Difference between revisions of "Interrelationship in Srishti (सृष्टि में परस्पर सम्बद्धता)"

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== प्रस्तावना ==
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हमने [[Jeevan Ka Pratiman (जीवन का प्रतिमान)|'जीवन का प्रतिमान’]] अध्याय में देखा है कि वर्तमान में हम एक अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जी रहे हैं। इसी को हम वैश्विक समझ रहे हैं। इस भ्रम का एक कारण यह भी है कि वास्तव में भी दुनिया के अधिकतम देशों ने इस प्रतिमान का स्वीकार किया है। दुनिया के अन्य देशों के लिए तो यह भौतिक प्रगति की दृष्टि से अनुकरणीय होना स्वाभाविक है। क्यों कि इससे अच्छा विकल्प उनके पास न था और न है। हमारी स्थिति ऐसी नहीं है। हमारे पास इस प्रतिमान से भी बहुत श्रेष्ठ विकल्प था। धार्मिक (धार्मिक) जीवन के प्रतिमान में केवल हम ही जीते थे ऐसा नहीं तो दुनिया हमारा स्वेच्छा से अनुसरण करती थी। समूचे विश्व के लोग धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की श्रेष्ठता जानकर ही यह अनुसरण करते थे।
  
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लेकिन वर्तमान में हम धार्मिक (धार्मिक) भी इस प्रतिमान के जीवन में इतने रंग गए हैं कि यही प्रतिमान हमें अपना लगने लग गया है। इसके बहुत लाभ हैं इसलिए नहीं। गत १०-११ पीढ़ियों से जिस शिक्षा का हमारे समाज में चलन रहा है उस के प्रभाव के कारण हम अन्य कोई विकल्प था या हो सकता है, इसको स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते। हमारी जीवनदृष्टि श्रेष्ठ थी यह माननेवाले लोग भी उस जीवन दृष्टि को व्यवहार में लाना असंभव है ऐसा ही मानते हैं। सामरिक दृष्टि से जो बलवान देश हैं वह भी ‘व्हाईट मैन्स बर्डन’ की मानसिकता के कारण अपने जैसा जीने के लिए अन्य देशों पर बल प्रयोग करते रहते हैं। जैसे यूरोपीय ढंग का लोकतंत्र उनकी दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था हो सकती है। क्यों कि इससे अधिक अच्छी शासन व्यवस्था यूरोप के इतिहास में कभी रही नहीं। लेकिन फिर भी भारत जैसे  देशपर भी जिसने इससे भी अत्यंत श्रेष्ठ ऐसी शासन व्यवस्थाएँ देखी हैं, चलाई हैं, विकसित की हैं, उस पर भी उन के जैसा लोकतंत्र स्थापित करने के लिए बल प्रयोग वे करते हैं।
  
अध्याय २५. विषयोंका अंगांगी संबंध
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इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान की आधारभूत जीवनदृष्टि में तीन बातें जड़ में हैं। व्यक्तिकेंद्रितता, इहवादिता और जडवादिता। व्यक्तिकेंद्रितता का व्यावहारिक स्वरूप स्वार्थ-केन्द्रितता है। इन बातों के कारण जीवन के विभिन्न विषयों की ओर देखने की दृष्टि यांत्रिक हो जाती है। विखंडित हो जाती है। जीवन को हम टुकड़ों में बाँटकर ही विचार करते हैं। इकोनोमिक्स का, सोशोलोजी का नैतिकता से सम्बन्ध नहीं है ऐसा सीखते सिखाते है। शुद्ध विज्ञान और प्रायोगिक या उपयोजित विज्ञान को याने तन्त्रज्ञान को दो अलग विषय मानते हैं। शुद्ध विज्ञान के विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारा काम तो तन्त्रज्ञान का प्रयोगसिद्ध सैद्धांतिक पक्ष उजागर करना है। उसका उपयोग लोग पुष्पहार के लिए करेट हैं या नरसंहार के लिए करेट हैं यह देखना हमारा काम नहीं है। वैज्ञानिकों ने रासायनिक उत्पादों के बनाने की ऐसी प्रक्रियाएँ विकसित की हैं जो साथ में प्रदूषण भी पैदा करती हों। उनका उपयोग करना या नहीं करना, करना हो तो कैसे करना यह लोगों के विचार करने की बातें मानी जातीं हैं। उससे वैज्ञानिकों का कोई लेना देना नहीं है। इस विचार प्रक्रिया ने ही विश्व को भीषण व्यापक प्रदूषण और विनाश की कगारपर लाकर खडा कर दिया है।
प्रस्तावना
 
हमने ‘जीवन का प्रतिमान’ विषय में देखा है कि वर्तमान में हम एक अभारतीय प्रतिमान में जी रहे हैं| इसी को हम वैश्विक समझ रहे हैं| इस भ्रम का एक कारण यह भी है कि वास्तव में भी दुनियाँ के अधिकतम देशों ने इस प्रतिमान का स्वीकार किया है| दुनिया के अन्य देशों के लिए तो यह भौतिक प्रगति की दृष्टी से अनुकरणीय होना स्वाभाविक है| क्यों कि इससे अच्छा विकल्प उनके पास न था और न है| हमारी स्थिति ऐसी नहीं है| हमारे पास इस प्रतिमान से भी बहुत श्रेष्ठ विकल्प था| भारतीय जीवन के प्रतिमान में केवल हम ही जीते थे ऐसा नहीं तो दुनियाँ हमारा स्वेच्छा से अनुसरण करती थी| समूचे विश्व के लोग भारतीय प्रतिमान की श्रेष्ठता जानकर ही यह अनुसरण करते थे|
 
लेकिन वर्तमान में हम भारतीय भी इस प्रतिमान के जीवन में इतने रंग गए हैं कि यही प्रतिमान हमें अपना लगने लग गया है| इसके बहुत लाभ हैं इसलिए नहीं| गत १०-११ पीढीयों से जिस शिक्षा का हमारे समाज में चलन रहा है उस के प्रभाव के कारण हम अन्य कोई विकल्प था या हो सकता है, इसको स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते| हमारी जीवनदृष्टी श्रेष्ठ थी यह माननेवाले लोग भी उस जीवन दृष्टी को व्यवहार में लाना असंभव है ऐसा ही मानते हैं| तीसपर सामरिक दृष्टी से जो बलवान देश हैं वह भी ‘व्हाईट मैन्स बर्डन’ की मानसिकता के कारण अपने जैसा जीने के लिए अन्य देशोंपर बलप्रयोग करते रहते हैं| जैसे यूरोपीय ढंग का लोकतंत्र उनकी दृष्टी से सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था हो सकती है| क्यों कि इससे अधिक अच्छी शासन व्यवस्था यूरोप के इतिहास में कभी रही नहीं| लेकिन फिर भी भारत जैसे  देशपर भी जिसने इससे भी अत्यंत श्रेष्ठ ऐसी शासन व्यवस्थाएँ देखी हैं, चलाई हैं, विकसित की हैं, उसपर भी उन के जैसा लोकतंत्र स्थापित करने के लिए बलप्रयोग वे करते हैं|
 
इस अभारतीय प्रतिमान की आधारभूत जीवनदृष्टी में तीन बातें जड़ में हैं| व्यक्तिकेंद्रितता, इहवादिता और जडवादिता| व्यक्तिकेंद्रितता का व्यावहारिक स्वरूप स्वार्थ-केन्द्रितता है| इन बातों के कारण जीवन के विभिन्न विषयों की ओर देखने की दृष्टि यांत्रिक हो जाती है| विखंडित हो जाती है| जीवन को हम टुकड़ों में बाँटकर ही विचार करते हैं| इकोनोमिक्स का, सोशोलोजी का नैतिकता से सम्बन्ध नहीं है ऐसा सीखते सिखाते है| शुद्ध विज्ञान और प्रायोगिक या उपयोजित विज्ञान को याने तन्त्रज्ञान को दो अलग विषय मानते हैं| शुद्ध विज्ञान के विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारा काम तो तन्त्रज्ञान का प्रयोगसिद्ध सैद्धांतिक पक्ष उजागर करना है| उसका उपयोग लोग पुष्पहार के लिए करेट हैं या नरसंहार के लिए करेट हैं यह देखना हमारा काम नहीं है| वैज्ञानिकों ने रासायनिक उत्पादों के बनाने की ऐसी प्रक्रियाएँ विकसित की हैं जो साथ में प्रदूषण भी पैदा करती हों| उनका उपयोग करना या नहीं करना, करना हो तो कैसे करना यह लोगों के विचार करने की बातें मानी जातीं हैं| उससे वैज्ञानिकों का कोई लेना देना नहीं है| इस विचार प्रक्रियाने ही विश्व को भीषण व्यापक प्रदूषण और विनाश की कगारपर लाकर खडा कर दिया है|
 
