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# दो विपरीत जीवन दृष्टि वाले प्रतिमानों की व्यवस्थाएं एक साथ नहीं चल सकतीं। ऐसे प्रयास में जिस प्रतिमान के पीछे भौतिक शक्ति (जनशक्ति या शासन की) अधिक होगी वह दूसरे बुध्दियुक्त श्रेष्ठ प्रतिमान को भी धीरे धीरे नष्ट कर देता है।
 
# दो विपरीत जीवन दृष्टि वाले प्रतिमानों की व्यवस्थाएं एक साथ नहीं चल सकतीं। ऐसे प्रयास में जिस प्रतिमान के पीछे भौतिक शक्ति (जनशक्ति या शासन की) अधिक होगी वह दूसरे बुध्दियुक्त श्रेष्ठ प्रतिमान को भी धीरे धीरे नष्ट कर देता है।
 
# प्रतिमान की संगठन प्रणालियों और व्यवस्थाओं का पूरे समूह के रूप में ही स्वीकार या अस्वीकार हो सकता है। किसी एक प्रतिमान की एक संगठन प्रणाली या एक व्यवस्था का किसी अलग जीवन दृष्टि वाले प्रतिमान में अस्तित्व सम्भव नहीं है।
 
# प्रतिमान की संगठन प्रणालियों और व्यवस्थाओं का पूरे समूह के रूप में ही स्वीकार या अस्वीकार हो सकता है। किसी एक प्रतिमान की एक संगठन प्रणाली या एक व्यवस्था का किसी अलग जीवन दृष्टि वाले प्रतिमान में अस्तित्व सम्भव नहीं है।
# हम वर्तमान में जीवन के अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान में जी रहे हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान क्षीण हुवा है। पूर्णत: नष्ट नहीं हुआ है।
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# हम वर्तमान में जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जी रहे हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान क्षीण हुवा है। पूर्णत: नष्ट नहीं हुआ है।
# अभारतीय प्रतिमान में 'शासन' और धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में 'धर्मसत्ता' सर्वोपरी होती है।
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# अधार्मिक प्रतिमान में 'शासन' और धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में 'धर्मसत्ता' सर्वोपरी होती है।
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== वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान के लक्षण ==
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== वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के लक्षण ==
अब हम जीवन के वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान और जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान के लक्षणों/परिणामों का  विभिन्न प्रकार के उदाहरणों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करेंगे:<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २२, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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अब हम जीवन के वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान और जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान के लक्षणों/परिणामों का  विभिन्न प्रकार के उदाहरणों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करेंगे:<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २२, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
# वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान ने धार्मिक (भारतीय) एकत्रित कुटुम्ब का ध्वंस कर दिया है। पहले उसे छोटा कुटुम्ब बनाया। फिर उसे फॅमिली याने ‘पति, पत्नि और उनके बच्चे’ तक सीमित कर दिया। अब उस से भी आगे स्वेच्छा-सहनिवास तक बढ गये हैं। यह तो मानव जाति को नष्ट करने की दिशा है।
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# वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान ने धार्मिक (भारतीय) एकत्रित कुटुम्ब का ध्वंस कर दिया है। पहले उसे छोटा कुटुम्ब बनाया। फिर उसे फॅमिली याने ‘पति, पत्नि और उनके बच्चे’ तक सीमित कर दिया। अब उस से भी आगे स्वेच्छा-सहनिवास तक बढ गये हैं। यह तो मानव जाति को नष्ट करने की दिशा है।
 
# वर्तमान प्रतिमान मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट कर समाज को विघटित कर देता है। व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना देता है। हिन्दुस्थान में अब तक २.५ - ३ लाख किसानों ने आत्महत्याएं कीं हैं। लेकिन कुछ सम्मान योग्य अपवाद छोडकर, बोल बच्चन के अलावा न तो व्यक्तिगत स्तरपर एकात्मता की भावना से और ना ही सामाजिक स्तरपर एकात्मता की दृष्टि से इस की ओर देखा जा रहा है। किसान भी आज समूचे समाज के लिये अन्न का उत्पादन करना मेरा जाति-धर्म है, ऐसा नहीं मानता। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में किसान ही क्या, किसी भी बाल, वृद्ध, विधवा, विकलांग और दुर्बल को भी आत्महत्या करने की नौबत नहीं आए ऐसी व्यवस्था होगी। अपवाद से यदि कोई आत्महत्या करता है तो व्यापक कुटुम्ब भावना के कारण पूरे समाज के लिये यह चिंता, चिन्तन और क्रियान्वयन का विषय बन जायेगा।
 
