Revision as of 23:32, 22 August 2021

सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पञ्चमहायज्ञों के सम्पादन की व्यवस्था है।शास्त्रों के अनुसार साधारणतया मनुष्य जन्म लेते ही तीन प्रकार के(देव, ऋषि एवं पितृ) ऋणों से ऋणी हो जाता है। जैसा कि तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है-

जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते । (तैत्ति० संहि० प्रश्न ३,अनु० १०, पञ्चा० ५)[1]

स्वाभाविक है कि ऋण देने वाले भी हमसे कुछ न कुछ अपेक्षाऍं रखते हैं। इनके प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य बनता है। शास्त्रविधिके अनुसार तीनों ऋणों से अनृण होनेके लिये शास्त्रोंने नित्यकर्मका विधान किया है। जिसे करके मनुष्य देव, ऋषि और पितृ-सम्बन्धी तीनों ऋणोंसे मुक्त हो सकता है।नित्यकर्ममें शारीरिक शुद्धि, सन्ध्यावन्दन, तर्पण और देव-पूजन प्रभृति शास्त्रनिर्दिष्ट कर्म आते हैं। इनमें मुख्य निम्नलिखित छः कर्म बताये गये हैं-

सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम् । वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने ।(परा० स्मृ० १-३९)[2]

मनुष्यको स्नान, सन्ध्या, जप, देवपूजन, बलिवैश्वदेव(पञ्चमहायज्ञों को ही बलिवैश्वदेव कहते हैं)[3] और अतिथि सत्कार-ये छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिये। सामान्यतः लौकिक जीवन में मानव को स्वयं के भविष्य को सँवारने के लिये सन्ध्यावन्दन का विधान किया गया है। कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता और सदाचार के लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म-कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया जाता है। पंचमहायज्ञमें देवता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव-जन्तु, समाज, मानव आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है।

परिचय

सनातन धर्म में गृहस्थमात्र के लिये पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है।गृहस्थ प्रतिदिन झाडू-पोंछा, अग्निकुण्ड, चक्की, सूप, जलघट आदि स्थान या सामग्रीके द्वारा प्राणियोंको आहत करता है।शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है कि गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है-

पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।(मनु स्मृ०६-५८/५९)[4]

अर्थ-चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें) तथा घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं इस तरहकी क्रियाओंके माध्यमसे सूक्ष्म जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसाको जिसे कि जीवनमें टाला नहीं जा सकता, शास्त्रों में सूना कहा गया है। इसकी संख्या पाँच होनेसे ये पंचसूना कहलाते हैं। किन्तु ब्रह्मचारी प्रथम तीन सूनाओं से अग्नि-होम, गुरु-सेवा एवं वेदाध्ययन के द्वारा छुटकारा पाते हैं ।गृहस्थ लोग एवं वानप्रस्थ लोग इन पाँचों सूनाओं से छुटकारा पाँच यज्ञ करके पाते हैं।यति (सन्न्यासी)लोग प्रथम दो सूनाओं से पवित्र ज्ञान एवं मनोयोग के द्वारा छुटकारा करते हैं। शास्त्र के अनुसार मुख्यतः कर्म तीन प्रकार के होते हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य।जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो और न करने से पाप लगे उन्हें नित्यकर्म कहते हैं; जैसे त्रिकालसन्ध्या, पञ्चमहायज्ञ इत्यादि।शास्त्रों में सन्ध्या वन्दन के उपरान्त पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है। पञ्चमहायज्ञ करने से पारलौकिक लाभ तो हैं ही ऐहलौकिक आत्मोन्नति आदि अवान्तर फल की प्राप्ति होने पर भी पञ्चसूना दोष से छुटकारा पाने के लिये शास्त्रकारों की आज्ञा है कि-

सर्वैर्गृहस्थैः पञ्चमहायज्ञा अहरहः कर्तव्याः॥(यज्ञ मीमांसा पृ०३५))[5]

अर्थात् गृहस्थमात्र को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ करने चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि पञ्चमहायज्ञ करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु न करने से पाप का प्रादुर्भाव अवश्य होता है ।अतःइसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥(मनु स्मृ० ३-६०)[6]

भावार्थ-ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।अतएव मनु जी ने कहा है-

स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥(मनु स्मृ० २-२८)[7]

