Panchamahayajna (पञ्चमहायज्ञ)

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सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पञ्चमहायज्ञों के सम्पादन की व्यवस्था है।शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जन्म लेते ही तीन प्रकार के(देव, ऋषि एवं पितृ) ऋणों से ऋणी हो जाता है।

जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते (तै० सं० ६।३।१०। ५)

शास्त्रविधिके अनुसार तीनों ऋणों से अनृण होनेके लिये शास्त्रोंने नित्यकर्मका विधान किया है। जिसे करके मनुष्य ''देव, ऋषि और पितृ''-सम्बन्धी तीनों ऋणोंसे मुक्त हो सकता है।नित्यकर्ममें शारीरिक शुद्धि, सन्ध्यावन्दन, तर्पण और देव-पूजन प्रभृति शास्त्रनिर्दिष्ट कर्म आते हैं। इनमें मुख्य निम्नलिखित छः कर्म बताये गये हैं-

सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम् । वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने ।(बृ. प० स्मृ० १।३९)

मनुष्यको स्नान, सन्ध्या, जप, देवपूजन, बलिवैश्वदेव और अतिथि सत्कार-ये छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिये। सामान्यतः लौकिक जीवन में मानव को स्वयं के भविष्य को सँवारने के लिये सन्ध्यावन्दन का विधान किया गया है। कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता और सदाचार के लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म-कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया जाता है। पंचमहायज्ञमें देवता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव-जन्तु, समाज, मानव आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है।

परिचय

सनातन धर्म में गृहस्थमात्र के लिये पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है।गृहस्थ प्रतिदिन झाडू-पोंछा, अग्निकुण्ड, चक्की, सूप, जलघट आदि स्थान या सामग्रीके द्वारा प्राणियोंको आहत करता है।शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है कि गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है-

पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।

अर्थ-चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें) तथा घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं इस तरहकी क्रियाओंके माध्यमसे सूक्ष्म जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसाको जिसे कि जीवनमें टाला नहीं जा सकता, शास्त्रों में सूना कहा गया है। इसकी संख्या पाँच होनेसे ये पंचसूना कहलाते हैं। शास्त्र के अनुसार मुख्यतः कर्म तीन प्रकार के होते हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य।जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो और न करने से पाप लगे उन्हें नित्यकर्म कहते हैं; जैसे त्रिकालसन्ध्या, पञ्चमहायज्ञ इत्यादि।शास्त्रों में सन्ध्या वन्दन के उपरान्त पञ्चमहायज्ञ का विधान बताया गया है। पञ्चमहायज्ञ करने से पारलौकिक लाभ तो हैं ही ऐहलौकिक आत्मोन्नति आदि अवान्तर फल की प्राप्ति होने पर भी पञ्चसूना दोष से छुटकारा पाने के लिये शास्त्रकारों की आज्ञा है कि-

सर्वैर्गृहस्थैः पञ्चमहायज्ञा अहरहः कर्तव्याः।

अर्थात् गृहस्थमात्र को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ करने चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि पञ्चमहायज्ञ करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु न करने से पाप का प्रादुर्भाव अवश्य होता है ।अतःइसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥मनुस्मृति(३/६०)।

भावार्थ-(१)ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, (२)पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, (३)देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, (४)भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, (५)मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।अतएव मनु जी ने कहा है-

स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥मनुस्मृति(२।२८)

भाषार्थ- वेदाध्ययनसे, मधु-मांसादिके त्यागरूप व्रतसे, हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृतर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य बनाया जाता है।शतपथ ब्राह्मण में पञ्चमहायज्ञों को महासत्र के नाम से व्यवहृत किया गया है-

पञ्चैव महायज्ञाः। तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति । शतपथ ब्राह्मण ११।५।६।७।

केवल पांच ही महायज्ञ हैं, वे महान् सत्र हैं और वे इस प्रकार हैं- भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ।

कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति ।।

अर्थ-कूटना, पीसना, चूल्हा, जल भरना और झाडू लगाना-पंचसूना जन्य इन सभी पापोंका शमन पंचमहायज्ञसे ही होता है। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार यह पंचमहायज्ञ करता है सभी पापोंसे वह मुक्ति पा लेता है।

संस्कार

सनातन धर्म में संस्कारों का बहुत महत्व है।संस्कारों का उद्देश्य मानव की अशुभ शक्तियों से रक्षा करना एवं अभीष्ट इच्छाओं की प्राप्ति कराना है।गौतम ऋषि के मत में चालीस प्रकार के संस्कार हैं-