# वर्तमान प्रतिमान मनुष्य की सामाजिकता की भावना नष्ट कर समाज को विघटित कर देता है। व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना देता है। हिन्दुस्थान में अब तक २.५ - ३ लाख किसानों ने आत्महत्याएं कीं हैं। लेकिन कुछ सम्मान योग्य अपवाद छोडकर, बोल बच्चन के अलावा न तो व्यक्तिगत स्तरपर एकात्मता की भावना से और ना ही सामाजिक स्तरपर एकात्मता की दृष्टि से इस की ओर देखा जा रहा है। किसान भी आज समूचे समाज के लिये अन्न का उत्पादन करना मेरा जाति-धर्म है, ऐसा नहीं मानता। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में किसान ही क्या, किसी भी बाल, वृद्ध, विधवा, विकलांग और दुर्बल को भी आत्महत्या करने की नौबत नहीं आए ऐसी व्यवस्था होगी। अपवाद से यदि कोई आत्महत्या करता है तो व्यापक कुटुम्ब भावना के कारण पूरे समाज के लिये यह चिंता, चिन्तन और क्रियान्वयन का विषय बन जायेगा।
# वर्तमान प्रतिमान में बैल को हल में जोत कर खेती करने वाले किसान के लिये कोई स्थान नहीं है। यूरोप या अमरिका के किसी भी प्रगत देश में धार्मिक (भारतीय) पद्दति से खेती करने वाला किसान ही शेष नहीं है। १०० वर्ष पहले ऐसे किसान विपुल मात्रा में हुआ करते थे। २०० वर्ष पहले तो ऐसे ही सब किसान थे। इस अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान को बदलकर धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान लाये बिना किसानों को बचाने के प्रयास करना हारने के लिए लड़ाई लड़ने जैसा ही होगा।
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# वर्तमान प्रतिमान में बैल को हल में जोत कर खेती करने वाले किसान के लिये कोई स्थान नहीं है। यूरोप या अमरिका के किसी भी प्रगत देश में धार्मिक (भारतीय) पद्दति से खेती करने वाला किसान ही शेष नहीं है। १०० वर्ष पहले ऐसे किसान विपुल मात्रा में हुआ करते थे। २०० वर्ष पहले तो ऐसे ही सब किसान थे। इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान को बदलकर धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान लाये बिना किसानों को बचाने के प्रयास करना हारने के लिए लड़ाई लड़ने जैसा ही होगा।
# वर्तमान प्रतिमान में हर वस्तु बिकाऊ है। अंग्रेजपूर्व भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा बिकाऊ नहीं थे। लेकिन वर्तमान प्रतिमान ने उन्हें बिकाऊ बना दिया है। सत्य, प्रामाणिकता, ममता, शील, चारित्र्य जैसी मूल्य से परे जो बातें हैं या जो अनमोल हैं ऐसी बातों को हम विदेशियों की देखा देखी 'व्हॅल्यू’ या ‘मूल्य' कहने लगे हैं। 'जीवन मूल्य' या 'जीवन मूल्यों की शिक्षा' ये शब्द प्रयोग भी अधार्मिक (अभारतीय) ही है। किसी भी प्राचीन धार्मिक (भारतीय) साहित्य में मूल्य शब्द का श्रेष्ठ तत्व या सदाचार की दृष्टी से प्रयोग नहीं मिलता। जो मूल में है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में है उसे प्रकृति कहते हैं। क्या हम मूल्याधारित याने प्राकृतिक जीवन जीना चाहते हैं। हम तो सदैव ही उन्नत सांस्कृतिक जीवन जीने का प्रयास करते रहे हैं।
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# वर्तमान प्रतिमान में हर वस्तु बिकाऊ है। अंग्रेजपूर्व भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा बिकाऊ नहीं थे। लेकिन वर्तमान प्रतिमान ने उन्हें बिकाऊ बना दिया है। सत्य, प्रामाणिकता, ममता, शील, चारित्र्य जैसी मूल्य से परे जो बातें हैं या जो अनमोल हैं ऐसी बातों को हम विदेशियों की देखा देखी 'व्हॅल्यू’ या ‘मूल्य' कहने लगे हैं। 'जीवन मूल्य' या 'जीवन मूल्यों की शिक्षा' ये शब्द प्रयोग भी अधार्मिक (अधार्मिक) ही है। किसी भी प्राचीन धार्मिक (भारतीय) साहित्य में मूल्य शब्द का श्रेष्ठ तत्व या सदाचार की दृष्टी से प्रयोग नहीं मिलता। जो मूल में है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में है उसे प्रकृति कहते हैं। क्या हम मूल्याधारित याने प्राकृतिक जीवन जीना चाहते हैं। हम तो सदैव ही उन्नत सांस्कृतिक जीवन जीने का प्रयास करते रहे हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में बलवान का बोलबाला है। दुर्बल की कोई नहीं सुनता। कर्जा लेने के लिये आप बैंक में जाते हैं। जब आप २०० करोड का कर्जा माँगते हैं तब व्यवस्थापक आप से कहता है ' आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। मुझे बुला लेते।' आप को लगेगा जैसे आप व्यवस्थापक हैं और बैंक का व्यवस्थापक आप से कर्जा माँगने आया है। कई औपचारिकताओं की अनदेखी कर के भी कर्जा मिल जाता है। लेकिन आप जब केवल रू.२०.००० का कर्जा माँगने जाते हैं तो आप से इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप को लगने लग जाता है कि आपने कर्जा माँग कर कोई अपराध कर दिया है। अभी २००८ में यूरोप में असीम लोभी लोगों ने और वित्तीय संस्थानों ने जो वित्तीय घोटाले किये उन के कारण वहाँ की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त होने (मेल्ट डाऊन या पिघलन) की स्थिति में आ गयीं थीं। इस स्थिति से उबरने के लिये वहाँ की सरकारों ने उन लोभी वित्तीय संस्थानों को भारी मात्रा में आर्थिक मदद (सॅल्व्हेज पॅकेजेस salvage package) दी। मदद का यह पैसा वहाँ की मजबूर सामान्य जनता जिस का इस पिघलन के संदर्भ में कोई दोष नहीं था, उस के परिश्रम की कमाई और बचत किये पैसे से लिया गया था। न्याय व्यवस्था में भी बुद्धिबल, बाहुबल, सत्ताबल या धनबल का प्रयोग हम न्याय को प्रभावित करने लिए होता देखते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में बलवान का बोलबाला है। दुर्बल की कोई नहीं सुनता। कर्जा लेने के लिये आप बैंक में जाते हैं। जब आप २०० करोड का कर्जा माँगते हैं तब व्यवस्थापक आप से कहता है ' आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। मुझे बुला लेते।' आप को लगेगा जैसे आप व्यवस्थापक हैं और बैंक का व्यवस्थापक आप से कर्जा माँगने आया है। कई औपचारिकताओं की अनदेखी कर के भी कर्जा मिल जाता है। लेकिन आप जब केवल रू.२०.००० का कर्जा माँगने जाते हैं तो आप से इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप को लगने लग जाता है कि आपने कर्जा माँग कर कोई अपराध कर दिया है। अभी २००८ में यूरोप में असीम लोभी लोगों ने और वित्तीय संस्थानों ने जो वित्तीय घोटाले किये उन के कारण वहाँ की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त होने (मेल्ट डाऊन या पिघलन) की स्थिति में आ गयीं थीं। इस स्थिति से उबरने के लिये वहाँ की सरकारों ने उन लोभी वित्तीय संस्थानों को भारी मात्रा में आर्थिक मदद (सॅल्व्हेज पॅकेजेस salvage package) दी। मदद का यह पैसा वहाँ की मजबूर सामान्य जनता जिस का इस पिघलन के संदर्भ में कोई दोष नहीं था, उस के परिश्रम की कमाई और बचत किये पैसे से लिया गया था। न्याय व्यवस्था में भी बुद्धिबल, बाहुबल, सत्ताबल या धनबल का प्रयोग हम न्याय को प्रभावित करने लिए होता देखते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान मनुष्य के मन की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्तिवादी बना देता है। इस तरह से समाज का विघटन अलग अलग व्यक्तियों में हो जाने से समाज के हर व्यक्ति में असुरक्षा की भावना होती है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, सैनिक भी अपने संगठन बनाते हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में ऐसे संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। जातियों की पंचायतें थीं। उनका स्वरूप कुटुम्ब जैसा ही होता है। उनका काम वर्तमान संगठनों के काम से भिन्न होता है। वे जातिगत अनुशासन, जातिधर्म आदि के अनुपालन पर ध्यान देती थी।
 