इस युरोपीय सोच में ‘मैं’ भिन्न हूँ| मैं दुनियाँ का हिस्सा नहीं हूँ और सारी दुनियाँ मेरे उपभोग के लिए है ऐसा माना गया है| इसका आधार शायद बायबल का कथन हो सकता है| पाँच दिन में गॉडने सृष्टी निर्माण की| छठे दिन मानव का निर्माण किया और उसे कहा यह पाँच दिन में निर्माण की हुई सृष्टी तुम्हारे उपभोग के लिए है| रेने देकार्ते और फ्रांसिस बेकन की परम्परा में विश्वास रखनेवाले यूरो-अमरीकी आधुनिक दार्शनिक भी इससे भिन्न सोच नहीं रखते| साईंस ने ईसाईयत की धज्जियां उड़ा दीं हैं, लेकिन उपभोग के विषय में उनकी सोच बायबल के कथन जैसी ही है| जीवन को टुकड़ों में समझने का और वैसा व्यवहार करने का शायद यही प्रारम्भ बिन्दु है|
 
लेकिन कुछ वर्तमान वैज्ञानिकों ने विज्ञान के प्रयोगों के माध्यम से ही सारी सृष्टी के अस्तित्वों में परस्पर सम्बद्धता, अखण्डता को खोजा है| डेव्हिड बोहम, बेल आदि की परिकल्पनाओं और उसकी अन्य वैज्ञानिकों ने की हुई पुष्टी ने यूरो अमरीकी विज्ञान विश्व में हलचल मचा रखी है| जीवन को एकात्मता और समग्रता में देखने की भारतीय जीवन दृष्टी की प्रतिष्ठापना के लिए यह एक सुअवसर है| सारी सृष्टी में अन्तर्निहित एकात्मता को समग्रता में समझना हो तो जीवन के विभिन्न पहलू, विषय, व्यवस्थाएँ, शास्त्र एक दूसरे के साथ कैसे अंगांगी संबंध से जुड़े हुए हैं यह समझना उपयुक्त होगा| सारी दुनियाँ इससे लाभान्वित होगी|
 
सृष्टी में प्रस्परावलंबन/परस्पर सम्बद्धता     
 
भारतीय जीवन दृष्टी के पीछे जो ‘कण कण में परमात्मा है’ यह विचार है| इस तत्वज्ञान को हम समझेंगे तो इन सभी में जो अंगांगी संबंध है उसे हम सहज ही देख और समझ पायेंगे| साथ में दिए चित्र के माध्यम से इसे हम समझेंगे|
 
कोषिका             
 
गुणसूत्र (जीन्स)      
 
शरीर के अंग प्राकृतिक प्रणालियाँ 
 
शरीर की प्रणालियाँ
 
व्यक्ति/शरीर
 
कुटुंब
 
समाज मानव निर्मित प्रणालियाँ
 
राष्ट्र/देश
 
विश्व/(पृथ्वी)
 
सूर्यमाला प्राकृतिक प्रणालियाँ
 
आकाशगंगा      
 
ब्रह्माण्ड
 
विश्व निर्माता
 
* साभार ‘दिलीप कुलकर्णी लिखित ‘जोपासना घटकत्वाची’, संतुलन प्रकाशन, कुडावले, दापोली, रत्नागिरी से
 
इस चित्र में हम देखते हैं कि तीन प्रकारकी प्रणालियाँ हैं| सबकी जड़ में ब्रह्माण्ड है| उससे नि;सृत पृथ्वीतक की एक प्राकृतिक प्रणाली है| इसके बाद बीच में वैश्विक समाज से लेकर व्यक्ति तक की एक मानव निर्मित प्रणाली है| आगे व्यक्ति के शरीर से लेकर कोषिका तक की फिर से एक प्राकृतिक प्रणाली है| इन तीनों प्रणालियों में जो जड़ में (नीचे) है वह ऊपर के घटक का अंगी है| और जो ऊपर है वह नीचेवाले का अंग है| उससे भी ऊपर जो घटक है वह अंग का भी अंग होने से उपांग है| जैसे ब्रह्माण्ड अंगी है और आकाशगंगा अंग है| सूर्यमाला आकाशगंगा का अंग है| आकाशगंगा सूर्यमाला की अंगी है| इस कारण सूर्यमाला ब्रह्माण्ड का उपांग है| जैसे व्यक्ति यह समाज का अंग है| समाज राष्ट्र का अंग है| इसलिए व्यक्ति यह राष्ट्र का उपांग है|
 
अंग और अंगी संबंध जब होते हैं तब अंगी को अधिक महत्त्व होता है| वैसे तो दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं| लेकिन अंगी अंग को अधिक प्रभावित करता है| इसलिए अंग से संबंधित कोई भी परिवर्तन अंगी के हित का विरोधी नहीं होना चाहिए| विशेष परिस्थिति में अंगी के हित के लिए अंग के हित से समझौता हो सकता है| जैसे जब मनुष्य के सिरपर चोट आने की सम्भावना मनुष्य देखता है तो सहज ही उसके हाथ सर की रक्षा के लिए आगे बढ जाते हैं| यहाँ शरीर यह अंगी है| और उसके सर, पैर, हाथ, पेट आदि भिन्न भिन्न अवयव अंग हैं| सिरपर चोट आने से भी शरीर की हानी होगी| इसी तरह हाथ को चोट आने से भी शरीर की हानी होगी| लेकिन सिरपर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानी और हाथपर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानी में हाथ की चोट से होनेवाली हानी कम है| इसलिए हाथ यह अंत:प्रेरणा से ही सिर की रक्षा के लिए आगे बढ़ते हैं| इसे ही अंगांगी संबंध कहते हैं|
 
इसी चित्र में अब व्यक्ति, कुटुम्ब और समाज में सम्बन्ध का अब विचार करेंगे| व्यक्तियों का समूह कुटुम्ब है| कुटुम्बों का समूह समाज है| व्यक्ति कुटुम्ब का अंग है| कुटुम्ब व्यक्ति का अंगी है| कुटुम्ब के हित में ही व्यक्ति का हित है| समाज के हित में ही प्रत्येक कुटुम्ब का हित है| जैसा हमने ऊपर देखा की सर, पैर, हाथ, पेट ये सब शरीर के अंग हैं, उसी तरह से ग्राम में रहनेवाले सभी कुटुम्ब ग्राम के अंग हैं| और ग्राम उन सब का अंगी है| किसी एक कुटुम्ब को थोड़ी हानि होने से यदि ग्राम की हानि को रोका जा सकता है तो उस कुटुम्ब ने ग्राम के अंग के रूप में इसे स्वीकार करना चाहिए| इसी में उस कुटुम्ब का भी और ग्राम का भी भला होता है| इसी तरह से बड़ी, जड़ की इकाई के हित में छोटी या ऊस बड़ीपर निर्भर इकाई का व्यवहार होना आवश्यक है| ऐसा होने से अंग और अंगी दोनों लाभान्वित होते हैं| इसलिए कहा है – त्यजेदेकम् कुलस्यार्थे ग्रामास्यार्थे कुलं त्यजेत् | ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ||
 
अर्थ : कुल के हित में व्यक्ति के हित को, ग्राम के हित में कुल के हित को, जनपद (जिला) के हित में ग्राम के हिता को और यदि आत्मा का हनन होता है तो पृथिवी का भी त्याग करना चाहिए याने जीवन को भी न्यौछावर कर देना चाहिए|
 
