Motions Of The Earth (भू-भ्रमण सिद्धांत)

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प्राचीन भारतीय परंपरा में पृथ्वी के लिए भूगोल शब्द प्रयुक्त होता है जिसका सीधा सा अर्थ है पृथ्वी गोल है।उसी प्रकार इस पृथ्वी के लिये जगत् शब्द भी प्रयुक्त होता है, जिसका अर्थ भी होता है चलने वाला। इसी प्रकार वेदों में भी पृथ्वी के लिये गौ शब्द का भी प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ भी गमन करना होता है। पृथ्वी के लगभग जितने भी पर्यायवाची शब्द संस्कृत वांग्मय में उपलब्ध होते हैं, उन सभी में गति अर्थ का प्रयोग प्राप्त होता है। जिससे यह अनुमान होता है कि निश्चित रूप से प्राचीन ऋषियों को पृथ्वी की गति का ज्ञान था। पृथ्वी स्थिर नहीं है, ऐसा निश्चित ही परिज्ञान रहा होगा। सिद्धांत ज्योतिष का मुख्य विषय है - भू-भ्रमणसिद्धान्त। भू-भ्रमण का अर्थ है - पृथ्वी का भ्रमण। इसके सन्दर्भ में प्राचीन एवं अर्वाचीन मत में मतान्तर और भू-भ्रमण के गणितीय एवं सैद्धान्तिक पक्ष के विस्तार के बारे में जानेंगे।

परिचय

भू-भ्रमण सिद्धान्त ज्योतिष का एक महत्वपूर्ण एवं रोचक विषय है। भू-भ्रमण का शाब्दिक अर्थ है- भू अर्थात् पृथ्वी तथा उसका भ्रमण मतलब घूमना। इस प्रकार भू-भ्रमण का अर्थ है- पृथ्वी का घूमना। पृथ्वी के घूमने के सम्बन्ध में हम देखें तो प्राच्य एवं पाश्चात्य दृष्टिकोण से इसमें मत-मतान्तर दिखाई देते हैं। प्राच्य जगत् (ज्योतिषजगत् ) पृथ्वी को स्वशक्ति से निराधार आकाश में स्थिर मानता है। जबकि आधुनिक विज्ञान पृथ्वी को चलायमान मानता है। उनके अनुसार पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। उसकी घूर्णन गति होती है, और वह अपने अक्ष पर निरन्तर भ्रमण करते रहती है।[1]

भू-भ्रमण सिद्धान्त

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सर्वप्रथम आर्यभट्ट ने तीसरी-चौथी शताब्दीमें ही भू-भ्रमण के सिद्धान्त को प्रतिपादित कर दिया था। आर्यभट्ट का जन्म तीसरी-चौथी शताब्दी(३९८ शक) में भारतवर्ष में पाटलिपुत्र शहर के अन्तर्गत कुसुमपुर नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने ही प्रथम बार यह कहा था कि तारामण्डल स्थिर है और भू (पृथ्वी) अपनी दैनिक भ्रमण (घूमने) की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है। आर्यभट द्वारा विरचित आर्यभटीयम् नामक ग्रन्थ के गोलपाद में भूगोल स्वरूप बतलाते हुये आचार्य का कथन है कि-

वृत्तभपंजरमध्ये कक्ष्यापरिवेष्टितः खमध्यगतः। मृज्ज्लशिखिवायुमयो भूगोल: सवर्तो वृत्तः॥ यद्वत् कदम्बपुष्पग्रन्थिः प्रचितः समन्ततः कुसुमैः। तद्वद्धि सर्वसत्वैर्जलजैः स्थलजैश्च भूगोलः॥(आर्य०भ०)[2]