# वर्तमान प्रतिमान मनुष्य के मन की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्तिवादी बना देता है। इस तरह से समाज का विघटन अलग अलग व्यक्तियों में हो जाने से समाज के हर व्यक्ति में असुरक्षा की भावना होती है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, सैनिक भी अपने संगठन बनाते हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में ऐसे संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। जातियों की पंचायतें थीं। उनका स्वरूप कुटुम्ब जैसा ही होता है। उनका काम वर्तमान संगठनों के काम से भिन्न होता है। वे जातिगत अनुशासन, जातिधर्म आदि के अनुपालन पर ध्यान देती थी।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अधिकारों के लिये संघर्ष अनिवार्य होता है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, यहाँ तो सैनिक भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठन बनाने लग गये हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में ऐसे अधिकारों के लिये लडने वाले संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में पहले तो संघर्ष नहीं होते और होते हैं तो वे कर्तव्य पालन (अन्यों के अधिकार) के लिये होते हैं। अपने अधिकारों के लिये नहीं। कर्तव्य पालन के लिए संघर्ष से प्रेम, सौहार्द, परस्पर विश्वास, सहानुभूति, कृतज्ञता आदि भाव बढ़ाते हैं। जो सुख और शान्ति को जन्म देते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अधिकारों के लिये संघर्ष अनिवार्य होता है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, यहाँ तो सैनिक भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठन बनाने लग गये हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में ऐसे अधिकारों के लिये लडने वाले संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में पहले तो संघर्ष नहीं होते और होते हैं तो वे कर्तव्य पालन (अन्यों के अधिकार) के लिये होते हैं। अपने अधिकारों के लिये नहीं। कर्तव्य पालन के लिए संघर्ष से प्रेम, सौहार्द, परस्पर विश्वास, सहानुभूति, कृतज्ञता आदि भाव बढ़ाते हैं। जो सुख और शान्ति को जन्म देते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में चार्वाक के तत्वज्ञान का बोलबाला हो गया है। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। कर्जा लेकर ऐश करना शिष्टाचार बन गया है। कर्जा लेनेवाला चाहता है कि पैसा अधिक से अधिक देरी से दे। इस के पीछे इहवादिता की सोच दिखाई देती है। कर्जे की राशि लौटाने से पहले ही यदि देने वाले की या लेने वाले की मृत्यु हो जाये तो कर्जा लौटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में तो पहले कर्जा लेना ही शर्म की बात माना गया है। कर्जा उतारने से पहले मर जाने से तो अगले जन्म में अधम गति प्राप्त होती है, ऐसी मान्यता है। इस लिये कर्जा ले भी लिया तो पहले सम्भव क्षण को यानी शीघ्रातिशीघ्र लौटाने का मानस होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में चार्वाक के तत्वज्ञान का बोलबाला हो गया है। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। कर्जा लेकर ऐश करना शिष्टाचार बन गया है। कर्जा लेनेवाला चाहता है कि पैसा अधिक से अधिक देरी से दे। इस के पीछे इहवादिता की सोच दिखाई देती है। कर्जे की राशि लौटाने से पहले ही यदि देने वाले की या लेने वाले की मृत्यु हो जाये तो कर्जा लौटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में तो पहले कर्जा लेना ही शर्म की बात माना गया है। कर्जा उतारने से पहले मर जाने से तो अगले जन्म में अधम गति प्राप्त होती है, ऐसी मान्यता है। इस लिये कर्जा ले भी लिया तो पहले सम्भव क्षण को यानी शीघ्रातिशीघ्र लौटाने का मानस होता है।
# वर्तमान प्रतिमान में सामान्यत: सभी सामाजिक सम्बन्ध करार होते हैं। काँट्रॅक्ट होते हैं। एग्रीमेंट होते हैं। समझौते होते हैं। विवाह भी करार ही होता है। करार में दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ के लिये साथ में आते हैं। स्वार्थ को ठेस पहुंचने पर करार तोड कर अलग हो जाते हैं। धार्मिक (भारतीय) विवाह जैसे अधार्मिक (अभारतीय) विवाह में हस्बण्ड और वाईफ यह दोनों मिलकर पूर्ण बनने वाले एक दूसरे के पूरक और पोषक ऐसे घटक नहीं होते। वे होते हैं एक दूसरे के ग्राहक और उपभोक्ता। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में सभी सामाजिक सम्बन्धों का आधार ' कुटुम्ब भावना ' होता है। धार्मिक (भारतीय) विवाह दो भिन्न व्यक्तित्वों का 'एक बनने' का संस्कार होता है। दोनों की एकात्मता का संस्कार होता है। राजा और प्रजा के सम्बन्धों में, प्रजा शब्द का तो अर्थ ही संतान होता है। इस लिये राजा या शासक का जनता से सम्बन्धों में पिता और सन्तान जैसा होता है। शिक्षा क्षेत्र में गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। एक ही व्यवसाय करने वाले लोग एक दूसरे के स्पर्धक नहीं होते। जाति-बांधव होते हैं। भाषण सुनने आये लोग 'माय डीयर लेडीज एँड जन्टलमेन’ नहीं होते। ‘मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। चन्द्रमा चंन्दामामा और चूहा चूहामामा होता है। धरती, नदी, गाय, तुलसी आदि माताएं होतीं हैं। वर्तमान प्रतिमान में कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लग गए हैं। लेकिन धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में बाजार भी कुटुम्ब भावना से चलते थे। आज भी बाजार में ‘क्यों काकाजी! सब्जी कैसी दी?’ ऐसा प्रश्न बहुत सामान्य बात है।
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# वर्तमान प्रतिमान में सामान्यत: सभी सामाजिक सम्बन्ध करार होते हैं। काँट्रॅक्ट होते हैं। एग्रीमेंट होते हैं। समझौते होते हैं। विवाह भी करार ही होता है। करार में दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ के लिये साथ में आते हैं। स्वार्थ को ठेस पहुंचने पर करार तोड कर अलग हो जाते हैं। धार्मिक (भारतीय) विवाह जैसे अधार्मिक (अधार्मिक) विवाह में हस्बण्ड और वाईफ यह दोनों मिलकर पूर्ण बनने वाले एक दूसरे के पूरक और पोषक ऐसे घटक नहीं होते। वे होते हैं एक दूसरे के ग्राहक और उपभोक्ता। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में सभी सामाजिक सम्बन्धों का आधार ' कुटुम्ब भावना ' होता है। धार्मिक (भारतीय) विवाह दो भिन्न व्यक्तित्वों का 'एक बनने' का संस्कार होता है। दोनों की एकात्मता का संस्कार होता है। राजा और प्रजा के सम्बन्धों में, प्रजा शब्द का तो अर्थ ही संतान होता है। इस लिये राजा या शासक का जनता से सम्बन्धों में पिता और सन्तान जैसा होता है। शिक्षा क्षेत्र में गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। एक ही व्यवसाय करने वाले लोग एक दूसरे के स्पर्धक नहीं होते। जाति-बांधव होते हैं। भाषण सुनने आये लोग 'माय डीयर लेडीज एँड जन्टलमेन’ नहीं होते। ‘मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। चन्द्रमा चंन्दामामा और चूहा चूहामामा होता है। धरती, नदी, गाय, तुलसी आदि माताएं होतीं हैं। वर्तमान प्रतिमान में कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लग गए हैं। लेकिन धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में बाजार भी कुटुम्ब भावना से चलते थे। आज भी बाजार में ‘क्यों काकाजी! सब्जी कैसी दी?’ ऐसा प्रश्न बहुत सामान्य बात है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में दुर्बल का शोषण होता है। बडा उद्योगपति छोटे उद्योगपति को चूसता है। और छोटा उद्योगपति उस से छोटे को। केवल पैसे वाले ही नहीं तो अवसर पाने पर दुर्बल भी मजबूरों का शोषण करते हैं। जब ऑटोरिक्षा बंद होते हैं, टांगेवाले अपनी दर बढ़ा कर लोगों की मजबूरी का लाभ लेते हैं। इस प्रतिमान में पति भी नौकरी करने वाली स्त्री का शोषण करता है। दोनों नौकरी से थक कर घर आते हैं। पुरूष तो आराम करता है। कितनी भी थकान हो, स्त्री को रसोई और बच्चों का काम करना पडता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में घरेलू सम्बन्ध, कौटुम्बिक बातें, संस्कार आदि से सम्बन्धित सभी बातों में गृहिणी प्रमुख होती है। गृहस्थ गृहिणी के कहे अनुसार व्यवहार करता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में दुर्बल का शोषण होता है। बडा उद्योगपति छोटे उद्योगपति को चूसता है। और छोटा उद्योगपति उस से छोटे को। केवल पैसे वाले ही नहीं तो अवसर पाने पर दुर्बल भी मजबूरों का शोषण करते हैं। जब ऑटोरिक्षा बंद होते हैं, टांगेवाले अपनी दर बढ़ा कर लोगों की मजबूरी का लाभ लेते हैं। इस प्रतिमान में पति भी नौकरी करने वाली स्त्री का शोषण करता है। दोनों नौकरी से थक कर घर आते हैं। पुरूष तो आराम करता है। कितनी भी थकान हो, स्त्री को रसोई और बच्चों का काम करना पडता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में घरेलू सम्बन्ध, कौटुम्बिक बातें, संस्कार आदि से सम्बन्धित सभी बातों में गृहिणी प्रमुख होती है। गृहस्थ गृहिणी के कहे अनुसार व्यवहार करता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मनुष्य का बस चले तो पूरे विश्व के संसाधन केवल मेरे अधिकार में रहें ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये मनुष्य ने प्रकृति के शोषण के लिये बडे बडे यंत्र निर्माण किये हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में अपनी आवश्यकताओं से अधिक प्रकृति से लेना पाप माना गया है। चोरी, डकैती माना गया है। प्रकृति को पवित्र माना जाता है, माता माना जाता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मनुष्य का बस चले तो पूरे विश्व के संसाधन केवल मेरे अधिकार में रहें ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये मनुष्य ने प्रकृति के शोषण के लिये बडे बडे यंत्र निर्माण किये हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में अपनी आवश्यकताओं से अधिक प्रकृति से लेना पाप माना गया है। चोरी, डकैती माना गया है। प्रकृति को पवित्र माना जाता है, माता माना जाता है।
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# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
# वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अधार्मिक (अभारतीय) सोच के लोगों के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जडवादी अधार्मिक (अभारतीय) सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।
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# वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के लोगों के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जडवादी अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
# वर्तमान प्रतिमान ने परिवारों की संस्कार क्षमता नष्ट कर दी है। बडी संख्या में स्त्रियाँ पैसे कमाने वाली (करियर वादी) बनना चाहती हैं। उन की प्राथमिकता अधिक से अधिक पैसा कमाना यह है। इस में गलत कुछ नहीं है। किन्तु इस कारण वह अब 'माता प्रथमो गुरू' में विश्वास नहीं रखतीं। अपने बच्चों पर अच्छे संस्कार कैसे किये जाते हैं इसे सीखने की उसे आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती और समय भी नहीं होता। यह ठीक नहीं है। अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान पुरूष सत्ताक या पुरूष प्रधान होने से स्त्रियाँ अपने को पुरूष की बराबरी या पुरुषों से श्रेष्ठ सिध्द करने के लिये तथा विवाह टूटने की स्थिति में आनेवाली असुरक्षितता की भावना के कारण, पुरूषों से अधिक पैसे कमाना अपरिहार्य मानतीं हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में स्त्री और पुरूष, अकेले अकेले दोनों अधूरे होते हैं। दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं। 'माता प्रथमो गुरू और पिता द्वितीय:’ में श्रध्दा रखते हैं। इस कारण बच्चे उन से भी श्रेष्ठ बनने की सम्भावनाएँ बनतीं हैं।
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# वर्तमान प्रतिमान ने परिवारों की संस्कार क्षमता नष्ट कर दी है। बडी संख्या में स्त्रियाँ पैसे कमाने वाली (करियर वादी) बनना चाहती हैं। उन की प्राथमिकता अधिक से अधिक पैसा कमाना यह है। इस में गलत कुछ नहीं है। किन्तु इस कारण वह अब 'माता प्रथमो गुरू' में विश्वास नहीं रखतीं। अपने बच्चों पर अच्छे संस्कार कैसे किये जाते हैं इसे सीखने की उसे आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती और समय भी नहीं होता। यह ठीक नहीं है। अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान पुरूष सत्ताक या पुरूष प्रधान होने से स्त्रियाँ अपने को पुरूष की बराबरी या पुरुषों से श्रेष्ठ सिध्द करने के लिये तथा विवाह टूटने की स्थिति में आनेवाली असुरक्षितता की भावना के कारण, पुरूषों से अधिक पैसे कमाना अपरिहार्य मानतीं हैं। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में स्त्री और पुरूष, अकेले अकेले दोनों अधूरे होते हैं। दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं। 'माता प्रथमो गुरू और पिता द्वितीय:’ में श्रध्दा रखते हैं। इस कारण बच्चे उन से भी श्रेष्ठ बनने की सम्भावनाएँ बनतीं हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में नौकरों की संख्या बहुत अधिक और मालिकों की संख्या अत्यल्प होती है। जीने का मूल उद्देष्य जो स्वतन्त्रता प्राप्ति है उसी का लोप होता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में नौकरों की संख्या अत्यल्प और मालिकों की संख्या अधिक होती है। इस कारण औसत समाज का व्यवहार भी आत्मविश्वासपूर्ण, जिम्मेदारी का, बडप्पन का होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में नौकरों की संख्या बहुत अधिक और मालिकों की संख्या अत्यल्प होती है। जीने का मूल उद्देष्य जो स्वतन्त्रता प्राप्ति है उसी का लोप होता है। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में नौकरों की संख्या अत्यल्प और मालिकों की संख्या अधिक होती है। इस कारण औसत समाज का व्यवहार भी आत्मविश्वासपूर्ण, जिम्मेदारी का, बडप्पन का होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में किसान नष्ट होता है और जनसंख्या के केन्द्रिकरण के कारण जो गोचर भूमि का अभाव निर्माण होता है उस के कारण धार्मिक (भारतीय) गाय को कोई स्थान नहीं है। एक स्थान पर बाँधी हुई धार्मिक (भारतीय) गाय और अपने मन के अनुसार मुक्त गोचर भूमि में चरने वाली गाय के दूध में महद् अन्तर पड जाता है। गोचर भूमि में चरने वाली धार्मिक (भारतीय) गाय यह गोमाता होती है। गोमाता यह अच्छी तरह समझती है की क्या चरना चाहिये और क्या नहीं। ऐसी गाय धार्मिक (भारतीय) होती है। भारत के बाहर गाय नहीं गाय जैसा दिखनेवाला एक प्राणी 'काऊ' होता है। काऊ की तरह धार्मिक (भारतीय) गोमाता के दूध में मानव के लिये अत्यंत हानिकारक बीसीएम् ७ रसायन नहीं होता।
 