भाषार्थ- वेदाध्ययनसे, मधु-मांसादिके त्यागरूप व्रतसे, हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृतर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य बनाया जाता है।शतपथ ब्राह्मण में पञ्चमहायज्ञों को महासत्र के नाम से व्यवहृत किया गया है-

पञ्चैव महायज्ञाः। तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति ॥(शत०ब्रा० अध्य ५ । ब्राह्म ६ । खण्ड ७।)[8]

केवल पांच ही महायज्ञ हैं, वे महान् सत्र हैं और वे इस प्रकार हैं- भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ।

कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति॥(जीवनचर्या अंक)[9]

अर्थ-कूटना, पीसना, चूल्हा, जल भरना और झाडू लगाना-पंचसूना जन्य इन सभी पापोंका शमन पंचमहायज्ञसे ही होता है। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार यह पंचमहायज्ञ करता है सभी पापोंसे वह मुक्ति पा लेता है।

संस्कार

सनातन धर्म में संस्कारों की अत्यन्त आवश्यकता एवं परम उपयोगिता है।संस्कार सम्पन्न मानव सुसंस्कृत और चरित्रवान् होता है।सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घञ् प्रत्यय होनेसे संस्कार शब्द निष्पन्न होता है। जिसका सामान्य अर्थ है- शारीरिक और मानसिक मलोंका अपाकरण । मानवजीवनके पवित्रकर और चमत्कार- विधायक विशिष्टकर्मको संस्कार कहते हैं। हमारे ऋषियोंने मानवजीवनमें गुणाधानके लिये संस्कारोंका विधान किया। संस्कारसे दो कर्म सम्पन्न होते हैं-मलापनयन और गुणाधान। प्रत्येक संस्कारों का उद्देश्य मानव की अशुभ शक्तियों से रक्षा करना एवं अभीष्ट इच्छाओं की प्राप्ति कराना है।अत: मानवजीवनमें संस्कारोंका अत्यन्त महत्त्व है। हमारे धर्मशास्त्रों में मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। गौतम ऋषि के मत में चालीस प्रकार के संस्कार हैं।डॉ० राजबली पाण्डेय जी ने हिन्दू संस्कार नामक स्वकीय ग्रन्थ में चालीस संस्कारों का उल्लेख इस प्रकार से किया है-

चत्वारिंशत् संस्काराः अष्टौ आत्मगुणाः।(हिन्दू संस्का० पृ०२२/२३)[10]

  • संस्कार (गौतम ऋषि के मत में १६ प्रमुख संस्कारों में से १० संस्कारों का समावेश किया गया है- गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन,जातकर्म,नामकरण,अन्नप्राशन,चौल,उपनयन, स्नान(समावर्तन)और सहधर्मिणी संयोग।
  • वेदव्रत (चार वेदों का व्रत)।
  • पञ्चमहायज्ञ (पांच दैनिक महायज्ञ)।
  • पाकयज्ञ (सात पाक यज्ञ)अष्टक,पार्वण,श्राद्ध,श्रावणी,आग्रहायणी,चैत्री,आश्वयुजी-इति सप्त पाक यज्ञसंस्थाः।
  • हविर्यज्ञ (सात हवियज्ञ)अग्न्याधेय,अग्निहोत्र,दर्शपौर्णमास्य,चातुर्मास्य,आग्रयाणेष्टि,निरूढ-पशुबन्ध,सौत्रामणि-इति सप्त हविर्यज्ञाः।
  • सोमयज्ञ ( सात सोम यज्ञ)अग्निष्टोम,अत्यग्निष्टोम,उक्थ्य,षोडशी,वाजपेय,अतिरात्र,आप्तोर्याम-इति सप्त सोमयज्ञ संस्थाः।

पंचमहायज्ञ गृहस्थ आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किये जाते हैं। एक छात्र के रूप में वह महान ऋषियों द्वारा दिए गए पवित्र शास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम में छात्रों का मुख्य लक्ष्य ज्ञान को आत्मसात करना है। उनके आध्यात्मिक विकास में योगदान के लिए देव ऋषि और पितृ (पूर्वजों) को कृतज्ञता के साथ याद किया जाता है।

