Muhurta (मुहूर्त)

From Dharmawiki
Revision as of 22:45, 24 February 2025 by AnuragV (talk | contribs) (सुधार जारी)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

भारतीय सनातनी परंपरा में प्राचीनकाल से मुहूर्त (शुभ मुहूर्त) का विचार करके कोई भी नया कार्य आरंभ किया जाता है। मुहूर्त शोधन एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। ज्योतिष ने काल-विवेचन के द्वारा अखिल सृष्टि की जीवनचर्या निर्धारित कर दी है। समय की प्रभावानुभूति हम सभी को होती है। ज्योतिष के द्वारा यह बात सहज ही जानी जा सकती है। प्रत्येक कार्य की सफलता के लिये शुभ मुहूर्त की अनुकूलता अनिवार्य है। प्रतिकूल मुहूर्त असफलतादायक तथा अनिष्टकारी होता है। मुहूर्त अर्थात् समय का वह भाग जो ग्रहों-नक्षत्रों की प्रकाश रश्मियों से एक विशेष स्थिति में प्रभावित हो रहा हो। यह प्रभाव किसी कार्य-विशेष के लिये निश्चित रूप से अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता का तत्त्व अपने में समाहित रखता है। मुहूर्तों, संस्कारों और उन संस्कारों के काल-निर्धारण में मुहूर्तों की महत्वपूर्ण भूमिका है। वस्तुतः मुहूर्त भारतीय-ज्योतिष के होरा और संहिता इन दोनों ही स्कंधों के महत्वपूर्ण पक्ष को उद्घाटित करता है।

परिचय॥ Introduction

हमारे प्राचीन ऋषियों न काल का सूक्ष्म निरीक्षण व परीक्षण करने पर यह निष्कर्ष निकाला कि प्रत्येक कार्य के लिये अलग-अलग काल खण्ड का अलग-अलग महत्व व गुण-धर्म है। अनुकूल समय पर कार्य करने पर सफलता होती है। यही दृष्टि व सूक्ष्म विचार मुहूर्त का आधार स्तम्भ है। इसी कारण मुहूर्त की अनुकूलता का चयन कर लेने में भी आशा तो रहती ही है तथा हानि की सम्भावना भी नहीं है। मुहूर्त ज्योतिष शास्त्र का अभिन्न अंग है। विशेष रूप से इसका सम्बन्ध सीधे जनमानस से है, क्योंकि समस्त धर्मकार्य, पर्व तथा उत्सवादि मुहूर्तों पर ही आधारित होते हैं। मुहूर्त के विषय में ज्योतिष शास्त्र में बहुत गम्भीरता पूर्वक विचार किया गया है। वस्तुतः किसी भी शुभ कार्य के सम्पादन हेतु योग्य काल को मुहूर्त कहते हैं। जैसे - कालः शुभक्रियायोग्यो मुहूर्त इत्यभिधीयते।

प्रस्तुत लेख में हम मुहूर्त का अर्थ, परिचय, परिभाषा आदि के साथ में निम्न विषयों के बारे में जानने का प्रयास करेंगे -

  • मुहूर्त किसे कहते हैं?
  • मुहूर्त का निर्धारण कैसे करते हैं?
  • मुहूर्तों की उत्पत्ति एवं विकास क्रम क्या है?
  • मुहूर्त का ज्योतिष शास्त्र में क्या योगदान है?
  • वर्तमान समय में मुहूर्तों की क्या उपयोगिता है?
  • मुहूर्त निर्धारण में किन तत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका है?