# वर्तमान प्रतिमान में किसान नष्ट होता है और जनसंख्या के केन्द्रिकरण के कारण जो गोचर भूमि का अभाव निर्माण होता है उस के कारण धार्मिक (भारतीय) गाय को कोई स्थान नहीं है। एक स्थान पर बाँधी हुई धार्मिक (भारतीय) गाय और अपने मन के अनुसार मुक्त गोचर भूमि में चरने वाली गाय के दूध में महद् अन्तर पड जाता है। गोचर भूमि में चरने वाली धार्मिक (भारतीय) गाय यह गोमाता होती है। गोमाता यह अच्छी तरह समझती है की क्या चरना चाहिये और क्या नहीं। ऐसी गाय धार्मिक (भारतीय) होती है। भारत के बाहर गाय नहीं गाय जैसा दिखनेवाला एक प्राणी 'काऊ' होता है। काऊ की तरह धार्मिक (भारतीय) गोमाता के दूध में मानव के लिये अत्यंत हानिकारक बीसीएम् ७ रसायन नहीं होता।
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# वर्तमान प्रतिमान में बडे शहर अपराधों के बडे केन्द्र बन गये हैं। गाँवों से आकर इन में बसनेवाले लोगों के लिये ये शहर 'अपने' नहीं होते। इन लोगों का लगाव तो अपने मूल गाँवों से होता है। इस लिये ये शहर अच्छे बनें, साफ सूथरे रहें, महिलाओं के लिये भी सुरक्षित रहें इस की जिम्मेदारी इन की नहीं होती। इन में बेघर लोगों की संख्या अच्छी खासी होती है। सामान्यत: ऐसे बेघर लोगों में अपराधीकरण जल्दी फलता फूलता ही है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में बडे शहर अपराधों के बडे केन्द्र बन गये हैं। गाँवों से आकर इन में बसनेवाले लोगों के लिये ये शहर 'अपने' नहीं होते। इन लोगों का लगाव तो अपने मूल गाँवों से होता है। इस लिये ये शहर अच्छे बनें, साफ सूथरे रहें, महिलाओं के लिये भी सुरक्षित रहें इस की जिम्मेदारी इन की नहीं होती। इन में बेघर लोगों की संख्या अच्छी खासी होती है। सामान्यत: ऐसे बेघर लोगों में अपराधीकरण जल्दी फलता फूलता ही है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोग अधिक पैसे का संचय होने पर इस अतिरिक्त धन को और अधिक धन-प्राप्ति के मदों में लगाते हैं। होटल बनाते हैं, मॉल बनाते हैं, कंपनियों के हिस्से ( शेयर) खरीदते हैं। मुष्किल से ८/१० पीढी पहले धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में अतिरिक्त धन संचय होने पर उस से लोग धर्मशालाएं, अन्नछत्र, कुएँ बनवाना आदि लोकहित के काम करवाते थे।
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोग अधिक पैसे का संचय होने पर इस अतिरिक्त धन को और अधिक धन-प्राप्ति के मदों में लगाते हैं। होटल बनाते हैं, मॉल बनाते हैं, कंपनियों के हिस्से ( शेयर) खरीदते हैं। मुष्किल से ८/१० पीढी पहले धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में अतिरिक्त धन संचय होने पर उस से लोग धर्मशालाएं, अन्नछत्र, कुएँ बनवाना आदि लोकहित के काम करवाते थे।
# वर्तमान प्रतिमान में प्रकृति का प्रदूषण यह बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। लेकिन अधार्मिक (अभारतीय) सोच होने से हम भूमि, जल और वायु के प्रदूषण की ही बात करते रहते हैं। धार्मिक (भारतीय) दृष्टी से तो प्रकृति अष्टधा होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये तीन महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलकर प्रकृति बनती है। प्रदूषण का विचार इन आठों के सन्दर्भ में होने की आवश्यकता है। विशेषत: मन और बुद्धि का प्रदूषण ही वास्तव में समूची समस्या की जड़ में हैं। इन का प्रदूषण दूर करने से सभी प्रदूषण दूर हो जायंगे। इसके लिए वायू, पृथ्वि, अग्नि, वरूण आदि देवता हैं ऐसे संस्कार करने होंगे। इन के प्रदूषण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हमारे (तथाकथित सेक्युलर) अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान में ऐसा कहना असंवैधानिक माना जाएगा।
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# वर्तमान प्रतिमान में प्रकृति का प्रदूषण यह बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। लेकिन अधार्मिक (अधार्मिक) सोच होने से हम भूमि, जल और वायु के प्रदूषण की ही बात करते रहते हैं। धार्मिक (भारतीय) दृष्टी से तो प्रकृति अष्टधा होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये तीन महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलकर प्रकृति बनती है। प्रदूषण का विचार इन आठों के सन्दर्भ में होने की आवश्यकता है। विशेषत: मन और बुद्धि का प्रदूषण ही वास्तव में समूची समस्या की जड़ में हैं। इन का प्रदूषण दूर करने से सभी प्रदूषण दूर हो जायंगे। इसके लिए वायू, पृथ्वि, अग्नि, वरूण आदि देवता हैं ऐसे संस्कार करने होंगे। इन के प्रदूषण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हमारे (तथाकथित सेक्युलर) अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में ऐसा कहना असंवैधानिक माना जाएगा।
    
