Jyotisha (ज्योतिष)

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अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् । प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राऽक यत्र साक्षिणौ ॥

अभिप्राय यह है कि अन्य शास्त्रों का प्रत्यक्षीकरण सुलभ नहीं है, परन्तु ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है। इसकी प्रमाणिकता के एकमात्र साक्षी सूर्य और चन्द्र हैं। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसके लिए यह श्लोक प्रसिद्ध है—

सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम् । वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥

इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित।

गणितशास्त्र – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है। १. व्यक्त गणित और २. अव्यक्त गणित।

व्यक्त गणित में अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं। अव्यक्त गणित में मुख्यतः बीजगणित जिसे अंग्रेजी में अलज़ेबरा कहा जाता है। अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।[1]

फलित ज्योतिष- फलादेश कथन की विद्या का नाम फलित ज्योतिष है। शुभाशुभ फलोंको बताना ही इस शास्त्र का परम लक्ष्य रहा है। इसकी भी अनेक विधाएँ आज प्रचलित हैं। जैसे चिकित्सा शास्त्र का मूल आयुर्वेद है परन्तु आज होमोपैथ तथा एलोपैथ भी प्रचलित हैं और इन विधाओं के द्वार भी रोगमुक्ति मिलती है। उसी तरह फलित ज्योतिष की भी कई विधाएँ जिनके द्वारा शुभाशुभ फल कहे जा सकते हैं। ये विधाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं-

१. जातकशास्त्र, २. संहिताशास्त्र, ३. मुहूर्त्तशास्त्र ४. ताजिकशास्त्र, ५. रमलशास्त्र, ६. स्वरशास्त्र, ७. हस्तरेखा अथव अङ्गविद्याशास्त्र एवं ८. प्रश्नशास्त्र।

  1. जातकशास्त्र – मानव के आजन्म मृत्युपर्यन्त समग्र जीवन का भविष् ज्ञान प्रतिपादक फलित ज्योतिष का नाम जातक ज्योतिष है । वाराह नारचन्द्र, सिद्धसेन, ढुण्ढिराज, केशव, श्रीपति, श्रीधर आदि होरा ज्योतिष आचार्य हैं ।
  2. संहिता ज्योतिष - संहिता ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, राहु, बुध, गुरु शुक्र, शनि, केतु, सप्तर्षिचार, कूर्म नक्षत्र, ग्रहयुद्ध, ग्रहवर्ष, गर्भ लक्षण गर्भधारण, सन्ध्या लक्षण, भूकम्प, उल्का, परिवेश, इन्द्रायुध् रजोलक्षण, उत्पाताध्याय, अंगविद्या, वास्तुविद्या, वृक्षायुर्वेद, प्रसादलक्षण वज्रलेप (छत बनाने का मसाला), गो, महिष, कुत्ता, अज, हरि काकशकुन, श्वान, शृगाल, अश्व, हाथी प्रभृति जीवों की चेष्टाएं आदि भवि ज्ञान के साथ सुन्दर भोजन, निर्माण के विविध प्रकार (पाकशास्त्र) आ विषयों का जिस शास्त्र से ज्ञान किया जाता है वह फलित ज्योतिष का संहि ज्योतिष कहा गया है।
  3. मुहूर्त्तशास्त्र – मुहूर्त्त शास्त्र फलित ज्योतिष का वह अंग है जिस द्वारा जातक के कथित संस्कारों के मुहूर्त्त, नामकरण, भूमि उपवेशन, कटि बन्धन, अन्नप्राशन, मुण्डन, उपनयन, समावर्त्तन आदि संस्कारों के समय ज्ञान किया जाता है।
  4. ताजिकशास्त्र – मानव के आयु में प्रत्येक नवीन वर्ष प्रवेश का समय का ज्ञानकर तदनुसार कुण्डली द्वारा वर्ष पर्यन्त प्रत्येक दिन, मास का फल ज्ञान प्रतिपादन फलित ज्योतिष का ताजिकशास्त्र कहलाता है।
  5. रमलशास्त्र – इस शास्त्र के अन्तर्गत पाशा डालने की प्रक्रिया होती है । इसके द्वारा फल कथन की विधि का नाम रमलशास्त्र है।
  6. स्वरशास्त्र – स्वस्थ मनुष्य के स्वांस निःसरण के द्वारा दक्षिण या वाम स्वांस गति की जानकारी कर फलादेश किया जाता है । इसे फलितशास्त्र में स्वरशास्त्र नाम से कहा जाता है ।
  7. अंग विद्या – शरीर के अवयवों को देखकर जैसे ललाट, मस्तक, बाहु तथा वक्ष को देखकर फलादेश किया जाता है । साथ ही हाथ या पैर की रेखाएँ भी देख कर फलादेश कहने की विधि को अंग विद्या (पामेस्ट्री) के नाम से कहा जाता है।
  8. प्रश्नशास्त्र – आकस्मिक किसी समय की ग्रहस्थितिवश भविष्यफल ज्ञापक शास्त्र का नाम प्रश्न ज्योतिष है । इसका सम्बन्ध मनोविज्ञान से भी है । इसी का सहयोगी केरल ज्योतिष भी है।

इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है । इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है । ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है । अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है।

त्रिस्कन्ध ज्योतिष॥

ज्योतिष में त्रिदोष॥

ज्ञान का मूल स्रोत वेद है। वेदों की महिमा देश-देशान्तर में स्तुत्य है। वेद चार हैं तथा चार उपवेद भी हैं । हमारे संस्कृत वाङ्मय में चार वेदों का नाम सर्वविदित है । जो इस प्रकार हैं- १. ऋग्वेद, २. यजुर्वेद, ३. सामवेद, एवं ४. अथर्ववेद । इन वेदों के सरलीकरण के लिये वेदाङ्गों की रचना हुयी जिसे छह शास्त्र के नाम से व्यवहृत किया जाता है । ये षट्शास्त्र इस प्रकार हैं—शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष हैं । अब यहाँ त्रिदोष चर्चा में चिकित्सा शास्त्र का जनक आयुर्वेद है जिसे कुछ विद्वान् पञ्चमवेद भी कहते हैं। ''शरीरं व्याधि मन्दिरम्'' इस उक्ति के समाधान में आयुर्वेद शास्त्र की रचना हुई। आज चिकित्सा के कई रूप उपलब्ध हैं पर सभी का जन्मदाता आयुर्वेद ही है। आयुर्वेद, एलोपैथ तथा होम्योपैथ की चिकित्सा सम्पूर्ण देश में सर्वमान्य है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र में त्रिदोष का वर्णन सर्वत्र है, अर्थात् वात, पित्त और कफ जन्य ही रोग होते हैं। चिकित्साशास्त्र इन्हीं पर आधारित है । हमारे ज्योतिष शास्त्र में भी त्रिदोष की चर्चा है। ग्रह नक्षत्रों का शास्त्र ज्योतिष हैं । नवग्रहों की प्रधानता ज्योतिष शास्त्र में वर्णित है। ये सभी ग्रह त्रिदोष से सम्बन्धित हैं। इनमें से कोई वातज, कोई पित्तज तथा कोई कफज है। इस प्रकार मुख्य रूप से शनि, राहु, केतु वात व्याधि सूचक कहे गए हैं। सूर्य, मंगल, गुरु पित्तज हैं तथा शुक्र, चन्द्र कफज हैं। बुध को तटस्थ (न्यूट्रल) कहा गया है। इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है।

वातजन्य व्याधियॉं ॥

शनि, राहु, केतु के दुष्प्रभाव से वात जन्य व्याधियाँ होती हैं । यह पहले भी कहा जा चुका है । ये वात व्याधियाँ चिकित्सा शास्त्र के जनक आयुर्वेद शास्त्र के चरक संहिता में अस्सी प्रकार की बताई गई हैं । इन सभी के अनेक भेद तथा उपभेद भी हैं । जिसपर चिकित्साशास्त्र आधारित हैं । इसी प्रसंग में इन ८० प्रकार की वात व्याधियों का नाम चरक संहिता से संग्रहीत कर नीचे दिया जा रहा है-

१. नखभेद, २. व्यवाई, ३. पादशूल, ४. पाद भ्रंश, ५. पाद सुप्तता, ६. पाद खुड्डता, ७. गुल्मग्रह, ८. पिण्डिकोद्वेष्टन, ९. गृध्रसी, १०. जानुभेद, ११. जानुविश्लेष. १२. उरुस्तम्भ, १३. उरुसाद, १४. पाङ्गुल्य, १५. गुदभ्रंश, १६. गुदार्ति, १७. वृषणोत्क्षेप, १८. शेफस्तम्भ, १९. वक्षणान, २०. श्रोणिमेद, २१. विड्भेद, २२. उदावर्त, २३. खञ्जता, २४. कुब्जता, २५. वामनत्व, २६. तृक्ग्रह, २७ पुष्टग्रह, २८. पार्श्वावमर्द, २९. उदरावेष्ट, ३०. हृन्मोह, ३१. हृदद्रव, ३२. वक्षोघर्ष, ३३. वक्षोपरोध, ३४. वक्षस्तोद, ३५. वाडूशोष, ३६. ग्रवास्तम्भ, ३७. मन्यास्तम्भ, ३८. कण्ठोध्वंस, ३९ हनुभेद, ४०. ओष्ठभेद, ४१. अक्षिभेद, ४२. दन्तभेद, ४३. दन्तशैथिल्य, ४४. मूकत्व, ४५. वाक्संग, ४६. काषायस्यता, ४७. मुख शोष, ४८ अरसज्ञता, ४९. घ्राणनाश, ५०. कर्णमूल, ५१. ५२ उच्चैश्रुति, ५३. बहरापन, ५४. वर्त्मस्तम्भ, ५५. वर्त्मसंकोच, ५६. तिमिर, ५७. नेत्रशूल, ५८. अक्षिब्युदास, ५९. ब्रूव्युदास, ६०. शंखभेद, ६१ ललाटभेद, ६२. शिरःशूल, ६३. केशभूमिस्फुटन, ६४. आदिंत, ६५. एकाङ्गरोग, ६६. सर्वाङ्गरोग, ६७. आक्षेपक, ६८. दण्डक, ६९. तम, ७०. भ्रम, ७१. वैपयु, ७२. जम्भाई, ७३. हिचकी, ७४. विषाद, ७५. अतिप्रलाप, ७६. रुक्षता, ७७. परुषता, ७८. श्यावशरीर, ७९. लाल शरीर, ८०. अस्वप्न अनवस्थित । ये मुख्यतः वात जन्य व्याधियाँ हैं । शनि, राहु, तथा केतु ग्रह की दुर्बलता, अनिष्ट अरिष्ट सूचक होने पर उक्त व्याधियों का होना सुनिश्चित है ।