प्रायः दो घडी का एक मुहूर्त होता है। रात-दिन के घटने बढने से कुछ पलों में अन्तर पड जाता है। दिन में १५ मुहूर्त होते हैं। शास्त्रकार दिनमान के २/३/४/५ विभाग करते हैं -

  1. प्रथम विभाग यह है कि मध्याह्न से पहले पूर्वाह्ण तदनन्तर सायान्ह होता है।
  2. द्वितीय विभाग के अनुसार तीन मुहूर्त पर्यन्त प्रातः काल तदनन्तर ३ मुहूर्त पर्यन्त संगव, तदनन्तर तीन मुहूर्त पर्यन्त मध्याह्न, तदनन्तर तीन मुहूर्त पर्यन्त अपराह्न, तदनन्तर तीन मुहूर्त पर्यन्त सायाह्न होता है।
  3. सूर्योदय से तीन घडी पर्यन्त प्रातः संध्या एवं सूर्यास्त से तीन घडी पर्यन्त सायं सन्ध्या कहलाती है।
  4. सूर्यास्त से तीन मुहूर्त पर्यन्त प्रदोष कहलाता एवं अर्धरात्र की मध्य की दो घडियों को महानिशा कहते हैं।
  5. ५५ घटी में उषःकाल, ५६ घटी में अरुणोदय, ५८ घटी में प्रातःकाल तदनन्तर सूर्योदय कहलाता है।

मध्याह्न एवं महानिशा में मूर्तिमान काल निवास करता है। अतः १० पल पूर्व तथा १० पल पश्चात् कुल २० पल में सब काम वर्जित होते हैं। ज्योतिषशास्त्र में काल के अनेक अंग बताये गये हैं, जिनमें 5 अंगों की प्रधानता है। जैसा कि कहा गया है -

वर्ष मासो दिनं लग्नं मुहूर्तश्चेति पंचकम्। कालस्यांगानि मुख्यानि प्रबलान्युत्तरोत्तरम्॥

पंचस्वेतेषु शुद्धेषु समयः शुद्ध उच्यते। मासो वर्षभवं दोषं हन्ति मासभवं दिनम्॥

लग्नं दिनभवं हन्ति मुहूर्तः सर्वदूषणं। तस्मात् शुद्धिर्मुहूर्तस्य सर्वकार्येषु शस्यते॥ (मुहू०चि०)

अर्थात् पहला वर्ष, दूसरा मास, तीसरा दिन, चौथा लग्न और पाँचवाँ मुहूर्त, ये 5 काल के अंगों में प्रधान माने गये हैं। ये उत्तरोत्तर बली हैं। इन्हीं पाँच की शुद्धि से समय शुद्ध समझा जाता है। यदि मास शुद्ध हो तो अशुद्ध वर्ष का दोष नष्ट हो जाता है एवं दिन शुद्ध होने से मास का दोष, लग्न शुद्धि से दिन का दोष तथा मुहूर्तशुद्धि से सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में दिवस और रात्रि दोनों के मुहूर्त संज्ञक 15 विभाग बताये हैं। जैसे -

चित्रः केतुर्दाता प्रदाता सविता प्रसविताभिशास्तानुमन्तेति। एष एव तत्। एष ह्येव तेह्नो मुहूर्ताः। एष रात्रेः। (तै०ब्रा०)

मास में 30 दिवस की भाँति ही अहोरात्र में 30 मुहूर्त माने गये होंगे। वेदोत्तर कालीन ग्रन्थों में मुहूर्त नामक ये विभाग तो हैं पर मुहूर्तों के भिन्न-भिन्न अन्य भी बहुत से नाम हैं। एक मुहूर्त में 15 सूक्ष्म मुहूर्त माने गये हैं। समस्त अहोरात्र को ६० घटी (२४ घण्टे) परिमित करके पूर्वाचार्यों ने विभिन्न देवताओं के द्वारा अधिकृत ३० मुहूर्तों की व्यवस्था की है। अतः प्रत्येक मुहूर्त २ घट्यात्मक (४८ मिनट का) होता है। न्यूनाधिकत्व की स्थिति में दिनमान-रात्रिमान को पन्द्रह से विभाजित कर एक मुहूर्त का काल ज्ञात किया जा सकता है।

