Nirukta (निरुक्त)

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निरुक्त में वैदिक शब्द समाम्नाय की व्याख्या की गई है जो निघंटु के पांच अध्यायों में संकलित है। निघंटु वैदिक शब्दकोश है जिसमें १३४१ शब्द परिगणित हैं इसके प्रथम तीन अध्याय नैघण्टुक काण्ड कहे जाते हैं। चतुर्थ अध्याय को नैगम काण्ड और अंतिम अध्याय को दैवतकाण्ड कहा गया है। आचार्य यास्क द्वारा रचित निरुक्त निरुक्त में निघंटुगत २३० शब्दों का निर्वचन है। निरुक्त में निर्वचन करने के लिए वर्णागम, वर्ण-विपर्यय, वर्ण-विकार, वर्ण नाश और धातुओं का अनेक अर्थों में प्रयोग ये पांच नियम हैं। निरुक्त में मूलतः १२ अध्याय हैं। इसके अतिरिक्त २ अध्याय परिशिष्ट रूप में हैं। कुल मिलाकर १४ अध्यायों का विभाजन पादों में हैं। निरुक्त पर दुर्गाचार्य, स्कन्द, महेश्वर और वररुचि की टीकाएं उपलब्ध हैं।

प्रस्तावना

निरुक्त की परिभाषा

आचार्य सायण ने निरुक्त का लक्षण किया है –

अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्।

अर्थात अर्थज्ञान के विषय में जहां स्वतंत्ररूप में पद समूह का कथन किया गया है वह निरुक्त कहलाता है।

निरुक्त के प्रयोजन

निरुक्त के निम्नलिखित प्रयोजन दृष्टिगोचर होते हैं जैसे कि -

  1. अर्थ ज्ञान –
  2. पद विभाग –
  3. देवता का ज्ञान –
  4. ज्ञान की प्रशंसा और अज्ञान की निंदा –

निर्वचन के सिद्धांत

निरुक्त एवं पद विधि

पदों के चार विभाग हैं –

1.   नाम

2.   आख्यात

3.   उपसर्ग

4.   निपात

निरुक्त में मुख्यतया निरुक्त का प्रयोजन, अर्थज्ञान, पदविभाग एवं देवता आदि से परिचित होंगे। यास्क ने निर्वचन के कुछ सामान्य एवं कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का वर्णन किया है। निरुक्त निर्वचन प्रधान शास्त्र है, जिसमें महर्षि यास्क ने बहुत से वैदिक मंत्रों की व्याख्या नवीन शैली में प्रस्तुत की है।

  • निरुक्त में निघंटु के कहे गए वैदिक शब्दों की व्याख्या की गयी है, इसे निघंटु का भाष्य भी कहते हैं।
  • निघंटु में केवल शब्दों का संकलन है।
  • महाभारत में प्रजापति कश्यप को निघंटु का कर्ता स्वीकार किया है परंतु कुछ आचार्य यास्क को ही निघंटु का रचयिता मानते हैं।

षड् भावविकार

  • जायते
  • अस्ति
  • विपरिणमते
  • वर्धते
  • अपक्षीयते
  • विनश्यति  

आचार्य यास्क और वेदार्थ

सारांश

यास्क को निर्वचन विद्या का प्रथम लेखक माना जाता है। यास्क ने सर्वप्रथम निर्वचन को एक पृथक विज्ञान के रूप में स्थापित किया। निरुक्त में निर्वचन के साथ ही साथ यास्क ने अपने अन्य सिद्धांतों का उल्लेख किया है किन्तु इनकी निर्वचन विद्या की महत्ता सर्वाधिक है। वैदिक पाठ्य के सम्यक ज्ञान के लिए निरुक्त आवश्यक है। निरुक्त को व्याकरण का पूरक माना जाता है –

तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कात्स्नर्यम्। (नि० 1.15)

संहिताओं के पद पाठ में तथा पदों को धातु प्रत्यय आदि में विभक्त करने हेतु निरुक्त आवश्यक है।

यज्ञ में प्रयुक्त मंत्र में एक से अधिक देवता होने पर प्रधान देवता का ज्ञान भी निरुक्त द्वारा होता है अतः इसका व्यावहारिक महत्व है।

भाषा विज्ञान की तरह यास्क कृत निर्वचन शब्द के मूल अर्थ का ज्ञान नहीं कराता अपितु यास्क के निर्वचन का मुख्य उद्देश्य अधिकाधिक अर्थों के साथ शब्द की संगति स्थापित करना है। निर्वचन में प्रचलित अर्थ का शब्द से अन्वय करने के लिए तथ्यों के आश्रय की अपेक्षा कल्पना

उद्धरण