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[[Jeevan Ka Pratiman (जीवन का प्रतिमान)|जीवन का प्रतिमान–भाग १]] में हमने इस विषय के निम्न बिंदुओं को जाना है:
 
[[Jeevan Ka Pratiman (जीवन का प्रतिमान)|जीवन का प्रतिमान–भाग १]] में हमने इस विषय के निम्न बिंदुओं को जाना है:
 
# जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और व्यवहार के अनुसार जीने की सुविधा के लिये निर्मित प्रकृति सुसंगत सामाजिक संगठन और व्यवस्था समूह मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
 
# जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और व्यवहार के अनुसार जीने की सुविधा के लिये निर्मित प्रकृति सुसंगत सामाजिक संगठन और व्यवस्था समूह मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है।
# यह व्यवस्था समूह उस समाज की जीवनदृष्टि के अनुसार जीने की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करे ऐसी अपेक्षा और प्रयास रहता है। बुध्दियुक्त व्यवस्था समूह और स्वयंभू परिष्कार की व्यवस्थाने धार्मिक  समाज को चिरंजीवी बनाया है।
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# यह व्यवस्था समूह उस समाज की जीवनदृष्टि के अनुसार जीने की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करे ऐसी अपेक्षा और प्रयास रहता है। बुद्धियुक्त व्यवस्था समूह और स्वयंभू परिष्कार की व्यवस्थाने धार्मिक  समाज को चिरंजीवी बनाया है।
# दो विपरीत जीवन दृष्टि वाले प्रतिमानों की व्यवस्थाएं एक साथ नहीं चल सकतीं। ऐसे प्रयास में जिस प्रतिमान के पीछे भौतिक शक्ति (जनशक्ति या शासन की) अधिक होगी वह दूसरे बुध्दियुक्त श्रेष्ठ प्रतिमान को भी धीरे धीरे नष्ट कर देता है।
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# दो विपरीत जीवन दृष्टि वाले प्रतिमानों की व्यवस्थाएं एक साथ नहीं चल सकतीं। ऐसे प्रयास में जिस प्रतिमान के पीछे भौतिक शक्ति (जनशक्ति या शासन की) अधिक होगी वह दूसरे बुद्धियुक्त श्रेष्ठ प्रतिमान को भी धीरे धीरे नष्ट कर देता है।
 
# प्रतिमान की संगठन प्रणालियों और व्यवस्थाओं का पूरे समूह के रूप में ही स्वीकार या अस्वीकार हो सकता है। किसी एक प्रतिमान की एक संगठन प्रणाली या एक व्यवस्था का किसी अलग जीवन दृष्टि वाले प्रतिमान में अस्तित्व सम्भव नहीं है।
 
# प्रतिमान की संगठन प्रणालियों और व्यवस्थाओं का पूरे समूह के रूप में ही स्वीकार या अस्वीकार हो सकता है। किसी एक प्रतिमान की एक संगठन प्रणाली या एक व्यवस्था का किसी अलग जीवन दृष्टि वाले प्रतिमान में अस्तित्व सम्भव नहीं है।
 
# हम वर्तमान में जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जी रहे हैं। धार्मिक  प्रतिमान क्षीण हुवा है। पूर्णत: नष्ट नहीं हुआ है।
 
# हम वर्तमान में जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जी रहे हैं। धार्मिक  प्रतिमान क्षीण हुवा है। पूर्णत: नष्ट नहीं हुआ है।
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# वर्तमान प्रतिमान ने मानव को पगढीला बना दिया है। संस्कृति का विकास स्थिर समाज में ही होता है। वर्तमान प्रतिमान ने समाज को संस्कृति से तोडकर दर बदर घूमने वाला घुमन्तु जीव बना दिया है। पगढीला समाज मात्र भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में और सुख के साधन जुटाने में ही पूरा समय खर्च कर देता है। पगढीलापन कौटुम्बिक भावना को, संस्कृति को नष्ट कर देता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान ने मानव को पगढीला बना दिया है। संस्कृति का विकास स्थिर समाज में ही होता है। वर्तमान प्रतिमान ने समाज को संस्कृति से तोडकर दर बदर घूमने वाला घुमन्तु जीव बना दिया है। पगढीला समाज मात्र भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में और सुख के साधन जुटाने में ही पूरा समय खर्च कर देता है। पगढीलापन कौटुम्बिक भावना को, संस्कृति को नष्ट कर देता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान ने हमारे लिये संपर्क भाषा की भी गंभीर समस्या निर्माण कर रखी है। अंग्रेजपूर्व भारत में अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, पुण्यार्जन आदि तक सीमित थे। नौकरी का तो चलन ही नहीं था। मनोरंजन के लिये अटन करनेवाले लोगोंं की संख्या नगण्य थी। संस्कृत भाषा के जानकारों के लिये तो संपर्क भाषा की समस्या लगभग थी ही नहीं। वर्तमान प्रतिमान में अधिक से अधिक पैसे के लिये सभी लोग नौकरी करते हैं। काम के स्वरूप का वर्ण (स्वभाव) से कोई सम्बन्ध  नहीं होता। इस लिये काम बोझ लगता है। मनोरंजन अनिवार्य हो जाता है। इस कारण अटन करने का प्रमाण बहुत अधिक हो गया है। अब करोडों की संख्या में लोग एक भाषिक प्रांत से निकलकर दूसरे भाषिक प्रान्त में नौकरी या उद्योग के लिए जाते हैं। अंग्रेजों की चलाई शिक्षा के कारण पैदा होने वाली गुलामी की मानसिकता इस समस्या को और बढावा देती है। इस प्रतिमान में भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी जैसी निकृष्ट भाषा श्रेष्ठ धार्मिक  भाषाओं को नष्ट कर रही है और नष्ट कर के रहेगी।
 