परिभाषा॥ Definition

वक्र-गतिक या चक्रीय-गतिक होने के कारण मुहूर्त यह संज्ञा है। काल का खण्ड विशेष ही मुहूर्त इस शब्द से अभिहित है। दो घटी का एक मुहूर्त होता है। जगत में समस्त कार्यों हेतु मुहूर्त का विधान बतलाया गया है।

नाडिके द्वे मुहूर्तस्तु.....।(अथर्व ज्यो० 7/12) मुहूर्तस्तु घटिकाद्वयम् ।

नारद संहिता में मुहूर्त की परिभाषा इस प्रकार है –

अह्नः पञ्चदशो भागस्तथा रात्रिप्रमाणतः। मुहूर्तमानं द्वे नाड्यौ कथिते गणकोत्तमैः॥ (नारद संहिता 9/5)

इस प्रकार ये परिभाषायें मुहूर्त को काल-खण्ड के रूप में परिभाषित करती हैं। अथर्वज्योतिष मुहूर्त को इस प्रकार परिभाषित करता है –

चतुर्भिः कारयेत् कर्म सिद्धिहेतोंर्विचक्षणैः। तिथिनक्षत्रकरण मुहूर्तैरिति नित्यशः॥ (अथर्व ज्योतिष 7/12)

विद्वानों को प्रतिदिन के कर्म की सिद्धता में कारण तिथि, वार, नक्षत्र और मुहूर्त इन चारों के द्वारा कार्य करने के समय का विचार करना चाहिए। इस प्रकार मुहूर्त की इस परिभाषा के अनुसार 2 घटी का एक काल खंड मुहूर्त कहलाता है। जो कि उपयुक्त काल निर्धारणका एक महत्वपूर्ण कारक है। आगे अन्य पुराणादि में मुहूर्त का और अर्थ-विस्तार हुआ और मुहूर्त में तिथि आदि सभी कारक समाहित हो गए। यह प्रगति स्वतंत्र मुहूर्त-ग्रंथों की रचना के बाद हुई। इस प्रकार मुहूर्त की आधुनिकतम परिभाषा इस प्रकार है –

तिथि, नक्षत्र, वार, करण योग एवं लग्न, मास, संक्रांति, ग्रहण आदि विविध कारकों के द्वारा निर्धारित क्रिया-योग्य काल को मुहूर्त कहते हैं।

मुहूर्त का अर्थ॥ Muhurt ka Artha

मुहूर्त शब्द संस्कृत भाषा के हुर्छ धातु से क्त प्रत्यय तथा धातोः पूर्व मुट् च उणादि सूत्र के द्वारा मुहूर्त शब्द सिद्ध होता है। जिसका अर्थ होता है - एक क्षण अथवा समय का अल्प अंश। मुहूर्त शब्द प्रायः तीन अर्थों में प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होता रहा है -

  1. काल का अल्पांश
  2. दो घटिका (४८ मिनट)
  3. वह काल जो किसी कृत्य के लिये योग्य समय हो

निरुक्तकार यास्क जी ने मुहुः ऋतुः अति मुहूर्त्त शब्द का निर्वचन किया है। ऋतुः का निर्वचन ऋतुः अर्ते गतिकर्मणः। तथा मुहुः का मुहुः मूढः इव कालः अर्थात् वह काल जो शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। मुहूर्त शब्द वैदिक साहित्य में अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। पौराणिक काल में २ घटी अर्थात् ४८ मिनट का एक मुहूर्त स्वीकार किया है। अतः एक अहोरात्र ६० घटी में ३० मुहूर्त स्वीकार किये गये हैं। मनुस्मृति, बौधायन धर्मसूत्र, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत, रघुवंश आदि ग्रन्थों में ब्राह्म मुहूर्त शब्द प्रयुक्त हुआ है।[1]

मुहूर्त साधन॥ Muhurta Sadhana

मुहुर्त गणना का सामान्य प्रकार है। जैसा कि अथर्वज्योतिष में मुहूर्त का सूत्र दिया है कि -

नाडिके द्वे मुहूर्त्तस्त....॥(अथर्व ज्योतिष)