अर्थात् वृत्ताकार नक्षत्रमण्डल के मध्य में, ग्रहों की कक्षाओं से परिवेष्टित आकाश के मध्य में पृथ्वी का गोला स्थित है। यह चारों ओर से गोल है अर्थात् दर्पण आदि की भाँति गोल नहीं है, गेंद की भाँति गोल है। यह मिट्टी, जल, अग्नि एवं वायुमय है। जिस प्रकार कदंब के फूल की ग्रन्थि चारों ओर से छोटे कुसुमों से व्याप्त रहती है उसी प्रकार पृथ्वी का गोला जल में अथवा स्थल पर पैदा होने वाले सभी प्राणियों से व्याप्त है। खमध्य में स्थित होने का यह अर्थ है कि पृथ्वी किसी आधार पर स्थित नहीं है अपितु निराधार है। पृथ्वी के सम्बन्ध में ऐसा ही मत आचार्य वराहमिहिर का भी है-

पंचमहाभूतमयस्तारागणपंजरे महीगोलः। खेsस्यस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितोवृत्तः॥(पंच सि०)

अर्थात पृथ्वी का गोला जो पंचमहाभूतों का बना है आकाश में तारामण्डल के मध्य में वैसे ही स्थित है जैसे लोहे का टुकडा चुम्बकों के बीच में निराधार स्थित रह सकता है। आर्यभट्ट ने पृथ्वी को केवल चार महाभूतमय कहा है परन्तु वराहमिहिर ने पाँचवें महाभूत आकाश का भी उल्लेख किया है।

प्राच्यमतानुसार भू-भ्रमण सिद्धान्त

आर्यभट्ट का भू-भ्रमण सिद्धान्त

आर्यभट्टीयम् नामक ग्रन्थ के गोलपाद में आर्यभट्ट ने भू-भ्रमण सिद्धान्त के बारे में लिखा है कि -

अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्। अचलानि भानि तद्वत्समपश्चिमगानि लंकायाम्॥

अर्थात् जैसे नाव में बैठा हुआ कोई मनुष्य जब पूर्व दिशा में जाता है तब नदी के तीर की अचल वस्तुओं को विपरीत दिशा में जाता हुआ अनुभव करता है। उसी प्रकार अचल तारा गण दशशिरपुरि लंका (जहाँ सूर्य का प्रथम बार उदय हुआ था अथवा जहाँ से वार - प्रवृत्ति आरम्भ हुई थी) में पश्चिम की ओर जाते प्रतीत होते हैं। अत एव ऐसा प्रतीत होता है कि तारामण्डल तथा ग्रहों के उदय तथा अस्त के लिये वे नित्य ही प्रवह वायु द्वारा चलायमान होकर लंका में ठीक पश्चिम दिशा में भ्रमण कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि आर्यभट्ट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और तारामण्डल स्थिर है। इस सम्बन्ध में ज्योतिष के अन्य आचार्यों ने आर्यभट्ट की आलोचना भी की है। भास्कर द्वितीय के सिद्धान्त शिरोमणि के भगणाध्याय के प्रथम छः श्लोकों के वासनावार्तिक में नृसिंह ने कहा है-

आर्यभट्टास्तुग्रहाः पूर्वस्यां यान्ति। नक्षत्राणि तु स्थिराण्येव भूरेव नाक्षत्रदिनमध्ये पूर्वाभिमुखमेकवारं भ्रमति। तेनैव नक्षत्रग्रहाणामुदयास्तौ पूर्वपश्चिमयोर्घटतः प्रवहानिनकल्पना व्यर्था॥

अर्थात् ग्रह पूर्व की ओर चलते हैं। आर्यभट्ट के अनुसार नक्षत्रगण स्थिर ही हैं, पृथ्वी की एक नाक्षत्रदिन में पूर्व की ओर एक बार घूमती है इसी कारण नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय एवं अस्त क्रमशः पूर्व और पश्चिम में होता है। प्रवह वायु की कल्पना व्यर्थ है। कोलब्रुक ने ब्रह्मगुप्त के भाष्यकार पृथूदकस्वामी द्वारा उद्धृत की गई आर्यभट्ट की एक आर्या को उद्धृत किया है-

