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=== ईशावास्योपनिषद्<ref name=":0">शोध गंगा , शोधकर्त्री - श्री पार्वती सेवग, उपनिषदों की पृष्ठभूमि में जीवन-आकांक्षाओं के मनोवैज्ञानिक , दार्शनिक व शैक्षिक परिप्रेक्ष्यों का विश्लेषणात्मक अध्ययन , सन् २००९ , महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय , बीकानेर, प्रथमाध्याय (पृ० ९)</ref> ===
 
=== ईशावास्योपनिषद्<ref name=":0">शोध गंगा , शोधकर्त्री - श्री पार्वती सेवग, उपनिषदों की पृष्ठभूमि में जीवन-आकांक्षाओं के मनोवैज्ञानिक , दार्शनिक व शैक्षिक परिप्रेक्ष्यों का विश्लेषणात्मक अध्ययन , सन् २००९ , महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय , बीकानेर, प्रथमाध्याय (पृ० ९)</ref> ===
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{{Main|Ishavasyopanishad_and_Dakshinamurthy_(ईशावास्योपनिशत्_दक्षिणामूर्तिः_च)}}
 
शुक्ल यजुर्वेद संहिता का अंतिम चालीसवां अध्याय। इसमें केवल 18 मंत्र हैं। इसको प्रारम्भिक शब्द ईश पर से ईशावास्योपनिषद् कहते हैं। इसका दूसरा नाम वाजसनेयी संहिता या मंत्रोपनिषद् भी कहते हैं। दर्शन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ज्ञानोपार्जन के साथ-साथ कर्म करने के भी आवश्यकता है, इस विषय का प्रतिपादन ईश में है। यही मत ज्ञान-कर्म समुच्चय वाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में इसी विचार का प्राधान्य है।  
 
शुक्ल यजुर्वेद संहिता का अंतिम चालीसवां अध्याय। इसमें केवल 18 मंत्र हैं। इसको प्रारम्भिक शब्द ईश पर से ईशावास्योपनिषद् कहते हैं। इसका दूसरा नाम वाजसनेयी संहिता या मंत्रोपनिषद् भी कहते हैं। दर्शन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ज्ञानोपार्जन के साथ-साथ कर्म करने के भी आवश्यकता है, इस विषय का प्रतिपादन ईश में है। यही मत ज्ञान-कर्म समुच्चय वाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में इसी विचार का प्राधान्य है।  
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ईशावास्य उपनिषद में त्याग की भावना तथा इसके अनुकूल ईश्वर की हर वस्तु में उपस्थित यह निश्चित हो जाता है।  इसके उपरांत इस उपनिषद् में कर्म का चिंतन भी हुआ है। ईश्वर दर्शन के साथ मोह से युक्त होना तथा विद्या और अविद्या दोनों का भी वर्णन इस उपनिषद् में हुआ है।<ref name=":0" />  
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ईशावास्य उपनिषद में त्याग की भावना तथा इसके अनुकूल ईश्वर की हर वस्तु में उपस्थित यह निश्चित हो जाता है।  इसके उपरांत इस उपनिषद् में कर्म का चिंतन भी हुआ है। ईश्वर दर्शन के साथ मोह से युक्त होना तथा विद्या और अविद्या दोनों का भी वर्णन इस उपनिषद् में हुआ है।<ref name=":0" />
    
===केनोपनिषद्===
 
===केनोपनिषद्===
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===छान्दोग्योपनिषद्===
 
===छान्दोग्योपनिषद्===
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{{Main|Chandogya_Upanishad_(छान्दोग्योपनिषतद्)}}
 
सामवेद की तवलकार शाखा के अन्तर्गत छांदोग्य ब्राह्मण के अंश को इस उपनिषद् के रूप में मान्यता दी गई है। उक्त ब्राह्मण में १० अध्याय हैं। इस छांदोग्य उपनिषद् आठ अध्यायों में विभक्त सबसे बडा उपनिषद् है और सबसे प्राचीनतम उपनिषद् है। इसमें सूक्ष्म उपासना के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का उपदेश प्रारंभ में है। इस उपनिषद् में दृष्टांतों के द्वारा छोटी-छोटी कहानियों के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करने की विधि का वर्णन युक्ति तथा अनुभव के आधार पर बडी रोचकता के साथ किया गया है।
 