अर्थात दो नाड़ी को एक मुहूर्त कहते हैं। मुहूर्त की यही परिभाषा नारदसंहिता में भी दी गई है -

अह्नः पञ्चदशो भागस्तथा रात्रिप्रमाणतः। मुहूर्तमानं द्वे नाड्यौ कथिते गणकोत्तमैः॥ (नारद संहिता)

अर्थात् दिन के पञ्चदश भाग को रात्रि के मान के उसी प्रकार पन्द्रहवें भाग को उत्तम गणकों के द्वारा मुहूर्त कहा गया है जो कि २ घटी के बराबर कहा गया है। इसको साधन के सूत्र को निम्न प्रकार से समझेंगे -

एक अहोरात्र (दिन+रात) = ६० घटी (या नाडी)
 अतः दिन (या रात)= ३० घटी (या नाडी)
दिन/१५ = ३० घटी (नाडी) / १५ = २ घटी (नाडी)= १ मुहूर्त

अतः दिन के १५ वें भाग अर्थात् २ घटी काल-खंड को मुहूर्त कहते हैं। जैसे श्री रामदैवज्ञ जी ने मुहूर्तचिन्तामणि में लिखा है -

गिरीशभुजगामित्राः पिन्यवस्वम्बुविश्वेभिजिदर्थ च विधातापीन्द्र इन्द्रानली च। निरृतिरुदकनाथोप्यर्यमाथो भगः स्युः क्रमश इह मुहूर्ता वासरे बाणचन्द्रा॥ (मुहूर्तचिन्तामणि)

इस श्लोक में लिखे दिन व रात्रि के मुहूर्त व उनके स्वामी को निम्नलिखित सारिणी के द्वारा सरलता से समझ सकते हैं -

दिन एवं रात्रि के मुहूर्त
दिन के मुहूर्त रात्रि के मुहूर्त
गिरीश शिव
सर्प अजपाद
मित्र अहिर्बुध्न्य

दिन और रात का १५ वां भाग मुहूर्त कहलाता है अतः दिन-रात के बडे छोते होने से दिनमान और रात्रिमान में परिवर्तन आता है। कभी (उत्तरायण में) छह मुहूर्त दिन को प्राप्त होते हैं और कभी (दक्षिणायन में) वे रात को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार उत्तरायण में दिन का प्रमाण अट्ठारह मुहूर्त और रात का प्रमाण बारह मुहूर्त होता है। इसके विपरीत दक्षिणायन में रात का प्रमाण अट्ठारह मुहूर्त और दिन का प्रमाण बारह मुहूर्त हो जाता। इस प्रकार दिन के तीन मुहूर्त यदि कभी रात्रि में सम्मिलित हो जाते हैं तो कभी रात्रि के तीन मुहूर्त दिन में सम्मिलित हो जाते हैं।

मुहूर्त का स्वरूप॥ Muhurta Ka Svarupa

किसी भी विषय को पूर्णता से जानने के लिए उसके उत्पत्ति, विकास इत्यादि क्रम को जानना आवश्यक है। चाहे वह कोई शास्त्रीय तत्व हो, व्यक्ति-विशेष हो या फिर वस्तु-विशेष उसके ऐतिहासिक स्वरूप निश्चय तक ले जाता है।

अभिजिन्मुहूर्त - यह दिन का अष्टम मुहूर्त है जो कि विजय मुहूर्त के नाम से प्रसिद्ध है। जिस नक्षत्र में जो काम करने को कहा गया है वह उस नक्षत्र के देवता के मुहूर्त में यात्रा आदि कर्म करने चाहिये। मध्याह्न में जब अभिजित् मुहूर्त हो तो उसमें सब शुभ कर्म करने चाहिये, यद्यपि उस दिन कितने भी दोष हों। केवल दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिये।

अष्टमे दिवसस्यार्द्धे त्वभिजित् संज्ञकः क्षणः॥ (ज्योतिस्तत्व)