भपंचजरः स्थिरो भूरेवावृत्यावृत्य प्रातिदैवसिकौ। उदयास्तमयौ सम्पादयति नक्षत्रग्रहाणाम्॥

यह आर्या कदाचित् पृथुदकस्वामी ने आर्यभट्ट के दूसरे ग्रन्थ से उद्धृत की है जो अब प्राप्य नहीं है। इसमें स्पष्ट रूप से आर्यभट्ट ने कहा है कि तारामण्डल स्थिर है और भू (पृथ्वी) अपनी दैनिक भ्रमण (घूमने) की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।

पाश्चात्य मत में भू-भ्रमण

सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमण अवधि (सौरदिन) ८६,४०० सेकेंड (८६,४००,००२५ एस आई सेकंड) का होता है। अभी पृथ्वी में सौर दिन, १९ वीं शताब्दी की अपेक्षा प्रत्येक दिन ० और २ एसआई एमएस अधिक लंबा होता हैं जिसका कारण ज्वारीय मंदी का होना माना जाता हैं।

स्थित सितारों के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमण अवधि, जिसे अंतर्राष्ट्रीय पृथ्वी परिक्रमण और संदर्भ सिस्टम सेवा (आईआईएस) द्वारा एक तारकीय दिन भी कहा जाता है, औसत सौर समय (यूटी १) ८६,१६४,०९८९०९१ सेकेंड, या २३ घण्टे ५६ मिनट और ४,०९८९०९१९१९८६ सेकेंड का होता है।

वातावरण और निचली कक्षाओं के उपग्रहों के भीतर उल्काओं के अलावा, पृथ्वी के आकाश में आकाशीय निकायों का मुख्य गति पश्चिम की ओर १५ डिग्री/ घंटे= १५/१ मिनट की दर से होती है। पृथ्वी अपनी कक्षा में १६७५ किमी/ घंटा की गति से चक्कर लगता है।

पृथ्वी बाह्य अंतरिक्ष, में सूर्य और चंद्रमा समेत अन्य वस्तुओं के साथ क्रिया करता है वर्तमान में, पृथ्वी मोटे तौर पर अपनी धुरी का करीब ३६६.26 बार चक्कर काटती है यह समय की लंबाई एक नाक्षत्र वर्ष(sidereal year) है जो 365.26 सौर दिवस के बराबर है पृथ्वी की घूर्णन की धुरी इसके कक्षीय समतल (orbital plane) से लम्बवत (perpendicular) 23.4 की दूरी पर झुका है जो एक उष्णकटिबंधीय वर्ष (tropical year) (365.24 सौर दिनों में) की अवधी में ग्रह की सतह पर मौसमी विविधता पैदा करता है।

पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चंद्रमा (natural satellite) है, जिसने इसकी परिक्रमा 4.53 बिलियन साल पहले शुरू की। यह अपनी आकर्षण शक्ति द्वारा समुद्री ज्वार पैदा करता है, धुरिय झुकाव को स्थिर रखता है और धीरे-धीरे पृथ्वी के घूर्णन को धीमा करता है।

कोपरनिकस का भू-भ्रमण सिद्धान्त

पाश्चात्य (आधुनिक) मत में यह सर्वविदित है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है यह सिद्धान्त अथवा भू-भ्रमण सिद्धान्त सर्वप्रथम कोपरनिकस द्वारा दिया गया था। जबकि यह सत्य नहीं है। आपने पूर्व में ही यह अध्ययन कर लिया है कि भू-भ्रमण का सिद्धान्त आर्यभट्ट ने तीसरी-चौथी शताब्दी में ही अपने ग्रन्थ आर्यभट्टीयम् में प्रतिपादित कर दिया था। अर्थात् कोपरनिकस से लगभग १००० वर्ष पूर्व ही यह भू-भ्रमण का सिद्धान्त भारतवर्ष में आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित किया जा चुका था। यूरोप का एक देश पोलैण्ड में जन्में निकोलस कोपरनिकस (१९ फरवरी १४७३- २४ मई १५४३) पोलिश खगोलशास्त्री व गणितज्ञ थे जिन्होंने पृथ्वी को ब्रह्माण्ड के केन्द्र से बाहर माना, यानी हीलियोसेंट्रिज्म मॉडल को लागू किया। इसके पहले पूरा युरोप अरस्तू की अवधारणा पर विश्वास करता था, जिसमें पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र थी और सूर्य, तारे तथा दूसरे पिंड उसके चारों ओर चक्कर लगाते थे।