विज्ञान और शास्त्र
 
सामान्यत: लोग इन दो शब्दों का प्रयोग इन के भिन्न अर्थों को समझे बिना ही करते रहते हैं| किसी पदार्थ की बनावट याने रचना को समझना विज्ञान है| और इस विज्ञान से प्राप्त जानकारी के आधारपर उस पदार्थ का क्यों, कैसे, किस के लिए, किसने उपयोग करना चाहिए आदि समझना यह शास्त्र है| जैसे मानव शरीर की रचना को जानना शरीर विज्ञान है| लेकिन इस विज्ञान के आधारपर शरीर को स्वस्थ बनाये रखने की जानकारी को आरोग्य शास्त्र कहेंगे| विभिन्न प्रकारके मानव जाति के लिए उपयुक्त खाद्य पदार्थों की जानकारी को आहार विज्ञान कहेंगे| जब की व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार, मौसम के अनुसार क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, कब खाना चाहिए और कब नहीं खाना चाहिए, किसने कितना खाना चाहिए आदि की जानकारी आहारशास्त्र है| भारतीय दृष्टी से अर्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन होता है| इन इच्छाओं को और उनकी पूर्ति के प्रयासों तथा इस हेतु उपयोजित धन, साधन और संसाधनों की जानकारी को अर्थ विज्ञान कहेंगे| जब की इस जानकारी का उपयोग भिन्न स्वभाववाले मानव अपने जीवन को सार्थक बनाने में किस तरह और क्यों करें इन बातों को जानना अर्थशास्त्र कहलाएगा| परमात्मा के स्वरूप को समझने के लिए जो बताया या लिखा जाता है वह अध्यात्म विज्ञान है| और परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या करना चाहिए यह जानना अध्यात्म शास्त्र है| इसी अर्थ से श्रीमद्भगवद्गीता एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है| इस में ब्रह्मा की जानकारी और उसकी प्राप्ति ऐसा दोनों के बारे में बताया गया है| शास्त्र में सैद्धांतिक और व्यावहारिक ऐसे दोनों पक्षों का मार्गदर्शन होता है|
 
तन्त्रज्ञान यह शास्त्र का ही एक हिस्सा है| क्यों कि शास्त्र में विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत जानकारी के प्रत्यक्ष उपयोजन का विषय भी होता है| और प्रत्यक्ष उपयोजन की प्रक्रिया ही तन्त्रज्ञान  है| लेकिन इस के साथ ही उस विज्ञान का और तन्त्रज्ञान का उपयोग किसने करना चाहिये, किसने नहीं करना चाहिए, कब करना चाहिए कब नहीं करना चाहिए, किसलिए करना चाहिए और किस के लिए नहीं करना चाहिए इन सब बातों को जानना शास्त्र है|
 
अध्यात्म शास्त्र सब शास्त्रों का अंगी
 
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ श्लोक ४ और ५ में कहा गया है-
 
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च | अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा | अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् |  जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ||
 
अर्थ : पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पंचमहाभूत और मन बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बनीं यह अष्टधा प्रकृति मेरी ही बनाई हुई है| यह मेरी अपरा याने अचेतन प्रकृति है| इससे भिन्न जिसके द्वारा दुनियाँ की धारणा होती है उस मेरी जीवरूप परा को मेरी चेतन प्रकृति समझो|
 
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १५ श्लोक १५, १६ में आगे और कहा गया है-
 
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च  | क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते|| उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: | यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ||
 
अर्थ : दुनियाँ में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो प्रकारके पुरुष हैं| उनमें प्रकृति के सभी अस्तित्वों में (सर्वाणि भूतानि) क्षर याने नाशवान और जीवों के शरीर में नाशवान प्रकृति और अविनाशी जीवात्मा है| लेकिन परमात्मा जो तीनों लोकों की धारणा करता है वह तो इन से भिन्न उत्तम पुरुष है|
 
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता हमें सृष्टी के चेतन और अचेतन की जानकारी देती है| यह चेतन और अचेतन सब उसी एक आत्मतत्व से बना होने के कारण ही अध्यात्म विद्या को सभी विद्याओं से श्रेष्ठ कहा गया है| अध्यात्मविद्या विद्यानाम्| जिसे जान लेने के बाद अन्य कुछ भी जानने के लिए शेष नहीं रह जाता| इसलिए अध्यात्म शास्त्र यह सभी विषयों का अंगी है| जिस परमात्मा में से और परमात्मा की इच्छा और प्रयास से सारी सृष्टी बनी है उस परमात्मा को जानने से सृष्टी का ज्ञान तो हो ही जाता है| परमात्मा को जानने और प्राप्त करने का शास्त्र अध्यात्म शास्त्र है| जब की सृष्टी को और उसके साथ के व्यवहार की करणीयता और अकरणीयता को जानने का शास्त्र धर्मशास्त्र है| सृष्टीसंचालन की व्यवस्थाओं के नियमों को ही धर्म कहते हैं| इसलिए धर्म शास्त्र यह अध्यात्मशास्त्र का अंग है और अध्यात्मशास्त्र धर्मशास्त्र का अंगी है| मानव से संबंधित मानव की इच्छाओं की पूर्ति करनेवाला शास्त्र अर्थशास्त्र है इसलिए जहांतक मानव के व्यवहार का सम्बन्ध है मानवधर्मशास्त्र ही अर्थशास्त्र है| ये दोनों व्यापक धर्मशास्त्र के अंग हैं|
 
धर्मशास्त्र के दो हिस्से हैं| मानवधर्मशास्त्र और प्राकृतिक शास्त्र| मानव धर्मशास्त्र या अर्थशास्त्र और प्राकृतिक शास्त्र यह दोनों धर्मशास्त्र के अंग हैं| और धर्मशास्त्र इन दोनों का अंगी है| अंग और अंगी दोनों एकदूसरे को प्रभावित करते हैं और एक दूसरे से प्रभावित भी होते हैं| जब अंगी के एक अंग में कुछ परिवर्तन होता है तो उसका अपरोक्ष रूप में प्रभाव दूसरे अंगपर भी होता ही है| क्यों कि वह पहला अंग अंगी को प्रभावित करता है| पहले अंग में हुए परिवर्तन का अंगी में तो सीधा प्रभाव होता है| इसलिए अंगी में परिवर्तन होता है| जब अंगी में कुछ परिवर्तन होता है तब अंगी के दूसरे अंगपर भी प्रभाव होकर उसमें भी कुछ परिवर्तन होता है| इसका अर्थ है अंगी के माध्यम से उस अंगी के सभी अंगों को उस अंगी का प्रत्येक अंग प्रभावित करता है| इसी तरह हम नीचे की तालिका में देखेंगे कि किस प्रकार सभी शास्त्र एक दूसरे से अंगांगी संबंध से जुड़े हैं|
 
अध्यात्म शास्त्र
 
  
  धर्मशास्त्र
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इस यूरोपीय सोच में ‘मैं’ भिन्न हूँ। मैं दुनिया का हिस्सा नहीं हूँ और सारी दुनिया मेरे उपभोग के लिए है ऐसा माना गया है। इसका आधार शायद बायबल का कथन हो सकता है। पाँच दिन में गॉड ने सृष्टि निर्माण की। छठे दिन मानव का निर्माण किया और उसे कहा यह पाँच दिन में निर्माण की हुई सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए है। रेने देकार्ते और फ्रांसिस बेकन की परम्परा में विश्वास रखनेवाले यूरो-अमरीकी आधुनिक दार्शनिक भी इससे भिन्न सोच नहीं रखते। साईंस ने ईसाईयत की धज्जियां उड़ा दीं हैं, लेकिन उपभोग के विषय में उनकी सोच बायबल के कथन जैसी ही है। जीवन को टुकड़ों में समझने का और वैसा व्यवहार करने का शायद यही प्रारम्भ बिन्दु है।
  
