Difference between revisions of "Festival in month of Kartika (कार्तिक मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)"

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" बहन अपनी भाभियों से बोली-"चलो अर्घ्य दे लें।" भाभियां बोलीं-"तुम्हारा चाँद उगा होगा। हमारा तो रात को उगेगा।" बहन ने अकेले ही अर्घ्य दे दिया और खाना खाने लगी। पहले ग्रास में बाल निकला, दूसरे में किकर, तीसरे में ससुराल से पति की बीमारी का संदेश आ गया। मां ने लड़की को विदा करते हुए कहा-"मार्ग में जो बड़ा मिले उसके पांव छूकर सुहाग का आशीष ले लेना। पल्ले में गांठ लगा लेना और उसे कुछ रुपये देना।" मार्ग में उसे जो भी मिला उसने यही आशीष दिया-“तुम सात भाइयों की बहन हो। तुम्हारे भाई सुखी रहें। तुम उनका सुख देखो।" किसी ने भी सुहाग का आशीष नहीं दिया। जब वह ससुराल पहुंची तो दरवाजे पर खड़ी ननद के पांव छुए और उसने आशीष दिया-"सुहागिन रहो, सपूती हो।" तो उसने पल्ले में गांठ बांधकर ननंद को सोने का सिक्का दिया। जब भीतर गयी. तो सास बोली-"तेरा पति धरती पर पड़ा है।" उसके पास जाकर उसकी सेवा करने लगी। सास दासी के हाथ बची-कुची रोटी भेज देती। इस तरह बीतते-बीतते मंगसिर की चौथ आई तो चौध माता बोली-“करवा ले, करवा ले, भाइयों को प्यारी करवा ले।" लेकिन जब उसे चौथ माता नहीं दिखीं तो वह बोली-“मां आपने ही मुझे उजाड़ा है आप ही मेरा उद्धार करोगी।" चौथ माता बोलीं-“पौष की चौथ आयेगी वही तुम्हारा उद्धार करेगी। तुम उससे सब कहना वह तुम्हारा सुहाग देगी। इसी प्रकार पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ और सावन, भादों की चौथ माता आकर यह कहकर चली गयी कि आगे आने वाली से लेना। असौज की चौथ आयी तो उसने बताया कि-कार्तिक की चौथ तुम पर नाराज है, उसी ने तुम्हारा सुहाग लिया है नहीं वापस कर सकती है, वह आये तो उसके पांव पकड़कर विनती करना।" यह कहकर वह भी चली गयी जब कार्तिक की चौथ माता आई तो वह क्रोध में बोलीं- भाइयों की प्यारी करवा ले, दिन में चाँद उगनी करवा ले, व्रत खंडन करने वाली करवा ले, भूखी करवा ले।" यह सुनकर चौथ माता को देखकर उसके पैर पकड़कर गिड़गिड़ाने लगी।
 
" बहन अपनी भाभियों से बोली-"चलो अर्घ्य दे लें।" भाभियां बोलीं-"तुम्हारा चाँद उगा होगा। हमारा तो रात को उगेगा।" बहन ने अकेले ही अर्घ्य दे दिया और खाना खाने लगी। पहले ग्रास में बाल निकला, दूसरे में किकर, तीसरे में ससुराल से पति की बीमारी का संदेश आ गया। मां ने लड़की को विदा करते हुए कहा-"मार्ग में जो बड़ा मिले उसके पांव छूकर सुहाग का आशीष ले लेना। पल्ले में गांठ लगा लेना और उसे कुछ रुपये देना।" मार्ग में उसे जो भी मिला उसने यही आशीष दिया-“तुम सात भाइयों की बहन हो। तुम्हारे भाई सुखी रहें। तुम उनका सुख देखो।" किसी ने भी सुहाग का आशीष नहीं दिया। जब वह ससुराल पहुंची तो दरवाजे पर खड़ी ननद के पांव छुए और उसने आशीष दिया-"सुहागिन रहो, सपूती हो।" तो उसने पल्ले में गांठ बांधकर ननंद को सोने का सिक्का दिया। जब भीतर गयी. तो सास बोली-"तेरा पति धरती पर पड़ा है।" उसके पास जाकर उसकी सेवा करने लगी। सास दासी के हाथ बची-कुची रोटी भेज देती। इस तरह बीतते-बीतते मंगसिर की चौथ आई तो चौध माता बोली-“करवा ले, करवा ले, भाइयों को प्यारी करवा ले।" लेकिन जब उसे चौथ माता नहीं दिखीं तो वह बोली-“मां आपने ही मुझे उजाड़ा है आप ही मेरा उद्धार करोगी।" चौथ माता बोलीं-“पौष की चौथ आयेगी वही तुम्हारा उद्धार करेगी। तुम उससे सब कहना वह तुम्हारा सुहाग देगी। इसी प्रकार पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ और सावन, भादों की चौथ माता आकर यह कहकर चली गयी कि आगे आने वाली से लेना। असौज की चौथ आयी तो उसने बताया कि-कार्तिक की चौथ तुम पर नाराज है, उसी ने तुम्हारा सुहाग लिया है नहीं वापस कर सकती है, वह आये तो उसके पांव पकड़कर विनती करना।" यह कहकर वह भी चली गयी जब कार्तिक की चौथ माता आई तो वह क्रोध में बोलीं- भाइयों की प्यारी करवा ले, दिन में चाँद उगनी करवा ले, व्रत खंडन करने वाली करवा ले, भूखी करवा ले।" यह सुनकर चौथ माता को देखकर उसके पैर पकड़कर गिड़गिड़ाने लगी।
  
