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== जीवन दृष्टि के सूत्र ==
 
== जीवन दृष्टि के सूत्र ==
 
प्राचीन काल से ही मै कौन हूं? कहाँ से आया हूं? मेरे जन्म का प्रयोजन क्या है ? मरने के बाद मै कहाँ जाऊंगा? आदि प्रश्नों के उत्तर हमारे पूर्वजों ने खोज निकाले थे। वह उत्तर आज भी उतने ही सटीक हैं। इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिये जो चिंतन हुआ हुआ उस का सार निम्न है:
 
प्राचीन काल से ही मै कौन हूं? कहाँ से आया हूं? मेरे जन्म का प्रयोजन क्या है ? मरने के बाद मै कहाँ जाऊंगा? आदि प्रश्नों के उत्तर हमारे पूर्वजों ने खोज निकाले थे। वह उत्तर आज भी उतने ही सटीक हैं। इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिये जो चिंतन हुआ हुआ उस का सार निम्न है:
# चराचर अर्थात् जड़ और चेतन सृष्टि यह आत्म तत्व का ही विस्तार है। इस लिये चराचर के प्रत्येक घटक का एक दूसरे से आत्मीयता का संबंध है। आत्मीयता शब्द ही आत्मतत्व से बना है। आत्मीयता से व्यवहार के सूत्र प्रेम, सेवा और त्याग है। आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति परिवार भावना है।
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# चराचर अर्थात् जड़़ और चेतन सृष्टि यह आत्म तत्व का ही विस्तार है। इस लिये चराचर के प्रत्येक घटक का एक दूसरे से आत्मीयता का संबंध है। आत्मीयता शब्द ही आत्मतत्व से बना है। आत्मीयता से व्यवहार के सूत्र प्रेम, सेवा और त्याग है। आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति परिवार भावना है।
# आत्मतत्व परम चैतन्यमय है। इस लिये सारी सृष्टि यह चैतन्यमय ही है। जड़, जीव, वनस्पति, प्राणी और मानव आदि अक्रिय से लेकर सक्रिय तक की चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों को दिये गये नाम है।
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# आत्मतत्व परम चैतन्यमय है। इस लिये सारी सृष्टि यह चैतन्यमय ही है। जड़़, जीव, वनस्पति, प्राणी और मानव आदि अक्रिय से लेकर सक्रिय तक की चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों को दिये गये नाम है।
 
# सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्व से) से निकले वहाँ ( परमात्मतत्व तक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
 
# सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्व से) से निकले वहाँ ( परमात्मतत्व तक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
 
# जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जब तक सृष्टि में उसका विलय होगा तब तक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बार बार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।
 
# जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जब तक सृष्टि में उसका विलय होगा तब तक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बार बार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।
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संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रद्धा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अधार्मिकों की बात भिन्न है।  
 
संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रद्धा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अधार्मिकों की बात भिन्न है।  
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मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगोंं को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगोंं को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगोंं को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगोंं के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
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मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगोंं को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगोंं को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगोंं को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगोंं के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
    
इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रद्धा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रद्धा उन्हें सदा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।   
 
इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रद्धा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रद्धा उन्हें सदा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।   
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* बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे।   
 
* बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे।   
 
* मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती। आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है। इस भावनात्मक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है।  
 
* मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती। आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है। इस भावनात्मक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है।  
* अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड़ तो अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है।  
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* अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड़़ तो अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है।  
 
* आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवार पर होता है एकत्रित परिवार पर नहीं होता है।  
 
* आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवार पर होता है एकत्रित परिवार पर नहीं होता है।  
 
* एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है। अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है। विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है। पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण  एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है। इस संदर्भ में एक मजेदार और मार्मिक ऐसी दो पंक्तियाँ हिंदी प्रदेश में सुनने में आती है। जा के घर में चार लाठी वो चौधरी जा के घर में पाँच वो पंच। और जा के घर में छ: वो ना चौधरी गणे ना पंच ॥ अर्थात् जिस के एकत्रित परिवार में चार लाठी यानी चार मर्द हों  वह चौधरी याने लोगोंं का मुखिया बन जाता है। जिस के घर में पाँच मर्द हों वह गाँव का पंच बन सकता है। और जिस के घर में छ: मर्द हों उस के साथ तो गाँव का चौधरी और गाँव का पंच भी उस से सलाह लेने आता है।  
 
* एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है। अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है। विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है। पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण  एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है। इस संदर्भ में एक मजेदार और मार्मिक ऐसी दो पंक्तियाँ हिंदी प्रदेश में सुनने में आती है। जा के घर में चार लाठी वो चौधरी जा के घर में पाँच वो पंच। और जा के घर में छ: वो ना चौधरी गणे ना पंच ॥ अर्थात् जिस के एकत्रित परिवार में चार लाठी यानी चार मर्द हों  वह चौधरी याने लोगोंं का मुखिया बन जाता है। जिस के घर में पाँच मर्द हों वह गाँव का पंच बन सकता है। और जिस के घर में छ: मर्द हों उस के साथ तो गाँव का चौधरी और गाँव का पंच भी उस से सलाह लेने आता है।  
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* '''तपस'''  का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
 
* '''तपस'''  का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
 
* स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
 
* स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
* '''ईश्वर प्रणिधान''' से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रद्धा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है। जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है। वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये। गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही। बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है। कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता। यह अपने आप होता है। किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है। किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगोंं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है। वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है। यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है। और सृष्टि के अंततक चलेगा। इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई। किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है। किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है। यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनाया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा 'यह सब परमात्मा की लीला है'। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं। सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम:। और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का। अनूभूति के स्तर का। इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान।  
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* '''ईश्वर प्रणिधान''' से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रद्धा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है। जड़़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है। वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये। गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही। बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है। कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता। यह अपने आप होता है। किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है। किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगोंं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है। वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है। यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है। और सृष्टि के अंततक चलेगा। इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई। किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है। किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है। यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनाया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा 'यह सब परमात्मा की लीला है'। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं। सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम:। और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का। अनूभूति के स्तर का। इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान।  
    
=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
 
=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
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=== १३ आत्मवत् सर्वभूतेषू ===
 
=== १३ आत्मवत् सर्वभूतेषू ===
पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। इसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता के आधारपर यह वर्तन सूत्र बना है। मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़ चेतन सभी परमात्मतत्व ही है। इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों से अपेक्षा है। और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता।   
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पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। इसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता के आधारपर यह वर्तन सूत्र बना है। मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़़ चेतन सभी परमात्मतत्व ही है। इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों से अपेक्षा है। और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता।   
    
यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है। इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है। एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है। मानवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है। इस सूत्र का उपयोग करने की पद्धति समझना महत्वपूर्ण है।   
 
यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है। इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है। एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है। मानवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है। इस सूत्र का उपयोग करने की पद्धति समझना महत्वपूर्ण है।   

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