१५३० में कोपरनिकस की किताब डी रिवोलूशन्स (De Revolutionibus) प्रकाशित हुई जिसमें उसने बताया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई एक दिन में चक्कर पूरा करती है और एक साल में सूर्य का चक्कर पूरा करती है। कोपरनिकस ने तारों की स्थिति ज्ञात करने के लिये प्रूटेनिक टेबिल्स की रचना की जो अन्य खगोलविदों के बीच काफी लोकप्रिय हुई।

कोपरनिकस के अन्तरिक्ष के बारे में सात नियम, जो उनकी किताब में दर्ज हैं, इस प्रकार हैं-

  • सभी खगोलीय पिंड किसी एक निश्चित केन्द्र के चारों ओर नहीं हैं।
  • पृथ्वी का केन्द्र ब्रह्माण्ड का केन्द्र नहीं है, वह केवल गुरुत्व व चंद्रमा का केन्द्र केन्द्र है।
  • सभी गोले (आकाशीय पिंड) सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सूर्य ही ब्रह्माण्ड का केन्द्र है।
  • पृथ्वी की सूर्य से दूरी, पृथ्वी की आकाश की सीमा से दूरी की तुलना में बहुत कम है।
  • आकाश में हम जो भी गतियां देखते हैं वह दरअसल पृथ्वी की गति के कारण होता है। (आंशिक रूप से सत्य)
  • जो भी हम सूर्य की गति देखते हैं, वह दर असल पृथ्वी की गति होती है।
  • जो भी ग्रहों की गति हमें दिखाई देती है, उसके पीछे भी पृथ्वी की गति ही कारण होती है।

पृथ्वी की गतियाँं

पृथ्वी स्थिर न होकर गतिशील है। पृथ्वी अपने स्थान पर घूमने के साथ ही सूर्य का चक्कर भी लगाती है। जिस तरह से लड्डू अपनी कील पर घूमता है और साथ- ही साथ अण्डाकार चक्कर भी लगाता है, ठीक इसी तरह हमारी पृथ्वी भी अंतरिक्ष में अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ अण्डाकार पथ पर सूर्य की परिक्रमा भी करती है। इस प्रकार पृथ्वी की दो गतियाँ हैं-

  1. घूर्णन अथवा दैनिक गति (Daily movement / Revolation )
  2. परिक्रमण अथवा वार्षिक गति (Rotation of the eart)

पृथ्वी की गति दो प्रकार की है- घूर्णन एवं परिक्रमण। पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना घूर्णन कहलाता है। सूर्य के चारों ओर एक स्थिर कक्ष में पृथ्वी की गति को परिक्रमण कहते हैं।

पृथ्वी की दैनिक गति॥ Revolution of the earth

घूर्णन गति (Rotation)

पृथ्वी अपनी धुरी अथवा अक्ष पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूम रही है। पृथ्वी की इस गति को ही घूर्णन गति कहते हैं। पृथ्वी को अपनी धुरी पर एक चक्कर लगाने में लगभग २४ घण्टे लगते हैं अर्थात् एक दिन और रात का समय (१२ घण्टे का दिन और १२ घण्टे की रात) लगता है। इसी कारण इस गति को दैनिक गति भी कहते हैं।