वह बोली-“हे चौथमाता! मेरा सुहाग आपके हाथ में है आप मुझे सुहागिन करें।" तब माता बोली-“पापिन, हत्यारी मेरे पांव पकड़कर क्यूं बैठ गयी।" तब बहन बोली-“हे मां! मुझसे भूल हो गयी। अब मुझे क्षमा कर दें, अब कोई भूल न होगी। तब माता ने खुश होकर आंखों से काजल, नाखूनों से मेहंदी एवं टीके से रोली लेकर छोटी अंगुली से उसके आदमी पर छींटा दिया। उसका आदमी उठकर बैठ गया। और बोला-"आज मैं बहुत सोया। वह बोली-"क्या सोया पूरे बारह महीने हो गये।" अत: इस प्रकार चौथ माता ने सुहाग लौटाया।" तब उसने कहा-“शीघ्रता से माता का उजमन करो।" जब चौथ की कहानी सुनी, करवा पूजन किया तो प्रसाद खाकर दोनों पति-पत्नी चौपड़ खेलने बैठ गये। नीचे से दासी आई, उसने सासुजी को जाकर बताया। तब से सम्पूर्ण गांवों में यह प्रसिद्ध होती गयी कि-"सब स्त्रियां चौथ का व्रत करें तो सुहाग अटल रहेगा।"
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वह बोली-“हे चौथमाता! मेरा सुहाग आपके हाथ में है आप मुझे सुहागिन करें।" तब माता बोली-“पापिन, हत्यारी मेरे पांव पकड़कर क्यूं बैठ गयी।" तब बहन बोली-“हे मां! मुझसे भूल हो गयी। अब मुझे क्षमा कर दें, अब कोई भूल न होगी। तब माता ने खुश होकर आंखों से काजल, नाखूनों से मेहंदी एवं टीके से रोली लेकर छोटी अंगुली से उसके आदमी पर छींटा दिया। उसका आदमी उठकर बैठ गया। और बोला-"आज मैं बहुत सोया। वह बोली-"क्या सोया पूरे बारह महीने हो गये।" अत: इस प्रकार चौथ माता ने सुहाग लौटाया।" तब उसने कहा-“शीघ्रता से माता का उजमन करो।" जब चौथ की कहानी सुनी, करवा पूजन किया तो प्रसाद खाकर दोनों पति-पत्नी चौपड़ खेलने बैठ गये। नीचे से दासी आई, उसने सासुजी को जाकर बताया। तब से सम्पूर्ण गांवों में यह प्रसिद्ध होती गयी कि-"सब स्त्रियां चौथ का व्रत करें तो सुहाग अटल रहेगा।"और अनुसूइया से अपने अपने पतियों के विषय में पूछा। अनुसूइया ने पालने की  ओर संकेत करके अपने-अपने स्वामियों को पहचानने को कहा। लक्ष्मी ने अत्यधिक चालाकी से विष्णुजी को पहचानना चाहा मगर जब पति समझकर उठाया तो भगवान शंकर निकले. इस पर उनका बड़ा उपहास हुआ। इस प्रकार तीनों देवियों है. इसलिए इन्हें बच्चों के रूप में ही रहना होगा। इस पर तीनों के अंग में एक के अनुनय विनय करने पर अनुसूइया ने कहा कि इन लोगों ने मेरा दूध पिया विशिष्ट अवतार हुआ। जिसके तीन सिर और छ: भुजाए थी। यही दत्तात्रेय ऋषि को उत्पत्ति को कथा है। अनुसूइया ने पुनः पति चरणोदक से तीनों देवताओं को पूर्ववत् कर दिया।
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=== मोक्षदा एकादशी ===
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यह व्रत मोक्षदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इसके करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व मोहित हुए अर्जुन को श्रीमदभागवत गीता का उपदेश दिया था। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण व गोता की पूजन आरती करके उसका पाठ करना चाहिये। इसी दिन महर्षि को पत्नी सती अनुसूइया से दत्तात्रेय उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने 24 गुण धारण कर लोगों को शिक्षा दी कि तुच्छ समझी जाने वाली छोटी-छोटी चीजों से भी ज्ञान प्राप्त करते रहना चाहिये और किसी भी प्राणी की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। यह उत्तमव्रत मार्गशीर्ष मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है। मोक्षदा एकादशी के दिन मिथ्या भाषण, चुगली व अन्य दुष्कर्मों का परित्याग करना चाहिये। भगवान दामोदार को धूप-दीप-नैवेद्य से पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मण को भोजन कराकर दानादि देने से इस व्रत का विशेष फल प्राप्त होता है। इस दिन कृष्ण भगवान का पूजन करके आरती करनी चाहिये।
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==== व्रत कथा- ====