  • संस्कार
  • वेदव्रत
  • पञ्चमहायज्ञ
  • पाकयज्ञ
  • हवियज्ञ
  • सोमयज्ञ

पञ्चमहायज्ञों का महत्व

पञ्च महायज्ञों एवं श्रौत यज्ञों में दो प्रकार के अन्तर हैं। पञ्च महायज्ञों में गृहस्थ को किसी पुरोहित की सहायता की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु श्रौत यज्ञों में पुरोहित मुख्य हैं। गृहस्थ का स्थान केवल गौण रूप में रहता है। दूसरा अन्तर यह है कि पञ्च महायज्ञों में मुख्य उद्देश्य हैं देवता, ऋषि, पितर, जीव एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की प्रमुख प्रेरणा है स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता एवं प्रगतिशीलता देखने में आती है।

  • पञ्चमहायज्ञों से आध्यात्मिकता एवं प्रगतिशीलता में वृद्धि
  • सभी जीवों एकात्म भाव
  • पञ्च महायज्ञों के मूल में क्या है ?
  • इनके पीछे कौन से स्थायी भाव हैं ?

ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में वर्णित पवित्र श्रौत यज्ञों का सम्पादन सबके लिए सम्भव नहीं था। किन्तु अग्नि के मुख में एक समिधा डालकर सभी मनुष्य देवों के प्रति अपने सम्मान की भावना को अभिव्यक्त करते हैं वह देवयज्ञ कहलाता है।इसी प्रकार दो-एक श्लोकों का जप अथवा वेद का स्वाध्याय करके कोई भी प्राचीन ऋषियों, साहित्य एवं संस्कृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर सकता है वह ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। एक अञ्जलि या एक पात्र जल के तर्पण से कोई भी पितरों के प्रति भक्ति एवं प्रिय स्मृति प्रकट कर सकता और पितरों को सन्तुष्ट कर सकता है वह पितृयज्ञ कहलाता है। सारे विश्व के प्राणी एक ही सृष्टि-बीज के द्योतक हैं अतः सबमें आदान-प्रदान का प्रमुख सिद्धान्त कार्य रूप में उपस्थित रहना चाहिए अतिथियों को भोजन कराकर भोजन करना चाहिये यह मनुष्य यज्ञ कहलाता है एवं जीवों को बलि के रूप में भोजन का ग्रास अथवा पिण्ड अर्पित किये जाने से भूतयज्ञ कहलाता है। पञ्चमहायज्ञ करनेसे अन्नादिकी शुद्धि और पापोंका क्षय होता है। पञ्चमहायज्ञ किये बिना भोजन करनेसे पाप लगता है। जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण जी ने गीता में कहा है-

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ गीता ( ३।१३ )

अर्थ-यज्ञसे शेष बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष पञ्चहत्याजनित समस्त पापोंसे मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो पापी केवल अपने लिये ही पाक बनाते हैं, वे पापका ही भक्षण करते हैं।महाभारतमें भी कहा है-

अहन्यहनि ये त्वेतानकृत्वा भुञ्जते स्वयम् । केवलं मलमश्नन्ति ते नरा न च संशयः॥

अर्थ-जो प्रतिदिन इन पञ्चमहायज्ञों को किये बिना भोजन करते हैं, वे केवल मल खाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं।मनु जी की आज्ञा है कि-

पञ्चैतान् यो महायज्ञान्नहापति शक्तितः। स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषो न लिप्यते ॥( मनु० ३/७१ )

अर्थ-जो गृहस्थ शक्ति के अनुकूल इन पञ्चमहायज्ञों का एक दिन भी परित्याग नहीं करते, वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी प्रतिदिन के पञ्चसूनाजनित पापके भागी नहीं होते। महर्षि गर्ग ने भी कहा है-