अक्ष भ्रमण और दिन.png

सूर्योदय से सूर्योदय तक के समय को २४ भाग में बांटा गया है, जिसे घण्टा कहते हैं। पृथ्वी को अपने अक्ष पर घूमने में प्रायः ४ मिनट कम लगता है। किन्तु १ दिन में पृथ्वी अपनी कक्षा पर १ अंश आगे बढ़ जाती है, अर्थात् सूर्य १ अंश आगे दीखता है। ३६० अंश अक्ष भ्रमण में २४ घण्टा लगा, अतः १ अंश में २४ x ६० ३६० मिनट = ४ मिनट लगेगा। अतः यदि दिन मान २४ घण्टा है तो अक्ष भ्रमण काल २३ घण्टा ५६ मिनट प्रायः होगा।

पृथ्वी की गतियों का प्रभाव

दिन-रात का होना

यदि पृथ्वी का घूर्णन न हो

पृथ्वी के घूर्णन के कारण सभी भागों में क्रमिक रूप से दिन व रात होते हैं। ग्लोब पर वह वृत्त जो दिन तथा रात को विभाजित करता है उसे प्रदीप्ति वृत्त(Circle of illumination) कहते हैं।

यदि पृथ्वी का घूर्णन नहीं होगा तो इसका आधा हिस्सा हमेशा सूर्य की रोशनी में रहेगा और बाकी आधे हिस्से में हमेशा रात रहेगी। जिस भाग में हमेशा रात रहेगी वहाँ का तापमान बहुत कम हो जायेगा। ऐसे में पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं हो पायेगा।

वार्षिक गति तथा ऋतु॥ Rotation of the earth

परिक्रमण / परिभ्रमण गति (Revolution)

पृथ्वी की वार्षिक गति.png

पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमने के साथ-साथ एक अण्डाकार मार्ग पर सूर्य के चारों ओर परिक्रमा भी करती है। पृथ्वी की इस गति को परिक्रमण गति कहते हैं। पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा ३६५/ १\४ दिन अर्थात् एक वर्ष में पूरी करती है। हम लोग एक वर्ष ३६५ दिन का मानते हैं तथा सुविधा के लिये ६ घण्टे को इसमें नहीं जोडते हैं। चार वर्षों में प्रत्येक वर्ष के बचे हुए ६ घण्टे मिलकर एक दिन यानी २४ घण्टे के बराबर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त दिन को फरवरी के महीने में जोडा जाता है। इस प्रकार प्रत्येक चौथे वर्ष फरवरी माह २८/२९ दिन का होता है। ऐसा वर्ष जिसमें ३६६ दिन होते हैं उसे लीप वर्ष कहा जाता है। इसलिये पृथ्वी की इस गति को वार्षिक गति भी कहते हैं।

सूर्य की परिक्रमा पृथ्वी जिस पथ पर करती है, वह उसकी कक्षा है। इस कक्षा के तल पर पृथ्वी का घूमने का अक्ष प्रायः २३.५ अंश झुका हुआ है। जब पृथ्वी का उत्तरी भाग सूर्य की तरफ झुका रहेगा तो पृथ्वी के उत्तर भाग में गर्मी होगी क्योंकि वहां सूर्य किरण सीधी पड़ती है। प्रायः २३ जून को उत्तरी ध्रुव सूर्य की तरफ सबसे अधिक झुका रहता है। उस समय दक्षिण भाग में ठण्डा होगा। इसके विपरीत ६ मास बाद २३ दिसम्बर को कक्षा के उलटे भाग में सूर्य की तरफ दक्षिणी ध्रुव होगा जब दक्षिण भाग या गोल में गर्मी तथा उत्तर गोल में ठण्डा होगा। इसके बाद सूर्य किरण क्रमशः उत्तर की तरफ लम्ब होने लगेगी तथा २३ मार्च को विषुव रेखा पर लम्ब होगी। उस समय दिन रात बराबर होते हैं अतः इसे अंग्रेजी (ग्रीक) में इक्विनौक्स (Equinox, इक्वि = बराबर, नौक्स = रात) कहते हैं। इस रेखा को इकुएटर (Equator, बराबर करने वाला) कहते हैं। यह सूर्य किरण का क्रमशः उत्तर भाग में लम्ब होना है, अतः २३ दिसम्बर से २३ जून तक उत्तरायण या उत्तर गति कहते हैं। उसके बाद ६ मास तक दक्षिण गति होती है। उसमें भी सूर्य किरण एक बार विषुव रेखा पर लम्ब होगी। विषुव का अर्थ भी यही है कि दिन-रात का अन्तर शून्य है। उत्तरायण में जब सूर्य विषुव को पार करता है तो उस समय उत्तर भाग में वसन्त होता है अतः इसे वसन्त सम्पात (Spring equinox) तथा इसके ६ मास बाद २३ सितम्बर को शिशिर सम्पात (Autumnal equinox) होगा।

