Difference between revisions of "Hindu and Bharatiya (हिन्दू एवं धार्मिक)"

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# हिन्दू अल्पसंख्य होणार का? लेखक मिलिंद थत्ते, प्रकाशक हिन्दुस्थान प्रकाशन संस्था, प्रभादेवी, मुम्बई
 
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Revision as of 15:07, 18 June 2020

हिंदुत्व से अभिप्राय है हिन्दुस्तान देश के रहनेवाले लोगों के विचार, व्यवहार और व्यवस्थाएं । सामान्यत: आदिकाल से इन तीनों बातों का समावेश हिंदुत्व में होता है। वर्तमान में इन तीनों की स्थिति वह नहीं रही जो ३००० वर्ष पूर्व थी । वर्तमान के बहुसंख्य धार्मिक (भारतीय) इतिहासकार यह समझते हैं कि हिन्दू भी हिन्दुस्तान के मूल निवासी नहीं हैं । उनके अनुसार यहाँ के मूल निवासी तो भील, गौंड, नाग आदि जाति के लोग हैं । वे कहते हैं कि आर्यों के आने से पहले इस देश का नाम क्या था पता नहीं । जब विदेशियों ने यहाँ बसे हुए आर्यों पर आक्रमण शुरू किये तब उन्होंने इस देश को हिन्दुस्तान नाम दिया ।

आज भारत में जो लोग बसते हैं वे एक जाति के नहीं हैं । वे यह भी कहते हैं कि उत्तर में आर्य और दक्षिण में द्रविड़ जातियां रहतीं हैं । हमारा इतिहास अंग्रेजों से बहुत पुराना है । फिर भी हमारे तथाकथित विद्वान हमारे इतिहास के अज्ञान के कारण इस का खंडन और हिन्दू ही इस देश के आदि काल से निवासी रहे हैं इस बात का मंडन नहीं कर पाते हैं। यह विपरीत शिक्षा के कारण निर्माण हुए हीनता बोध, अज्ञान और अन्धानुकरण की प्रवृत्ति के कारण ही है । वस्तुस्थिति यह है कि आज का हिन्दू इस देश में जबसे मानव पैदा हुआ है तब से याने लाखों वर्षों से रहता आया है । हिन्दू जाति से तात्पर्य एक जैसे रंगरूप या नस्ल के लोगों से नहीं वरन् जिन का आचार-विचार एक होता है उनसे है । लाखों वर्ष पूर्व यहाँ रहनेवाले लोगों की जो मान्याताएँ थीं, मोटे तौर पर वही मान्यताएँ आज भी हैं।[1]

हिन्दूओं की मान्यताएँ[2]

प्रसिद्ध विद्वान श्री गुरूदत्त अपनी ‘हिंदुत्व की यात्रा’ पुस्तक में नौ मान्यताएँ बताते हैं । यह इस प्रकार हैं[3]:

  1. एक परमात्मा है जो इस जगत् का निर्माण करनेवाला है ओर करोड़ों वर्षों से इसे चला रहा है ।
  2. मनुष्य में एक तत्व है जीवात्मा । जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है । इसके कर्म करने की सामर्थ्य पर सीमा है । वह जीवात्मा की अल्प शक्ति और अल्प ज्ञान के कारण है । फिर भी इस सीमा में वह कर्म करने को वह स्वतन्त्र है ।
  3. कर्म का फल इस जीवात्मा के हाथ में नहीं है । वह उसे प्रकृति के नियमों के अनुसार ही मिलता है ।
  4. परमात्मा और जीवात्मा दोनों अविनाशी हैं । परमात्मा की सामर्थ्य असीम है । जीवात्मा की सामर्थ्य मर्यादित और अल्प है । जीवात्मा अल्पज्ञान होने से बार बार जन्म लेता है । अपने किये कर्मों से वह उन्नत भी होता है और पतित भी । उन्नत अवस्था की सीमा ब्रह्म प्राप्ति या मोक्ष है ।
  5. प्राणियों का शरीर अष्टधा प्रकृति से बना है । प्राणियों में जीवात्मा के कारण चेतना और चेतना के कारण के कारण गति होती है । जीवात्मा के या चेतना के अभाव में जीवन समाप्त हो जाएगा ।
  6. मानव का स्तर मनुष्य जीवन में उसके गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार होता है । परिवार में जाति में या राष्ट्र में सभी स्तर पर मूल्यांकन इन्हीं के आधारपर होता है ।
  7. व्यवहार में यह सिद्धांत है कि जैसा व्यवहार हम अपने लिए औरों से चाहते हैं वैसा ही व्यवहार हम उनसे करें ।
  8. धैर्य, क्षमा, दया, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना, शरीर और व्यवहार की शुद्धता, इन्दियोंपर नियंत्रण, बुद्धि का प्रयोग, ज्ञान का संचय, सत्य (मन, वचन और कर्म से) व्यवहार और क्रोध न करना ऐसा दस लक्षणों वाला धर्म माना जाता है।
  9. प्रत्येक व्यक्ति के लिए बुद्धि, तर्क और प्रकृति के नियमों की बात ही माननीय है। यही श्रेष्ठ व्यवहार है।

