Karana in Panchanga (पंचांग में करण)

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पञ्चाङ्ग के पञ्चम अवयव के रूप में करण का समावेश होता है। ज्योतिष शास्त्र के द्वारा किसी कार्य विशेष हेतु अनुकूल समय निर्धारण में करणों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। श्राद्ध तथा धर्म शास्त्रीय अन्य निर्णयों में भी करण निर्णय के आधार बनते हैं। अतः करण ज्ञान ज्योतिष ज्ञान की समग्रता हेतु परम आवश्यक हैं। तिथि का आधा भाग करण होता है। करण दो प्रकार के होते हैं। एक स्थिर एवं द्वितीय चलायमान। स्थिर करणों की संख्या ४ तथा चलायमान करणों की संख्या ७ है। इस लेख का मुख्य उद्देश्य करण ज्ञान, करण का मान साधन एवं करण का महत्व प्रतिपादित किया गया है।

Introduction to Elements of a Panchanga - Karana. Courtesy: Prof. K. Ramasubramaniam and Shaale.com

परिचय

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में करणों के ज्ञान की परम्परा अत्यन्त प्राचीन एवं उपयोगी रही है। इसीलिये सूर्यसिद्धान्त आदि सिद्धान्त एवं ग्रहलाघव आदि सभी करण ग्रन्थों में पञ्चांग साधन के अन्तर्गत इनके ज्ञान की समुचित विवेचना प्राप्त होती है। शुभाशुभ काल निर्धारण में करणों का महत्वपूर्ण स्थान हैं इसीलिये आचार्यों ने इसे पञ्चांग के अन्तर्गत समाहित करते हुए सिद्धान्त ग्रन्थों में इनके साधन विधि तथा फलित एवं मुहूर्त ग्रन्थों में भी पूर्णता हेतु करणों का ज्ञान परम आवश्यक होता है। करण एक तिथि में दो संज्ञाओं से व्यवहृत होकर ३० घटी (१२ घंटे) के काल खण्ड को ही प्रभावित करता है क्योंकि एक करण का मान तिथ्यर्ध के तुल्य होता है, चूँकि एक चान्द्रमास में ३० तिथियाँ होती हैं अतः एक चान्द्रमास में ६० करण सिद्ध होते हैं।

भारतवर्ष में पंचांगों का प्रयोग भविष्यज्ञान तथा धर्मशास्त्र विषयक ज्ञान के लिये होता चला आ रहा है। जिसमें लुप्ततिथि में श्राद्ध का निर्णय करने में करण नियामक होता है। अतः करण का धार्मिक तथा अदृश्य महत्व है। श्राद्ध, होलिका दाह, यात्रा और अन्यान्य शुभ कर्मों एवं संस्कारों में करण नियन्त्रण ही शुभत्व को स्थिर करता है। तिथि चौबीस घण्टे की स्थिति को बतलाती है।

करण के भेद

कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध भाग में शकुनि तथा अमावस्या के प्रथमार्ध भाग में चतुष्पद, द्वितीयार्ध में नाग एवं शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथमार्ध में किंस्तुघ्न ये नियामक करण हैं। इनका स्थान निर्धारोत है और ये चान्द्रमास में एक बार ही आते हैं। चर या चल करण के रूप में सात करणों के सन्दर्भ तथा चार ध्रुव(स्थिर) करणों के सन्दर्भ में सूर्यसिद्धान्त में इस प्रकार उल्लेख प्राप्त होता है-

ध्रुवाणि शकुनिर्नागं तृतीयं तु चतुष्पदम्। किंस्तुघ्नं च चतुर्दश्यां कृष्णाया अपरार्धतः॥ बवादीनि तथा सप्त चराख्यकरणानि तु। मासेऽष्टकृत्वैकैकं करणानां प्रवर्तते। तिथ्यर्धभोगं सर्वेषां करणानां प्रचक्षते॥(सू०सि०)

वैसे तो चर एवं स्थिर सभी एकादश करणों की सर्वविध विवेचना ज्योतिष शास्त्र में प्राप्त होती है परन्तु इनमें विष्टि अर्थात् भद्रा नामक करण की स्थिति का विचार सर्वोत्कर्ष रूप में प्रतिष्ठित है तथा स्थिति वश इसका त्याग प्रत्येक शुभकार्यों में किया जाता है।

करणों के प्रकार

चर करण-

ववाह्वयं वालव कौलवाख्यं ततो भवेत्तैतिलनामधेयम् । गराभिधानं वणिजं च विष्टिरित्याहुरार्या करणानि सप्त॥(बृह०अव०)[1]

