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| ज्योतिषशास्त्र और चिकित्साशास्त्र का सम्बन्ध प्राचीन कालसे रहा है। आयु एवं आयुर्ज्ञान संबन्धी आयुर्वेदशास्त्र अनादि है। आयुर्वेद का स्थल बहुत विस्तीर्ण है, जिसमें उसका ज्योतिष के साथ भी समावेश प्राप्त होता है। आयुर्वेद में औषधिके अतिरिक्त दैवव्यपाश्रय चिकित्साके अन्तर्गत मणि एवं मन्त्रों से चिकित्सा करने का विधान है। पूर्वकालमें एक सुयोग्य चिकित्सकके लिये ज्योतिष-विषयका ज्ञाता होना अनिवार्य था। इससे रोग-निदान में सरलता होती थी। ज्योतिष-शास्त्रके द्वारा रोगकी प्रकृति, रोगका प्रभाव-क्षेत्र, रोगका निदान और साथ ही रोगके प्रकट होनेकी अवधि तथा कारणोंका भलीभॉंति विश्लेषण किया जा सकता है। | | ज्योतिषशास्त्र और चिकित्साशास्त्र का सम्बन्ध प्राचीन कालसे रहा है। आयु एवं आयुर्ज्ञान संबन्धी आयुर्वेदशास्त्र अनादि है। आयुर्वेद का स्थल बहुत विस्तीर्ण है, जिसमें उसका ज्योतिष के साथ भी समावेश प्राप्त होता है। आयुर्वेद में औषधिके अतिरिक्त दैवव्यपाश्रय चिकित्साके अन्तर्गत मणि एवं मन्त्रों से चिकित्सा करने का विधान है। पूर्वकालमें एक सुयोग्य चिकित्सकके लिये ज्योतिष-विषयका ज्ञाता होना अनिवार्य था। इससे रोग-निदान में सरलता होती थी। ज्योतिष-शास्त्रके द्वारा रोगकी प्रकृति, रोगका प्रभाव-क्षेत्र, रोगका निदान और साथ ही रोगके प्रकट होनेकी अवधि तथा कारणोंका भलीभॉंति विश्लेषण किया जा सकता है। |
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| + | To read this article in English click [[Jyotisha And Ayurveda (ज्योतिषम् आयुर्वेदश्च)]] |
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| ==परिचय॥ Parichaya== | | ==परिचय॥ Parichaya== |
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| == आयुर्वेद में ज्योतिष की उपयोगिता == | | == आयुर्वेद में ज्योतिष की उपयोगिता == |
− | ज्योतिषशास्त्र चिकित्साशास्त्र का पूर्ण सहायक है। ज्योतिषशास्त्रके ज्ञान के विना औषधि निर्माण का समय सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। ज्योतिषशास्त्रमें औषधि निर्माण के लिये मुहूर्त का विधान किया गया है। शुभ मुहूर्तमें औषधिको छेदकर निर्माण करने से वह औषधि विशिष्ट ग्रहरश्मियों से प्रभावित होकर विशिष्ट गुण सम्पन्न हो जाती है। | + | ज्योतिषशास्त्र चिकित्साशास्त्र का पूर्ण सहायक है। ज्योतिषशास्त्रके ज्ञान के विना औषधि निर्माण का समय सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। ज्योतिषशास्त्रमें औषधि निर्माण के लिये मुहूर्त का विधान किया गया है। शुभ मुहूर्तमें औषधिको छेदकर निर्माण करने से वह औषधि विशिष्ट ग्रहरश्मियों से प्रभावित होकर विशिष्ट गुण सम्पन्न हो जाती है। मानव शरीर में रोग के कारण, रोग की मात्रा एवं रोग की काल अवधि जानने में भी ज्योतिषशास्त्र सहायक सिद्ध होता है।<blockquote>आतुरमुपक्रममाणेन भिषजायुरादावेव परीक्षितव्यम् ।( सु० सं० सूत्रस्थानम् ३५/३)</blockquote> |
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− | मानव शरीर में रोग के कारण, रोग की मात्रा एवं रोग की काल अवधि जानने में भी ज्योतिषशास्त्र सहायक सिद्ध होता है। | |