            प्राकृतिक शास्त्र       मानव धर्मशास्त्र /समाजशास्त्र/ अर्थशास्त्र
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लेकिन कुछ वर्तमान वैज्ञानिकों ने विज्ञान के प्रयोगों के माध्यम से ही सारी सृष्टि के अस्तित्वों में परस्पर सम्बद्धता, अखण्डता को खोजा है। डेव्हिड बोहम, बेल आदि की परिकल्पनाओं और उसकी अन्य वैज्ञानिकों ने की हुई पुष्टि ने यूरो अमरीकी विज्ञान विश्व में हलचल मचा रखी है। जीवन को एकात्मता और समग्रता में देखने की धार्मिक (धार्मिक) जीवन दृष्टि की प्रतिष्ठापना के लिए यह एक सुअवसर है। सारी सृष्टि में अन्तर्निहित एकात्मता को समग्रता में समझना हो तो जीवन के विभिन्न पहलू, विषय, व्यवस्थाएँ, शास्त्र एक दूसरे के साथ कैसे अंगांगी संबंध से जुड़े हुए हैं यह समझना उपयुक्त होगा। सारी दुनिया इससे लाभान्वित होगी।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय २४, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
  
      वनस्पति शास्त्र    प्राणि शास्त्र    भौतिक शास्त्र संपत्ति/समृद्धि शास्त्र       सांस्कृतिक शास्त्र              
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== सृष्टि में प्रस्परावलंबन/परस्पर सम्बद्धता ==
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धार्मिक जीवन दृष्टि के पीछे जो ‘कण कण में परमात्मा है’ यह विचार है। इस तत्वज्ञान को हम समझेंगे तो इन सभी में जो अंगांगी संबंध है उसे हम सहज ही देख और समझ पायेंगे। नीचे दिए फ्लो चार्ट के माध्यम से इसे हम समझेंगे<ref>दिलीप कुलकर्णी, ‘जोपासना घटकत्वाची’, संतुलन प्रकाशन, कुडावले, दापोली, रत्नागिरी</ref>:
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{| class="wikitable"
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|'''कोषिका'''
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| rowspan="5" |प्राकृतिक प्रणालियाँ
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|गुणसूत्र (जीन्स)
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|शरीर के अंग
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|ब्रह्माण्ड
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| colspan="2" |विश्व निर्माता
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|}
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उपर्युक्त फ्लो चार्ट में हम देखते हैं कि तीन प्रकार की प्रणालियाँ हैं। सबकी जड़ में ब्रह्माण्ड है। उससे नि:सृत पृथ्वी तक की एक प्राकृतिक प्रणाली है। इसके बाद बीच में वैश्विक समाज से लेकर व्यक्ति तक की एक मानव निर्मित प्रणाली है। आगे व्यक्ति के शरीर से लेकर कोषिका तक की फिर से एक प्राकृतिक प्रणाली है। इन तीनों प्रणालियों में जो जड़ में (नीचे) है वह ऊपर के घटक का अंगी है। और जो ऊपर है वह नीचे वाले का अंग है। उससे भी ऊपर जो घटक है वह अंग का भी अंग होने से उपांग है। जैसे ब्रह्माण्ड अंगी है और आकाशगंगा अंग है। सूर्यमाला आकाशगंगा का अंग है। आकाशगंगा सूर्यमाला की अंगी है। इस कारण सूर्यमाला ब्रह्माण्ड का उपांग है। जैसे व्यक्ति यह समाज का अंग है। समाज राष्ट्र का अंग है। इसलिए व्यक्ति यह राष्ट्र का उपांग है।  अंग और अंगी संबंध जब होते हैं तब अंगी को अधिक महत्व होता है। वैसे तो दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। लेकिन अंगी अंग को अधिक प्रभावित करता है। इसलिए अंग से संबंधित कोई भी परिवर्तन अंगी के हित का विरोधी नहीं होना चाहिए। विशेष परिस्थिति में अंगी के हित के लिए अंग के हित से समझौता हो सकता है। जैसे जब मनुष्य के सिर पर चोट आने की सम्भावना मनुष्य देखता है तो सहज ही उसके हाथ सर की रक्षा के लिए आगे बढ जाते हैं। यहाँ शरीर यह अंगी है। और उसके सर, पैर, हाथ, पेट आदि भिन्न भिन्न अवयव अंग हैं। सिर पर चोट आने से भी शरीर की हानि होगी। इसी तरह हाथ को चोट आने से भी शरीर की हानि होगी। लेकिन सिर पर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानि और हाथ पर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानि में हाथ की चोट से होनेवाली हानि कम है। इसलिए हाथ यह अंत:प्रेरणा से ही सिर की रक्षा के लिए आगे बढ़ते हैं। इसे ही अंगांगी संबंध कहते हैं। 
  
उपर्युक्त शास्त्रों में जीवन से संबंधित सभी विषय आ जाते हैं| भौतिक शास्त्र में वर्तमान की लगभग सभी विज्ञान शाखाओं का समावेश हो जाता है| मनुष्य भी एक प्राणी होनेसे प्राणिक शास्त्र सभी प्राणियों को जैसे लागू होता है वैसे ही मनुष्य को भी लागू होता है| लेकिन मनुष्य पञ्चविध है| इसमें केवल दो ही स्तर प्राणिक हैं| मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये स्तर मानव को प्राणिक आवेगों से ऊपर उठाते हैं| इसलिए मानवधर्मशास्त्र एक अलग विषय बनता है| इसके अंतर्गत आनेवाले सांस्कृतिक और समृद्धिशास्त्र भी केवल मानव को लागू होते हैं|
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इसी चित्र में अब व्यक्ति, कुटुम्ब और समाज में सम्बन्ध का अब विचार करेंगे। व्यक्तियों का समूह कुटुम्ब है। कुटुम्बों का समूह समाज है। व्यक्ति कुटुम्ब का अंग है। कुटुम्ब व्यक्ति का अंगी है। कुटुम्ब के हित में ही व्यक्ति का हित है। समाज के हित में ही प्रत्येक कुटुम्ब का हित है। जैसा हमने ऊपर देखा की सर, पैर, हाथ, पेट ये सब शरीर के अंग हैं, उसी तरह से ग्राम में रहनेवाले सभी कुटुम्ब ग्राम के अंग हैं। और ग्राम उन सब का अंगी है। किसी एक कुटुम्ब को थोड़ी हानि होने से यदि ग्राम की हानि को रोका जा सकता है तो उस कुटुम्ब ने ग्राम के अंग के रूप में इसे स्वीकार करना चाहिए। इसी में उस कुटुम्ब का भी और ग्राम का भी भला होता है। इसी तरह से बड़ी, जड़ की इकाई के हित में छोटी या ऊस बड़ीपर निर्भर इकाई का व्यवहार होना आवश्यक है। ऐसा होने से अंग और अंगी दोनों लाभान्वित होते हैं।  इसलिए कहा है<ref>चाणक्यनीति तृतीय अध्याय</ref>:<blockquote>त्यजेदेकम् कुलस्यार्थे ग्रामास्यार्थे कुलं त्यजेत् ।</blockquote><blockquote>ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : कुल के हित में व्यक्ति के हित को, ग्राम के हित में कुल के हित को, जनपद (जिला) के हित में ग्राम के हिता को और यदि आत्मा का हनन होता है तो पृथिवी का भी त्याग करना चाहिए याने जीवन को भी न्यौछावर कर देना चाहिए। </blockquote>
संस्कृतिक शास्त्रों में समाजशास्त्र, मानसशास्त्र, मानव संस्कार शास्त्र, कुटुंबशास्त्र, गृहशास्त्र, उपभोग शास्त्र आदि विभिन्न मानविकी के विषय आते हैं| संपत्ति/समृद्धि शास्त्र में कला कारीगरी समेत निर्माण शास्त्र, व्यवस्थापन शास्त्र, विपणन शास्त्र, वितरणशास्त्र आदि विषय आते हैं| उपभोग का संबंध भौतिकशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, प्राणीशास्त्र, सांस्कृतिकशास्त्र और समृद्धिशास्त्र इन सभी शास्त्रों से है| इसलिए मानव के उपभोग का विचार करते समय व्यापक धर्मशास्त्र का आधार आवश्यक है| भौतिकशास्त्र का उपयोग करते समय मानव जाति, वनस्पति जगत और प्राणी जगत को हानी न हो इस ढंग से करना होगा | ऐसा नहीं करने से समस्याओं का निर्माण और वृद्धि अवश्यंभावी है| 
 
