Line 1: |
Line 1: |
− | जीवन का भारतीय प्रतिमान – २
| + | {{One source|date=January 2019}} |
− | प्राक्कथन
| + | == प्राक्कथन == |
− | जीवनका प्रतिमान – भाग १ में हमने इस विषय के निम्न बिंदुओं को जाना है|
| + | [[Jeevan Ka Pratiman (जीवन का प्रतिमान)|जीवन का प्रतिमान–भाग १]] में हमने इस विषय के निम्न बिंदुओं को जाना है: |
− | १. जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और व्यवहार के अनुसार जीने की सुविधा के लिये निर्मित प्रकृति सुसंगत सामाजिक संगठन और व्यवस्था समूह मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
| + | # जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और व्यवहार के अनुसार जीने की सुविधा के लिये निर्मित प्रकृति सुसंगत सामाजिक संगठन और व्यवस्था समूह मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। |
− | २. यह व्यवस्था समूह उस समाज की जीवनदृष्टि के अनुसार जीने की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करे ऐसी अपेक्षा और प्रयास रहता है। बुध्दियुक्त व्यवस्था समूह और स्वयंभू
| + | # यह व्यवस्था समूह उस समाज की जीवनदृष्टि के अनुसार जीने की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करे ऐसी अपेक्षा और प्रयास रहता है। बुद्धियुक्त व्यवस्था समूह और स्वयंभू परिष्कार की व्यवस्थाने धार्मिक समाज को चिरंजीवी बनाया है। |
| + | # दो विपरीत जीवन दृष्टि वाले प्रतिमानों की व्यवस्थाएं एक साथ नहीं चल सकतीं। ऐसे प्रयास में जिस प्रतिमान के पीछे भौतिक शक्ति (जनशक्ति या शासन की) अधिक होगी वह दूसरे बुद्धियुक्त श्रेष्ठ प्रतिमान को भी धीरे धीरे नष्ट कर देता है। |
| + | # प्रतिमान की संगठन प्रणालियों और व्यवस्थाओं का पूरे समूह के रूप में ही स्वीकार या अस्वीकार हो सकता है। किसी एक प्रतिमान की एक |