# वर्तमान प्रतिमान ने हमारे लिये संपर्क भाषा की भी गंभीर समस्या निर्माण कर रखी है। अंग्रेजपूर्व भारत में अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, पुण्यार्जन आदि तक सीमित थे। नौकरी का तो चलन ही नहीं था। मनोरंजन के लिये अटन करनेवाले लोगोंं की संख्या नगण्य थी। संस्कृत भाषा के जानकारों के लिये तो संपर्क भाषा की समस्या लगभग थी ही नहीं। वर्तमान प्रतिमान में अधिक से अधिक पैसे के लिये सभी लोग नौकरी करते हैं। काम के स्वरूप का वर्ण (स्वभाव) से कोई सम्बन्ध  नहीं होता। इस लिये काम बोझ लगता है। मनोरंजन अनिवार्य हो जाता है। इस कारण अटन करने का प्रमाण बहुत अधिक हो गया है। अब करोडों की संख्या में लोग एक भाषिक प्रांत से निकलकर दूसरे भाषिक प्रान्त में नौकरी या उद्योग के लिए जाते हैं। अंग्रेजों की चलाई शिक्षा के कारण पैदा होने वाली गुलामी की मानसिकता इस समस्या को और बढावा देती है। इस प्रतिमान में भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी जैसी निकृष्ट भाषा श्रेष्ठ धार्मिक  भाषाओं को नष्ट कर रही है और नष्ट कर के रहेगी।
# वर्तमान प्रतिमान में न्याय व्यवस्था में 'सत्य' की धार्मिक  प्रतिमान की व्याख्या 'यद्भूतहितं अत्यंत' नहीं चल सकती। इस प्रतिमान में सत्य की व्याख्या 'जो साक्ष और प्रमाणों से सामने आया है' ऐसी बन गई है। शासन की, गुंडों की, पैसे की और बुध्दिमत्ता की शक्तियाँ साक्ष और प्रमाणों को तोडने मरोडने की क्षमता रखतीं हैं। इसलिये वर्तमान प्रतिमान में सत्य और न्याय भी बलवानों के आश्रित बन जाते हैं।
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# वर्तमान प्रतिमान में न्याय व्यवस्था में 'सत्य' की धार्मिक  प्रतिमान की व्याख्या 'यद्भूतहितं अत्यंत' नहीं चल सकती। इस प्रतिमान में सत्य की व्याख्या 'जो साक्ष और प्रमाणों से सामने आया है' ऐसी बन गई है। शासन की, गुंडों की, पैसे की और बुद्धिमत्ता की शक्तियाँ साक्ष और प्रमाणों को तोडने मरोडने की क्षमता रखतीं हैं। इसलिये वर्तमान प्रतिमान में सत्य और न्याय भी बलवानों के आश्रित बन जाते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में शासन, वह किंग का हो या लोकतन्त्रात्मक हो, सर्वसत्ताधीश होता है। लेकिन यह सरकार सर्व सक्षम नहीं होती। सत्ता के विषय में कहा गया है - 'पॉवर करप्ट्स् एँड अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स् अब्सोल्यूटली' (power corrupts and absolute power corrupts absolutely) यानी सत्ता होती है तो आचार भ्रष्ट होता ही है और सत्ता यदि निरंकुश है तो भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रहती। धार्मिक  प्रतिमान में भौतिक सत्ता सदा धर्मसत्ता से नियमित होती है, इस लिये वह बिगडने की सम्भावनाएँ अत्यंत कम होती है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में शासन, वह किंग का हो या लोकतन्त्रात्मक हो, सर्वसत्ताधीश होता है। लेकिन यह सरकार सर्व सक्षम नहीं होती। सत्ता के विषय में कहा गया है - 'पॉवर करप्ट्स् एँड अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स् अब्सोल्यूटली' (power corrupts and absolute power corrupts absolutely) यानी सत्ता होती है तो आचार भ्रष्ट होता ही है और सत्ता यदि निरंकुश है तो भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रहती। धार्मिक  प्रतिमान में भौतिक सत्ता सदा धर्मसत्ता से नियमित होती है, इस लिये वह बिगडने की सम्भावनाएँ अत्यंत कम होती है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। धार्मिक  प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगोंं के मन जीतता है, लोगोंं के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक  लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।  
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। धार्मिक  प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगोंं के मन जीतता है, लोगोंं के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक  लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।  
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== चिरंजीवी धार्मिक  प्रतिमान की पुन: प्रतिष्ठा ==
 