उपसंहार
 
सृष्टी में व्याप्त एकात्मता को और मानव जीवन को समग्रता में समझने के लिए विभिन्न विषयों का अंगांगी संबंध समझना आवश्यक है| हमारे अध्ययन, अध्यापन या उपयोजन के विषय का स्थान इस अंगांगी संबंधों की तालिका में कहाँ है इसे समझना जरूरी है| हमारा विषय अन्य विषयों में से किस का अंग है और किसका अंगी है इसे समझना यह हमारे हर विषय का प्रारंभ बिन्दु बनाना चाहिए| ऐसा  करते हुए आगे बढ़ने से सृष्टी के व्यवहारों में और मानव जीवन में सुसंगति बनी रहेगी| वर्तमान की सभी समस्याएँ सृष्टी के सभी अस्तित्वों में जो अन्गांगी सम्बन्ध है उसकी उपेक्षा करने के कारण ही है|
 
  
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
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== विज्ञान और शास्त्र ==
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सामान्यत: लोग इन दो शब्दों का प्रयोग इन के भिन्न अर्थों को समझे बिना ही करते रहते हैं। किसी पदार्थ की बनावट याने रचना को समझना विज्ञान है। और इस विज्ञान से प्राप्त जानकारी के आधार पर उस पदार्थ का क्यों, कैसे, किस के लिए, किसने उपयोग करना चाहिए आदि समझना यह शास्त्र है। जैसे मानव शरीर की रचना को जानना शरीर विज्ञान है। लेकिन इस विज्ञान के आधार पर शरीर को स्वस्थ बनाये रखने की जानकारी को आरोग्य शास्त्र कहेंगे। विभिन्न प्रकार के मानव जाति के लिए उपयुक्त खाद्य पदार्थों की जानकारी को आहार विज्ञान कहेंगे। जबकि व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार, मौसम के अनुसार क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, कब खाना चाहिए और कब नहीं खाना चाहिए, किसने कितना खाना चाहिए आदि की जानकारी आहारशास्त्र है। धार्मिक (धार्मिक) दृष्टि से अर्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन होता है। इन इच्छाओं को और उनकी पूर्ति के प्रयासों तथा इस हेतु उपयोजित धन, साधन और संसाधनों की जानकारी को अर्थ विज्ञान कहेंगे। जब की इस जानकारी का उपयोग भिन्न स्वभाव वाले मानव अपने जीवन को सार्थक बनाने में किस तरह और क्यों करें इन बातों को जानना अर्थशास्त्र कहलाएगा।
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परमात्मा के स्वरूप को समझने के लिए जो बताया या लिखा जाता है वह अध्यात्म विज्ञान है। और परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या करना चाहिए यह जानना अध्यात्म शास्त्र है। इसी अर्थ से श्रीमद्भगवद्गीता एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इस में ब्रह्मा की जानकारी और उसकी प्राप्ति ऐसा दोनों के बारे में बताया गया है। शास्त्र में सैद्धांतिक और व्यावहारिक ऐसे दोनों पक्षों का मार्गदर्शन होता है।
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तन्त्रज्ञान यह शास्त्र का ही एक हिस्सा है। क्यों कि शास्त्र में विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत जानकारी के प्रत्यक्ष उपयोजन का विषय भी होता है। और प्रत्यक्ष उपयोजन की प्रक्रिया ही तन्त्रज्ञान  है। लेकिन इस के साथ ही उस विज्ञान का और तन्त्रज्ञान का उपयोग किसने करना चाहिये, किसने नहीं करना चाहिए, कब करना चाहिए कब नहीं करना चाहिए, किसलिए करना चाहिए और किस के लिए नहीं करना चाहिए इन सब बातों को जानना शास्त्र है।
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== आध्यात्म शास्त्र सब शास्त्रों का अंगी ==
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श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7.4 व 7.5</ref>-<blockquote>भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।</blockquote><blockquote>अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पंचमहाभूत और मन बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बनीं यह अष्टधा प्रकृति मेरी ही बनाई हुई है। यह मेरी अपरा याने अचेतन प्रकृति है। इससे भिन्न जिसके द्वारा दुनिया की धारणा होती है उस मेरी जीवरूप परा को मेरी चेतन प्रकृति समझो।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में आगे और कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15.15 व 15.16</ref><blockquote>द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते।।</blockquote><blockquote>उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : दुनिया में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो प्रकारके पुरुष हैं। उनमें प्रकृति के सभी अस्तित्वों में (सर्वाणि भूतानि) क्षर याने नाशवान और जीवों के शरीर में नाशवान प्रकृति और अविनाशी जीवात्मा है। लेकिन परमात्मा जो तीनों लोकों की धारणा करता है वह तो इन से भिन्न उत्तम पुरुष है।</blockquote>इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता हमें सृष्टि के चेतन और अचेतन की जानकारी देती है। यह चेतन और अचेतन सब उसी एक आत्मतत्व से बना होने के कारण ही अध्यात्म विद्या को सभी विद्याओं से श्रेष्ठ कहा गया है। अध्यात्मविद्या विद्यानाम्। जिसे जान लेने के बाद अन्य कुछ भी जानने के लिए शेष नहीं रह जाता। इसलिए अध्यात्म शास्त्र यह सभी विषयों का अंगी है। जिस परमात्मा में से और परमात्मा की इच्छा और प्रयास से सारी सृष्टि बनी है उस परमात्मा को जानने से सृष्टि का ज्ञान तो हो ही जाता है। परमात्मा को जानने और प्राप्त करने का शास्त्र अध्यात्म शास्त्र है। जब की सृष्टि को और उसके साथ के व्यवहार की करणीयता और अकरणीयता को जानने का शास्त्र धर्मशास्त्र है। सृष्टिसंचालन की व्यवस्थाओं के नियमों को ही धर्म कहते हैं। इसलिए धर्म शास्त्र यह अध्यात्मशास्त्र का अंग है और अध्यात्मशास्त्र धर्मशास्त्र का अंगी है। मानव से संबंधित मानव की इच्छाओं की पूर्ति करनेवाला शास्त्र अर्थशास्त्र है इसलिए जहांतक मानव के व्यवहार का सम्बन्ध है मानवधर्मशास्त्र ही अर्थशास्त्र है। ये दोनों व्यापक धर्मशास्त्र के अंग हैं।
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धर्मशास्त्र के दो हिस्से हैं। मानवधर्मशास्त्र और प्राकृतिक शास्त्र। मानव धर्मशास्त्र या अर्थशास्त्र और प्राकृतिक शास्त्र यह दोनों धर्मशास्त्र के अंग हैं। और धर्मशास्त्र इन दोनों का अंगी है। अंग और अंगी दोनों एकदूसरे को प्रभावित करते हैं और एक दूसरे से प्रभावित भी होते हैं। जब अंगी के एक अंग में कुछ परिवर्तन होता है तो उसका अपरोक्ष रूप में प्रभाव दूसरे अंगपर भी होता ही है। क्यों कि वह पहला अंग अंगी को प्रभावित करता है। पहले अंग में हुए परिवर्तन का अंगी में तो सीधा प्रभाव होता है। इसलिए अंगी में परिवर्तन होता है। जब अंगी में कुछ परिवर्तन होता है तब अंगी के दूसरे अंगपर भी प्रभाव होकर उसमें भी कुछ परिवर्तन होता है। इसका अर्थ है अंगी के माध्यम से उस अंगी के सभी अंगों को उस अंगी का प्रत्येक अंग प्रभावित करता है। इसी तरह हम नीचे की तालिका में देखेंगे कि किस प्रकार सभी शास्त्र एक दूसरे से अंगांगी संबंध से जुड़े हैं:[[File:Part 2 Chapter 3 Table.jpg|center|thumb|720x720px]]
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उपर्युक्त शास्त्रों में जीवन से संबंधित सभी विषय आ जाते हैं। भौतिक शास्त्र में वर्तमान की लगभग सभी विज्ञान शाखाओं का समावेश हो जाता है। मनुष्य भी एक प्राणी होनेसे प्राणिक शास्त्र सभी प्राणियों को जैसे लागू होता है वैसे ही मनुष्य को भी लागू होता है। लेकिन मनुष्य पञ्चविध है। इसमें केवल दो ही स्तर प्राणिक हैं। मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये स्तर मानव को प्राणिक आवेगों से ऊपर उठाते हैं। इसलिए मानवधर्मशास्त्र एक अलग विषय बनता है। इसके अंतर्गत आनेवाले सांस्कृतिक और समृद्धिशास्त्र भी केवल मानव को लागू होते हैं।
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सांस्कृतिक शास्त्रों में समाजशास्त्र, मानसशास्त्र, मानव संस्कार शास्त्र, कुटुंबशास्त्र, गृहशास्त्र, उपभोग शास्त्र आदि विभिन्न मानविकी के विषय आते हैं। संपत्ति/समृद्धि शास्त्र में कला कारीगरी समेत निर्माण शास्त्र, व्यवस्थापन शास्त्र, विपणन शास्त्र, वितरणशास्त्र आदि विषय आते हैं। उपभोग का संबंध भौतिकशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, प्राणीशास्त्र, सांस्कृतिकशास्त्र और समृद्धिशास्त्र इन सभी शास्त्रों से है। इसलिए मानव के उपभोग का विचार करते समय व्यापक धर्मशास्त्र का आधार आवश्यक है। भौतिकशास्त्र का उपयोग करते समय मानव जाति, वनस्पति जगत और प्राणी जगत को हानि न हो इस ढंग से करना होगा । ऐसा नहीं करने से समस्याओं का निर्माण और वृद्धि अवश्यंभावी है।
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== उपसंहार ==
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सृष्टि में व्याप्त एकात्मता को और मानव जीवन को समग्रता में समझने के लिए विभिन्न विषयों का अंगांगी संबंध समझना आवश्यक है। हमारे अध्ययन, अध्यापन या उपयोजन के विषय का स्थान इस अंगांगी संबंधों की तालिका में कहाँ है इसे समझना जरूरी है। हमारा विषय अन्य विषयों में से किस का अंग है और किसका अंगी है इसे समझना यह हमारे हर विषय का प्रारंभ बिन्दु बनाना चाहिए। ऐसा  करते हुए आगे बढ़ने से सृष्टि के व्यवहारों में और मानव जीवन में सुसंगति बनी रहेगी। वर्तमान की सभी समस्याएँ सृष्टि के सभी अस्तित्वों में जो अन्गांगी सम्बन्ध है उसकी उपेक्षा करने के कारण ही है।
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==References==
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<references />अन्य स्रोत:
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग २)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]