पञ्चयज्ञांस्तु यो मोहान्न करोति गृहाश्रमी । तस्य नायं न च परो लोको भवति धर्मतः॥

महर्षि हारीत ने कहा है-

यत्फलं सोमयागेन प्राप्नोति धनवान् द्विजः। सम्यक पञ्चमहायज्ञे दरिद्रस्तवामुयात् ॥

अर्थ-धनवान् द्विज सोमयाग करके जो फल प्राप्त करता है, उसी फलको दरिद्र पञ्चमहायज्ञ के द्वारा प्राप्त कर सकता है।अतः पञ्चमहायज्ञ करके ही गृहस्थोंको भोजन करना चाहिये। पञ्चमहायज्ञके महत्त्व एवं इसके यथार्थ स्वरूप को जानकर द्विजमात्र का कर्तव्य है कि वे अवश्य पञ्चमहायज्ञ किया करें-ऐसा करनेसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति होगी। उपर्युक्त वर्णित भक्ति, कृतज्ञता, सम्मान, प्रिय स्मृति, उदारता की भावनाओं ने सनातन धर्म को मानने वालों के लिये पञ्च महायज्ञों के महत्व को प्रकट किया।

पंचमहायज्ञों का विस्तृत विवेचन

शास्त्र के अनुसार

आपस्तम्बधर्मसूत्र एवं अन्य ग्रन्थों में पांचों यज्ञों का क्रम है -भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ एवं स्वाध्याय, किन्तु उनके सम्पादन के कालों के अनुसार उनका क्रम होना चाहिए ब्रह्मयज्ञ (जप आदि), देवयज्ञ, मूतयज्ञ, पितृयज्ञ एवं मनुष्ययज्ञ। हम इसी क्रम से पांचों का विवेचन करेंगे। पञ्चमहायज्ञों का विवेचन इस प्रकार है-

ब्रह्मयज्ञ

पॉंचों महायज्ञमें ब्रह्मयज्ञ प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है इसके करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति तो होती ही है साथ ही विविध प्रकारके अभ्युदयकी सिद्धि भी कही गयी है। सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मणमें शतपथ (११ । ५। ६।३-८)और सबसे विस्तृत वर्णन तैत्तिरीय आरण्यकमें देखा जाता है। शतपथ के अनुसार प्रतिदिन किया जानेवाला स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञके माध्यमसे देवताओंको दूध-घी-सोम आदि अर्पित किये जाते हैं, प्रतिफलमें देवता प्रसन्न होकर उन्हें सुरक्षा, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, दीप्ति- तेज, यश, बीज, सत्त्व, आध्यात्मिक उच्चता तथा सभी प्रकारके मंगलमय पदार्थ प्रदान करते हैं। साथ ही इनके पितरोंको घी एवं मधुकी धारासे सन्तुष्ट करते हैं। यहाँतक कि स्वाध्याय करनेवालेको लोकमें त्रिगुण फल प्राप्त होते हैं। शतपथब्राह्मणमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय (वेदाध्ययन तथा आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययन) करता है उसे उस व्यक्तिसे तिगुना फल प्राप्त होता है जो दान देने या पुरोहितोंको धन-धान्यसे पूर्ण सारा संसार देनेसे प्राप्त होता है।

ब्रह्मचर्यपूर्वक आचरण करते हुए पिता-माता गुरु आदि श्रेष्ठजनोंकी सेवा शुश्रूषा, उनकी आज्ञाओंका पालन गुरुजनोंके श्रीचरणोंमें बैठकर निष्ठापूर्वक वेदाध्ययन तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञका अंग माना गया है।

स्वाध्याय-ग्रन्थोंमें यद्यपि चारों वेद-ब्राह्मण-कल्प-पुराण आदि लिये जाते हैं, परंतु यह भी कहा गया है कि मनोयोगपूर्वक जितना ही स्वाध्याय किया जा सके करना चाहिये।

ब्रह्मयज्ञ में वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय होने से विद्या तथा ज्ञान प्राप्त होता है परमात्मा से आध्यात्मिक संबंध दृढ़ होता है और ऋषिऋण से छुटकारा मिल जाता है, कर्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी निर्णय के साथ साथ इहलोक और परलोक के लिए कल्याणमय निष्कण्टक पथ का अनुसन्धान हो जाता है और सदाचार की वृद्धि होती है । ज्ञानवृद्धि के कारण तेज तथा ओज की भी वृद्धि होती है।

पितृयज्ञ

पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्यपितर तथा परलोकगामी पितरों का तर्पण करना होता है जिससे उनके आत्मा की तृप्ति होती है। तर्पण में कहा जाता है कि-

आब्रह्मभुवनाल्लोका देवर्षिपितृमानवः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमाता महादयः ।।

नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥

अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा पिता, माता और मातामहादि पितरों की समस्त नरकों में जितने भी यातनाभोगी जीव हैं उनके उद्धार के लिए मैं यह जल प्रदान करता हूं। इससे पितृ जगत् से सम्बन्ध होता है ।