इस देश में कभी ये लोग वेदमत के माने जाते थे । पीछे इनका नाम हिन्दू हुआ । वर्तमान में यह नाम हिन्दू है । इस जनसमूह में बाहर से भी लोग आये । लेकिन यहाँ के आचार विचार स्वीकार कर वे हिन्दू बन गए ।

धार्मिक (भारतीय) सोच में बुद्धि को बहुत महत्त्व दिया गया है। उपर्युक्त सभी मान्यताएँ बुद्धि के प्रयोग से सिद्ध की जा सकती है।

भारत शब्द की ऐतिहासिकता

भारत शब्द की एतिहासिकता पर विभिन्न सन्दर्भ इस प्रकार हैं:

  1. ऋग्वेद: विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेंद्रम् भारतम् जनम्[4]
  2. महाभारत युद्ध का नाम ही (महा-भारत) ‘भारत‘ के अस्तित्व का प्रमाण हैं ।
  3. श्रीमद्भगवद्गीता:
    1. भरतवंशियों का नाम ‘भारत’ ।
    2. कई अन्य उल्लेख इस प्रकार हैं:
      • धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ (7 – 11)[5]
      • एवमुक्तो ऋषीकेशो गुडाकेशेन भारत (9-24)[6]
  4. उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं वर्षं तत् भारतं नाम भारती यत्र संतती[7]
  5. हमारे किसी भी मंगलकार्य या संस्कार विधि के समय जो संकल्प कहा जाता है उसमें भी ‘जम्बुद्वीपे भरतखंडे’ ऐसा भारत का उल्लेख आता है ।

भारत शब्द की व्याख्या : ‘भा’में रत है वह भारत है। भा का अर्थ है ज्ञान का प्रकाश। अर्थात ज्ञानाधारित समाज। वेद सत्य ज्ञान के ग्रन्थ हैं। वैदिक परम्परा ही भारत की परम्परा है

हिंदू शब्द की ऐतिहासिकता

हिन्दू यह नाम "भारत" की तुलना में नया है । फिर भी यह शब्द कम से कम २५०० वर्ष पुराना हो सकता है, ऐसा इतिहासकारों का कहना है ।

१. बुद्धस्मृति में कहा है:

हिंसया दूयत् यश्च सदाचरण तत्पर: ।

वेद गो प्रतिमा सेवी स हिन्दू मुखवर्णभाक ।।[8]

अर्थ : जो सदाचारी वैदिक मार्गपर चल;आनेवाला, गोभक्त, मूर्तिपूजक और हिंसा से दु:खी होनेवाला है, वह हिन्दू है।

२. बृहस्पति आगम:

हिमालयम् समारभ्य यावदिंदु सरोवरम् । तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानम् प्रचक्ष्यते ।।[9]