सूर्य किरण विषुव से जितना अंश उत्तर या दक्षिण की तरफ लम्ब होगा वह सूर्य की उत्तर या दक्षिण क्रान्ति होगी। सूर्य जब सबसे अधिक उत्तर होता है तो वह कर्क राशि में होता है, अतः उस स्थान के अक्षांश वृत्त को कर्क रेखा कहते हैं। मकर राशि में प्रवेश समय सूर्य दक्षिण होता है। उस स्थान का अक्षांश वृत्त मकर रेखा है।

पृथ्वी का अक्ष अपनी कक्षा (क्रान्ति वृत्त) पर जितना झुका रहेगा कर्क रेखा विषुव से उतना ही उत्तर या मकर रेखा उतना ही दक्षिण होगा। पृथ्वी अक्ष का झुकाव २२ से २६ अंश तक ४१,००० वर्ष के चक्र में घटता बढ़ता है। अभी यह घट रहा है। कर्क रेखा का सबसे उत्तर का स्थान लखनऊ के निकट था अतः उसे नैमिषारण्य कहते थे जहां सूर्य के रथ की नेमि शीर्ण हो गयी थी (धुरा टूट गया, गति रुक गयी)। (पद्म पुराण, १/१, वायु पुराण, १२५/२७ आदि)। इक्ष्वाकु के पुत्र मिथिला राजा निमि के काल में (८५०० ईपू) कर्क रेखा मिथिला को छूती थी, अतः कहते थे कि राजा निमि की परक (निमि) नहीं गिरती है।

वैदिक मत से पृथ्वी का परिभ्रमण

पश्चिम में १५वीं शताब्दी में गैलिलियो के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है, परन्तु आज से लगभग १५०० वर्ष पूर्व हुये आर्यभट ने प्रतिपादित किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। वेदों में लिखा है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है और उसी सूर्य के आकर्षण के कारण अपने मार्ग से भटक नहीं सकती। २७ सूर्य अर्थात् नक्षत्रों की परिक्रमा पृथ्वी कितने दिनों में करती है, इसका उत्तर ऋग्वेद इस प्रकार से देता है-[1]

द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उतच्चिकेत। तस्मिन् त्साकं त्रिशता न शंकवो र्पिताः षष्टिर्न चलाचलाशः॥