सामवेद की तवलकार शाखा के अन्तर्गत छांदोग्य ब्राह्मण के अंश को इस उपनिषद् के रूप में मान्यता दी गई है। उक्त ब्राह्मण में १० अध्याय हैं। इस छांदोग्य उपनिषद् आठ अध्यायों में विभक्त सबसे बडा उपनिषद् है और सबसे प्राचीनतम उपनिषद् है। इसमें सूक्ष्म उपासना के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का उपदेश प्रारंभ में है। इस उपनिषद् में दृष्टांतों के द्वारा छोटी-छोटी कहानियों के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करने की विधि का वर्णन युक्ति तथा अनुभव के आधार पर बडी रोचकता के साथ किया गया है।
    
===बृहदारण्यक उपनिषद्===
 
===बृहदारण्यक उपनिषद्===
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{{Main|Brhadaranyaka_Upanishad_(बृहदारण्यकोपनिषद्)}}
 
यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित है।  इसका नाम ही बताता है कि यह उपनिषद् कद में  सबसे बडा है। यह अरण्य में कहा गया है इसीलिये आरण्यक और बहुत बडा होने के कारण बृहत् कहा गया है। इस उपनिषद् का महत्वपूर्ण भाग ' याज्ञवल्क्य कांड है , जिसमें याज्ञवल्क्य ने गार्गीय को ज्ञान का उपदेश दिया है, उसका वर्णन है। इस उपनिषद् में दम , दान और दया का उपदेश दिया गया है। इसमें याज्ञवल्क्य और मैत्री का संवाद भी है। नेति-नेति का प्रयोग भी इस उपनिषद् से है। इस उपनिषद् में छः अध्याय हैं। इसी उपनिषद् में गार्गी ने दो बार प्रश्न किए हैं, पहली बार अतिप्रश्न करने पर याज्ञवल्क्य ने उन्हैं मस्तक गिरने की बात कहकर रोक दिया है। दुबारा वे सभा की अनुमति से पुनः दो प्रश्न करती हैं तथा समाधान पाकर लोगों से कह देती हैं कि इनसे कोई जीत नहीं सकेगा , किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने और अतिप्रश्न करने के कारण उनका मस्तक गिर गया।
 
यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित है।  इसका नाम ही बताता है कि यह उपनिषद् कद में  सबसे बडा है। यह अरण्य में कहा गया है इसीलिये आरण्यक और बहुत बडा होने के कारण बृहत् कहा गया है। इस उपनिषद् का महत्वपूर्ण भाग ' याज्ञवल्क्य कांड है , जिसमें याज्ञवल्क्य ने गार्गीय को ज्ञान का उपदेश दिया है, उसका वर्णन है। इस उपनिषद् में दम , दान और दया का उपदेश दिया गया है। इसमें याज्ञवल्क्य और मैत्री का संवाद भी है। नेति-नेति का प्रयोग भी इस उपनिषद् से है। इस उपनिषद् में छः अध्याय हैं। इसी उपनिषद् में गार्गी ने दो बार प्रश्न किए हैं, पहली बार अतिप्रश्न करने पर याज्ञवल्क्य ने उन्हैं मस्तक गिरने की बात कहकर रोक दिया है। दुबारा वे सभा की अनुमति से पुनः दो प्रश्न करती हैं तथा समाधान पाकर लोगों से कह देती हैं कि इनसे कोई जीत नहीं सकेगा , किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने और अतिप्रश्न करने के कारण उनका मस्तक गिर गया।
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===तैत्तिरीय उपनिषद्===
 
===तैत्तिरीय उपनिषद्===
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{{Main|Taittriya_Upanishad_(तैत्तिरीय-उपनिषद्)}}
 
तैत्तिरीयोपनिषद् में तीन वल्लियाँ (शिक्षवल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली) है। शिक्षावल्ली के तृतीय अनुवाक में पाँच प्रकार की संहितोपासना का वर्णन हुआ है, यह हैं अधिलोक, अधिज्योतिष , अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म।  
 
तैत्तिरीयोपनिषद् में तीन वल्लियाँ (शिक्षवल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली) है। शिक्षावल्ली के तृतीय अनुवाक में पाँच प्रकार की संहितोपासना का वर्णन हुआ है, यह हैं अधिलोक, अधिज्योतिष , अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म।  
  
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