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प्राचीन समय में कम्पिल्य नगर में बीरबाहु नाम वाला राजा था। वह राजा बड़ा धर्मात्मा, सत्यवादी और ब्राह्मण-भक्त सदैव ही भक्ति में लीन रहता था। वह राजा रण में विजयी, ऋषि में कुबेर के समान और पुत्रवान था, उस राजा की स्त्री का नाम कोनिमती धा। वह अति सुन्दर और पतिव्रता थी और वह राजा अपनी स्त्री के साथ प्रजा का पालन किया करता था। एक दिन उस राजा के घर महामुनि भारद्वाज आये। राजा ने बड़ा सत्कार किया, पाद्य, अर्घ्य उन्हें अर्पण करके उनके बैठने के लिए स्वयं अपने हाथ से आसन बिछाया और उनको बिठाकर बड़े विनीत भाव से उनको कहने लगा, "हे महात्मन! मेरे अहो भाग्य हैं, तथा मेरे करोड़ों जन्मों के पाप नाश हो गये जो यहां पर पधार कर आपने दर्शन दिये।" फिर राजा कहने लगा - "हे मुनिश्वर पहले जन्म में मैंने कौन-से पुण्य-कर्म किये जिससे मुझे यह राज्य व अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई?"
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यह सुनकर मुनि भारद्वाज कुछ विचार कर कहने लगे, “राजन, मुझको योग बल द्वारा तुम्हारे पूर्व जन्म के संचित कर्म मालूम हो गये। सो मैं तुमसे कहता हूं। राजा पूर्व जन्म में तुम शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे, हिंसा में सदैव रत, दुष्ट चरित्र, नास्तिक तथा पापी थे और पूर्व जन्म में भी यही स्त्री तुम्हारी पत्नी थी। यह बड़ी पतिव्रता और निरन्तर आपकी सेवा किया करती थी। तुम्हारे दुष्ट कर्मों से तुम्हारे सब बन्धुओं ने तुमको त्याग दिया तथा तुम्हारे पूर्वजों से साँचत किया हुआ धन भी सब तुमने जब नष्ट कर दिया, परन्तु इस क्षीण अवस्था में भी उस  पतिव्रता ने अपको नहीं त्यागा। इस पर तुम दु:खी होकर निर्जन वन में चले गये। एक समय उस निर्जन वन में एक अति भूखा-प्यासा ब्राह्मण,आ गया तब तुम्हारी स्त्री ने उसकी बड़ी सेवा की इस ब्राह्मण के संसर्ग से तुम्हारी बुद्धि में धर्म का संचार हो गया और नुमने उस ब्राह्मण से पूछा कि-हे ब्राह्मण, तुम इस घोर वन में कैसे आये? तब ब्राह्मण बोला-
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“मैं मार्ग भटक गया था और आपने मेरे प्राण बचाये, बताओ मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं?" तुम बोले-“महाराज मैं अति पापी और दुष्ट हूं, भाई- बन्धुओं से त्यागा जाकर इस वन में आ गया और नित्य ही जीवों को मारकर अपनी स्त्री सहित इस घोर वन में निर्वाह करता हूं। भगवन, मैं और कुछ नहीं चाहता केवल यह चाहता हूं कि आप कोई ऐसा उपाय बतायें, जिससे मुझ जैसे पापी का भी उद्धार हो जाए।" तब वह ब्राह्मण कहने लगा-"मैंने योग द्वारा तुम्हारे सब कार्य जान लिये हैं। पहले जन्म में तुम ब्राह्मण थे। भगवान के परम भक्त थे। परन्तु तुमने दशमी विधा, एकादशी का व्रत किया इसी कारण से तुम्हारी यह दशा हो गई। अब जब भी एकादशी आये तुम भक्तिपूर्वक एकादशी का व्रत करो तो तुम इस दुर्गति से मुक्त हो जाओगे। कुछ दिनों के पश्चात् मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी आई और तुमने अपनी स्त्री सहित इस व्रत को किया और उसी समय तुम देवदूतों सहित स्वर्ग को चले गये और बहुत समय तक स्वर्ग के सुखों को भोग कर उस राज्य तथा वैभव को प्राप्त हो गये, अत: हे राजन! तुम अपने इस भक्ति-भाव तथा एकादशी के व्रत के प्रभाव से शीघ्र ही भगवान सालैक्स मुक्ति को प्राप्त होकर सदैव ही सुख भोगोगे। जो लोग एकादशी के व्रतादि से विमुख रहते हैं, उनकी परलोक में भी गति नहीं होती, अत: कलियुग में मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी का व्रत अवश्य रखना चाहिये।
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=== धन व्रत ===
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यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का होता है। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिये। प्रातः ही व्रत रखने वाले भगवान की प्रतिमा को स्नान

