Indian Observatories (भारतीय वेधशालाएँ)

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ज्योतिषशास्त्र में वेध एवं वेधशालाओं का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहनक्षत्रादि पिण्डों के अवलोकन को वेध कहते हैं। भारतवर्ष में वेध परम्परा का प्रादुर्भाव वैदिक काल से ही आरम्भ हो गया था। कालान्तर में उसका क्रियान्वयन का स्वरूप समय-समय पर परिवर्तित होते रहा है। कभी तपोबल के द्वारा सभी ग्रहों की स्थितियों को जान लिया जाता था। अनन्तर ग्रहों को प्राचीन वेध-यन्त्रों के द्वारा देखा जाने लगा।

परिचय

प्राचीन भारत में कालगणना ज्योतिष एवं अंकगणित में भारत विश्वगुरु की पदवी पर था। इसी ज्ञान का उपयोग करते हुये १७२० से १७३० के बीच सवाई राजा जयसिंह(द्वितीय) जो दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के शासन काल में मालवा के गवर्नर थे। इन्होंने उत्तर भारत के पांच स्थानों उज्जैन, दिल्ली, जयपुर, मथुरा और वाराणसी में उन्नत यंत्रों एवं खगोलीय ज्ञान को प्राप्त करने वाली संस्थाओं का निर्माण किया जिन्हैं वेधशाला या जंतर-मंतर कहा जाता है।[1]

इनमें से कुछ प्रमुख यंत्रों का वर्णन इस प्रकार है-

  • सम्राट यंत्र
  • नाडीवलय यंत्र
  • दिगंश यंत्र
  • भित्ति यंत्र
  • शंकु यंत्र

परिभाषा

वेध शब्द की निष्पत्ति विध् धातु से होती है। जिसका अर्थ है किसी आकाशीय ग्रह अथवा तारे को दृष्टि के द्वारा वेधना अर्थात् विद्ध करना। ग्रहों तथा तारों की स्थिति के ज्ञान हेतु आकाश में उन्हैं देखा जाता था। आकाश में ग्रहादिकों को देखकर उनकी स्थिति का निर्धारण ही वेध है।

नग्ननेत्र या शलाका, यष्टि, नलिका, दूर्दर्शक इत्यादि यन्त्रोंके द्वारा आकाशीय पिण्डोंका निरीक्षण ही वेध है।

वेधानां शाला इति वेधशाला।

अर्थात् वह स्थान जहां ग्रहों के वेध, वेध-यन्त्रों द्वारा किया जाता है उसका नाम वेधशाला है।

महाराजा सवाई जयसिंह

मध्यकालीन भारतीय इतिहासकी अट्ठारहवीं शताब्दीके प्रारम्भिक पचास वर्षोंके राजनीतिज्ञों और शासकोंपर दृष्टि डाली जाय तो महाराजा सवाई जयसिंहका व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त विशिष्टता युक्त दृष्टिगोचर होता है। वे जहां एक पराक्रमी योद्धा थे तो साथ में ही एक चतुर कूटनीतिज्ञ, धर्मप्रेमी, युद्धनीतिमें निपुण, वास्तुविद् और ज्योतिर्विद् भी थे।

राजा जय सिंह का जन्म ३ नवंबर सन् १६८८ई० को कछवाहा(कुशवाहा)- वंश में हुआ था। उनके पिता विशनसिंह(विष्णुसिंह) आमेरके राजा थे। उनके पिताने उनकी शस्त्रविद्या और शैक्षणिक शिक्षाके लिये अलग-अलग प्रबन्ध किये। १८९९ ई०में पिताके आकस्मिक निधनके उपरान्त जयसिंह बाल्यकालमें ही ११ वर्षकी आयुमें आमेरके राजा बने। वे अपनी आयुसे भी अधिक समझदार थे। मुगल सम्राट् औरंगजेब उनकी बुद्धिमत्ता और बहादुरीसे इतने प्रभावित थे कि उन्होंने राजा जय सिंह को सवाईकी उपाधिसे सुशोभित किया।

  • जयपुरमें विश्वकी सर्वाधिक बृहत् एवं सर्वाधिक सूक्ष्म सूर्यघडी निर्मित कराई।
  • मन्दिरोंका निर्माण करवाया, जो पूर्णतः खगोलपिण्डों-सूर्य, चन्द्र और नौ ग्रहोंको समर्पित थे।
  • आकाशके व्यावहारिक रूपसे अवलोकनके आधारपर उन्होंने वर्तमान पंचांगों(कैलेण्डर)-में सुधार किया।