देवयज्ञ

गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रोंके अनुसार विभिन्न देवताओंके लिये यह यज्ञ किया जाता है। जिन देवताओंके निमित्त यह यज्ञ सम्पादित होता है उनके नाम अलग-अलग ग्रन्थों में अलग-अलग दिये गये हैं परंतु जो नाम मुख्य हैं वह इस प्रकार हैं-

सूर्य, अग्नि, प्रजापति, सोम, इन्द्र, वनस्पति, द्यौ, पृथिवी, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, ब्रह्मा आदि । यहाँ यह स्मरणीय है कि मदनपारिजात और स्मृतिचन्द्रिकाके अनुसार वैश्वदेवके देवता दो प्रकारके कहे गये हैं। प्रथम वे जो सबके लिये एक जैसे हैं और जिनके नाम मनुस्मृतिमें पाये जाते हैं। जबकि दूसरे देवता वे हैं, जिनके नाम अपने-अपने गृह्यसूत्रमें पाये जाते हैं। देवता-विशेषका नाम लेकर 'स्वाहा' शब्दके उच्चारणके साथ अग्निमें जब हवि या न्यूनातिन्यून एक भी समिधा डाली जाती है तो वह देवयज्ञ होता है। मनु (२।१७६) और याज्ञवल्क्य (१।१००)के अनुसार देवयजन देव पूजान्के पश्चात् किया जाता है।

इसके माध्यमसे देवताओंको प्रसन्न किया जाता है और उनके प्रसन्न होनेसे आत्माभ्युदय तथा सभी मंगलमय अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है। यज्ञमुखसे गृहस्थ देवताओंका सान्निध्य अनुभव करते हैं जिससे उनके व्यक्तित्वका विकास होता है। वैदिक धारणाके अनुसार देवता सत्यपरायण, उदार, पराक्रमी और सहायशील होते हैं और उनके सान्निध्यानुभवसे मनुष्य भी अपनी आत्मा और शरीरमें इन गुणोंको प्रतिष्ठित करते हैं।

देवयज्ञ में हवन का विधान किया है । हवन से केवल वायु ही शुद्ध नहीं होता दैवी जगत् से मन्त्रों द्वारा सम्बन्ध भी होता है और वे देवगण उससे तृप्त होकर बिना मांगे ही जीवों को इष्ट फल प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में गीता(३ । १०-१२) में बतलाया गया है।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥

यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो और वे तुम्हारी उन्नति करेंगे इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति (३१७६) में बतलाया गया है कि अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न एवं अन्न से प्रजा होती है

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिवष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥

और भी

अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥(गीता ३।१४)

अर्थात् अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होता है। इस प्रकार देवयज्ञरूपी नित्य कर्म में सम्पूर्ण प्राणियों का व्यापक हित निहित है।

भूतयज्ञ

भूतयज्ञ में बलि-वैश्वदेव का विधान किया गया है जिससे कीट, पक्षी, पशु आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है।

भूतयज्ञ एक ऐसा व्रत है, जिसमें सभी प्रकराके जीवों का पोषण हो जाता है।मनुष्य चाण्डाल गाय, बैल, कुत्ता, कीट-पतंग आदि जितने भी भूत (प्राणी) हैं, उन सभीको सावधानीपूर्वक अन्न, जल, पास आदि भोज्य देना इस यजका उद्देश्य है। भूतयज्ञका यह सोश्य उपनिषद्के 'सर्वे भवन्तु सुखिन: ' वाक्यमे ही सन्निहित है। सभी प्राणियोंके पोषक होने के कारण 'पुरुष' शब्दकी सार्थकता कही गयी है-'पूरयति सर्वमिति पुरुषः।'

नृयज्ञ

मनुष्ययज्ञ अतिथि-सेवा-रूप है। अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है। जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि कहा जाता है।यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर जाता है तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है

आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् । एतद् वृडते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(कठो०१।१८)

जिसके घर में ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किये रहता है, उस पुरुष की आशा, प्रतीक्षा, संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त इष्टापूर्तफल तथा पुत्र, पशु आदि नष्ट हो जाते हैं। अथर्ववेद के अतिथिसूक्त में कहा गया है कि-

एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्च स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः।सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ॥(अथर्ववेद ५८)

अतिथिप्रिय होना चाहिए भोजन कराने पर वह यजमान को स्वर्ग पहुंचा देता है और उसका पाप नष्ट कर देता है।

उद्धरण