== वर्तमान प्रतिमान और धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में तात्विक अन्तर ( संक्षेप में) ==
 
== वर्तमान प्रतिमान और धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान में तात्विक अन्तर ( संक्षेप में) ==
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== परिवर्तन की प्रक्रिया ==
 
== परिवर्तन की प्रक्रिया ==
इस विषय के भाग १ में हमने धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अभारतीय) दोनों प्रतिमानों के विभिन्न पहलुओं और व्यवस्था समूह को समझने का प्रयास किया है। अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान को नकार कर धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया को समझने से पहले प्रतिमान के विभिन्न व्यवस्थाओं के परस्पर पूरक और पोषक संबंधों को समझना होगा। ऐसा करने से धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान के युगानुकूल स्वरूप को समझने में सहायता होगी। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान का चिरंजीवी हिस्सा कौन सा है और युगानुकूल हिस्सा कौनसा है? पूर्णत: नई  व्यवस्थाओं का निर्माण करना होगा या नष्टप्राय व्यवस्थाओं को पुन: संजीवनी देनी होगी? यह पुरानी व्यवस्थाओं और पूर्णत: नयी निर्माण की हुई व्यवस्थाओं का समायोजन ठीक से होगा या नहीं? समायोजन के लिये क्या करना होगा? आदि को समझना सरल होगा।   
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इस विषय के भाग १ में हमने धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) दोनों प्रतिमानों के विभिन्न पहलुओं और व्यवस्था समूह को समझने का प्रयास किया है। अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान को नकार कर धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया को समझने से पहले प्रतिमान के विभिन्न व्यवस्थाओं के परस्पर पूरक और पोषक संबंधों को समझना होगा। ऐसा करने से धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान के युगानुकूल स्वरूप को समझने में सहायता होगी। धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान का चिरंजीवी हिस्सा कौन सा है और युगानुकूल हिस्सा कौनसा है? पूर्णत: नई  व्यवस्थाओं का निर्माण करना होगा या नष्टप्राय व्यवस्थाओं को पुन: संजीवनी देनी होगी? यह पुरानी व्यवस्थाओं और पूर्णत: नयी निर्माण की हुई व्यवस्थाओं का समायोजन ठीक से होगा या नहीं? समायोजन के लिये क्या करना होगा? आदि को समझना सरल होगा।   
    