Revision as of 20:09, 15 October 2021

कार्तिक मास की कथा सुनने मात्र से मनुष्य के सब पाप नष्ट होकर बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति हो जाती है। एक समय श्री नारायणजी ब्रह्मलोक में गये और सारे जगत के कर्ता श्री ब्रह्माजी को अति विनीत भाव से कहने लगे-"आप! सारे जगत के कर्ता और सर्वज्ञ हो, अत: आप धर्मोपदेश की कोई सुन्दर कथा कहिए, क्योंकि मैं भगवान का भक्त और आपका दास हूं तथा आप कार्तिक मास की कथा भी कहिए, क्योंकि मैंने सुना है कि कार्तिक मास भगवान को अति प्रिय है, और इस मास में किया हुआ व्रत नियमन पादन दिया हुआ अनन्त फल को प्राप्त होता है।" ब्राह्माजी कहने लगे-“हे पुत्र, तुमने अति सुन्दर प्रश्न किया है, क्योंकि कुरूक्षेत्र पुष्कर तथा तीर्थों का वास इतना फल नहीं देते हैं। जैसे कि कार्तिक मास का फल है।" प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर व्रत करने वाला शौच आदि से निवृत होकर, बारह अगुल अथवा सुगन्धित वृक्ष का दातुन करें। श्राद्ध के दिन, सूर्य-चन्द्रमा के ग्रहण के दिन. एकम अमावस्या नवमी, छठ, एकादशी तथा रविवार को दातुन नहीं करना चाहिए | स्नान करने वाला श्री गंगाजी, शिव, सूर्य विष्णु का ध्यान करके स्नान कर जल से बाहर आकर शुद्ध वस्त्र धारण करे। तिल आदि से देवता ऋषि और मनुष्य (फितर) का तर्पण करें। इस प्रकार सान तर्पण के पश्चात् चन्दन, फल और पुष्प आदि से भगवान को अर्घ्य देना चाहिए। ब्रह्माजी करने लगे- हे नारद! प्रती मनुष्य फिर भगवान के मन्दिर में जाकर जोडशोपचार विधि से भगवान का पूजन करे। मंजरी सहित तुलसी भगवान पर बढ़ाये। जो मनुष्य मंजरी सहित भगवान शालिग्राम का एक बूंद भी चरणामृत पान कर लेता है. वह बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो जाता है और जो कोई शालिग्राम को मूर्ति के आगे अपने पिटरों का वार करता है. उनके पितर को बैकुण्ठ लोक प्राप्त होता है। अक्षतों से भगवान विष्णु का पूजन, शंख के जल से शिव का पूजन बिल्व पत्र से सूर्य का पूजन, तुलसी से गणेशजो का, धतूरे के पुष्पों से विष्णु का, केतकी के पुष्पों से शिव की पूजा करनी चाहिए।