सूर्य जब ठीक खमध्य में हो वह काल अर्थात् मध्याह्न में पौने बारह बजे से साढे बारह बजे तक का मध्यान्तर अभिजिन्मुहूर्त कहलाता है।

वैदिक-साहित्य में मुहूर्त॥ Muhurta in Vedic Literature

मुहूर्त शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ऋग्वेद के विश्वामित्र-नदी संवाद सूक्त में प्राप्त होता है। यहाँ मुहूर्त शब्द का प्रयोग करते हुए ऋषि कहते हैं कि जल से पूर्ण नदियों मेरे सोम सम्पन्नता के कार्य की बात सुनने के लिये मुहूर्त भर रुक जाओ -

रमध्वं मे वचसे सोम्याय ऋतावरीरूप मुहूर्तमेवैः। प्रतिसिन्धुमच्छा बृहती मनीषाऽवस्युरहवे कुशिकस्य सूनुः॥(ऋ० १३-३३-५)

आचार्य यास्क ने भी मुहूर्त शब्द के निर्वचन से यह सिद्ध किया है कि काल, परिवर्तन का ही नाम है। जैसे -

मुहूर्तम् एवैः अयनैः अवनैः वा। मुहूर्तो मुहुरृतः ऋतुः ऋतेः गतिकर्मणः मुहुः मुहुः इव कालः। (निरु० १२-२५)

तैत्तिरीय ब्राह्मण में दिवस और रात्रि दोनों के मुहूर्त संज्ञक पन्द्रह नाम बताए गए है और ये नाम शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष में भिन्न-भिन्न हैं -

इन मुहूर्तों को निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है -

(तैत्तिरीय ब्राह्मणोक्त मुहूर्त सारिणी)[2]
तिथि शुक्ल पक्ष कृष्ण पक्ष
दिन रात्रि दिन रात्रि
1. चित्र दाता प्रस्तुत अभिशास्ता
2. केतु प्रदाता विष्टुत् अनुमन्ता
3. प्रमान् आनन्द संस्तुत आनन्द
4. आभान् मोद कल्याण मोद
5. संभान प्रमोद विश्वरूप प्रमोद
6. ज्योतिष्मान् आवेशन शुक्र आसादयन्
7. तेजस्वान् निवेशन अमृत निसादयन्
8. आतपन संवेशन तेजस्वी संसादन
9. तपन संशान्त तेज सादन
10. अभितपन् शान्त समृद्ध संसन्न
11. रोचन आभवन् अरुण आभ्
12. रोचमान प्रभवन् भानुमान् विभू
13. शोभन संभवन् मरीचिमान् प्रभू
14. शोभमान संभूत अभिजित् शंभू
15. कल्याण भूत तपस्वान् भुव
इन मुहूर्तों के अन्दर भी १५ प्रतिमुहूर्त्त कहे गये हैं।

वेदांग-ज्योतिष में मुहूर्त॥ Muhurta in Vedanga Astrology

वेदांग-ज्योतिष आचार्य लगध की अत्यन्त ही महत्वपूर्ण कृति है। ज्योतिष का प्रारंभिक स्वरूप त्रिस्कन्धात्मक न होकर स्कन्ध एकात्मक ही था। जिसके कारण गर्ग, पाराशर, काश्यप आदि आचार्यों ने एक ही जगह पर ज्योतिष के सभी पक्षों को रखा। ज्योतिषवांग्मय इतिहास की दृष्टि से वेदांग-ज्योतिष भी इसी प्रकार का एक आरम्भिक-ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ ऋक्ज्योतिष, याजुषज्योतिष एवं अथर्वज्योतिष का सम्मिलित रूप है।

इसमें आर्चज्योतिष में ३६ श्लोक, याजुष-ज्योतिष में ४३ श्लोक और आथर्वण-ज्योतिष जो कि १४ प्रकरणों में विभक्त होने के कारण इन तीनों में सबसे बडा है - में लगभग २०० श्लोक हैं। इनमें प्रथम दो प्रायः ज्योतिष के सैद्धान्तिक-पक्ष एवं आथर्वण इसके फलित-पक्ष पर अधिक केन्द्रित है।