३. "द ओरीजीन ऑफ द वर्ड हिन्दू"[10] में बताया गया है कि, मूल ईरान (पारसी) समाज की पवित्र पुस्तक ‘झेंद अवेस्ता’ में ‘हिन्दू’ शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है । झेंद अवेस्ता के ६० % शब्द शुद्ध संस्कृत मूल के हैं । इस समाज का काल ईसाईयों या मुसलमानों से बहुत पुराना है । झेंद अवेस्ता का काल ईसा से कम से कम १ हजार वर्ष पुराना माना जाता है ।

४. पारसियों की पवित्र पुस्तक ‘शोतीर’ में फारसी लिपि में लिखा है: (भावार्थ)

"हिन्द से एक ब्राह्मण आया था जिसका ज्ञान बेजोड़ था । शास्त्रार्थ में इरान के राजगुरू जरदुस्त को जीता । जीतने के बाद इस हिन्दू ब्राह्मण, व्यास ने जो कहा वह भी इस ग्रन्थ में दिया है।"[11]

५. भविष्य पुराण में प्रतिसर्ग ५(३६)( ११५ वर्ष ए.डी.) में सिन्धुस्थान का उल्लेख आता है ।

६. संस्कृत और फारसी में भी ‘स’ का ‘ह’ होता है। इस कारण ही सिन्धुस्थान हिन्दुस्थान कहलाया ।

७. अन्य पौराणिक सन्दर्भ इस प्रकार हैं:

  • ओन्कारमूलमन्त्राढ्य: पुनर्जन्मदृढाशय: । गोभक्तो भारतगुरूर्हिंदुर्हिंसनदूषक: ।।[12]
  • हिनस्ति तपसा पापान् दैहिकान् दुष्ट मानसान् । हेतिभी शत्रुवर्गे च स हिन्दुराभिधीयते।।[13]
  • हिन्दू धर्मप्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तिन: । हीनं च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये ।।[14]
  • हिनं दूषयति इति हिन्दू । अर्थ : हीन कर्म का त्याग करनेवाला।[15]

८. कुछ महापुरुषों की व्याख्या इस प्रकार है:

  • लोकमान्य तिलकजी की व्याख्या : प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु नियमानामनेकता । उपास्यानामनियमो हिन्दुधर्मस्य लक्षणं ।।
  • सावरकरजी की व्याख्या : आसिंधुसिंधुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका । पितृभू पुन्यभूश्चैव स वे हिन्दुरिति स्मृत: ।।

हिन्दू की व्यापक व्याख्या :

जो वसुधैव कुटुंबकम् में विश्वास रखता है वह हिन्दू है । जो चराचर के साथ आत्मीयता की भावना होनी चाहिए ऐसा जो मानता है और वैसा व्यवहार करने का प्रयास करता है वह हिन्दू है

भारत शब्द की व्याख्या:

‘भा’में रत है वह भारत है। भा का अर्थ है ज्ञान का प्रकाश । अर्थात ज्ञानाधारित समाज । वेद सत्य ज्ञान के ग्रन्थ हैं । वैदिक परम्परा ही भारत की परम्परा है । समाज की भी वैदिक परम्परा छोड़ अन्य कोई परम्परा नहीं है। इसलिए भारत और हिन्दुस्तान, धार्मिक (भारतीय) और हिन्दू, भारतीयता और हिंदुत्व यह समानार्थी शब्द हैं ।