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− | आतुरमुपक्रममाणेन भिषजायुरादावेव परीक्षितव्यम् ।( सु० सं० सूत्रस्थानम् ३५/३) | |
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| भगवान् धन्वन्तरि ने [[Acharya Sushruta (आचार्य सुश्रुतः)|आचार्य सुश्रुत]] से कहा है कि-<blockquote>आयुः पूर्वं परीक्षेत् पश्चाल्लक्षणमादिशेत् । अनायुषां हि मनुष्याणां लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥(प्र० मा० ९/३)</blockquote>रोगी की चिकित्सा प्रारम्भ करनेसे पूर्व वैद्यको उसकी आयु परीक्षाकर लेनी चाहिये। यदि आयु शेष हो तो रोग, ऋतु(मौसम), वय, बल और औषधि का विचार कर चिकित्सा करनी चाहिये। | | भगवान् धन्वन्तरि ने [[Acharya Sushruta (आचार्य सुश्रुतः)|आचार्य सुश्रुत]] से कहा है कि-<blockquote>आयुः पूर्वं परीक्षेत् पश्चाल्लक्षणमादिशेत् । अनायुषां हि मनुष्याणां लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥(प्र० मा० ९/३)</blockquote>रोगी की चिकित्सा प्रारम्भ करनेसे पूर्व वैद्यको उसकी आयु परीक्षाकर लेनी चाहिये। यदि आयु शेष हो तो रोग, ऋतु(मौसम), वय, बल और औषधि का विचार कर चिकित्सा करनी चाहिये। |
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| ==रोगों का वर्गीकरण== | | ==रोगों का वर्गीकरण== |
− | ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में रोगों का गम्भीरता पूर्वक विचार करने से सर्वप्रथम उनके भेदों का विचार किया गया है, इस शास्त्र में रोगों को मुख्यतः दो प्रकार का माना गया है<ref>अर्चना शुक्ला, उदररोगमें ग्रहयोगकी समीक्षा वर्तमान सन्दर्भमें समालोचनात्मक अध्ययन, मेवाड विश्वविद्यालय, सन् २०२१, अध्य्याय०२, (पृ० ३८)</ref>- | + | स्वास्थ्य संबंधी विचार के कई योग ग्रह,राशि और भाव आदि के माध्यम ज्योतिष शास्त्र में बताये गये हैं। ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में रोगों का गम्भीरता पूर्वक विचार करने से सर्वप्रथम उनके भेदों का विचार किया गया है, प्रश्नमार्ग के अनुसार रोगों को मुख्यतः दो प्रकार का माना गया है<ref>अर्चना शुक्ला, उदररोगमें ग्रहयोगकी समीक्षा वर्तमान सन्दर्भमें समालोचनात्मक अध्ययन, मेवाड विश्वविद्यालय, सन् २०२१, अध्य्याय०२, (पृ० ३८)</ref>-<blockquote>सन्ति प्रकार भेदाश्च रोगभेदनिरूपणे। ते चाप्यत्र विलिख्यन्ते यथा शास्त्रान्तरोदिताः। |
− | #'''सहज-''' जन्मजात रोगों को सहज रोग कहते हैं। | + | रोगास्तु द्विविधा ज्ञेया निजागन्तुविभेदितः। निजाश्चागन्तुकाश्चापि प्रत्येकं द्विविधाः पुनः॥ |
− | #'''आगन्तुक-''' जन्म के बाद होने वाले रोगों को आगन्तुक रोग कहते हैं। | + | |
− | सहज रोगों के दो भेद होते हैं- शारीरिक एवं मानसिक।
| + | निजा शरीरचित्तोत्था दृष्टादृष्टनिमित्तजाः। तथैवागन्तुकाश्चैवं व्याधयः स्युश्चतुर्विधाः॥(प्रश्नमा० १२/१७-१९)<ref>आर० सुब्रह्मण्यम उपाध्याय, [https://archive.org/details/prasnamarga-035823mbp-1/page/n179/mode/1up?view=theater प्रश्नमार्ग पार्ट-१,] श्रीगीर्वाणवाणी पुस्तकशाला, अध्याय-१२, श्लोक- १७-१९, (पृ०१६७)।</ref></blockquote>अर्थात् रोगों का वर्गीकरण इस प्रकार है- शास्त्रान्तरों (आयुर्वेदीय ग्रन्थों जैसे- चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, काश्यप संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांगहृदय आदि) में निज तथा आगन्तुक भेद से रोग दो प्रकार के होते हैं, फिर इन दोनों में से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं। |