आथर्वणज्योतिष के प्रथम मुहूर्त संज्ञक प्रकरण में ही मुहूर्तों का अतिविस्तार से वर्णन है। यह प्रकरण ३ खण्डों में विभक्त है। इस प्रकरण के प्रथम खण्ड में शंकु-छाया के आधार पर, दिन के १५ मुहूर्तों के काल-निर्धारण में ज्योतिष के सैद्धान्तिक-पक्ष का संकेत किया गया है। यहाँ मुहूर्तों के नाम मात्र दिये जा रहे हैं -

रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, सावित्र, वैराज, विश्वावसु, अभिजित् , रौहिण, बल, विजय, नैरृत, वारुण, सौम्य एवं भग। इस प्रकार से यह १५ मुहूर्त हैं। इस ग्रन्थ में दिवा एवं रात्रि संज्ञक मुहूर्तों की संज्ञाएम अलग-अलग नहीं दी गयी हैं। किन्तु इसी प्रकरण के द्वितीय एवं तृतीय खण्ड में इन मुहूर्तों के फलों का अतिविस्तार से वर्णन किया गया है। जैसे -

रौद्रे रौद्राणि कुर्वीत रुद्रकार्याणि नित्यशः। यच्च रौद्रं भवेत् किञ्चित् सर्वमेतेन कारयेत्॥ श्वेते वासश्च स्नानं च ग्रामोद्यानं तथा कृषिः। (अथर्व०ज्यो०)

ज्योतिष के जातक, गोल, निमित्त, प्रश्न, मुहूर्त और गणित इन छः अंगों में से एक है -

जातकगोलनिमित्त प्रश्नमुहूर्त्ताख्यगणितनामानि। अभिदधतीहषडंगानि आचार्या ज्योतिषे महाशास्त्रे॥ (प्रश्नमार्ग)

शुभ कार्य करने के लिये वांछित समय के गुण-दोष का चिन्तन मुहूर्त के अन्तर्गत प्रतिपादित है-

सुखदुःखकरं कर्म शुभाशुभमुहूर्तजं। जन्मान्तरेऽपि तत् कुर्यात् फलं तस्यान्वयोऽपि वा॥

पुराणों में मुहूर्त॥ Muhurta in Puranas

रौद्रश्चैव तथा श्वेतो मैत्रो सारभटस्तथा। सावित्रो विरोचनश्च जयदेवो भिजित्तथा॥

रावणो विजयश्चैव नन्दी वरुण एव च। यमसौम्यौ भगश्चान्ते पञ्चदश मुहूर्तका॥ (अग्निपु०)

अग्निपुराण के अनुसार १५ मुहूर्तों के नाम इस प्रकार से हैं -

रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, सावित्र, विरोचन, जयदेव, अभिजित् , रावण, विजय, नन्दी, यम, वरुण, सौम्य एवं भग।

सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि आथर्वणज्योतिष और अग्निपुराण के मुहूर्तों के मध्य कुछ अन्तर है। आथर्वण में छठा मुहूर्त वैराज तो अग्निपुराण में विरोचन है किन्तु इन दोनों का भाव प्रायः समान ही है। वहीं सातवाँ मुहूर्त विश्वावसु तो अग्निपुराण में जयदेव है यहाँ भी संज्ञायें मात्र भिन्न है किन्तु दोनों में शुभत्व का भाव है। अग्निपुराण में इन मुहूर्तों के फल भी कहे गये हैं। जैसा कि-

रौद्रे रौद्राणि कुर्वीत श्वेते स्नानादिकं चरेत्। मित्रे कन्याविवाहादि शुभं सारभटे चरेत्॥(अग्निपु० १२३, १७)