जब ब्रह्मचारी इस आश्रम को पार कर जाते हैं तो उनके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते ही कर्तव्य कई गुना हो जाते हैं। भौतिक शरीर पंचभूतों का गठन करता है और अपने माता-पिता से प्राप्त होता है। गायों के दूध, अनाज, सब्जियों और फलों से पोषित होता है। देव और पितृ उसे उसके दैनिक जीवन के नित्य नैमित्तिक पञ्चमहायज्ञादि अनुष्ठानों में आशीर्वाद प्रदान करते हैं।पांचों इंद्रियां जिनकी सहायता से वह अपना जीवन संचालित करता है। जिन्होंने उन्हें क्षमता और बुद्धि दी वह इस प्रकार उन देवताओं के प्रति आभारी होना सीखता है।[11]

मनुष्यों जैसे पशु, पक्षियों कीट-पतंगों, औषधीय पौधों और पेड़ों की रक्षा करना सनातन धर्म की एक अभिन्न प्रणाली रही है। जिस गृहस्थ के कंधों पर सभी चेतन और निर्जीवों की जिम्मेदारी और कल्याण का भार होता है। उन्हें इस प्रकार इन अवाक प्राणियों की उनके प्रति उचित सम्मान के साथ देखभाल करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। अन्न, दूध और बाकी सब इसी प्रकार प्रकृति से प्रचूर मात्रा में प्राप्त होते हैं मनुष्य श्रद्धापूर्वक पेड़-पौधों आदि का कृतज्ञ होता है। इस प्रकार मनुष्य उनकी रक्षा करके विनम्रता और करुणा सीखता है। इसलिए वह प्रकृति का पांच गुना कर्जदार है -

  • अपने माता-पिता और पूर्वजों का ऋणी (भौतिक शरीर और वंश के लिए)।
  • ऋषियों (वेदों के ज्ञान के लिए)।
  • देव (उनके आशीर्वाद के लिए)।
  • प्रकृति (चेतन यानी पौधों और जानवरों और निर्जीव यानी पंचभूत) ।
  • साथी मनुष्य (समाज में उनके समर्थन के लिए)।

उसे प्रतिदिन इन पांच यज्ञों को करके अपना कर्ज चुकाना। इसके अलावा अनजाने में उसके द्वारा कई पाप हो जाते हैं। इन पांच यज्ञों के प्रदर्शन से उन पापों को हटा दिया जाता है।[12]

इन दैनिक संस्कारों के अलावा गृहस्थ को कुछ मासिक अनुष्ठान भी करने पड़ते हैं जैसे कि-अमावस्या के दिन पूर्वजों को श्राद्ध करना और एकादशी के व्रत का पालन (प्रत्येक चान्द्रमास के शुक्ल एवं कृष्ण दोनों पक्षों की एकादशी तिथि को)करना चाहिये ऐसा धर्मशास्त्रों का आदेश है।

पञ्चमहायज्ञों का महत्व

पञ्च महायज्ञों एवं श्रौत यज्ञों में दो प्रकार के अन्तर हैं। पञ्च महायज्ञों में गृहस्थ को किसी पुरोहित की सहायता की अपेक्षा नहीं होती किन्तु श्रौत यज्ञों में पुरोहित मुख्य हैं। गृहस्थ का स्थान केवल गौण रूप में रहता है। दूसरा अन्तर यह है कि पञ्च महायज्ञों में मुख्य उद्देश्य हैं देवता, ऋषि, पितर, जीव एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की प्रमुख प्रेरणा है स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता एवं प्रगतिशीलता देखने में आती है।

  • पञ्चमहायज्ञों से आध्यात्मिकता एवं प्रगतिशीलता में वृद्धि
  • सभी जीवों एकात्म भावना
  • पञ्च महायज्ञों के मूल में क्या है ?
  • इनके पीछे कौन से स्थायी भाव हैं ?

ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में वर्णित पवित्र श्रौत यज्ञों का सम्पादन सबके लिए सम्भव नहीं था। किन्तु अग्नि के मुख में एक समिधा डालकर सभी मनुष्य देवों के प्रति अपने सम्मान की भावना को अभिव्यक्त करते हैं वह देवयज्ञ कहलाता है।इसी प्रकार दो-एक श्लोकों का जप अथवा वेद का स्वाध्याय करके कोई भी प्राचीन ऋषियों, साहित्य एवं संस्कृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर सकता है वह ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। एक अञ्जलि या एक पात्र जल के तर्पण से कोई भी पितरों के प्रति भक्ति एवं प्रिय स्मृति प्रकट कर सकता और पितरों को सन्तुष्ट कर सकता है वह पितृयज्ञ कहलाता है। सारे विश्व के प्राणी एक ही सृष्टि-बीज के द्योतक हैं अतः सबमें आदान-प्रदान का प्रमुख सिद्धान्त कार्य रूप में उपस्थित रहना चाहिए अतिथियों को भोजन कराकर भोजन करना चाहिये यह मनुष्य यज्ञ कहलाता है एवं जीवों को बलि के रूप में भोजन का ग्रास अथवा पिण्ड अर्पित किये जाने से भूतयज्ञ कहलाता है। पञ्चमहायज्ञ करनेसे अन्नादिकी शुद्धि और पापोंका क्षय होता है। पञ्चमहायज्ञ किये बिना भोजन करनेसे पाप लगता है। जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण जी ने गीता में कहा है-