पृथ्वी के परिभ्रमण का नाम क्रान्तिवृत्त है। इसी क्रान्तिवृत्त पर पृथ्वी घूमती है। पृथ्वी से ही चन्द्रमा बद्ध रहता है। अत एव ये दोनों सूर्य का चक्कर लगाते हैं। पृथ्वी का जो अयन है अर्थात् क्रान्ति वृत्त और विषुवद वृत्त का जो सम्पात् है वह विषुवद वृत्त के चारों ओर घूमता है। इसकी परिक्रमा २५ हजार ९सौ ४०दिनमें समाप्त होती है। अयन का संबन्ध पृथिवी से है। अयन परिक्रमा लगाता है इसका अर्थ है पृथिवी की धुरी भी परिक्रमा लगाती है। जिस पृथ्वी पिण्ड पर हम स्थित हैं, वह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा लगाती है। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूमने का जो मार्ग है उसे क्रान्ति वृत्त कहते है। पृथिवी के मध्य का जो सबसे बडा पूर्वापर वृत्त है उसे नाडीवृत्त, विषुवद्वृत्त, भूमध्यरेखा या आंग्लभाषा में इक्वेटर कहा जाता है। उत्तरीध्रुव से ९० अंश दक्षिण और दक्षिणी ध्रुव से ९० अंश उत्तर की ओर जो कल्पित पूर्वापर वृत्त है, उसी का नाम विषुवद्वृत्त है। यदि पृथ्वी सदा इस विषुवद्वृत्त पर ही घूमती तो दिन-रात सदा बराबर रहते। १२ घण्टे की रात व १२ घण्टे का दिन होता, परन्तु ऐसा है नहीं। पृथ्वी सूर्य से दक्षिण भाग में नीचे की ओर लगभग २४ अंश तक चली जाती है, इसी तरह सूर्य से ऊपर उत्तर की ओर लगभग २४ तक चली जाती है। इससे २४ अंश ऊंचा और २४ अंश नीचा ४८ अंश का एक अण्डाकार वृत्त बन जाता है, उसपर पृथ्वी घूमती है, इसी का नाम क्रान्तिवृत्त है। यही कारण है कि दिन रात बराबर नहीं होते हैं। पृथ्वी घूमते घूमते जब सौर विषुव पर आती है तो इस दिन रात-दिन बराबर होते हैं। ऐसी स्थिति वर्ष में दो बार आती है। अतः कोशकार कहते हैं-

समरात्रिन्दिवे काले विषुवद् विषुवं च तत् ' इति।

सूर्य के विषुवत् से जो दक्षिण भाग है वह दक्षिण गोल कहलाता है, और उत्तरभाग उत्तर गोल कहलाता है। पृथिवी दक्षिण-गोल से जिस दिन उत्तर गोल में प्रविष्ट होती है। उस दिन दिन-रात बराबर होते हैं। एवं जिस दिन उत्तर से दक्षिण गोल में प्रविष्ट होते हैं, उस दिन भी रात दिन बराबर होते हैं। ६ महिने पृथ्वी उत्तर गोल में रहती है, ६ महिने दक्षिण गोल में रहती है। क्रान्तिवृत्त और विषुवत वृत्त के सम्पात बिन्दुओं को राहु-केतु कहा जाता है। ये दोनों सम्पात १ शारद सम्पात और २ वासन्त सम्पात नाम से प्रसिद्ध हैं। जिस दिन (२१ मार्च को चैत्र महिने में) वासन्त सम्पात होता है और २३ सितम्बर को शारद सम्पात होता है उस दिन दिन-रात बराबर होते हैं। एवं २२ जून को दिन सबसे बडा होता है। एवं २२ दिसम्बर को दिन सबसे छोटा होता है।

वेद का सिद्धान्त है कि सूर्य बृहती छन्द के बीच में(विषुवत् के बीच में) स्थिर रूप से प्रतिष्ठित रहता है अत एव सूर्यो बृहतीमध्यूढस्तपति कहा जाता है। बृहद्धतस्थौ भुवनेष्वन्तः इत्यादि मन्त्र सूर्य के स्थिरत्व का प्रतिपादन करते हैं। इस सूर्य के चारों ओर चन्द्रमा को साथ लिये हुये पृथ्वी घूमती है, परन्तु पृथ्वी अपने अक्ष पर भी २४ घण्टों में घूम जाती है इसी को स्वाक्षपरिभ्रमण कहते हैं। जैसे गाडी का पहिया अपने स्थान पर घूमता हुआ आगे चलता है उसी प्रकार पृथ्वी अपने स्थान पर घूमती हुई क्रान्ति वृत्त के चारों ओर परिक्रमाअ लगाती है। इसी परिभ्रमण से दिन-रात होते हैं। इस स्वाक्षपरिभ्रमण का नाम दैनन्दिन गति है। कुम्भकार के चाक पर दृष्टि डालिये। उस चाक का बिन्दु-बिन्दु चल रहा है, परन्तु जिसके चारों ओर चाक घूम रहा है, वह कील बिल्कुल स्थिर है। इसी प्रकार पृथ्वी का भी प्रत्येक बिन्दु गतिमान है। पृथ्वी अपनी धुरी पर तो घूमती ही है साथ ही सूर्य के चारों ओर भी परिक्रमा लगाती है, यह परिक्रमा ३६५ दिन में समाप्त होती है।