गंगा, यमुन और तुलसी का बराबर हैं। इन तीनों से ही यमपुरी के दर्शन नहीं होते। एक समय नारदजो ब्रह्माजी से कहने लगे- हे ब्राह्मण! कार्तिक मास का महत्या आप मुझसे विधिपूर्वक कहिए।" तब ब्रह्माजी कहने लगे-“हे पुत्र! मैं तुम्हें एक समय की बात है श्री सत्याभामाजी ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि भगवान! मैं पहले जन्म में कौन थी? मेरे पिता कौन थे, जिससे मैं आप त्रिलोकीनाथ की सबसे प्रिय अर्धाग्निी बनो? मेरे कहने मात्र से आपने स्वर्ग से कल्प वृक्ष मेरे आंगन में लगा दिया। इतनी बात सुनकर कृष्ण अति प्रेम से हाथ पकड़कर कल्पवृक्ष के नीचे ले गये और बड़े स्नेह से कहने लगे- हे सत्यभामे! आप मुझे सब पलियों में प्रिय है, अत: मैं आपसे गुप्त-अति गुप्त बात कहने में भी संकोच नहीं करूंगा।"

कार्तिक व्रत कथा

पहले सतयुग में मायापुरी में अत्रिकुल में वेद तथा शास्त्रों का पारगामी वेदशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह सूर्य का बड़ा भक्त था। वह नित्य ही अग्नि तथा अतिथि की सेवा करता हुआ सूर्य की आराधना किया करता था। उसके कोई पुत्र न था परन्तु बड़ी आयु में उसके एक कन्या हुई जिसका नाम गुणवती था। उसने अपनी कन्या का विवाह अपने शिष्य चन्द्र के साथ कर दिया। एक दिन वह ब्राह्मण हो मूर्छा खाकर भूमि पर गिर पड़ी। अपने जामात सहित लकड़ी लेने जंगल में गया। वन में वे दोनों एक राक्षस के हाथों मारे गये और वहां के क्षेत्र के प्रभाव से बैकुण्ठ को गये। गुणवता दुःख से ग्रस्त जब उसे चेतना आई तो उसने घर का सामान बेचकर उन दोनों की अंत्येष्टी क्रिया की और मेरी प्रिय एकादशी और कार्तिक का व्रत करने लगी। कार्तिक मास में जो प्रात:काल स्नान करता है; जागरण, दीपदान, भगवान के मन्दिर की सफाई, पूजन करता है वह मनुष्य जीवनमुक्त हो बैकुण्ठ को प्राप्त होता है। एक समय वह दुर्बल शरीर वाली, स्नान के निमित्त गंगाजी में प्रवेश करते ही उसकी सारी देह शीत के मारे कांपने लगी और वह शिथिल हो गयी। उसी समय हमारे तुलापार्षदों ने उसको विमान में बैठाकर बैकुण्ठ पहुंचा दिया। कार्तिक के व्रत के प्रभाव से तुम सत्यभामा होकर हमारी प्रिया बनीं। आजन्म तुलसी रोपने से तुम्हारे आंगन में कल्पवृक्ष है। तुमने कार्तिक में जो दीपदान किया, इसी से तुम्हारे घर में लक्ष्मी का वास है। अत: हे सत्यभामे! जो मनुष्य कार्तिक मास में व्रत करता है, वह तुम्हारी तरह हमको प्रिय है।