पित्तजन्य व्याधियॉं॥

पित्तजन्य ४० प्रकार की व्याधियाँ (रोग) होती हैं । हमारे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य, मंगल तथा गुरु के दुर्बल तथा अरिष्ट सूचक होने पर अघोलिखित व्याधियाँ (रोग) होती हैं, जिनकी नामावली अधोलिखित हैं-

१. ओष, २. प्लोष, ३. दाह, ४. दवधु, ५. धूमक, ६. अम्लक, ७. विदाह, ८. अन्तरदाह, ९. अंशदाह, १०. उष्माधिक्य, ११. अतिश्वेद, १२. अङ्गरान्ध, १३. अङ्कावदरण, १४. शोणितक्लेद, १५. मांस क्लेद, १६. त्वक्टाह, १७. त्वगवदरण, १८. चरमावदरण, १९. रक्तकोष्ठ, २०. रक्तविस्फोट, २१. रक्तपित्त, २२. रक्तमण्डल, २३. हरितत्त्व, २४. हारिद्रवत्व, २५. नीलिका, २६. कथ्या, २७. कामला, २८. तिक्तास्यता, २९. लोहितगन्धास्यता, ३०. अक्षिपाक, ३१. तृष्णाधिक्य, ३२. अतृप्ति, ३३. आस्यविपाक, ३४. गलपाक, ३५. अक्षिपाक, ३६. गुदपाक, ३७. मुडपाक और जीवादान, ३८. तमः प्रवेश, ३९. नेत्र शूल, ४०. अमलका हरा वर्ण या पीला वर्ण। गुरु, सूर्य तथा मंगल के कारण ये व्याधियाँ होती हैं। इसलिये इन ग्रहों के दायकाल में इनका निदान तथा समाधान आवश्यक है।

कफजन्य व्याधियॉं॥

कफ जन्य रोग चन्द्रमा और शुक्र के प्रभाव से होते हैं। चन्द्र और शुक्र दोनों ग्रहों की प्रकृति शीतल है। शीतव्याधि से २० प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जिसकी चर्चा चिकित्सा शास्त्र में महर्षि चरक ने चरक संहिता के २०वें अध्याय में वर्णित किया है। इन रोगों के भी उपरोग अनेकों हैं। जिसकी चर्चा आयुर्वेद शास्त्र में विस्तार पूर्वक की गयी है। ये व्याधियाँ प्रसंगतः अधोलिखित रूप से यहाँ दी जा रही हैं-

१. तृप्ति, २. तन्द्रा, ३. निद्राधिक्य, ४. स्तैमित्य, ५. गुरुगात्रता, ६. आलस्य, ७. मुखमाधुर्य, ८. मुखस्राव, ९. श्लेष्मोगिरण, १०. मलस्याधिक्य, ११. बलासक, १२. अपचन, १३. हृदयोपलेप, १४. कण्ठोपलेप, १५. धमनीप्रतिचय, १६. गलगण्ड, १७. अतिस्थौल्य, १८. शीताग्निता, १९. उदर्द, २०. श्वेतावगासता (मूत्र, नेत्र का श्वेत होना) ।

इन तथ्यों के आधार पर चिकित्साशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र का तादात्म्य सम्बन्ध है । इसीलिये चिकित्सा को ज्योतिष से जोड़कर कार्य किया जाय तो अधिकाधिक लाभ तथा नैरुज्यता प्रदान की जा सकती है । ग्रह और राशियाँ सभी त्रिदोष युक्त हैं । संस्कृत में लिङ्ग भेद प्रसंग में तीन लिङ्गों का वर्णन आया है । १. स्त्री लिङ्ग, २. पुलिङ्ग, ३. नपुंसक लिङ्ग। ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए।

  1. श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।