Revision as of 11:50, 24 June 2020

प्रस्तावना

हमने 'जीवन का प्रतिमान’ अध्याय में देखा है कि वर्तमान में हम एक अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में जी रहे हैं। इसी को हम वैश्विक समझ रहे हैं। इस भ्रम का एक कारण यह भी है कि वास्तव में भी दुनिया के अधिकतम देशों ने इस प्रतिमान का स्वीकार किया है। दुनिया के अन्य देशों के लिए तो यह भौतिक प्रगति की दृष्टि से अनुकरणीय होना स्वाभाविक है। क्यों कि इससे अच्छा विकल्प उनके पास न था और न है। हमारी स्थिति ऐसी नहीं है। हमारे पास इस प्रतिमान से भी बहुत श्रेष्ठ विकल्प था। धार्मिक (धार्मिक) जीवन के प्रतिमान में केवल हम ही जीते थे ऐसा नहीं तो दुनिया हमारा स्वेच्छा से अनुसरण करती थी। समूचे विश्व के लोग धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की श्रेष्ठता जानकर ही यह अनुसरण करते थे।

लेकिन वर्तमान में हम धार्मिक (धार्मिक) भी इस प्रतिमान के जीवन में इतने रंग गए हैं कि यही प्रतिमान हमें अपना लगने लग गया है। इसके बहुत लाभ हैं इसलिए नहीं। गत १०-११ पीढ़ियों से जिस शिक्षा का हमारे समाज में चलन रहा है उस के प्रभाव के कारण हम अन्य कोई विकल्प था या हो सकता है, इसको स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते। हमारी जीवनदृष्टि श्रेष्ठ थी यह माननेवाले लोग भी उस जीवन दृष्टि को व्यवहार में लाना असंभव है ऐसा ही मानते हैं। सामरिक दृष्टि से जो बलवान देश हैं वह भी ‘व्हाईट मैन्स बर्डन’ की मानसिकता के कारण अपने जैसा जीने के लिए अन्य देशों पर बल प्रयोग करते रहते हैं। जैसे यूरोपीय ढंग का लोकतंत्र उनकी दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था हो सकती है। क्यों कि इससे अधिक अच्छी शासन व्यवस्था यूरोप के इतिहास में कभी रही नहीं। लेकिन फिर भी भारत जैसे देशपर भी जिसने इससे भी अत्यंत श्रेष्ठ ऐसी शासन व्यवस्थाएँ देखी हैं, चलाई हैं, विकसित की हैं, उस पर भी उन के जैसा लोकतंत्र स्थापित करने के लिए बल प्रयोग वे करते हैं।

इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान की आधारभूत जीवनदृष्टि में तीन बातें जड़ में हैं। व्यक्तिकेंद्रितता, इहवादिता और जडवादिता। व्यक्तिकेंद्रितता का व्यावहारिक स्वरूप स्वार्थ-केन्द्रितता है। इन बातों के कारण जीवन के विभिन्न विषयों की ओर देखने की दृष्टि यांत्रिक हो जाती है। विखंडित हो जाती है। जीवन को हम टुकड़ों में बाँटकर ही विचार करते हैं। इकोनोमिक्स का, सोशोलोजी का नैतिकता से सम्बन्ध नहीं है ऐसा सीखते सिखाते है। शुद्ध विज्ञान और प्रायोगिक या उपयोजित विज्ञान को याने तन्त्रज्ञान को दो अलग विषय मानते हैं। शुद्ध विज्ञान के विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारा काम तो तन्त्रज्ञान का प्रयोगसिद्ध सैद्धांतिक पक्ष उजागर करना है। उसका उपयोग लोग पुष्पहार के लिए करेट हैं या नरसंहार के लिए करेट हैं यह देखना हमारा काम नहीं है। वैज्ञानिकों ने रासायनिक उत्पादों के बनाने की ऐसी प्रक्रियाएँ विकसित की हैं जो साथ में प्रदूषण भी पैदा करती हों। उनका उपयोग करना या नहीं करना, करना हो तो कैसे करना यह लोगों के विचार करने की बातें मानी जातीं हैं। उससे वैज्ञानिकों का कोई लेना देना नहीं है। इस विचार प्रक्रिया ने ही विश्व को भीषण व्यापक प्रदूषण और विनाश की कगारपर लाकर खडा कर दिया है।

इस यूरोपीय सोच में ‘मैं’ भिन्न हूँ। मैं दुनिया का हिस्सा नहीं हूँ और सारी दुनिया मेरे उपभोग के लिए है ऐसा माना गया है। इसका आधार शायद बायबल का कथन हो सकता है। पाँच दिन में गॉड ने सृष्टि निर्माण की। छठे दिन मानव का निर्माण किया और उसे कहा यह पाँच दिन में निर्माण की हुई सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए है। रेने देकार्ते और फ्रांसिस बेकन की परम्परा में विश्वास रखनेवाले यूरो-अमरीकी आधुनिक दार्शनिक भी इससे भिन्न सोच नहीं रखते। साईंस ने ईसाईयत की धज्जियां उड़ा दीं हैं, लेकिन उपभोग के विषय में उनकी सोच बायबल के कथन जैसी ही है। जीवन को टुकड़ों में समझने का और वैसा व्यवहार करने का शायद यही प्रारम्भ बिन्दु है।