हिन्दू/धार्मिक (भारतीय) की पहचान

वस्तू, भावना, विचार, संकल्पना आदि सब पदार्थ ही हैं। जिस पद अर्थात शब्द का अर्थ है उसे पदार्थ कहते हैं । पहचान किसे कहते हैं? अन्यों से भिन्नता ही उस पदार्थ की पहचान होती है । हमारी विशेषताएं ही हमारी पहचान हैं । हमारी विश्वनिर्माण की मान्यता, जीवन दृष्टि, जीने के व्यवहार के सूत्र, सामाजिक संगठन और सामाजिक व्यवस्थाएँ यह सब अन्यों से भिन्न है । विश्व में शान्ति सौहार्द से भरे जीवन के लिए परस्पर प्रेम, सहानुभूति, विश्वास की आवश्यकता होती है । लेकिन ऐसा व्यवहार कोई क्यों करे इसका कारण केवल अद्वैत या ब्रह्मवाद से ही मिल सकता है । अन्य किसी भी तत्वज्ञान से नहीं । सभी चर और अचर, जड़ और चेतन पदार्थ एक परमात्मा की ही भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं । यही हिन्दू की पहचान है । यह हिन्दू की श्रेष्ठता भी है और इसीलिये विश्वगुरुत्व का कारण भी है। यही विचार निरपवाद रूप से भिन्न भिन्न जातियों के और सम्प्रदायों के सभी हिन्दू संतों ने समाज को दिया है। यह परमात्मा अनंत चैतन्यवान है । यह छ: दिन विश्व का निर्माण करने से थकने वाला गॉड या जेहोवा या अल्लाह नहीं है । हिन्दू विचारधारा ज्ञान के फल को खाने से ‘पाप’ होता है ऐसा माननेवाली नहीं है । पुरूष की पसली से बनाए जाने के कारण स्त्री में रूह नहीं होती ऐसा मानकर स्त्री को केवल उपभोग की वस्तू माननेवाली विचारधारा नहीं है । यह ज्ञान के प्रकाश से विश्व को प्रकाशित करनेवाली विचारधारा है । इसमें स्त्री और पुरूष दोनों का समान महत्त्व है । इसीलिये केवल हिन्दू ही जैसे ब्रह्मा, विष्णू, महेश, गणेश, कार्तिकेय आदि पुरूष देवताओं के सामान ही सरस्वती (विद्या की देवता), लक्ष्मी (समृद्धि की देवता) और दुर्गा (शक्ति की देवता) इन्हें भी देवता के रूप में पूजता है । परमात्मा, जीवात्मा, मोक्ष, धर्म, राजा, सम्राट, संस्कृति, कुटुंब, स्वर्ग, नरक आदि शब्दों के अर्थ क्रमश: गॉड, सोल, साल्वेशन, रिलीजन, किंग, मोनार्क, कल्चर, फेमिली, हेवन, हेल आदि नहीं हैं। ऐसे सैकड़ों शब्द हैं जिनका अंग्रेजी में या अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद ही नहीं हो सकता। क्यों कि वे हमारी विशेषताएं हैं । भारतीय/हिंदू जन्म से ही भारतीय/हिन्दू ‘होता’ है, बनाया नहीं जाता । हिन्दू तो जन्म से होता है । सुन्नत या बाप्तिस्मा जैसी प्रक्रिया से बनाया नहीं जाता ।

हिन्दू - जीवन का एक विशेष प्रतिमान

हर समाज का जीने का अपना तरीका होता है। उस समाज की मान्यताओं के आधार पर यह तरीका आकार लेता है । इन मान्यताओं का आधार उस समाज की विश्व और इस विश्व के भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण की कल्पना होती है । इस के आधार पर उस समाज की जीवन दृष्टि आकार लेती है । जीवन दृष्टि के अनुसार व्यवहार करने के कारण कुछ व्यवहार सूत्र बनते हैं । व्यवहार सूत्रों के अनुसार जीना संभव हो, इस दृष्टि से वह समाज अपनी सामाजिक प्रणालियों को संगठित करता है और अपनी व्यवस्थाएँ निर्माण करता है । इन सबको मिलाकर उस समाज के जीने का ‘तरीका’ बनाता है । इसे ही उस समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं

हिन्दू यह एक जीवन का प्रतिमान है । हिन्दू जीवन के प्रतिमान के मुख्य पहलू निम्न हैं:

