Mantra (मंत्र)

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प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक साहित्यों में उल्लेखित विभिन्न योग साधनाओं में मन्त्र साधना को ध्यान साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताया गया है। भारतीय संस्कृति में मंत्रों का विशेष महत्व रहा है। जब भी कोई धार्मिक कार्य पूजा पाठ आदि किया जाता है तो वह मन्त्रोच्चारण के साथ ही प्रारंभ होता है। प्रत्येक शब्द स्वयं में स्पन्दन धारित होता है। उच्चारित करने पर विशिष्ट ध्वनि, तरंग एवं कम्पन को जन्म देता है। मंत्र अति विशिष्ट, महान स्पंदनों एवं शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है। इस वाक्य की सहमति के रूपमें ऋग्वेद में भी वर्णित है कि जिस प्रकार सागर में तरंगें उठती है वैसे ही स्पंदन सहित वाक् की तरंगें भी गति करती हैं। मन्त्र अक्षरों का ऐसा दुर्लभ,विशिष्ट एवं अनोखा संयोग है, जो चेतना जगत को आन्दोलित, आलोडित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। मन्त्र जप का लाभ मानसिक ओजस्विता, बौद्धिक प्रखरता एवं आत्मिक वर्चस्व के रूप में तो मिलता ही है, भौतिक स्वास्थ्य भी उससे सहज ही उपलब्ध हो जाता है। मंत्र शब्द का अर्थ असीमित है। वैदिक छन्दोबद्ध ऋचाओं को भी मन्त्र कहा जाता है।

परिचय

मन्त्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मन्त्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। मंत्रों की सकारात्मक ऊर्जा मानव चरित्र को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती थी। मानसिक विद्रूपताओं को मन्त्रोच्चारण दूर हटाता है। व्यक्ति को आत्म विकास से भरने में मंत्रशक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राचीन मान्यता रही है कि मंत्रों के प्रभाव से अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाया करती थी। भारतीय संगीत में दीपक राग के गायन से भी अग्नि उत्पन्न करने का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूपों में मिलता है। चिकित्सकीय परिणामों के सन्दर्भ यदि अग्नि उत्पन्न करने का प्रयोग देखा जाए तो शारीरिक तापक्रम में वृद्धि से अभिप्राय निकाला जा सकता है। मंत्रों को प्रभावशाली बनाने के लिये केवल वाणी ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ हृदय-अन्तःकरण की शक्तिजुडनी चाहिये जो तप साधना द्वारा जागृत की जाती है।

परिभाषा

रुद्रयामल में मंत्र के विषयमें वर्णन है कि मनन करने से सृष्टि का सत्य रूप ज्ञात हो, भव बंधनों से मुक्ति मिले एवं जो सफलता के मार्ग पर आगे बढाये उसे मन्त्र कहते हैं-

मननात् त्रायतेति मंत्रः।

मंत्र शब्द मन् एवं त्र के संधि योग से बना हुआ है। यहाँ त्र का अर्थ चिंतन या विचारों की मुक्ति से है। अतः मंत्र का पर्याय हुआ मन के विचारों से मुक्ति। जो शक्ति मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मन्त्र योग है। मानसिक एवं शारीरिक एकात्म ही मन्त्र के प्रभाव का आधार है। मंत्रों का उच्चारण एवं उसका जाप शरीर, मनस और प्रकृति पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।[1]

मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात्। यतः करोति संसिद्धो मंत्र इत्युच्यते ततः॥

यास्क मुनि का कथन है। अर्थात् मंत्र वह वर्ण समूह है जिसका बार-बार मनन किया जाय और सोद्देश्यक हो। अर्थात् जिससे मनोवांछित फल की प्राप्ति हो।

मन्त्र का महत्व

मन्त्रशास्त्र के साथ अन्तःकरणका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रमें जो शक्ति निहित रहती है, वह शक्ति मन्त्रके आश्रयसे अन्तःकरण में प्रकट हो जाती है। योग में मन्त्र साधना का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। मन्त्र साधना को योग साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताते हुये, समस्त योगी ऋषि-मुनि मंत्र साधना के अस्तित्व को स्वीकार किया है।[2]