− | #'''शारीरिक-''' लंगडापन, कुबडापन, अन्धत्व, मूकत्व, बधिरत्व, नपुंसकत्व, हीनांग आदि कुछ शारीरिक रोग जन्मजात होते हैं। | + | #'''सहज रोग(निज रोग)''' - जन्मजात रोगों को सहज रोग कहते हैं। शारीरिक तथा मानसिक दो प्रकार के होते हैं। |
− | #'''मानसिक-''' जडता, उन्माद एवम पागलपन आदि कुछ मानसिक रोग भी जन्मजात होते हैं। इस प्रकार के समस्त रोगों को सहज रोग कहा गया है। | + | #'''आगन्तुक रोग''' - जन्म के बाद होने वाले रोगों को आगन्तुक रोग कहते हैं। ये भी दृष्टनिमित्तजन्य और अदृष्टनिमित्तजन्य भेद से दो प्रकार के होते हैं। |
| + | इन रोगों पर विस्तृत विचार हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं- |
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| + | सहजरोग (निज रोग)- सहजरोग उन्हैं कहते हैं जो जन्मजात ही होते हैं अर्थात् जन्म के साथ ही ये रोग शरीर में विद्यमान रहते हैं। ये जन्मजात रोग भी दो प्रकार के होते हैं- |
| + | #'''शारीरिक-''' जन्मजात शारीरिक रोगों में लंगडापन, कुबडापन, अन्धत्व, मूकत्व, बधिरत्व, नपुंसकत्व, हीनांग आदि कुछ शारीरिक रोग जन्मजात होते हैं। |
| + | #'''मानसिक-''' जन्मजात मानसिकरोग, जडता, उन्माद एवम पागलपन आदि कुछ मानसिक रोग भी जन्मजात होते हैं। इस प्रकार के समस्त रोगों को सहज रोग कहा गया है। |
| आगन्तुक रोग भी दो प्रकार के होते हैं- दृष्टिनिमित्तजन्य एवं अदृष्टिनिमित्तजन्य। | | आगन्तुक रोग भी दो प्रकार के होते हैं- दृष्टिनिमित्तजन्य एवं अदृष्टिनिमित्तजन्य। |
| #'''दृष्टिनिमित्तजन्य -''' शाप, अभिचार, घात, संसर्ग, महामारी एवं दुर्घटना आदि प्रत्यक्ष घटनाओं द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों को दृष्टिनिमित्तजन्य रोग कहते हैं। | | #'''दृष्टिनिमित्तजन्य -''' शाप, अभिचार, घात, संसर्ग, महामारी एवं दुर्घटना आदि प्रत्यक्ष घटनाओं द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों को दृष्टिनिमित्तजन्य रोग कहते हैं। |
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| ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए। | | ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए। |
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| + | == स्वास्थ्य विचार की ज्योतिषीय उपयोगिता == |
| + | स्वास्थ्य विचार के क्रम में ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता अत्यधिक है।<ref>कृष्ण कुमार भार्गव, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80804 स्वास्थ्य और ज्योतिष], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।</ref> |
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| == विचार-विमर्श॥ Discussion == | | == विचार-विमर्श॥ Discussion == |