Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "हमेशा" to "सदा"
Line 124: Line 124:  
मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
 
मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
   −
इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रद्धा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रद्धा उन्हें हमेशा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।   
+
इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रद्धा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रद्धा उन्हें सदा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।   
    
धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा। आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।   
 
धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा। आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।   
Line 135: Line 135:  
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिद्धांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिद्धांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिद्धांत नहीं रहता। वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिद्धांत बन जाता है। अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:  
 
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिद्धांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिद्धांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिद्धांत नहीं रहता। वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिद्धांत बन जाता है। अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:  
 
# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को सहायता करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।  
 
# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को सहायता करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।  
# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिद्धांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिद्धांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:  
+
# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै सदा तय नहीं कर सकता।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिद्धांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिद्धांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:  
 
## एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।  
 
## एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।  
 
## दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।  
 
## दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।  
Line 146: Line 146:     
==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
 
==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
अन्य समाज और धार्मिक (भारतीय) समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है। अन्य समाजों में  गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रद्धा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। स्वर्ग-नरक की धार्मिक (भारतीय) मान्यता बुद्धियुक्त है। धार्मिक (भारतीय) विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा। और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी। स्वर्ग और नरक की धार्मिक (भारतीय) कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता। व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में धार्मिक (भारतीय) स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है।  
+
अन्य समाज और धार्मिक (भारतीय) समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है। अन्य समाजों में  गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रद्धा रखना इतना सदा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। स्वर्ग-नरक की धार्मिक (भारतीय) मान्यता बुद्धियुक्त है। धार्मिक (भारतीय) विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा। और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी। स्वर्ग और नरक की धार्मिक (भारतीय) कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता। व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में धार्मिक (भारतीय) स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है।  
    
==== ४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ====
 
==== ४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ====
Line 323: Line 323:  
अब यही तत्व रिश्वतखोरी की समस्या को लगाएं। इस समस्या में रिश्वत देनेवाला समस्य-पीडित है। रिश्वत लेनेवाला जब रिश्वत देनेवाले की भूमिका से विचार करेगा, तो वह कभी रिश्वत नहीं लेगा। क्यों की किसी को भी रिश्वत देकर काम करवाना अच्छा नहीं लगता।  
 
अब यही तत्व रिश्वतखोरी की समस्या को लगाएं। इस समस्या में रिश्वत देनेवाला समस्य-पीडित है। रिश्वत लेनेवाला जब रिश्वत देनेवाले की भूमिका से विचार करेगा, तो वह कभी रिश्वत नहीं लेगा। क्यों की किसी को भी रिश्वत देकर काम करवाना अच्छा नहीं लगता।  
   −
स्त्रियों के साथ पुरुषों का व्यवहार यह भी एक समस्या है। शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण, इस में समस्या पीडित स्त्री ही होती है। समस्या यह है की पुरुष स्त्री का सम्मान नही करता। जब पुरुष अपने को स्त्री की भूमिका में रखकर विचार करेगा तब वह हमेशा स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करेगा। मेरी बेटी, मेरी बहन, मेरी पत्नि और मेरी माता को लोग सम्मान से देखें ऐसा मुझे लगता है तो मैने भी अन्य किसी की बेटी, बहन, पत्नि और माता के साथ सम्मान से ही व्यवहार करना चाहिये। इसी को धार्मिक (भारतीय) संस्कृति में संस्कृत में कहा है ' मातृवत् परदारेषू। हर पराई स्त्री मेरे लिये माता के समान है।  
+
स्त्रियों के साथ पुरुषों का व्यवहार यह भी एक समस्या है। शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण, इस में समस्या पीडित स्त्री ही होती है। समस्या यह है की पुरुष स्त्री का सम्मान नही करता। जब पुरुष अपने को स्त्री की भूमिका में रखकर विचार करेगा तब वह सदा स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करेगा। मेरी बेटी, मेरी बहन, मेरी पत्नि और मेरी माता को लोग सम्मान से देखें ऐसा मुझे लगता है तो मैने भी अन्य किसी की बेटी, बहन, पत्नि और माता के साथ सम्मान से ही व्यवहार करना चाहिये। इसी को धार्मिक (भारतीय) संस्कृति में संस्कृत में कहा है ' मातृवत् परदारेषू। हर पराई स्त्री मेरे लिये माता के समान है।  
    
=== १४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम् ===
 
=== १४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम् ===
Line 355: Line 355:  
पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है।   
 
पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है।   
   −
शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है। ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है। वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन धार्मिक (भारतीय) ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी। यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है। हमारे धार्मिक (भारतीय) पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है। इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी।  
+
शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है। ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है। वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन धार्मिक (भारतीय) ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी। यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है। हमारे धार्मिक (भारतीय) पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है। इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं सदा पूर्ण करती रहेगी।  
    
वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।  
 
वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।  

Navigation menu