== चिरंजीवी धार्मिक  प्रतिमान की पुन: प्रतिष्ठा ==
परिवर्तन जगत का नियम है। विश्व के हर घटक में हर क्षण परिवर्तन होता ही रहता है। इन में कुछ परिवर्तन प्राकृतिक होते हैं। यह परिवर्तन परमात्मा द्वारा किये होते हैं याने सृष्टि के नियमों के अनुसार होते हैं। और कुछ परिवर्तन मानव कृत होते हैं। मानव समाज के लिये यही बुध्दिमानी की बात है की वह जो परिवर्तन करता है वे परमात्मा कृत परिवर्तनों से सुसंगत रहें। कम से कम अविरोधी तो रहें। अर्थात् परमात्मा कृत परिवर्तनों का और प्रकृति का विरोध करने वाली कोई भी बात इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वर्जित होगी। धर्म से संबंधित कुछ धार्मिक  संकल्पनाओं को इस संदर्भ में समझना ठीक होगा:  
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परिवर्तन जगत का नियम है। विश्व के हर घटक में हर क्षण परिवर्तन होता ही रहता है। इन में कुछ परिवर्तन प्राकृतिक होते हैं। यह परिवर्तन परमात्मा द्वारा किये होते हैं याने सृष्टि के नियमों के अनुसार होते हैं। और कुछ परिवर्तन मानव कृत होते हैं। मानव समाज के लिये यही बुद्धिमानी की बात है की वह जो परिवर्तन करता है वे परमात्मा कृत परिवर्तनों से सुसंगत रहें। कम से कम अविरोधी तो रहें। अर्थात् परमात्मा कृत परिवर्तनों का और प्रकृति का विरोध करने वाली कोई भी बात इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वर्जित होगी। धर्म से संबंधित कुछ धार्मिक  संकल्पनाओं को इस संदर्भ में समझना ठीक होगा:  
 
# धारणात् धर्ममित्याहू धर्मो धारयते प्रजा:<ref>महाभारत, धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः</ref>  इस व्याख्या के अनुसार जिस से धारणा होती है उसे धर्म कहते हैं। समाज धर्म का अर्थ है, जिस से समाज की धारणा होती है। और समाज की धारणा का या समाज धर्म का अर्थ है समाज को यानी समाज के सभी घटकों को वह सब बातें करनी चाहिये जो उसे बनाए रखे, बलवान बनाए और बनाए रखे, निरोग बनाए और बनाए रखे, लचीला बनाए और बनाए रखे, तितिक्षावान बनाए और बनाए रखे। इस के विपरीत कुछ भी नहीं करे। पुत्रधर्म, गृहस्थ धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म आदि अलग अलग संदर्भों में इसे समझना होगा।  
 
# धारणात् धर्ममित्याहू धर्मो धारयते प्रजा:<ref>महाभारत, धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः</ref>  इस व्याख्या के अनुसार जिस से धारणा होती है उसे धर्म कहते हैं। समाज धर्म का अर्थ है, जिस से समाज की धारणा होती है। और समाज की धारणा का या समाज धर्म का अर्थ है समाज को यानी समाज के सभी घटकों को वह सब बातें करनी चाहिये जो उसे बनाए रखे, बलवान बनाए और बनाए रखे, निरोग बनाए और बनाए रखे, लचीला बनाए और बनाए रखे, तितिक्षावान बनाए और बनाए रखे। इस के विपरीत कुछ भी नहीं करे। पुत्रधर्म, गृहस्थ धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म आदि अलग अलग संदर्भों में इसे समझना होगा।  
 
# यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:<ref>वैशेषिक सूत्र 1.1.2 </ref> : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref>' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।  
 
# यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:<ref>वैशेषिक सूत्र 1.1.2 </ref> : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref>' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।  

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