  • सृष्टि निर्माण की मान्यता : चर और अचर ऐसे सारे अस्तित्व परमात्मा की ही अभिव्यक्तियाँ हैं । परमात्माने अपने में से ही बनाए हुए हैं ।
  • जीवन का लक्ष्य : जीवन का लक्ष्य मोक्ष है ।
  • जीवन दृष्टि : सारे अस्तित्वों की ओर देखने की दृष्टि एकात्मता और इसीलिये समग्रता की है ।
  • जीवनशैली या व्यवहार सूत्र : आत्मवत् सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुंबकम् , विश्वं सर्वं भवत्यैक नीडं, सर्वे भवन्तु सुखिन:, धर्म सर्वोपरि, आदि ।
  • सामाजिक संगठन : कुटुंब, ग्राम, वर्णाश्रम आदि हैं । इनका आधार एकात्मता है। एकात्मता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुंब भावना है ।
  • व्यवस्थाएँ:रक्षण, पोषण और शिक्षण । इन व्यवस्थाओं के निर्माण का आधार धर्म है । एकात्मता और समग्रता है । कुटुंब भावना है ।

हिन्दूस्थान की या भारत की परमात्मा प्रदत्त जिम्मेदारी

जब किसी भी पदार्थ का निर्माण किया जाता है तो उसके निर्माण का कुछ उद्देश्य होता है । बिना प्रयोजन के कोई कुछ निर्माण नहीं करता । इसी लिए सृष्टि के हर अस्तित्व के निर्माण का भी कुछ प्रयोजन है । इसी तरह से हर समाज के अस्तित्व का कुछ प्रयोजन होता है । हिन्दूस्थान या भारत का महत्व बताने के लिए स्वामी विवेकानंद वैश्विक जीवन को एक नाटक की उपमा देते हैं । वे बताते हैं कि हिन्दूस्थान इस नाटक का नायक है । नायक होने से यह नाटक के प्रारम्भ से लेकर अंत तक रंगमंच पर रहता है । इस नाटक के नायक की भूमिका ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ की है । वैश्विक समाज को आर्य बनाने की है । प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नोल्ड टोयन्बी बताते हैं – यदि मानव जाति को आत्मनाश से बचना है तो जिस प्रकरण का प्रारंभ पश्चिम ने (यूरोप) ने किया है उसका अंत अनिवार्यता से धार्मिक (भारतीय) होना आवश्यक है । ( The Chapter which had a western beginning shall have to have an Indian ending if the world is not to trace the path of self destruction of human race)

हिंदू धर्म की शिक्षा के अभाव के दुष्परिणाम

अंग्रेजों ने हिन्दू और मुसलमान ऐसे दो हिस्सों में भारत का विभाजन किया था: हिन्दुस्थान और पाकिस्तान । लेकिन हिन्दुस्थान में हिदू धर्म की हिंदुत्व की शिक्षा देने का कोई प्रावधान नहीं है । अंग्रेज शासकों को अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष रूझवेल्ट ने सलाह दी थी कि शासन ऐसे हाथों में दें जो अंग्रेजियत में रंगे हों । अंग्रेजों ने ऐसा ही किया । इस कारण हिन्दुस्तान में ईसाईयों के लिए ईसाईयत की शिक्षा की व्यवस्था है, मुसलमानों के लिए इस्लाम की शिक्षा की व्यवस्था है लेकिन हिन्दुओं के लिए हिंदुत्व की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है । परिणामत: हिन्दुओं की आबादी का प्रतिशत अन्य समाजों की तुलना में घटता जा रहा है । ऐसा ही चलता रहा तो २०६१ तक हिन्दुस्तान में हिन्दू अल्पसंख्य हो जायेंगे । ऐसा होना यह केवल भारत के लिए ही नहीं समूचे विश्व के लिए हानिकारक है । भारतीयों को हिन्दू धर्म की शिक्षा मिलने से घर वापसी की पूरी संभावनाएं हैं ।

हिन्दू जनसंख्या

विश्व की जनसंख्या में हिन्दू चौथे क्रमांक पर हैं । हिन्दू < बौद्ध < मुस्लिम < ईसाई । चीन की आबादी को यदि बौद्ध न मान उसे कम्यूनिस्ट मजहब कहें तो यह क्रम बौद्ध < हिन्दू < कम्यूनिस्ट < मुस्लिम < ईसाई - ऐसा होगा ।

भारत में धार्मिक (भारतीय) धर्मी ( हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख) के लोगों की आबादी और इस्लाम और ईसाई मजहबों की आबादी तथा इन में होनेवाले उतार चढ़ाव विचारणीय है । २००१ तक की जानकारी नीचे दे रहे हैं [16]