खगोलविद्या-संबंधी इन अमर कीर्तिमानोंका निर्माण कराकर २१ सितम्बर, सन् १७४३ ई० को लगभग ५५वर्षकी आयुमें उन्होंने जीवनकी अन्तिम साँस ली।

वेधशालाओं की परम्परा

इन वेधशालाओं में राजा जयसिंह ने प्राचीन शास्त्र ज्ञान के साथ-साथ अपनी योग्यता से नये-नये यंत्रों का निर्माण करवा कर लगभग ८वर्षों तक स्वयं ने ग्रह नक्षत्रों का अध्ययन किया। इन वेधशालाओं में राजा जयसिंह ने सम्राट यंत्र, भ्रान्तिवृतयंत्र, चन्द्रयंत्र, दक्षिणोत्तर वृत्त यंत्र, दिगंशयंत्र, उन्नतांश यंत्र, कपाल यंत्र, नाडी वलय यंत्र, भित्ति यंत्र, राशिवलय यंत्र, मिस्र यंत्र, राम यंत्र, जयप्रकाश यंत्र, सनडायल यंत्र इत्यादि स्वयं की कल्पना से और पण्डित जगन्नाथ महाराज के मार्गदर्शन में बनवाये। उनके द्वारा स्थापित वेधशालाओं का संक्षेप में विवरण इस प्रकार हैं-

जयपुरकी वेधशाला

यह वेधशाला समुद्रतल से ४३१ मीटर(१४१४ फीट)- की ऊँचाई पर स्थित है, इसका देशान्तर ७५॰ ४९' ८,८'' ग्रीनविचके पूर्वमें तथा अक्षांश २६॰५५' २७'' उत्तरमें है।

प्रस्तर यन्त्रों से युक्त दिल्ली वेधशालापर किये गये सफल प्रयोग के उपरान्त सन् १७२४ ई० में महाराजा सवाई जयसिंहने अपनी नयी राजधानी जयपुरमें एक बृहत् वेधशालाके निर्माणका निर्णय लिया और सन् १७२८ ई० में यह वेधशाला बनकर तैयार हुई।[1]

दिल्ली वेधशाला

यह समुद्रतलसे २३९ मीटर(७८५ फुट)-की ऊँचाईपर, अक्षांश-२८ अंश ३९ विकला उत्तर तथा देशान्तर- ग्रीनविचके पूर्वमें ७७ अंश १३ कला ५ विकलापर स्थित है।[1]

उज्जैन वेधशाला

यह समुद्रतलसे ४९२ मीटर(१५०० फुट) ऊँचाईपर, देशान्तर-७५ अंश ४५ कला (ग्रीनविचके पूर्व) तथा अक्षांश- २३अंश १० कला उत्तरपर स्थित है।

वाराणसी वेधशाला

वाराणसी प्राचीन कालसे धार्मिक आस्था, कला, संस्कृति और विद्याका एक महान् परम्परागत केन्द्र रहा है। काशी और बनारसके नामसे भी जानीजाने वाली यह नगरी सभी शास्त्रोंका अध्ययन केन्द्र रही है। अन्य विद्याओंके साथ-साथ खगोल-विज्ञान और ज्योतिषके अध्ययनकी भी यहाँ परम्परा थी। इसलिये जयपुरके महाराज सवाई जयसिंह(द्वितीय)-ने इस ज्ञानपीठमें गंगाके तटपर एक वैज्ञानिक संरचनापूर्ण वेधशालाका निर्माण कराया।[1]

मथुरा वेधशाला

यह समुद्रतलसे ६०० फुट ऊँचाईपर, देशान्तर-ग्रीनविचके पूर्व ७७॰ ४२' तथा अक्षांश- २७॰ २८' उत्तरपर स्थित है।

महाराजा जयसिंहने सन् १७३८ ई०के आसपास यहाँ कई खगोलीय यन्त्रोंका निर्माण कराया था। इस वेधशालाके निर्माणके लिये महाराजने शाही किलेकी छतको चुना था, जिसे कंसका महल कहा जाता था।[1]

उद्धरण॥ References

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, ज्योतिष खण्ड, वेध एवं वेधशालाओं की परम्परा, (पृ०२२०/२२४)।