अर्थ- वव, वालव, कौलव, तैतिल, गर वणिज और विष्टि ये सात चर करण होते हैं।

स्थिर करण

कृष्णपक्ष चतुर्दश्याः शकुनिः पश्चिमे दले। नागश्चैव चतुष्पादस्त्वमावस्यादलद्वये॥शुक्लप्रतिपदायान्तु किंस्तुघ्नः प्रथमे दले। स्थिराण्येतानि चत्वारि करणानि जगुर्बुधा॥(बृह०अव०)[1]

अर्थ- कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्द्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्द्ध में नाग, उत्तरार्द्ध में चतुष्पद और शुक्ल प्रतिपदा के पूर्वार्द्ध में किंस्तुघ्न- ये ४ स्थिर करण हैं।

करण जानने का प्रकार

वर्तमानतिथेर्व्येकाद्विघ्नी सप्तावशेषकम् । तिथेः पूर्वार्द्धकरणं तत् सैकं स्यात्परे दले॥(बृह०अव०)[1]

एक तिथि में दो करण होते हैं वर्तमान तिथि में करण जानने के लिये वर्तमान तिथि को दूना कर एक घटाकर सात का भाग दें, शेष वर्तमान तिथि के पूर्वार्द्ध में ववादि करण होते हैं। शेष में एक जोड देने पर तिथि के उत्तरार्द्ध में करण होते हैं।

(करण ज्ञान सारिणी)
शुक्लपक्ष कृष्णपक्ष
क्र०सं० प्रथमार्ध उत्तरार्ध प्रथमार्ध उत्तरार्ध
किंस्तुघ्न वव बालव कौलव
बालव कौलव तैतिल गर
तैतिल गर वणिज विष्टि
वणिज विष्टि वव वालव
वव वालब कौलव तैतिल
कौलव तैतिल गर वणिज
गर वणिज विष्टि वव
विष्टि वव वालव कौलव
वालव कौलव तैतिल गर
१० तैतिल गर वणिज विष्टि
११ वणिज विष्टि वव वालव
१२ वव वालब कौलव तैतिल
१३ कौलव तैतिल गर वणिज
१४ गर वणिज विष्टि शकुनि
१५ विष्टि वव चतुष्पद नाग

करण स्वामी

अथर्वज्योतिष में करणों के देवता वैदिक युग से प्रभावित हैं। बाद के देवता मानव ज्योतिष द्वारा निर्धारित हैं। अथर्व ज्योतिष में करण स्वामी इस प्रकार हैं-

ववस्य देवता विष्णुर्वालवस्य प्रजापतिः। कौलवस्य भवेत् सोमस्तैतिलस्य शतक्रतुः॥

गराजिर्वसुदेवत्यो मणिभ्रदो थ वाणिजे। विष्टेस्तु दैवतं मृत्युर्देवता परिकीर्तिताः॥

शकुनस्य गरूत्मान्वै वृषभो वै चतुष्पदे। नागस्य देवता नागाः कौस्तुभस्य धनाधिपः॥(नार०सं०)[2]

अर्थ- वव के स्वामी इन्द्र, बालव के ब्रह्मा, कौलव के मित्र(सूर्य), तैतिल के अर्यमा, गर की अधिपति पृथ्वी, वणिज की अधिपति लक्ष्मी तथा विष्टि के स्वामी यम हैं। शकुनि के कलि, चतुष्पद के सांड(वृषभ), नाग के सर्प तथा किंस्तुघ्न के स्वामी वायु हैं।

करणों का प्रयोजन

प्रश्नशास्त्र, केरल, यात्रा तथा शुभाशुभ कार्य में शुभाशुभ समय निर्धारण तथा सूक्ष्म गणना में इसका प्रयोजन है। कर्मकाण्ड तथा धार्मिक अनुष्ठान भी इससे संबद्ध हैं।

करणों में विहित कर्म

कोई भी कालखण्ड या पञ्चांग का मुहूर्त निर्धारक तिथि-वार-नक्षत्र-योग-करण रूपी अवयव शुभ या अशुभ नहीं होता अपितु किसी कार्य स्थान एवं व्यक्ति विशेष से जुडकर उसकी अशुभता या शुभता निर्धारित होती है। इसके पूर्व पञ्चांग के अवयवों का जो शुभाशुभत्व वर्णित है। इसी क्रम में बवादि चर एवं शकुनि आदि स्थिर करणों में विहित शुभाशुभादि कर्म निम्नलिखित हैं-

वव- इसमें शुभकर्म, पशुकर्म, धान्यकर्म, स्थिर कर्म, पुष्टिकर्म, धातु संबन्धी कर्म करना चाहिये। प्रस्थान एवं प्रवेश संबंधी कर्म शुभ होते हैं।