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥(भगवद्गीता ३-१३))[13]

अर्थ-यज्ञसे शेष बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष पञ्चहत्याजनित समस्त पापोंसे मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो पापी केवल अपने लिये ही पाक बनाते हैं, वे पापका ही भक्षण करते हैं।महाभारतमें भी कहा है-

अहन्यहनि ये त्वेतानकृत्वा भुञ्जते स्वयम् । केवलं मलमश्नन्ति ते नरा न च संशयः॥(महाभारत 104-१६)[14]

अर्थ-जो प्रतिदिन इन पञ्चमहायज्ञों को किये बिना भोजन करते हैं, वे केवल मल खाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं।मनु जी की आज्ञा है कि-

पञ्चैतान् यो महायज्ञान्नहापति शक्तितः। स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषो न लिप्यते ॥( मनु स्मृ०३-६१ )[15]

अर्थ-जो गृहस्थ शक्ति के अनुकूल इन पञ्चमहायज्ञों का एक दिन भी परित्याग नहीं करते, वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी प्रतिदिन के पञ्चसूनाजनित पापके भागी नहीं होते। महाभारत में भी कहा है-

पञ्चयज्ञांस्तु यो मोहान्न करोति गृहाश्रमी । तस्य नायं न च परो लोको भवति धर्मतः॥(महाभारत 145-७ )[16]

महर्षि हारीत का प्रमाण देते हुये यज्ञ मीमांसा में कहा गया है-

यत्फलं सोमयागेन प्राप्नोति धनवान् द्विजः। सम्यक पञ्चमहायज्ञे दरिद्रस्तवामुयात् ॥(यज्ञ मीमांसा पृ०३२ )[17]

अर्थ-धनवान् द्विज सोमयाग करके जो फल प्राप्त करता है, उसी फलको दरिद्र पञ्चमहायज्ञ के द्वारा प्राप्त कर सकता है।अतः पञ्चमहायज्ञ करके ही गृहस्थोंको भोजन करना चाहिये। पञ्चमहायज्ञके महत्त्व एवं इसके यथार्थ स्वरूप को जानकर द्विजमात्र का कर्तव्य है कि वे अवश्य पञ्चमहायज्ञ किया करें-ऐसा करनेसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति होगी। उपर्युक्त वर्णित भक्ति, कृतज्ञता, सम्मान, प्रिय स्मृति, उदारता की भावनाओं ने सनातन धर्म को मानने वालों के लिये पञ्च महायज्ञों के महत्व को प्रकट किया।

पंचमहायज्ञों का विस्तृत विवेचन

पञ्चमहायज्ञ का वर्णन प्रायः सभी ऋषि मुनियों ने अपने-अपने धर्मग्रन्थों में किया है। महाभारत में युधिष्ठिर जी भगवान् श्री कृष्ण से पूछते हैं-

पञ्च यज्ञाः कथं देव क्रियन्तेऽत्र द्विजातिभिः। तेषां नाम च देवेश वक्तुमर्हस्यशेषतः।।(महाभारत 104-८)[18]

हे भगवन् ! द्विजातियोंको पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान किस प्रकार करना चाहिये एवं उन यज्ञोंके नाम भी बतानेकी कृपा कीजिये।भगवान् श्री कृष्ण जी कहते हैं-

शृणु पञ्च महायज्ञान्कीर्त्यमानान्युधिष्ठिर। यैरेव ब्रह्मसालोक्यं लभ्यते गृहमेधिना।।(महाभारत १०४-९)[19]

हे युधिष्ठिर ! जिनके अनुष्ठानसे गृहस्थ पुरुषोंको ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है उन पञ्चमहायज्ञोंका वर्णन करता हूँ। सुनो-

ऋभुयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, और पितृयज्ञ-ये पञ्चमहायज्ञ कहलाते हैं। इनमें ऋभुयज्ञ तर्पणको कहते हैं, ब्रह्मयज्ञ स्वाध्यायका नाम है, समस्त प्राणियोंके लिये अन्नको बलि देना भूतयज्ञ है। अतिथियोंकी पूजाको मनुष्ययज्ञ कहते हैं और पितरोंके उद्देश्यसे जो श्राद्ध आदि कर्म किये जाते हैं उनकी पितृयज्ञ संज्ञा है। हुत, अहुत, प्रहुत, पाशित और बलिदान-ये पाकयज्ञ कहलाते हैं। वैश्वदेव आदि कर्मों में जो देवताओंके निमित्त हवन किया जाता है उसे विद्वान् पुरुष हुत कहते हैं। दान दी हुई वस्तुको अहुत कहते हैं। ब्राह्मणोंको भोजन करानेका नाम प्रहुत है। प्राणाग्निहोत्रको विधिसे जो प्राणोंको पांच ग्रास अर्पण किये जाते हैं उनकी प्राशित संज्ञा है तथा गौ आदि प्राणियोंको तृप्तिके लिये जो अन्नकी बलि दी जाती है उसीका नाम बलिदान है। इन पांच कर्मोंको पाकयज्ञ कहते हैं। कितनेही विद्वान् इन पाकयज्ञोंको ही पञ्चमहायज्ञ कहते हैं किंतु दूसरे लोग जो महायज्ञके स्वरूपको जाननेवाले हैं ब्रह्मयज्ञ आदिको ही पञ्चमहायज्ञ मानते हैं। ये सभी सब प्रकारसे महायज्ञ बतलाये गये हैं। घरपर आये हुए भूखे ब्राह्मणोंको यथाशक्ति निराश नहीं लौटाना चाहिये। जो मनुष्य प्रतिदिन इन पांच यज्ञोंका अनुष्ठान किये बिना ही भोजन कर लेते हैं, वे केवल मल भोजन करते हैं। इसलिये विद्वान् द्विजको चाहिये कि वह प्रतिदिन स्नान करके इन यज्ञोंका अनुष्ठान करे। इन्हें किये बिना भोजन करनेवाला द्विज प्रायश्चित्तका भागी होता है।(संक्षिप्त महाभारत पृ०१६१४)[20]

आपस्तम्बधर्मसूत्र एवं अन्य ग्रन्थों में पांचों यज्ञों का क्रम है -भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ(स्वाध्याय) किन्तु उनके सम्पादन के कालों के अनुसार उनका क्रम होना चाहिए ब्रह्मयज्ञ (जप आदि), देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ एवं मनुष्ययज्ञ। हम इसी क्रम से पांचों का विवेचन करेंगे। पञ्चमहायज्ञों का विवेचन इस प्रकार है-

ब्रह्मयज्ञ

पॉंचों महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है। इसके करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति तो होती ही है साथ ही विविध प्रकारके अभ्युदयकी सिद्धि भी कही गयी है। सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मणमें और सबसे विस्तृत वर्णन तैत्तिरीय आरण्यकमें देखा जाता है।(शत०ब्राह्म०)[21]

ब्रह्मयज्ञस्य लक्षणमाह - यत्स्वाध्यायमधीयीतैकामप्यृचं यजु: सामं वा तद्ब्रह्मयज्ञ: संतिष्ठते - इति।

स्वस्यासाधारणत्वेन पितृपितामहादिपरम्परया प्राप्ता वेदशाखा स्वाध्यायः | तत्र विद्यमानमृगादीनामन्यतममेकमपि वाक्यमधीयीतेति यत्सोऽयं ब्रह्मयज्ञः---॥(साय०भा०)[22]

शतपथ के अनुसार प्रतिदिन किया जानेवाला स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञके माध्यमसे देवताओंको दूध-घी-सोम आदि अर्पित किये जाते हैं। प्रतिफलमें देवता प्रसन्न होकर उन्हें सुरक्षा, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, दीप्ति- तेज, यश, बीज, सत्त्व, आध्यात्मिक उच्चता तथा सभी प्रकारके मंगलमय पदार्थ प्रदान करते हैं। साथ ही इनके पितरोंको घी एवं मधुकी धारासे सन्तुष्ट करते हैं। यहाँतक कि स्वाध्याय करनेवालेको लोकमें त्रिगुण फल प्राप्त होते हैं।