अर्थात् रौद्र मुहूर्त में रौद्र (क्रूर) कर्म करना चाहिये। श्वेत मुहूर्त में स्नानादि शौच-प्रक्षालनादि नित्यकर्म करना चाहिये। मित्र मुहूर्त में कन्या का विवाह आदि विशिष्ट शुभ कार्य करना चाहिये। सारभट मुहूर्त में भी शुभ कार्य करने करने चाहिये।

मुहूर्त ग्रंथ॥ Muhurta Grantha

चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में ज्योतिष और धर्मशास्त्र दोनों के ही समान रूप से मर्मज्ञ अनेकों विद्वानों के पदार्पण ने व्रतोपवासादि-कालनिर्णय-रूपीविषय को एक नई गति प्रदान की। चूंकि मुहूर्त का यह विषय साक्षात् समाज एवं व्यक्ति दोनों से ही समान रूप में सम्बद्ध है इसलिये मौहूर्तिकों का महत्व बढने लगा और नए-नए ग्रन्थ प्रकाश में आने लगे। प्राचीनकालमें मुहूर्त विषय संबंधित पुस्तकें जो कि इस प्रकार हैं -

  • धर्म सिन्धु
  • निर्णय सिन्धु
  • मुहूर्त गणपति
  • मुहूर्त चिन्तामणि
  • मुहूर्त पारिजात
  • मुहूर्त मार्तण्ड
  • मुहूर्त मुक्तावली
  • रत्नमाला
  • मुहूर्त पदवी

पञ्चाङ्ग एवं मुहूर्त॥ Panchang and Muhurta

संस्कार एवं मुहूर्त॥ Sanskara Evan Muhurta

यद्यपि मूलतः काल सर्वथा अविभाज्य एवं अमूर्त तत्त्व है तथापि व्यावहारिक प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिये ज्योतिषशास्त्रमें उसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म विभाजन किया गया है। परमाणु से प्रारम्भ करके त्रुटि, वेध, लव, निमेष, क्षण, काष्ठा, कला, नाडिका, मुहूर्त, दिन-रात, मास, संवत्सर आदिका विश्लेषण करते हुए न केवल सत्ययुगादि चारों युगोंका अपितु ब्रह्मातककी आयुका मान नितान्त वैज्ञानिक पद्धतिसे निरूपित होकर ज्योतिषशास्त्रमें उपलब्ध है।

मुहूर्तों की उपयोगिता॥ Muhurton ki Upayogita

मुहूर्तों का लोकव्यवहार में निकट का सम्बन्ध है। भारतवर्ष में विवाहादि विभिन्न संस्कारों में मुहूर्तों की आवश्यकता होती है। गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त अथवा मानव जीवन के आरम्भ से लेकर अन्त तक जीवन के प्रत्येक भाग में मुहूर्तों की आवश्यकता प्रतीत होती ही है। बृहत्संहिता के तिथिकर्मगुणाध्याय में आचार्य वराहमिहिर ने कहा है कि जिन नक्षत्रों में करने के लिये जो कार्य व्यवस्थित हैं वे उनको देवताओं की तिथियों में करणों और मुहूर्तों में किये जा सकते हैं। श्रीबाल्मीकि रामायण में भी मुहूर्त के सन्दर्भ में प्रमाण प्राप्त होता है कि -

रावणने जिस मुहूर्तमें जानकीजी का अपहरण किया था, तब उसे मालूम नहीं था कि उस समय विन्द नामक कुत्सित मुहूर्त था और उसका फल यह था कि उस मुहूर्तमें चुरायी गयी वस्तु तो उसके स्वामीको यथासमय शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है - [3]

येन याति मुहूर्तेन सीतामादाय रावणः। विप्रणष्टं धनं क्षिप्रं तत्स्वामी प्रतिपद्यते॥

विन्दो नाम मुहूर्तोऽसौ न च काकुत्स्थ सोऽबुधत्। झषवत् बडिशं गृह्य क्षिप्रमेव विनश्यति॥