दीर्घवृत्ताकार पथ पर गति

पृथ्वी के कक्ष का आकार दीर्घवृत्ताकार होता है। कक्ष के इस आकार के कारण पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी पूरे साल में बदलती रहती है। कभी पृथ्वी सूर्य के बहुत नजदीक होती है तो कभी बहुत दूर हो जाती है।[1]

उपसौर(Perihelion) पेरीहेलियन

दीर्घवृत्ताकार पथ पर गति.png

परिक्रमा करती हुई पृथ्वी जब सूर्य के अत्यधिक नजदीक होती हैं तब इस स्थिति को उपसौर (Perihelion) कहते हैं। यह स्थिति सामान्यतया ३ जनवरी को होती है।

अपसौर (Aphelion)

पृथ्वी अपने परिक्रमण के दौरान जब सूर्य से अधिकतम दूरी पर होती है। तब इस स्थिति को अपसौर(Aphelion) कहते हैं। यह स्थिति ४ जुलाई को होती है।

ऋतु परिवर्तन (Seasonal changes)

ऋतुओं में परिवर्तन सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की स्थिति में परिवर्तन के कारण होता है। पृथ्वी के परिक्रमण में निम्न अवस्थाएँ होती हैं-

उत्तर अयनांत (summer solstice)

सूर्य की किरणें २१ जून को कर्क रेखा (Tropic of Cancer) पर लम्बवत् पडती हैं। इसके कारण इन क्षेत्रों में अधिक ऊष्मा की प्राप्ति होती है तथा उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु(Summer Season) होता है। उत्तरी गोलार्द्ध के सूर्य के सम्मुख होने के कारण उत्तरी ध्रुव के समीपवर्ती क्षेत्रों में लगातार छः महीने तक दिन रहता है। २१ जून को इन क्षेत्रों में सबसे बडा दिन तथा सबसे छोटी रात होती है। दक्षिणी गोलार्ध में इस समय शीत ऋतु(Winter Season) होती हैं। पृथ्वी की इस अवस्था को उत्तर अयनांत कहते हैं।

दक्षिण अयनांत (Winter Solstice)

सूर्य की किरणें २२ दिसम्बर को मकर रेखा (Tropic of Capricorn) पर लंबवत् पडती हैं। इसीलिये दक्षिणी गोलार्द्ध के बहुत बडे भाग में सूर्य प्रकाश प्राप्त होता है। इस स्थिति में दक्षिणी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु होती है। जिसमें सिन की अवधि लम्बी तथा रातें छोटी होती हैं।

इसके विपरीत इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य की किरणें तिरछी पडने के कारण वहाँ शीत ऋतु होती है। २२ दिसम्बर को इन क्षेत्रों में सबसे बडी रात तथा सबसे छोटा दिन होता है।

उपसौर व अपसौर॥ (Perihelion nd Aphelion)

अक्षांश रेखायें॥ (Latitudes)-

देशान्तर॥ (Longitude)

स्थानीय और प्रामाणिक समय(Local and Standard Times)

अंतर्राष्ट्रीय तिथि रेखा॥ (International Date Lirne)

उद्धरण

  1. 1.0 1.1 1.2 अम्बुज त्रिवेदी, प्राच्य-पाश्चात्य ज्योतिष सिद्धांत समीक्षा, सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली (पृ० २६४)।
  2. श्री उदयनारायण वर्मा, आर्यभटीयम्, सन् १९०६, मुजफ्फरपुरः शास्त्रप्रकाश कार्यालय, तृतीय पाद,श्लो० २९, (पृ०८९)।