शतपथब्राह्मणमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय (वेदाध्ययन तथा आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययन) करता है। उसे उस व्यक्तिसे तिगुना फल प्राप्त होता है जो दान देने या पुरोहितोंको धन-धान्यसे पूर्ण सारा संसार देनेसे प्राप्त होता है।ब्रह्मचर्यपूर्वक आचरण करते हुए पिता-माता गुरु आदि श्रेष्ठजनोंकी सेवा शुश्रूषा, उनकी आज्ञाओंका पालन गुरुजनोंके श्रीचरणोंमें बैठकर निष्ठापूर्वक वेदाध्ययन तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञका अंग माना गया है।

स्वाध्याय-ग्रन्थोंमें यद्यपि चारों वेद-ब्राह्मण-कल्प-पुराण आदि लिये जाते हैं परंतु यह भी कहा गया है कि मनोयोगपूर्वक जितना ही स्वाध्याय किया जा सके करना चाहिये।ब्रह्मयज्ञ में वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय होने से विद्या तथा ज्ञान प्राप्त होता है परमात्मा से आध्यात्मिक संबंध दृढ़ होता है और ऋषि ऋण से छुटकारा मिल जाता है। कर्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी निर्णय के साथ साथ इहलोक और परलोक के लिए कल्याणमय निष्कण्टक पथ का अनुसन्धान हो जाता है और सदाचार की वृद्धि होती है । ज्ञानवृद्धि के कारण तेज तथा ओज की भी वृद्धि होती है।

देवयज्ञ

तैत्तिरीय आरण्यक में देवयज्ञ का लक्षण इस प्रकार किया गया है-

तत्र देवयज्ञस्य लक्षणमाह - यदग्नौ जुहोत्यपि समिधं तद्देवयज्ञ: संतिष्ठते - इति ॥

पुरोडाशादिहविर्मुख्यं तदलाभे समिधमप्यग्नौ देवानुद्दिशञ्जुहोतीति यत्सोऽयं देवयज्ञः॥(साय०भा०)[23]

गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रोंके अनुसार विभिन्न देवताओंके लिये यह यज्ञ किया जाता है। जिन देवताओंके निमित्त यह यज्ञ सम्पादित होता है उन देवताओं के ग्रन्थों में अलग-अलग नाम दिये गये हैं। परंतु जो नाम मुख्य हैं वह इस प्रकार हैं- सूर्य, अग्नि, प्रजापति, सोम, इन्द्र, वनस्पति, द्यौ, पृथिवी, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, ब्रह्मा आदि । यहाँ यह स्मरणीय है कि मदनपारिजात और स्मृतिचन्द्रिकाके अनुसार वैश्वदेवके देवता दो प्रकारके कहे गये हैं। प्रथम वे जो सबके लिये एक जैसे हैं और जिनके नाम मनुस्मृतिमें पाये जाते हैं। जबकि दूसरे देवता वह हैं, जिनके नाम अपने-अपने गृह्यसूत्रमें पाये जाते हैं। देवता-विशेषका नाम लेकर स्वाहा शब्दके उच्चारणके साथ अग्निमें जब हवि या न्यूनातिन्यून एक भी समिधा डाली जाती है तो वह देवयज्ञ होता है। मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार देवयजन देव पूजा के पश्चात् किया जाता है।

नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम् । देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानं एव च ॥(मनु स्मृ० २-१७६)[24]

उपेयादीश्वरं चैव योगक्षेमार्थसिद्धये ।स्नात्वा देवान्पितॄंश्चैव तर्पयेदर्चयेत्तथा ॥(याज्ञ०स्मृ० १-१००)[25]

इसके माध्यमसे देवताओंको प्रसन्न किया जाता है और उनके प्रसन्न होनेसे आत्माभ्युदय तथा सभी मंगलमय अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है। यज्ञमुखसे गृहस्थ देवताओंका सान्निध्य अनुभव करते हैं। जिससे उनके व्यक्तित्वका विकास होता है। वैदिक धारणाके अनुसार देवता सत्यपरायण, उदार, पराक्रमी और सहायशील होते हैं और उनके सान्निध्यानुभवसे मनुष्य भी अपनी आत्मा और शरीरमें इन गुणोंको प्रतिष्ठित करते हैं। देवयज्ञ में हवन का विधान किया है। हवन से केवल वायु ही शुद्ध नहीं होता दैवी जगत् से मन्त्रों द्वारा सम्बन्ध भी होता है और वे देवगण उससे तृप्त होकर बिना मांगे ही जीवों को इष्ट फल प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में गीता जी में बतलाया गया है-