लेकिन कुछ वर्तमान वैज्ञानिकों ने विज्ञान के प्रयोगों के माध्यम से ही सारी सृष्टि के अस्तित्वों में परस्पर सम्बद्धता, अखण्डता को खोजा है। डेव्हिड बोहम, बेल आदि की परिकल्पनाओं और उसकी अन्य वैज्ञानिकों ने की हुई पुष्टि ने यूरो अमरीकी विज्ञान विश्व में हलचल मचा रखी है। जीवन को एकात्मता और समग्रता में देखने की धार्मिक (धार्मिक) जीवन दृष्टि की प्रतिष्ठापना के लिए यह एक सुअवसर है। सारी सृष्टि में अन्तर्निहित एकात्मता को समग्रता में समझना हो तो जीवन के विभिन्न पहलू, विषय, व्यवस्थाएँ, शास्त्र एक दूसरे के साथ कैसे अंगांगी संबंध से जुड़े हुए हैं यह समझना उपयुक्त होगा। सारी दुनिया इससे लाभान्वित होगी।[1]

सृष्टि में प्रस्परावलंबन/परस्पर सम्बद्धता

धार्मिक जीवन दृष्टि के पीछे जो ‘कण कण में परमात्मा है’ यह विचार है। इस तत्वज्ञान को हम समझेंगे तो इन सभी में जो अंगांगी संबंध है उसे हम सहज ही देख और समझ पायेंगे। नीचे दिए फ्लो चार्ट के माध्यम से इसे हम समझेंगे[2]:

कोषिका प्राकृतिक प्रणालियाँ
गुणसूत्र (जीन्स)
शरीर के अंग
शरीर की प्रणालियाँ
शरीर
व्यक्ति मानव निर्मित प्रणालियाँ
कुटुंब
समाज
राष्ट्र/देश
विश्व
पृथ्वी प्राकृतिक प्रणालियाँ
सूर्यमाला
आकाशगंगा
ब्रह्माण्ड
विश्व निर्माता

उपर्युक्त फ्लो चार्ट में हम देखते हैं कि तीन प्रकार की प्रणालियाँ हैं। सबकी जड़ में ब्रह्माण्ड है। उससे नि:सृत पृथ्वी तक की एक प्राकृतिक प्रणाली है। इसके बाद बीच में वैश्विक समाज से लेकर व्यक्ति तक की एक मानव निर्मित प्रणाली है। आगे व्यक्ति के शरीर से लेकर कोषिका तक की फिर से एक प्राकृतिक प्रणाली है। इन तीनों प्रणालियों में जो जड़ में (नीचे) है वह ऊपर के घटक का अंगी है। और जो ऊपर है वह नीचे वाले का अंग है। उससे भी ऊपर जो घटक है वह अंग का भी अंग होने से उपांग है। जैसे ब्रह्माण्ड अंगी है और आकाशगंगा अंग है। सूर्यमाला आकाशगंगा का अंग है। आकाशगंगा सूर्यमाला की अंगी है। इस कारण सूर्यमाला ब्रह्माण्ड का उपांग है। जैसे व्यक्ति यह समाज का अंग है। समाज राष्ट्र का अंग है। इसलिए व्यक्ति यह राष्ट्र का उपांग है। अंग और अंगी संबंध जब होते हैं तब अंगी को अधिक महत्व होता है। वैसे तो दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। लेकिन अंगी अंग को अधिक प्रभावित करता है। इसलिए अंग से संबंधित कोई भी परिवर्तन अंगी के हित का विरोधी नहीं होना चाहिए। विशेष परिस्थिति में अंगी के हित के लिए अंग के हित से समझौता हो सकता है। जैसे जब मनुष्य के सिर पर चोट आने की सम्भावना मनुष्य देखता है तो सहज ही उसके हाथ सर की रक्षा के लिए आगे बढ जाते हैं। यहाँ शरीर यह अंगी है। और उसके सर, पैर, हाथ, पेट आदि भिन्न भिन्न अवयव अंग हैं। सिर पर चोट आने से भी शरीर की हानि होगी। इसी तरह हाथ को चोट आने से भी शरीर की हानि होगी। लेकिन सिर पर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानि और हाथ पर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानि में हाथ की चोट से होनेवाली हानि कम है। इसलिए हाथ यह अंत:प्रेरणा से ही सिर की रक्षा के लिए आगे बढ़ते हैं। इसे ही अंगांगी संबंध कहते हैं।

इसी चित्र में अब व्यक्ति, कुटुम्ब और समाज में सम्बन्ध का अब विचार करेंगे। व्यक्तियों का समूह कुटुम्ब है। कुटुम्बों का समूह समाज है। व्यक्ति कुटुम्ब का अंग है। कुटुम्ब व्यक्ति का अंगी है। कुटुम्ब के हित में ही व्यक्ति का हित है। समाज के हित में ही प्रत्येक कुटुम्ब का हित है। जैसा हमने ऊपर देखा की सर, पैर, हाथ, पेट ये सब शरीर के अंग हैं, उसी तरह से ग्राम में रहनेवाले सभी कुटुम्ब ग्राम के अंग हैं। और ग्राम उन सब का अंगी है। किसी एक कुटुम्ब को थोड़ी हानि होने से यदि ग्राम की हानि को रोका जा सकता है तो उस कुटुम्ब ने ग्राम के अंग के रूप में इसे स्वीकार करना चाहिए। इसी में उस कुटुम्ब का भी और ग्राम का भी भला होता है। इसी तरह से बड़ी, जड़ की इकाई के हित में छोटी या ऊस बड़ीपर निर्भर इकाई का व्यवहार होना आवश्यक है। ऐसा होने से अंग और अंगी दोनों लाभान्वित होते हैं। इसलिए कहा है[3]:

त्यजेदेकम् कुलस्यार्थे ग्रामास्यार्थे कुलं त्यजेत् ।

ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।

अर्थ : कुल के हित में व्यक्ति के हित को, ग्राम के हित में कुल के हित को, जनपद (जिला) के हित में ग्राम के हिता को और यदि आत्मा का हनन होता है तो पृथिवी का भी त्याग करना चाहिए याने जीवन को भी न्यौछावर कर देना चाहिए।

विज्ञान और शास्त्र

सामान्यत: लोग इन दो शब्दों का प्रयोग इन के भिन्न अर्थों को समझे बिना ही करते रहते हैं। किसी पदार्थ की बनावट याने रचना को समझना विज्ञान है। और इस विज्ञान से प्राप्त जानकारी के आधार पर उस पदार्थ का क्यों, कैसे, किस के लिए, किसने उपयोग करना चाहिए आदि समझना यह शास्त्र है। जैसे मानव शरीर की रचना को जानना शरीर विज्ञान है। लेकिन इस विज्ञान के आधार पर शरीर को स्वस्थ बनाये रखने की जानकारी को आरोग्य शास्त्र कहेंगे। विभिन्न प्रकार के मानव जाति के लिए उपयुक्त खाद्य पदार्थों की जानकारी को आहार विज्ञान कहेंगे। जबकि व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार, मौसम के अनुसार क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, कब खाना चाहिए और कब नहीं खाना चाहिए, किसने कितना खाना चाहिए आदि की जानकारी आहारशास्त्र है। धार्मिक (धार्मिक) दृष्टि से अर्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन होता है। इन इच्छाओं को और उनकी पूर्ति के प्रयासों तथा इस हेतु उपयोजित धन, साधन और संसाधनों की जानकारी को अर्थ विज्ञान कहेंगे। जब की इस जानकारी का उपयोग भिन्न स्वभाव वाले मानव अपने जीवन को सार्थक बनाने में किस तरह और क्यों करें इन बातों को जानना अर्थशास्त्र कहलाएगा।

परमात्मा के स्वरूप को समझने के लिए जो बताया या लिखा जाता है वह अध्यात्म विज्ञान है। और परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या करना चाहिए यह जानना अध्यात्म शास्त्र है। इसी अर्थ से श्रीमद्भगवद्गीता एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इस में ब्रह्मा की जानकारी और उसकी प्राप्ति ऐसा दोनों के बारे में बताया गया है। शास्त्र में सैद्धांतिक और व्यावहारिक ऐसे दोनों पक्षों का मार्गदर्शन होता है।

