Festival in month of Margashirsha (मार्गशीर्ष मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)

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इस मास को राधा स्नान विधि कहा जाता है। प्रातः समय ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौच, स्नान आदि से निवृत होकर अपने नित्य नियम को करें और देवता और पितरों को अर्पण करें फिर वैष्णव लोगों को तिलक लगाकर भगवान का स्मरण करना चाहिये। मार्गशीर्ष मास में भगवान का पूजन करने से मनुष्य भगवान की सौ लोक मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। पूजा के आरम्भ में पहले मंगल पाठ करें, फिर शंख की पूजा करें और फिर भक्तिपूर्वक मन्त्रों को पढ़ते हुए शंख के जल से भगवान विष्णु को स्नान करायें। कस्तूरी, चन्दन आदि लगाकर अर्घपाद्य, आचमन तथा मधुपर्क विष्णुजी को अर्पण करें। यथा विधि सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से विष्णुजी को अलंकृत करें, पुष्पों से सिंहासन का पूजन कर उस पर विष्णुजी को विराजमान करें। स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण कर सुगंधित ताम्बूल अर्पण करके धूप तथा दीपक सामने रखे | आदरपूर्वक प्रणाम कर रात्रि को जागरण कराएँ | इस प्रकार जो मार्गशीर्ष मास में भक्ति और श्रद्धायुक्त चित से विष्णु भगवान की पूजा करता है, वह अवश्यमेघ नि:सदेह वैकुण्ठ लोक को जाता है। इस मास में जो विष्णुजी को गौ के दूध से स्नान कराता है, उसको अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। जो शंख ध्वनि करके विष्णुजी को स्नान कराता है, उसके पित स्वर्ग में प्रतिष्ठित होते हैं.. जो विष्णजी के सिर पर घुमाकर शंख के जल से मन्दिर का प्रोक्षण करता है उसके घर में कभी अशुभ नहीं होता। जो विष्णुजी को एक हजार बार स्नान कराता है वह सपरिवार मुक्त हो जाता है। जो चालीस बार शंख से स्नान कराता है वह चिरकाल तक इन्द्रलोक में वास करता है। जो मनुष्य विष्णु भगवान को स्नान व पूजन करते हुए घण्टा दान करते हैं वह करोड़ों वर्ष तक विष्णुलोक में वास करते हैं। जो ॐकार ध्वनि से पूजन करते हैं वे निरन्तर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य विष्णुजी के निमित्त तुलसी काष्ट का चन्दन अर्पण करते हैं, वे अश्वमेघ कृतार्थ हो जाते हैं। जो नित्य ही तुलसी पत्रों तथा आंवलों से नित्य प्रति विष्णुजी की पूजा करते हैं उन्हें मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य विष्णुजी को धूप अर्पित करता है उसके सौ कुलों का उद्धार होता है। पुष्प, इलायची, गूगल, हर्ड, कूट, गुड़, शैला, छड़ और नख-इन दस चीजों को मिलाकर दशांग धूप विष्णुजी को अर्पण करता है वह अति दुर्लभ कामनाओं को भी प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य कपूर से विष्णुजी की आरती करता है वह अन्त में उन्हीं में प्रवेश कर जाता है। जो मनुष्य मार्गशीर्ष मास में कपूर का दीपक जलाता है, वह अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करता है। जो मार्गशीर्ष मास में मन्दिर में, ब्राह्मण के घर, चौराहे पर दीपक जलाता है, वह मनुष्य बुद्धिमान ज्ञान से सम्पन्न तथा चक्षुष्मान हो जाता है। भक्तियुक्त होकर जो भी विष्णु को अर्पण करता है, वह उसी को ग्रहण कर लेता है। भोग लगाने के पश्चात् आचमन कर, तम्बूल अर्पण करें।

उत्पन्ना एकादशी

यह व्रत मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी को किया जाता है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण की पूजा का विधान है। व्रत रखने वाले को दशमी के दिन रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये। एकादशी के दिन ब्रह्मबेला में भगवान का पुष्प, जल, धूप, अक्षत से पूजन करके नीराजन करनी चाहिये। इस व्रत में केवल फलों का ही भोग लगाया जाता है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश त्रिदेव का संयुक्त अंश माना जाता है। यह मोक्ष देने वाला व्रत है । व्रत कथा-एक बार पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वतीजी को अपने-अपने पतिव्रत पर बड़ा घमण्ड हो गया। नारद इनके गर्व मर्दन के लिए सर्वप्रथम पार्वतीजा पास गये और अत्रि ऋषि पत्नी अनुसूइया की प्रशंसा करने लगे। नारदजी के जाने उपरान्त पार्वतीजी के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई और अनुसूइया का चरित्र भंग करने के लिये दिगम्बर शिव से निवेदन किया

नारद के मन कछु न भावा एक दिवस दो कुकुर लड़ावा॥

उक्ति को चरितार्थ करते हुए, ऋषिराज वीणातान में मस्त, विष्णुलोक पहुंचे। वहां भी लक्ष्मीजी से अनुसूइया की भूरि-भूरि प्रशंसा की। भला लक्ष्मी कब परगुणगान सुनने वाली थी। नारद के अदृश्य होते ही विष्णु से अनुसूइयां का प्रतिव्रत नष्ट करने का आग्रह किया। उधर ब्रह्मलोक में भी जाकर नारद ने सरस्वती से इसी तरह की अनुसूइया की बड़ाई सुनाई। सरस्वती ने भी इन दोनों देवियों का अनुकरण करते हुए प्रजापति से अत्रि पत्नी के सतीत्व, मर्यादा भंग करने की प्रार्थना की। इस प्रकार ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों देव अनुसूइया का व्रत भंग करने के लिये चल दिये। अत्रि ऋषि की कुटिया के पास ही तीनों का समागम हुआ। तब एक ही समस्या का समाधान वाले तीनों देव भिखारियों का रूप बनाकर भिक्षाटन करते हुए अनुसूइया के द्वार पर पहुंचे। अनुसूइया के भिक्षा देने पर सब लोगों ने इंकार कर दिया और भोजन करने की इच्छा प्रकट की।

अतिथि सत्कार को ही जीवन समझने वाली अनुसूइया ने भिक्षुकों की बात स्वीकार कर ली। इसके बाद उन्हें स्नानादि से निवृत होने को कहा। तीनों देवों के आते ही श्रद्धा से अनुसूइया जब भोजन की थाली परोसकर लायी। उन लोगों ने इन्कार करते हुए कहा कि-"जब तक तू नग्न होकर नहीं परोसेगी तब तक हम भोजन ग्रहण नहीं करेंगे।" यह सुनकर अनुसूइया पहले तो सिर से पैर तक क्रोध में जल उठी, परन्तु पतिव्रत शक्ति से देवों का प्रयोजन जानकर पतिव्रत के प्रभाव से तीनों देवों को बालक बना दिया। उसके द्वार अत्रि ऋषि के चरणोदक को छिड़कते ही त्रिदेव छोटे-छोटे बच्चों की तरह खेलने लगे। तब सती ने उन्हें भरपेट भोजन कराया और पालने में झुलाती हुई वात्सल्य प्रेम में दिन व्यतीत करने लगी। इधर काफी समय बीत जाने पर भी त्रिदेवों के ना लौटने पर तीनों देवियां घबराने लगी। तब एक दिन ज्ञात हुआ कि तीनों देव एक बार अनुसूइया के घर जाते दिखाई दिये थे। इतना सुनते ही लक्ष्मी, ब्राह्मणी और पार्वतीजी अत्रि मुनि के आश्रम में पहुंची