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥(श्रीमद्भग्वद्गीता ३-११)[26]

यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो और वे तुम्हारी उन्नति करेंगे इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे।इसके अतिरिक्त अग्निपुराण में बतलाया गया है कि -

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नन्ततः प्रजाः ॥(अग्निपुराण २१६-११)[27]

अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है। सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न एवं अन्न से प्रजा होती है। गीता जी में भी उल्लेख प्राप्त होता है-

अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥(श्रीमद्भग्वद्गीता ३-१४)[28]

अर्थात् अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होता है। इस प्रकार देवयज्ञरूपी नित्य कर्म में सम्पूर्ण प्राणियों का व्यापक हित निहित है।

भूतयज्ञ

भूतयज्ञस्य लक्षणमाह - यद्भूतेभ्यो बलिँ्हरति तद्भूतयज्ञ: संतिष्ठते -इति॥

वैश्वदेवानुष्ठानादूर्ध्वं बहिर्देशे वायसादिभ्यो भूतेभ्यो यद्बलिप्रदानं सोऽयं भूतयज्ञ:॥(साय०भा०)[23]

भूतयज्ञ में बलिवैश्वदेव का विधान किया गया है। जिससे पशु,पक्षी,कीट,आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है।भूतयज्ञ एक ऐसा व्रत है, जिसमें सभी प्रकराके जीवों का पोषण हो जाता है।मनुष्य,चाण्डाल, गाय, बैल, कुत्ता, कीट-पतंग आदि जितने भी भूत (प्राणी) हैं, उन सभीको अन्न, जल, आदि भोज्य देना इस यज्ञका उद्देश्य है। भूतयज्ञका यह उद्देश्य उपनिषद्के सर्वे भवन्तु सुखिन: वाक्यमें ही सन्निहित है।

कृमि, कीट, पतङ्ग, पशु और पक्षी आदि की सेवाको भूतयज्ञ कहते हैं।ईश्वररचित सृष्टि के किसी भी अङ्ग की उपेक्षा कभी नहीं की जा सकती, क्योंकि सृष्टि के सिर्फ एक ही अङ्ग की सहायता से समस्त अङ्गों की सहायता समझी जाती है, अतः भूतयज्ञ भी परम धर्म है।प्रत्येक प्राणी अपने सुख के लिये अनेक भूतों ( जीवों) को प्रतिदिन क्लेश देता है, क्योंकि ऐसा हुए बिना क्षणमात्र भी शरीरयात्रा नहीं चल सकती।प्रत्येक मनुष्यके श्वास-प्रश्वास, भोजन-प्राशन, विहार-सञ्चार आदि में अगणित जीवों की हिंसा होती है। निरामिष भोजन करनेवाले लोगों के भोजन के समय भी अगणित जीवों का प्राण-वियोग होता है, आमिषभोजियों की तो कथा ही क्या है ? अतः भूतों (जीवों) से उऋण होने के लिये भूतयज्ञ करना आवश्यक है। भूतयज्ञसे कृमि, कीट, पशु, पक्षी आदिकी तृप्ति होती है।

पितृयज्ञ

पितृयज्ञ का लक्षण करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया है-

पितृयज्ञस्य लक्षणमाह - यत्पितृभ्यः स्वधा करोत्यप्यपस्तत्पितृयज्ञः संतिष्ठते-इति ।

तत्र पिण्डदानासंभवे जलमात्रमपि पितृभ्यः स्वधाऽस्त्विति स्वधाशब्देन यद्ददाति सोऽयं पितृयज्ञः ---॥(साय०भा०)[29]

पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्यपितर तथा परलोकगामी पितरों का तर्पण करना होता है जिससे उनके आत्मा की तृप्ति होती है।पद्मपुराण का उद्धरण देकर नित्यकर्म पूजाप्रकाश में कहा गया है कि-

आब्रह्मभुवनाल्लोका देवर्षिपितृमानवः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमाता महादयः ॥

नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥(नित्यक०पूजा०पृ०९८/९९)[30]

अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा पिता, माता और मातामहादि पितरों की समस्त नरकों में जितने भी यातनाभोगी जीव हैं उनके उद्धार के लिए मैं यह जल प्रदान करता हूं। इससे पितृ जगत् से सम्बन्ध होता है ।अर्यमादि नित्य पितरों की तथा परलोकगामी नैमित्तिक पितरों की पिण्डप्रदानादि से किये जानेवाले सेवारूप यज्ञको पितृयज्ञ कहते हैं।

देवेभ्यश्च हुतादनाच्छेषाद् भूतबलि हरेत् । अन्नं भूमौ श्वचाण्डालवायसेभ्यश्च निःक्षिपेत् ॥(याज्ञ०स्मृ०१-१०३)[31]

देवयज्ञसे बचे हुए अन्नको जीवों के लिये भूमि पर डाल देना चाहिये और वह अन्न पशु, पक्षी एवं गौ आदिको देना चाहिये

नृयज्ञ

मनुष्य(नृ) यज्ञ का लक्षण करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया है-

मनुष्ययज्ञस्य लक्षणमाह - यद्ब्राह्मणेभ्योऽन्नं ददाति तन्मनुष्ययज्ञ: संतिष्ठते -इति।(साय०भा०)[32]

मनुष्ययज्ञ अतिथि सेवा रूप है। अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है। जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि कहा जाता है।यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर जाता है तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है।पूरयति सर्वमिति पुरुषः-सभी प्राणियोंके पोषक होने के कारण पुरुष शब्दकी सार्थकता कही गयी है।

आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् । एतद् वृडते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(कठो०१।१८)[33]

जिसके घर में ब्राह्मण या अतिथि विना भोजन किये रहता है, उस पुरुष की आशा, प्रतीक्षा, संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त चेष्टापूर्तफल तथा पुत्र, पशु आदि नष्ट हो जाते हैं।

उद्धरण

  1. तैत्तिरीय संहिता (काण्ड ६)
  2. पराशर स्मृति (अध्याय १)।
  3. पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़, यज्ञमीमांसा,चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी (पृ०३३)।
  4. मनु स्मृति (अध्याय ६)।
  5. पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़, यज्ञमीमांसा, वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन।
  6. मनु स्मृति (अध्याय-३)
  7. मनुस्मृति(अध्याय २)।
  8. शतपथ ब्राह्मण (काण्ड ११ अध्याय ५)।
  9. डॉ०श्री उदय नाथ जी झा,पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान-नित्यचर्या का अभिन्न अंग,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर(पृ०२८८)।
  10. डॉ० राजबली पाण्डेय, हिन्दू संस्कार - समाजिक तथा धार्मिक अध्ययन, वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन २०१४ (पृ०२२/२३)
  11. A Short History of Religious and Philosophic Thought In India By Swami Krishnananda. Divine Life Society
  12. Mani, Vettam. (1975). Puranic encyclopaedia : A comprehensive dictionary with special reference to the epic and Puranic literature. Delhi:Motilal Banasidass.
  13. श्रीमद्भग्वद्गीता (अध्याय ३)।
  14. महाभारत (आश्वमेधिकपर्व-14)।
  15. मनु स्मृति(अध्याय-३)।
  16. महाभारत(शांतिपर्व-१२)।
  17. पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़, यज्ञमीमांसा ,वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन।
  18. महाभारत(आश्वमेधिकपर्व १४)।
  19. महाभारत(आश्वमेधिकपर्व१४)।
  20. श्री जयदयाल गोयन्दका संक्षिप्त महाभरत,गीताप्रेस गोरखपुर(पृ०१६१४)।
  21. शतपथब्राह्मण काण्ड-११ अध्याय-५ ब्राह्मण-६ खण्ड-३/८।
  22. तैत्तिरीय आरण्यकसायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।
  23. 23.0 23.1 तैत्तिरीय आरण्यक सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।
  24. मनु स्मृति अध्याय-२ श्लोक-१७६।
  25. याज्ञवल्क्य स्मृति अध्याय-१ श्लोक१००।
  26. श्री मद्भग्वद्गीता(३ । ११)।[1]
  27. अग्निपुराण अध्याय-२१६ श्लोक-११।
  28. श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-३ श्लोक-१४।
  29. तैत्तिरीय आरण्यकसायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।
  30. पं० लालबिहारी मिश्र , नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर।
  31. याज्ञवल्क्य स्मृति अध्याय- १ श्लोक-१०३।
  32. तैत्तिरीय आरण्यक सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।
  33. कठोपनिषद् अध्याय-१ प्रथमवल्ली-१ श्लोक-८।