न च त्वया व्यथा कार्या जनकस्य सुतां प्रति। वैदेह्या रंस्यसे क्षिप्रं हत्वा तं रणमूर्धनि॥(रामा० ३।६८।१२-१४)

ये सारी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जटायुने श्रीरामको प्रदान की थीं और उन्हें जानकीजीकी पुनः सकुशल प्राप्तिके प्रति आश्वस्त किया था। विवाह कालिक लग्न की प्रधानता बताते हुए मुहूर्त चिन्तामणिकार कहते हैं कि -

भार्या त्रिवर्गकरणं शुभशीलयुक्ता शीलं शुभं भवति लग्नवशेन तस्याः। तस्माद्विवाहसमयः परिचिन्त्यते हि तन्निघ्नतामुपगताः सुतशीलधर्माः॥ (मुहूर्तचिन्तामणि)

भाषार्थ - सुन्दर स्वभाव स्त्री, धर्म, अर्थ, काम इन तीनों वर्गों को देने वाली है और पति का सहयोग करते हुए तीनों ऋणों से मुक्त कराती है। स्त्री की सुशीलता विवाह कालिक लग्न के अधीन है। अर्थात शास्त्र विहित शुभ मुहूर्त में विवाह होने पर स्त्री का स्वभाव और आचरण पवित्र होता है। इसलिए विवाह में मुहूर्त का विचार किया जाता है। क्योंकि सुसन्तति, शील और धर्म विवाह कालिक लग्न के अधीन होते हैं।[4]

सारांश॥ Summary

स्मृतिसागर नामक ग्रन्थ में मुहूर्त की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि काल की स्थिर आत्मा मुहूर्त ही है, इसलिये समस्त मंगलकार्य मुहूर्त में ही करने चाहिये। अतः यहाँ कुछ आवश्यक मुहूर्तों की चर्चा की जा रही है। संस्कारों की दृष्टि से तो सभी संस्कार शुभ मुहूर्त में करने चाहिये किन्तु संस्कारों में दो संस्कार- उपनयन एवं विवाह सर्वश्रेष्ठ हैं। इन्हैं अवश्य ही शुभ मुहूर्त में ही करना चाहिये।

दिन और रात का १५ वां भाग मुहूर्त कहलाता है अतः दिन - रात के बडे छोटे होने से दिनमान और रात्रिमान में परिवर्तन आता है। कभी (उत्तरायण में) छह मुहूर्त दिन को प्राप्त होते हैं और कभी (दक्षिणायन में) वे रात को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार उत्तरायण में दिन का प्रमाण अट्ठारह मुहूर्त और का प्रमाण बारह मुहूर्त होता है। इसके विपरीत दक्षिणायन में रात का प्रमाण अट्ठारह मुहूर्त और दिन का प्रमाण बारह मुहूर्त हो जाता। इस प्रकार दिन के तीन मुहूर्त यदि कभी रात्रि में सम्मिलित हो जाते हैं तो कभी रात्रि के तीन मुहूर्त दिन में सम्मिलित हो जाते हैं।

उद्धरण॥ References

  1. International Journal of Education, Modern Management, Applied Science & Social Science (IJEMMASSS) 197 ISSN : 2581-9925, Volume 02, No. 01, January - March, 2020, pp.197-200
  2. Sunayna Bhati, Vedang jyotish ka samikshatamak adhyayan, Shodhganga, Completed Date: 2012, University of Delhi, Chapter-3, (page-141).
  3. कल्याण ज्योतिषतत्वांक, श्रीप्रेमाचार्यजी शास्त्री, वाल्मीकिरामायणमें ज्योतिषके कुछ विशिष्ट प्रकरण, सन् २०१४, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० ४६१)।
  4. पत्रिका-शोधप्रज्ञा, डॉ० रतनलाल, वैज्ञानिक दृष्टि से गोधूलिलग्न की महत्ता, सन २०२१, उत्तराखण्डसंस्कृतविश्वविद्यालयः हरिद्वारम्, उत्तराखण्डम् (पृ० १३०)।