मन्त्रो हि गुप्त विज्ञानः। सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेयाः शिवात्मिकाः। साधक साधन साध्य विवेकः मन्त्रः। प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः। मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामिततेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्तस्मान्मंत्र इतीरितः॥

मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन तन्मन्त्रः॥

मन्त्र योग

मनन करने से जो हमारी रक्षा करता है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। मन्त्रयोग के द्वारा हम अपने भावों को शुद्ध करते हैं, चित्त की चंचलता को कम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रयोग की प्रथम साधना के द्वारा योग साधक अधम स्थिति से मध्यम स्थिति पर आ जाये तथा बुद्धि शुद्ध व चैतन्य हो जाये। मन्त्र योग की साधना करने से मन एकाग्र होकर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है तथा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग खुल जाता है और कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में सहजता से पहुँच जाती है एवं मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग शुद्ध हो जाता है।

मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोगः।

निरन्तर सिद्ध मंत्र का जाप करते हुये, मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मयता से लय भाव प्राप्त कर लेता है, उस अवस्था को मंत्र योग कहते हैं। मंत्र नाद ब्रह्म का प्रतीक है। मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का सम्पूर्ण समागम हो। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय।

मननात् त्राणनाच्चैव मद्रपस्यावबोध नात्। मंत्र इत्युच्यते सम्यक् मदधिष्ठानत प्रिये॥(रुद्रयामल)

अर्थ-

भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशांगानि निश्चितम्। यथा सुधांशोर्जायन्ते कला षोडशशोभना॥

भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥

प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः। यागो जपस्तथा ध्यानं समधिश्चेति षोडशः॥[3]

अर्थात् चन्द्रमा की १६ कलाओं के समान मन्त्रयोग के भी १६ अंग होते हैं। ये अंग इस प्रकार हैं- भक्ति, शुद्धि, आसन, पञ्चांगसेवन, आचार, धारणा, दिव्यदेशसेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, याग, जप, ध्यान और समाधि। सभी अंगों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

भक्ति- इष्टदेव मन्त्र आदि में परम अनुराग को भक्ति कहते हैं। भक्ति तीन प्रकार की होती है- वैधी, रागाअत्मिका और परा। शास्त्रीय विधि एवं निषेध द्वारा निर्णीत धीर साधकों के द्वारा अपनायी गयी भक्ति वैधी कहलाती है। जिस भक्ति के रस का आस्वादन कर साधक भाव-सागर में डूब जाता है, उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। परम आनन्ददायक भक्ति को पराभक्ति कहते हैं।

शुद्धि- निर्मलता को शुद्धि कहा जाता है। मन्त्रसाधना में चार प्रकार की शुद्धियों पर बल दिया गया है। वे क्रमशः इस प्रकार हैं- कायशुद्धि, चित्तशुद्धि, दिक्शुद्धि एवं स्थान शुद्धि।

आसन- मन्त्रसिद्धि के लिये सकाम एवं निष्काम कर्मों के भेद से तथा कामना के तारतम्य से आसन का निर्णय किया जाता है। जैसे- रेशम, कम्बल और कुशा आदि।

पञ्चांगसेवन- गीता, सहस्रनाम, स्तव, कवच एवं हृदय इन पाँचों को पञ्चांग कहते हैं। अपने-अपने सम्प्रदाय की गीता का स्वाध्याय, मनन एवं चिन्तन करने से,

आचार- मन्त्रसाधना में मुख्यतया तीन प्रकार के आचार माने गये हैं- वामाचार, दक्षिणाचार तथा दिव्याचार। वाम एवं दक्षिण आचार परस्पर एक दूसरे से भिन्न होते हुये भी एक ही लक्ष्य पर ले जाते हैं। इनमें भेद यह है कि वामाचार प्रवृत्तिमूलक तथा दक्षिणाचार निवृत्तिमूलक है। प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाने वाला आचार दिव्याचार कहलाता है।गुरु शिष्य की प्रकृति, अभिरुचि एवं शक्ति का विचार कर काम्य एवं निष्काम उपासना के भेद पर ध्यान देकर आचार उपदेश देना चाहिये।

धारणा- बाह्य एवं आभ्यन्तर भेद से धारणा दो प्रकार की होती है। बाह्य वस्तुओं के साथ मनोयोग होने से बहिर्धारणा एवं अन्तर्जगत् के सूक्ष्म द्रव्यों के साथ मनोयोग होने से अन्तर्धारणा बनती है। धारणा की सिद्धि हो जाने पर मन्त्रसाधक को ध्यानसिद्धि एवं मन्त्रसिद्धि दोनों मिल जाती है। धारणासिद्धि की स्थूल एवं सूक्ष्म सभी प्रक्रियाओं को योगमर्मज्ञ गुरु से विधिवत् सीखकर मन्त्र-साधना करनी चाहिये।

दिव्यदेशसेवन- तन्त्रों में वह्नि, अम्बु, लिंग, स्थण्डिल, कुण्ड, पट, मण्डल, विशिखा, नित्ययन्त्र, भावयन्त्र, पीठ, विग्रह, विभूति, नाभि, हृदय एवं मूर्धा- इन १६ को दिव्यदेश कहा गया है। साधक को अपने अधिकार के अनुसार दिव्यदेश में पूजा एवं उपासना करनी चाहिये। धारणा की सहायता से दिव्यदेश में पूजा एवं उपासना करनी चाहिये। धारणा की सहायता से दिव्यदेश में इष्टदेव का साक्षात्कार होता है।

प्राणक्रिया- मन, प्राण एवं वायु में अभेद सम्बन्ध माना गया है तथा वायु एवं प्राण में कार्य-कारण का सम्बन्ध। इसलिये प्राणायामपूर्वक मन्त्रोक्त न्यासों को करना चाहिये।

मुद्रा- तन्त्र में मुद्रा शब्द का निर्वचन करते हुये कहा गया है कि मुद्रा शब्द का प्रथम अक्षर देवताओं की प्रसन्नता का तथा दूसरा अक्षर पापक्षय का सूचक है। इस प्रकार मुद्रा के प्रभाव से देवता प्रसन्न होते हैं तथा साधक पापरहित होता है। पूजन, जप, काम्यप्रयोग, स्नान, हवन और मन्त्र साधना आदि में सभी देवताओं की आराधना हेतु अनेक मुद्राओं का विधान किया गया है।

तर्पण- तर्पण करने से देवता शीघ्र सन्तुष्ट एवं प्रसन्न होते हैं। यह तर्पण सकाम एवं निष्काम भेद से दो प्रकार का होता है।

हवन-

बलि-

याग-

जप-

ध्यान-

समाधि-

मन्त्र के प्रकार

प्राचीन शास्त्रानुसार वेद में प्राप्त होने वाले मन्त्र ईश्वर श्वास-प्रश्वास से प्रादुर्भूत हुये हैं। उत्पत्ति की दृष्टिसे मंत्र चार प्रकार के माने गये हैं- वैदिक मंत्र, पौराणिक मंत्र, औपनिषदैक मंत्र एवं तान्त्रिक मंत्र।

वैदिक मंत्रः समस्त संसार का मूल स्तम्भ इन वेद मंत्रों को माना गया है। वैदिक मंत्र जैसे- गायत्री मंत्र, महामृत्युञ्जय मंत्र, नवग्रह सूक्त आदि।

पौराणिक मंत्रः इन मंत्रों को एकाग्रचित्त, श्रद्धा भावना, लगन एवं वाणी शुद्धि सहित जपने से मन तथा मस्तिष्क में सकारात्मकता और शुभ विचार आते हैं और तनाव का नाश होता है। उदाहरणतया- देवी माहात्म्य, शिव सहस्रनाम, गणेश स्तोत्र आदि।

औपनिषैदिक मंत्रः इस श्रेणी में उपनिषदों से प्राप्त मंत्रों का समावेश है। इन मंत्रों के माध्यम से साधक को अन्तर आत्मा एवं परमात्मा के विषय में गूढ रहस्य का ज्ञान हो जाता है। यह मंत्र मुख्यतः सन्यासियों द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।

तान्त्रिक मंत्रः तन्त्र शास्त्र में गायत्री मंत्र जैसे कुछ वैदिक मंत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं। कुछ तान्त्रिक मंत्र हैं जैसे- सबरी मंत्र, अघोर मंत्र, वशीकरण मंत्र आदि।

मन्त्र योग के अंग

ऋषि- जिन साधक ने सर्वप्रथम शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर विधिवत् उसे सिद्ध किया था, वह उस मन्त्र के ऋषि कहलाते हैं। उन ऋषि को उस मन्त्र का आदि गुरू मानकर श्रद्धा सहित उनका मस्तिष्क में न्यास किया जाता है।

देवता- जीव मात्र के समस्त क्रिया कलापों को प्रेरित, संचालित एवं नियन्त्रित करने वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं। यह शक्ति व्यक्ति के हृदय में स्थित होती है। अतः देवता का हृदय में न्यास करते हैं। प्रत्येक मन्त्र का एक सुनिश्चित देवता है। अतः मन्त्र आराधना से पूर्व और सामापन के समय देव विशेष का पूजन-अर्चन आवश्यक है। ये देवता सात प्रकार के होते हैं- मन देवता, आत्मा देवता, इष्ट देवता, कुल देवता, गृह देवता, ग्राम देवता और लोक देवता।

छन्द- मन्त्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को छन्द कहते हैं। अक्षर या पदों से छ्जन्द बनता है तथा इनका उच्चारण मुख से होता है। अतः छन्द का मुख न्यास किया जाता है।

बीज- मन्त्र शक्ति को उद्भावित करने वाला तत्व बीज कहलाता है। अतः बीज का सृजनांग में न्यास किया जाता है।

शक्ति- जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है, वह तत्व शक्ति कहलाता है। उसका पादस्थान में न्यास करते हैं।

विनियोग- गौतमीय तन्त्र के अनुसार ऋषि एवं छन्द का ज्ञान न होने पर मन्त्र का फल नहीं मिलता तथा उसका विनियोग न करके मात्र जप करने से मन्त्र दुर्बल हो जत है। मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।

न्यास- विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है।

मंत्र जाप की विधि

मन्त्र विशेष को निरन्तर दोहराने को जप कहा जाता है। अग्निपुराण में जप के शाब्दिक अर्थ में ज को जन्म का विच्छेद और प को पापों का नाश बताया है। अर्थात् जिसके द्वारा जन्म-मरण एवं पापों का नाश हो वह जप है। जप को नित्य जप, नैमित्तिक जप, काम्य जप, निषिद्ध जप, प्रायश्चित्त जप, अचल जप, चल जप, वाचिक जप, उपांशु जप, भ्रामर जप, मानसिक जप, अखण्ड जप, अजपा जप एवं प्रदक्षिणा जप आदि से विभाजित किया गया है।[3]

अग्नि पुराण के अनुसार-

उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)

ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं।

मंत्र की शक्ति

ऋषि हमें बताते हैं कि हमारी मूल प्रकृति सत्य, चेतना और आनंद है। मन्त्र शब्द की उत्पत्ति (निघण्टु के अनुसार) मनस् से बताया गया है। जिसका अर्थ है आर्ष कथन सामान्य रूप से मनन् से मन्त्र की उत्पत्ति माना गया है। मननात् मन्त्रः।

मन्त्र चिकित्सा एवं आधुनिक अनुसंधान

उद्धरण॥ References

  1. अवधेश प्रताप सिंह तोमर जी, संगीत चिकित्सा पद्धति के क्षेत्र में हुई और हो रही शोध विषयक एक अध्यनात्मक दृष्टि, (शोध गंगा)सन् २०१६, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, अध्याय- ०१, (पृ०११)।
  2. Karnick CR. Effect of mantras on human beings and plants. Anc Sci Life. 1983 Jan;2(3):141-7. PMID: 22556970; PMCID: PMC3336746.
  3. 3.0 3.1 गरिमा, दैव्यव्यपाश्रय चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत वांग्मय में वर्णित मन्त्रों का समीक्षात्मक अध्ययन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय(२०२०) अध्याय-०२। http://hdl.handle.net/10603/377274