‘कुल’ आंकड़े हजार में

१८८१ १९०१ १९४१ १९५१ १९९१ २००१
कुल २५०,१५५ २८३,८६८ ३८८,९९८ ४४१,५१५ १,०६८,०६८ १,३०५,७२१
धार्मिक (भारतीय) धर्मी ७९.३२ ७७.१४ ७३.८१ ७३.६८ ६८.७२ ६७.५६
मुस्लिम १९.९७ २१.८८ २४.२८ २४.२८ २९.२५ ३०.३८
ईसाई ०.७१ ०.९८ १.९१ २.०४ २.०४ २.०६

इन आंकड़ों के साथ ही भारत पाकिस्तान और बांगला देश की हिन्दू जनसंख्या की बदलती स्थिति (%) भी विचारणीय है।

१९०१ १९४१ १९५१ १९९१ २००१
धार्मिक (भारतीय) धर्मी ८६.६४ ८४.४४ ८७.२२ ८५.०७ ८४.22
पाकिस्तान १५.९३ १९.६९ १.६० १.६५ १.८४
बांग्लादेश ३३.९३ २९.६१ २२.८९ ११.३७ १०.०३

भारत में आबादी वृद्धि की गति

१९५१-६१ १९६१-७१ १९७१-८१ १९८१-91 १९९१-२००१
कुल जनसंख्या (%) २१.६४ २४.८० २४.६६ २३.८५ २१.५६
हिन्दू धर्मी (%) २१.१६ २३.८४ २४.०९ २२.७९ २०.३४
मुस्लिम २४.४३ ३०.८४ ३०.७४ ३२.७९ २९.५०
ईसाई २७.२९ ३२.६० १७.३८ १७.७० २३.१३

References

  1. जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड १, अध्याय १, लेखक - दिलीप केलकर
  2. हिंदुत्व की यात्रा : लेखक – गुरुदत्त, प्रकाशक, शाश्वत संस्कृति परिषद्, नई दिल्ली
  3. हिंदुत्व की यात्रा, गुरुदत्त
  4. भारतीय राज्यशास्त्र. लेखक : गो.वा. टोकेकर और मधुकर महाजन. विद्या प्रकाशन, पृष्ठ २२. प्रकाशक : सुशीला महाजन. ५/५७ विष्णू प्रसाद. विले पार्ले, मुम्बई.
  5. श्रीमद्भगवद्गीता: (7-11)
  6. श्रीमद्भगवद्गीता: (9-24)
  7. विष्णु पुराण (द्वितीय अध्याय)
  8. बुद्धस्मृति
  9. बृहस्पति आगम:
  10. सिस्टर निवेदिता अकादमी पब्लिकेशन, द ओरीजीन ऑफ द वर्ड हिन्दू ,१९९३
  11. शोतीर, पारसी पुस्तक.
  12. माधव दिग्विजय
  13. पारिजातहरण नाटक
  14. मेरुतंत्र प्र-३३
  15. शब्दकल्पदृम (शब्दकोश)
  16. ‘भारतवर्ष की धर्मानुसार जनसांख्यिकी’ पुस्तिका, समाजनीति समीक्षण केन्द्र, चेन्नई द्वारा २००५ में प्रकाशित

अन्य स्रोत:

  1. अधिजनन शास्त्र – प्रकाशन : पुनरुत्थान विद्यापीठ
  2. हिन्दू राष्ट्र का सत्य इतिहास. लेखक श्रीराम साठे. प्रकाशिका सुनीता रतिवाल, हैदराबाद ५०००२९
  3. रामकृष्ण मठ, नागपुर द्वारा प्रकाशित, विवेकानंदजी द्वारा लिखित पुस्तक “हिन्दू धर्म”
  4. हिन्दू अल्पसंख्य होणार का? लेखक मिलिंद थत्ते, प्रकाशक हिन्दुस्थान प्रकाशन संस्था, प्रभादेवी, मुम्बई