पूर्णत: नयी व्यवस्थाओं के निर्माण में सब से बडी कठिनाई यह है की इस की प्रस्तुति ध्यानावस्था प्राप्त या ऋषि स्तर का व्यक्ति ही कर सकता है। और ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसा कोई महामानव आज दिखाई नहीं देता। ऐसा कोई होगा भी तो हमारी उसे पहचानने की योग्यता भी नहीं है। इस कारण व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने से यही समझ में आएगा की कोई प्रकांड पंडित जब तक धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि और अनुकूल व्यवहार के लिये आवश्यक व्यवस्था समूह की रूपरेखा की प्रस्तुति नहीं करता तब तक तो पुरानी व्यवस्थाओं के दोषों को दूर कर उन्हें निर्दोष स्वरूप में फिर से अपनाना होगा। पुरानी व्यवस्थाएँ जस की तस तो फिर नहीं लाई जा सकतीं। किंतु तत्व वही रखकर उनके कालानुरूप स्वरूप का विचार और प्रतिष्ठापना की जा सकती है।  
 
पूर्णत: नयी व्यवस्थाओं के निर्माण में सब से बडी कठिनाई यह है की इस की प्रस्तुति ध्यानावस्था प्राप्त या ऋषि स्तर का व्यक्ति ही कर सकता है। और ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसा कोई महामानव आज दिखाई नहीं देता। ऐसा कोई होगा भी तो हमारी उसे पहचानने की योग्यता भी नहीं है। इस कारण व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने से यही समझ में आएगा की कोई प्रकांड पंडित जब तक धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि और अनुकूल व्यवहार के लिये आवश्यक व्यवस्था समूह की रूपरेखा की प्रस्तुति नहीं करता तब तक तो पुरानी व्यवस्थाओं के दोषों को दूर कर उन्हें निर्दोष स्वरूप में फिर से अपनाना होगा। पुरानी व्यवस्थाएँ जस की तस तो फिर नहीं लाई जा सकतीं। किंतु तत्व वही रखकर उनके कालानुरूप स्वरूप का विचार और प्रतिष्ठापना की जा सकती है।  
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आज कल धार्मिक (भारतीय) संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है।
 
आज कल धार्मिक (भारतीय) संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है।
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गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। शायद इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिन्दू इस के लिये तैयार है?
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गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। शायद इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिन्दू इस के लिये तैयार है?
    
==References==
 
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