तन्त्रज्ञान यह शास्त्र का ही एक हिस्सा है। क्यों कि शास्त्र में विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत जानकारी के प्रत्यक्ष उपयोजन का विषय भी होता है। और प्रत्यक्ष उपयोजन की प्रक्रिया ही तन्त्रज्ञान है। लेकिन इस के साथ ही उस विज्ञान का और तन्त्रज्ञान का उपयोग किसने करना चाहिये, किसने नहीं करना चाहिए, कब करना चाहिए कब नहीं करना चाहिए, किसलिए करना चाहिए और किस के लिए नहीं करना चाहिए इन सब बातों को जानना शास्त्र है।

आध्यात्म शास्त्र सब शास्त्रों का अंगी

श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है[4]-

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।

अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।

अर्थ : पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पंचमहाभूत और मन बुद्धि और अहंकार इन आठ घटकों से बनीं यह अष्टधा प्रकृति मेरी ही बनाई हुई है। यह मेरी अपरा याने अचेतन प्रकृति है। इससे भिन्न जिसके द्वारा दुनिया की धारणा होती है उस मेरी जीवरूप परा को मेरी चेतन प्रकृति समझो।

श्रीमद्भगवद्गीता में आगे और कहा गया है[5]

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते।।

उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।।

अर्थ : दुनिया में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो प्रकारके पुरुष हैं। उनमें प्रकृति के सभी अस्तित्वों में (सर्वाणि भूतानि) क्षर याने नाशवान और जीवों के शरीर में नाशवान प्रकृति और अविनाशी जीवात्मा है। लेकिन परमात्मा जो तीनों लोकों की धारणा करता है वह तो इन से भिन्न उत्तम पुरुष है।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता हमें सृष्टि के चेतन और अचेतन की जानकारी देती है। यह चेतन और अचेतन सब उसी एक आत्मतत्व से बना होने के कारण ही अध्यात्म विद्या को सभी विद्याओं से श्रेष्ठ कहा गया है। अध्यात्मविद्या विद्यानाम्। जिसे जान लेने के बाद अन्य कुछ भी जानने के लिए शेष नहीं रह जाता। इसलिए अध्यात्म शास्त्र यह सभी विषयों का अंगी है। जिस परमात्मा में से और परमात्मा की इच्छा और प्रयास से सारी सृष्टि बनी है उस परमात्मा को जानने से सृष्टि का ज्ञान तो हो ही जाता है। परमात्मा को जानने और प्राप्त करने का शास्त्र अध्यात्म शास्त्र है। जब की सृष्टि को और उसके साथ के व्यवहार की करणीयता और अकरणीयता को जानने का शास्त्र धर्मशास्त्र है। सृष्टिसंचालन की व्यवस्थाओं के नियमों को ही धर्म कहते हैं। इसलिए धर्म शास्त्र यह अध्यात्मशास्त्र का अंग है और अध्यात्मशास्त्र धर्मशास्त्र का अंगी है। मानव से संबंधित मानव की इच्छाओं की पूर्ति करनेवाला शास्त्र अर्थशास्त्र है इसलिए जहांतक मानव के व्यवहार का सम्बन्ध है मानवधर्मशास्त्र ही अर्थशास्त्र है। ये दोनों व्यापक धर्मशास्त्र के अंग हैं। धर्मशास्त्र के दो हिस्से हैं। मानवधर्मशास्त्र और प्राकृतिक शास्त्र। मानव धर्मशास्त्र या अर्थशास्त्र और प्राकृतिक शास्त्र यह दोनों धर्मशास्त्र के अंग हैं। और धर्मशास्त्र इन दोनों का अंगी है। अंग और अंगी दोनों एकदूसरे को प्रभावित करते हैं और एक दूसरे से प्रभावित भी होते हैं। जब अंगी के एक अंग में कुछ परिवर्तन होता है तो उसका अपरोक्ष रूप में प्रभाव दूसरे अंगपर भी होता ही है। क्यों कि वह पहला अंग अंगी को प्रभावित करता है। पहले अंग में हुए परिवर्तन का अंगी में तो सीधा प्रभाव होता है। इसलिए अंगी में परिवर्तन होता है। जब अंगी में कुछ परिवर्तन होता है तब अंगी के दूसरे अंगपर भी प्रभाव होकर उसमें भी कुछ परिवर्तन होता है। इसका अर्थ है अंगी के माध्यम से उस अंगी के सभी अंगों को उस अंगी का प्रत्येक अंग प्रभावित करता है। इसी तरह हम नीचे की तालिका में देखेंगे कि किस प्रकार सभी शास्त्र एक दूसरे से अंगांगी संबंध से जुड़े हैं:

Part 2 Chapter 3 Table.jpg

उपर्युक्त शास्त्रों में जीवन से संबंधित सभी विषय आ जाते हैं। भौतिक शास्त्र में वर्तमान की लगभग सभी विज्ञान शाखाओं का समावेश हो जाता है। मनुष्य भी एक प्राणी होनेसे प्राणिक शास्त्र सभी प्राणियों को जैसे लागू होता है वैसे ही मनुष्य को भी लागू होता है। लेकिन मनुष्य पञ्चविध है। इसमें केवल दो ही स्तर प्राणिक हैं। मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये स्तर मानव को प्राणिक आवेगों से ऊपर उठाते हैं। इसलिए मानवधर्मशास्त्र एक अलग विषय बनता है। इसके अंतर्गत आनेवाले सांस्कृतिक और समृद्धिशास्त्र भी केवल मानव को लागू होते हैं।

सांस्कृतिक शास्त्रों में समाजशास्त्र, मानसशास्त्र, मानव संस्कार शास्त्र, कुटुंबशास्त्र, गृहशास्त्र, उपभोग शास्त्र आदि विभिन्न मानविकी के विषय आते हैं। संपत्ति/समृद्धि शास्त्र में कला कारीगरी समेत निर्माण शास्त्र, व्यवस्थापन शास्त्र, विपणन शास्त्र, वितरणशास्त्र आदि विषय आते हैं। उपभोग का संबंध भौतिकशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, प्राणीशास्त्र, सांस्कृतिकशास्त्र और समृद्धिशास्त्र इन सभी शास्त्रों से है। इसलिए मानव के उपभोग का विचार करते समय व्यापक धर्मशास्त्र का आधार आवश्यक है। भौतिकशास्त्र का उपयोग करते समय मानव जाति, वनस्पति जगत और प्राणी जगत को हानि न हो इस ढंग से करना होगा । ऐसा नहीं करने से समस्याओं का निर्माण और वृद्धि अवश्यंभावी है।

उपसंहार

सृष्टि में व्याप्त एकात्मता को और मानव जीवन को समग्रता में समझने के लिए विभिन्न विषयों का अंगांगी संबंध समझना आवश्यक है। हमारे अध्ययन, अध्यापन या उपयोजन के विषय का स्थान इस अंगांगी संबंधों की तालिका में कहाँ है इसे समझना जरूरी है। हमारा विषय अन्य विषयों में से किस का अंग है और किसका अंगी है इसे समझना यह हमारे हर विषय का प्रारंभ बिन्दु बनाना चाहिए। ऐसा करते हुए आगे बढ़ने से सृष्टि के व्यवहारों में और मानव जीवन में सुसंगति बनी रहेगी। वर्तमान की सभी समस्याएँ सृष्टि के सभी अस्तित्वों में जो अन्गांगी सम्बन्ध है उसकी उपेक्षा करने के कारण ही है।

References

  1. जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय २४, लेखक - दिलीप केलकर
  2. दिलीप कुलकर्णी, ‘जोपासना घटकत्वाची’, संतुलन प्रकाशन, कुडावले, दापोली, रत्नागिरी
  3. चाणक्यनीति तृतीय अध्याय
  4. श्रीमद्भगवद्गीता 7.4 व 7.5
  5. श्रीमद्भगवद्गीता 15.15 व 15.16

अन्य स्रोत: