Difference between revisions of "Katha Upanishad (कठ उपनिषद्)"

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Latest revision as of 19:15, 8 March 2024

कठोपनिषद् सर्वाधिक स्पष्ट और प्रसिद्ध उपनिषद् है। इसका संबंध कृष्णयजुर्वेद की कठ-शाखा से है। इसके नाम 'कठोपनिषद्' का यही आधार है। इस उपनिषद् को 'काठक' नाम से भी जाना जाता है। अतः इसके प्रणेता कठ ऋषि माने जाते हैं। इसमें काव्यात्मक मनोरम शैली में गूढ दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन है। अपनी रोचकता के कारण यह सुविख्यात है। इसमें सुप्रसिद्ध यम और नचिकेता (नचिकेतस्) के संवादरूप से ब्रह्मविद्याका विस्तृत वर्णन है।

परिचय

कठोपनिषद् कृष्णयजुर्वेदकी कठशाखाके अन्तर्गत है। इस उपनिषद् में दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन खण्ड (वल्लियाँ) हैं। सम्पूर्ण उपनिषद् में ११९ मन्त्र हैं, जो प्रायः पद्यात्मक ही हैं। इसमें यम और नचिकेताके संवादरूप से ब्रह्मविद्याका बडा विशद वर्णन किया गया है। इसकी वर्णनशैली बडी ही सुबोध और सरल है। श्रीमद्भगवद्गीतामें भी इसके कई मन्त्रोंका कहीं शब्दतः और कहीं अर्थतः उल्लेख है।

इसमें, अन्य उपनिषदोंकी तरह ही तत्त्वज्ञानका गम्भीर विवेचन है वहाँ नचिकेताका चरित्र भी पाठकों के सामने अनुपम आदर्श भी उपस्थित करता है।

उद्दालक ऋषि के पुत्र वाजश्रवस सर्वमेध (विश्ववेदस् ) यज्ञ के अन्त में ऋत्विजों को जीर्ण-शीर्ण गायें दक्षिणा में दे रहे थे। नचिकेता (नचिकेतस्) उनका पुत्र था। उसको पिता के इस कृत्य पर ग्लानि हुई। उसने कहा- पिताजी मुझे किसको दोगे। पिता ने क्रोध में कहा - यम को।[1]

कठोपनिषद् में अध्यात्म पक्ष के समान व्यवहार पक्ष भी महत्वपूर्ण है। विना विशिष्ट गुणों के आत्मानुभूति सम्भव नहीं है। मनुष्य को अपने मन , वाणी और कर्म पर नियन्त्रण रखना चाहिए। कठोपनिषद् में आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा के साथ-साथ लौकिक और व्यावहारिक उपदेश भी है।

  • मानव कल्याण के हेतुभूत यज्ञ- भूतयज्ञ , पितृयज्ञ , अतिथि यज्ञ और देवयज्ञ का संकेत भी इसमें है।
  • इसका उद्देश्य परम सत्ता से साक्षात्कार करने के साथ-साथ व्यावहारिक दृष्टि से आदर्श समाज का निर्माण करना भी है।

परिभाषा

कठ उपनिषद् - वर्ण्य विषय

कठोपनिषद् में यम और नचिकेता के संवादरूप में आत्मा और परमात्मा के गूढ उच्चज्ञान का विशद और गम्भीर उपदेश दिया गया है। मरने के अनन्तर जीवात्मा की सत्ता रहती है या नहीं?

इस प्रश्न को, जो प्रतिदिन मनुष्यों के हृदयों में उत्पन्न होता रहता है, यहाँ बहुत ही रोचक रूप में बताया गया है। उपनिषद् का प्रारंभ एक आख्यायिका से होता है। एवं इसमें अन्य विषयों का भी वर्णन प्राप्त होता है -

  • अतिथि-सत्कार
  • मंगल - भावना
  • नचिकेता की पितृभक्ति
  • गुरु - शिष्य - संबंध
  • विवेक एवं संयम
  • श्रेय और प्रेय मार्ग

नचिकेता की कथा

आत्म का स्वरूप

आत्म की अनुभूति

आत्म-अनुभूति के साधन

वैयक्तिक आत्म और ब्रह्माण्डीय आत्म

अनुभूति का फल

जीवन-मुक्तिः जीवित रहते अनुभूति

विदेह-मुक्ति

यम-नचिकेता संवाद

पिता पुत्र संवाद -

वाजश्रवस् गौतम नामक ऋषि ने 'सर्ववेदस्' यज्ञ किया, जिसमें सर्वस्व दान दिया जाता है। वाजश्रवा ने लोभवश जीर्ण-शीर्ण गायों को भी दान में दिया, जिससे पुत्र नचिकेता के मन में श्रद्धा का आवेश हुआ। नचिकेता ने पिता से बूढी गायों के दान पर आपत्ति की और पूछा -

पिताजी! मुझे आप किसे देंगे? पिताजी ने झुँझलाकर कहा - तुझे मैं मृत्यु को देता हूँ। नचिकेता पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये यमराज के घर पर पहुँच गया। यमराज के घर पर न होने के कारण उसने तीन रात्रियों तक घर के बाहर उनकी प्रतीक्षा की। यमराज ने आने पर अतिथि नचिकेता से तीन वर मांगने को कहा। नचिकेता ने प्रथम वर मांगा कि मेरे पिता की चिन्ता दूर हो जाए, वे मेरे प्रति क्रोधरहित हों और मेरे लौटने पर मुझे पहचान कर मेरा स्वागत करें। यम ने यह वर स्वीकार कर लिया। नचिकेता ने दूसरे वर द्वारा स्वर्ग की साधनभूत अग्नि का ज्ञान प्राप्त करना चाहा। यम ने नचिकेता को पूर्ण विवरण के साथ यज्ञ-प्रक्रिया समझायी। इन दो वरों को देने में यम ने कोई निषेध नहीं किया। तीसरे वरदान में नचिकेता ने आत्मबोध चाहा।[2] उसका प्रश्न था -

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके। एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः॥ (कठ०उप० १,१,२०)

यमलोक में नचिकेता का गमन एवं यमराज का वरप्रदान - [3]

  1. प्रथम वर - पितृपरितोष (स्वर्गस्वरूपप्रदर्शन)
  2. द्वितीय वर - स्वर्गसाधनभूत अग्निविद्या (नाचिकेत अग्निचयनका फल)
  3. तृतीय वर - आत्मरहस्य (नाचिकेत की स्थिरता)

दार्शनिक महत्त्व के सन्दर्भ

  1. संसार अनित्य है। संसार के भोग-विलास क्षणिक हैं। धन से आत्मिक शान्ति नहीं मिलती। न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः। (१, १, २७)
  2. श्रेय और प्रेय दो मार्ग हैं। सामान्य जन जीवनयापन के लिए प्रेय मार्ग (भौतिक सुख) को अपनाते हैं, परंतु विद्वान् व्यक्ति श्रेयमार्ग (अध्यात्म मार्ग) को ही अपनाते हैं। श्रेयमार्ग आत्मिक शान्ति और मोक्ष का साधन है। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते , प्रेयो मन्दो योगक्षेमौ वृणीते। (१,२,२)
  3. ओम् सारे वेदों और शास्त्रों का सार है। ओम् (ईश्वर, ब्रह्म) के लिए ही सारे जप-तप आदि किए जाते हैं। वही संसार में सबसे बडा सहारा (आलम्बन) है। सर्वे वेदा यत्पदम् आमनन्ति - तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि-ओम् इत्येतत्। (१,२, १५) एतदालम्बनं श्रेष्ठम् , एतदालम्बनं परम् । (१,२,१७)
  4. आत्मा अजर और अमर है, न कभी उत्पन्न होता है और न कभी मरता है। यह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है। इसको ज्ञानी ही जान पाते हैं। यह प्रत्येक जीव के अन्दर विद्यमान है। न जायते म्रियते वा विपश्चित् । (१,२,१८ से २०) अणोरणीयान् महतो महीयान्०। (१,२,२०)
  5. यह आत्मा ज्ञान-विज्ञान-मेधा आदि से प्राप्य नहीं है। आत्म-समर्पण से ही प्राप्य है। भक्त पर उसकी कृपा होती है और उसे आत्मदर्शन होता है। नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः,,,,,,,,,यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः०। (१,२,२२)
  6. जो मनुष्य ज्ञान (विवेक) को सारथि बनाता है, और मन को लगाम। वही परम पद को प्राप्त करता है।

सारांश

प्रत्येक उपनिषद् का मन्तव्य व्यक्ति का आध्यात्मिक उन्नयन है। कठोपनिषद् नचिकेता और यम के मध्य संवाद-शैली में लिखा होने के कारण अत्यधिक प्रसिद्ध है। उपनिषद् वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता की कथा कहता है, जिसने यम द्वारा प्रदत्त शिक्षा ग्रहण की। कथा से आरम्भ कर उपनिषद् गहन दार्शनिक सत्यों को उद्घाटित करता है। यह लौकिक और पारलौकिक जगतों के बारे में सत्य का रहस्योद्घाटन करता है।[2] कठोपनिषद् आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा के साथ लौकिक और व्यावहारिक उपदेश देती है। मानवकल्याण के हेतुभूत पाँचों यज्ञों - भूतयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ का संकेत इसमें हुआ है।

इसकी वर्णन-शैली सुबोध है और भाषा में वैदिक रूपों की झलक है। कभी-कभी भाषा इतिहास-पुराणों की भाषा से मिलती-जुलती सी लगती है। इसके कई मन्त्रों की छाया श्रीमद्भगवदीता में शब्दशः या अर्थशः दिखायी देती है।

मैत्रायणीय, मुण्डक और श्वेताश्वतर उपनिषदों के कई मन्त्रों से इसके मन्त्रों का साम्य दिखाई देता है।

उद्धरण

  1. कपिलदेव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन (पृ० १७५)
  2. 2.0 2.1 बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेद खण्ड , सन् १९९६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ(पृ० ४९४)।
  3. कठोपनिषद् , सानुवाद शांकरभाष्य, सन् २००८, गीताप्रेस गोरखपुर।