करवा चौथ की पूजा विधि

करवा चौथ के दिन अर्थात् कार्तिक मास की चतुर्थी के दिन लकड़ी का पाट-पूजकर उस पर जल का भरा लोटा रखें। बायना निकालने के लिए एक मिट्टी का करवा रखकर करवे में गेहूं व उसके ढक्कन में चीनी और नकद रुपये रखें। फिर उसे रोली से बांधकर गुड़-चावल से पूजा करें। पुन: 13 बार करवे का टोका करें, उसे सात बार पाट के चारों तरफ घुमावें तब भी हाथ में 13 दाने गेहूं के लेकर कहानी सुनें। कहानी सुनने के पश्चात् करवे पर हाथ फेरकर सासुजी के पांव छुएं। तदुपरान्त वह तेरह दाने गेहूं व लोटा यथा स्थान रख दें। रात होने पर चाँद देखकर चन्द्रमा को अर्घ्य दें। इस तरह करके प्रसाद खाकर व्रत रखने वाली स्त्री व्रत खोले। करवा चौथ करने वाली को चाहिए कि बहन और बेटी को भी व्रत की सामग्री भेजे। करवा चौथ कथा-एक साहूकार था जिसके सात पुत्र और एक पुत्री थो! सातों भाई व बहन एक साथ बैठकर भोजन करते। एक दिन कार्तिक चौथ का व्रत आया तो भाई बोला-"बहन आओ भोजन करें। बहन कहा कि आज चौथ का व्रत है। चाँद उगने पर खाऊंगी। भाइयों ने सोचा कि चाँद उगने तक बहन भूखी रहेगी। यह सोचकर एक भाई ने दीया जलाया दूसरे भाई ने छलनी लेकर उसे ढका और नकली चाँद दिखाकर बहन से कहने लगे-"चल, चाँद उग आया है, अर्घ्य दे ले।

" बहन अपनी भाभियों से बोली-"चलो अर्घ्य दे लें।" भाभियां बोलीं-"तुम्हारा चाँद उगा होगा। हमारा तो रात को उगेगा।" बहन ने अकेले ही अर्घ्य दे दिया और खाना खाने लगी। पहले ग्रास में बाल निकला, दूसरे में किकर, तीसरे में ससुराल से पति की बीमारी का संदेश आ गया। मां ने लड़की को विदा करते हुए कहा-"मार्ग में जो बड़ा मिले उसके पांव छूकर सुहाग का आशीष ले लेना। पल्ले में गांठ लगा लेना और उसे कुछ रुपये देना।" मार्ग में उसे जो भी मिला उसने यही आशीष दिया-“तुम सात भाइयों की बहन हो। तुम्हारे भाई सुखी रहें। तुम उनका सुख देखो।" किसी ने भी सुहाग का आशीष नहीं दिया। जब वह ससुराल पहुंची तो दरवाजे पर खड़ी ननद के पांव छुए और उसने आशीष दिया-"सुहागिन रहो, सपूती हो।" तो उसने पल्ले में गांठ बांधकर ननंद को सोने का सिक्का दिया। जब भीतर गयी. तो सास बोली-"तेरा पति धरती पर पड़ा है।" उसके पास जाकर उसकी सेवा करने लगी। सास दासी के हाथ बची-कुची रोटी भेज देती। इस तरह बीतते-बीतते मंगसिर की चौथ आई तो चौध माता बोली-“करवा ले, करवा ले, भाइयों को प्यारी करवा ले।" लेकिन जब उसे चौथ माता नहीं दिखीं तो वह बोली-“मां आपने ही मुझे उजाड़ा है आप ही मेरा उद्धार करोगी।" चौथ माता बोलीं-“पौष की चौथ आयेगी वही तुम्हारा उद्धार करेगी। तुम उससे सब कहना वह तुम्हारा सुहाग देगी। इसी प्रकार पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ और सावन, भादों की चौथ माता आकर यह कहकर चली गयी कि आगे आने वाली से लेना। असौज की चौथ आयी तो उसने बताया कि-कार्तिक की चौथ तुम पर नाराज है, उसी ने तुम्हारा सुहाग लिया है नहीं वापस कर सकती है, वह आये तो उसके पांव पकड़कर विनती करना।" यह कहकर वह भी चली गयी जब कार्तिक की चौथ माता आई तो वह क्रोध में बोलीं- भाइयों की प्यारी करवा ले, दिन में चाँद उगनी करवा ले, व्रत खंडन करने वाली करवा ले, भूखी करवा ले।" यह सुनकर चौथ माता को देखकर उसके पैर पकड़कर गिड़गिड़ाने लगी।