बालव- इसमें धार्मिक कार्य, मांगलिक कार्य, उत्सव कार्य, वास्तुकर्म, राज्याभिषेक तथा संग्रामकार्य करना चाहिये। यज्ञ, उपनयन और विवाह करना शुभ होता है।

कौलव- इसमें हाथी, अश्व, ऊँट का संग्रह, हथियार, उद्यान, वृक्षारोपण कर्म करना चाहिये। बालव में प्रतिपादित कर्म भी कौलव में करना चाहिये।

तैतिल- इसमें सौभाग्यवर्धक कर्म, वेदाध्ययन, संधि-विग्रहकर्म, यात्रा, क्रय-विक्रय, तडाग-वापी-कूप खनन कर्म करना चाहिये। राजसेवकों के लिये शुभ है।

गर- इसमें कृषि कर्म, बीजवपन, गृहनिर्माण, कर्म करना चाहिये।

वणिज- इसमें स्थिरकार्य, व्यवसाय संबन्धी कर्म, योग-संयोग संबंधी कर्म करना चाहिये।

विष्टि- इस विष्टि(भद्रा) में शुभ कर्म न करके अशुभ कर्म करना चाहिये। जैसे- वध, बन्धन, घात, षट्कर्म, विषकर्म आदि।

शकुनि- इसमें औषधि कर्म, पुष्टि कर्म, मूलकर्म एवं मंत्रकर्म करना चाहिये।

चतुष्पद- इसमें गोक्रय-विक्रय, पितृकर्म तथा राज्यकर्म करना चाहिये।

नाग- इसमें स्थिरकर्म, कठिनकर्म, हरण एवं अवरोध संबंधी कर्म करना चाहिये।

किंस्तुघ्न- इसमें स्थिरकर्म, वृद्धिकर्म, पुष्टिकर्म, मांगलिककर्म तथा सिद्धि कर्म करना चाहिये।[2]

जन्मकालिक करणों के शुभाशुभफल

करणों का परिचय, साधन एवं महत्व जानने के उपरान्त इसी क्रम में करणों के शुभाशुभफल का विवेचन किया जा रहा है जो इस प्रकार है। सर्व प्रथम चर करणों के शुभाशुभत्व का प्रतिपादन हो रहा है जैसे-

बवकरणभवः स्याद्वालकृत्यः प्रतापी विनयचरितवेषो बालवे राजपूज्यः।गजतुरगसमेतः कौलवे चारूकर्मा मृदुपटुवचनः स्यात्तैतिले पुण्यशीलः॥

अर्थ- बव करण में उत्पन्न व्यक्ति बालकके समान आचरण करने वाला प्रतापी होता है। बालव करण में उत्पन्न जातक विनयी किन्तु राजपूज्य होता है, कौलव करण में जन्म हो तो जातक हाथी-घोडे से युक्त, सत्कार्यकर्ता होता है, तैतिल करण में जन्म हो तो जातक मृदु वाक्पटु और पुण्यात्मा होता है।

गरजकरणजातो वीतशत्रुः प्रतापी वणिजि निपुणवक्ता जारकान्ताविलोलः।निखिलजनविरोधी पापकर्मा पवादी परिजनपरिपूज्यो विष्टिजातः स्वतन्त्रः॥

अर्थ- गर करण में उत्पन्न जातक शत्रुहीन, प्रतापी होता है, वणिज करण में उत्पन्न व्यक्ति कुशल वक्ता, स्त्रियों के प्रति आकर्षित होता है, विष्टि करण में उत्पन्न व्यक्ति जनविरोधी, पापात्मा, अपवादी और स्वजन एवं परिजनों द्वारा पूजित होता है।

शकुनि करण में उत्पन्न व्यक्ति काल को जानने वाला, चिरसुखी, किन्तु दूसरों के विपत्ति का कारण होता है। चतुष्पद करण में उत्पन्न जातक सर्वज्ञ, सुन्दर बुद्धिवाला, यश और धन से सम्पन्न होता है। नाग करण में जन्म लेने वाला व्यक्ति तेजस्वी, अतिधनसम्पन्न, बलशाली और वाचाल होता है। किंस्तुघ्न करणोत्पन्न जातक दूसरों का कार्य करने वाला, चपल, बुद्धिमान् और हास्यप्रिय होता है।[3]

सन्दर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 पं०मदन गोपाल बाजपेयी, बृहदवकहडा चक्रम् ,सन् १९९८ वाराणसीः भारतीय विद्या प्रकाशन श्लो०९ (पृ०१़९)।
  2. 2.0 2.1 श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०२८)
  3. विनय कुमार पाण्डेय, कारण साधन, सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १६१)।