वह बोली-“हे चौथमाता! मेरा सुहाग आपके हाथ में है आप मुझे सुहागिन करें।" तब माता बोली-“पापिन, हत्यारी मेरे पांव पकड़कर क्यूं बैठ गयी।" तब बहन बोली-“हे मां! मुझसे भूल हो गयी। अब मुझे क्षमा कर दें, अब कोई भूल न होगी। तब माता ने खुश होकर आंखों से काजल, नाखूनों से मेहंदी एवं टीके से रोली लेकर छोटी अंगुली से उसके आदमी पर छींटा दिया। उसका आदमी उठकर बैठ गया। और बोला-"आज मैं बहुत सोया। वह बोली-"क्या सोया पूरे बारह महीने हो गये।" अत: इस प्रकार चौथ माता ने सुहाग लौटाया।" तब उसने कहा-“शीघ्रता से माता का उजमन करो।" जब चौथ की कहानी सुनी, करवा पूजन किया तो प्रसाद खाकर दोनों पति-पत्नी चौपड़ खेलने बैठ गये। नीचे से दासी आई, उसने सासुजी को जाकर बताया। तब से सम्पूर्ण गांवों में यह प्रसिद्ध होती गयी कि-"सब स्त्रियां चौथ का व्रत करें तो सुहाग अटल रहेगा।"और अनुसूइया से अपने अपने पतियों के विषय में पूछा। अनुसूइया ने पालने की ओर संकेत करके अपने-अपने स्वामियों को पहचानने को कहा। लक्ष्मी ने अत्यधिक चालाकी से विष्णुजी को पहचानना चाहा मगर जब पति समझकर उठाया तो भगवान शंकर निकले. इस पर उनका बड़ा उपहास हुआ। इस प्रकार तीनों देवियों है. इसलिए इन्हें बच्चों के रूप में ही रहना होगा। इस पर तीनों के अंग में एक के अनुनय विनय करने पर अनुसूइया ने कहा कि इन लोगों ने मेरा दूध पिया विशिष्ट अवतार हुआ। जिसके तीन सिर और छ: भुजाए थी। यही दत्तात्रेय ऋषि को उत्पत्ति को कथा है। अनुसूइया ने पुनः पति चरणोदक से तीनों देवताओं को पूर्ववत् कर दिया।

मोक्षदा एकादशी

यह व्रत मोक्षदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इसके करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व मोहित हुए अर्जुन को श्रीमदभागवत गीता का उपदेश दिया था। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण व गोता की पूजन आरती करके उसका पाठ करना चाहिये। इसी दिन महर्षि को पत्नी सती अनुसूइया से दत्तात्रेय उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने 24 गुण धारण कर लोगों को शिक्षा दी कि तुच्छ समझी जाने वाली छोटी-छोटी चीजों से भी ज्ञान प्राप्त करते रहना चाहिये और किसी भी प्राणी की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। यह उत्तमव्रत मार्गशीर्ष मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है। मोक्षदा एकादशी के दिन मिथ्या भाषण, चुगली व अन्य दुष्कर्मों का परित्याग करना चाहिये। भगवान दामोदार को धूप-दीप-नैवेद्य से पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मण को भोजन कराकर दानादि देने से इस व्रत का विशेष फल प्राप्त होता है। इस दिन कृष्ण भगवान का पूजन करके आरती करनी चाहिये।

व्रत कथा-

प्राचीन समय में कम्पिल्य नगर में बीरबाहु नाम वाला राजा था। वह राजा बड़ा धर्मात्मा, सत्यवादी और ब्राह्मण-भक्त सदैव ही भक्ति में लीन रहता था। वह राजा रण में विजयी, ऋषि में कुबेर के समान और पुत्रवान था, उस राजा की स्त्री का नाम कोनिमती धा। वह अति सुन्दर और पतिव्रता थी और वह राजा अपनी स्त्री के साथ प्रजा का पालन किया करता था। एक दिन उस राजा के घर महामुनि भारद्वाज आये। राजा ने बड़ा सत्कार किया, पाद्य, अर्घ्य उन्हें अर्पण करके उनके बैठने के लिए स्वयं अपने हाथ से आसन बिछाया और उनको बिठाकर बड़े विनीत भाव से उनको कहने लगा, "हे महात्मन! मेरे अहो भाग्य हैं, तथा मेरे करोड़ों जन्मों के पाप नाश हो गये जो यहां पर पधार कर आपने दर्शन दिये।" फिर राजा कहने लगा - "हे मुनिश्वर पहले जन्म में मैंने कौन-से पुण्य-कर्म किये जिससे मुझे यह राज्य व अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई?"

यह सुनकर मुनि भारद्वाज कुछ विचार कर कहने लगे, “राजन, मुझको योग बल द्वारा तुम्हारे पूर्व जन्म के संचित कर्म मालूम हो गये। सो मैं तुमसे कहता हूं। राजा पूर्व जन्म में तुम शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे, हिंसा में सदैव रत, दुष्ट चरित्र, नास्तिक तथा पापी थे और पूर्व जन्म में भी यही स्त्री तुम्हारी पत्नी थी। यह बड़ी पतिव्रता और निरन्तर आपकी सेवा किया करती थी। तुम्हारे दुष्ट कर्मों से तुम्हारे सब बन्धुओं ने तुमको त्याग दिया तथा तुम्हारे पूर्वजों से साँचत किया हुआ धन भी सब तुमने जब नष्ट कर दिया, परन्तु इस क्षीण अवस्था में भी उस पतिव्रता ने अपको नहीं त्यागा। इस पर तुम दु:खी होकर निर्जन वन में चले गये। एक समय उस निर्जन वन में एक अति भूखा-प्यासा ब्राह्मण,आ गया तब तुम्हारी स्त्री ने उसकी बड़ी सेवा की इस ब्राह्मण के संसर्ग से तुम्हारी बुद्धि में धर्म का संचार हो गया और नुमने उस ब्राह्मण से पूछा कि-हे ब्राह्मण, तुम इस घोर वन में कैसे आये? तब ब्राह्मण बोला-

“मैं मार्ग भटक गया था और आपने मेरे प्राण बचाये, बताओ मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं?" तुम बोले-“महाराज मैं अति पापी और दुष्ट हूं, भाई- बन्धुओं से त्यागा जाकर इस वन में आ गया और नित्य ही जीवों को मारकर अपनी स्त्री सहित इस घोर वन में निर्वाह करता हूं। भगवन, मैं और कुछ नहीं चाहता केवल यह चाहता हूं कि आप कोई ऐसा उपाय बतायें, जिससे मुझ जैसे पापी का भी उद्धार हो जाए।" तब वह ब्राह्मण कहने लगा-"मैंने योग द्वारा तुम्हारे सब कार्य जान लिये हैं। पहले जन्म में तुम ब्राह्मण थे। भगवान के परम भक्त थे। परन्तु तुमने दशमी विधा, एकादशी का व्रत किया इसी कारण से तुम्हारी यह दशा हो गई। अब जब भी एकादशी आये तुम भक्तिपूर्वक एकादशी का व्रत करो तो तुम इस दुर्गति से मुक्त हो जाओगे। कुछ दिनों के पश्चात् मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी आई और तुमने अपनी स्त्री सहित इस व्रत को किया और उसी समय तुम देवदूतों सहित स्वर्ग को चले गये और बहुत समय तक स्वर्ग के सुखों को भोग कर उस राज्य तथा वैभव को प्राप्त हो गये, अत: हे राजन! तुम अपने इस भक्ति-भाव तथा एकादशी के व्रत के प्रभाव से शीघ्र ही भगवान सालैक्स मुक्ति को प्राप्त होकर सदैव ही सुख भोगोगे। जो लोग एकादशी के व्रतादि से विमुख रहते हैं, उनकी परलोक में भी गति नहीं होती, अत: कलियुग में मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी का व्रत अवश्य रखना चाहिये।

धन व्रत

यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का होता है। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिये। प्रातः ही व्रत रखने वाले भगवान की प्रतिमा को स्नान