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# सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्व से) से निकले वहाँ ( परमात्मतत्व तक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
 
# सृष्टि के सभी घटकों में मानव जाति सब से अधिक विकसित है। मनुष्य जन्म का प्रयोजन जहाँ (परमात्मतत्व से) से निकले वहाँ ( परमात्मतत्व तक) पहुंचना ही है। यही सृष्टि की चक्रीयता के स्वरूप से भी समझ में आता है। उत्पत्ति, स्थिति और लय यही सृष्टि के कालचक्र की गति है। अर्थात् मनुष्य जन्म का प्रयोजन आत्मतत्व में लीन हो जाना या परमात्मपद प्राप्ति है। मोक्ष है। मुक्ति है। चराचर सृष्टि के साथ एकात्मता की भावना का विकास ही परमात्मपद प्राप्ति है। प्रत्येक मनुष्य को यह लक्ष्य प्राप्त हो सके इस लिये समाज के साथ ही यज्ञ (नि:स्वार्थ भाव से लोक हित के और पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखने के लिये काम करना -संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०,११) को भी परमात्मा ने निर्माण किया है।
 
# जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जब तक सृष्टि में उसका विलय होगा तब तक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बार बार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।
 
# जीवन स्थल और काल के संदर्भ में एक और अखण्ड है। इस लिये इस का टुकडों में विचार नहीं किया जाना चाहिये। स्थल के संदर्भ में अखण्डता से मतलब है विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या कृति का विश्व के हर भाग में असर होना। और काल के सन्दर्भ में अखण्डता का अर्थ है हर जीव जब से उसका सृष्टि में सृजन हुआ है तब से लेकर जब तक सृष्टि में उसका विलय होगा तब तक उसका अस्तित्व रहेगा। यह उसके बार बार जन्म और मृत्यू के रूप में चलता रहता है। इस कारण एकात्म और समग्र पध्दति से ही जीवन का विचार करना चाहिये। ‘थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली’ इस अंगरेजी मुहावरे का अर्थ है, वैश्विक हित का विचार कर उस के सन्दर्भ में स्थानिक स्तरपर काम करो।
# एक मात्र मनुष्य योनि कर्म योनि है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनि में कर्म ही जीवन का नियमन करते है। इसे समझने के लिए ही कर्म सिध्दांत की प्रस्तुति की गयी है।
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# एक मात्र मनुष्य योनि कर्म योनि है। मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है। इसे कर्म करने की स्वतंत्रता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य योनि में कर्म ही जीवन का नियमन करते है। इसे समझने के लिए ही कर्म सिद्धांत की प्रस्तुति की गयी है।
    
== व्यवहार के सूत्र ==
 
== व्यवहार के सूत्र ==
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सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है {{Citation needed}}।<blockquote>सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान </blockquote><blockquote>इंद्रिय, मन, बुद्धि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान </blockquote>एक प्रयोग से इसे हम समझने का प्रयास करेंगे। खुले आसमान में सितारें देखने के लिये दूरबीन लगाएं। दूरबीन के अगले कांच पर बीच में एक छोटा छेद वाला कागज चिपका दें। अब आकाश का एक छोटा हिस्सा ही दिखाई देगा। अब इस छोटे हिस्से में कितने तारे दिखाई देते है गिनती करें। संख्या लिख लें। अब एक अधू दृष्टि के मनुष्य को दूरबीन में से देखने दें। तारे गिनने दें। फिर संख्या लिख लें। अब तारों की संख्या कम हो गई होगी। अब एक अंधे को देखने दें। अब संख्या शून्य होगी। अब सोचिये तीनों मे से सत्य संख्या कौन सी है। तीनों संख्याओं के भिन्न होनेपर भी, तीनों ही अपने अपने हिसाब से सत्य का ही कथन कर रहे है।  
 
सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है {{Citation needed}}।<blockquote>सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान </blockquote><blockquote>इंद्रिय, मन, बुद्धि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान </blockquote>एक प्रयोग से इसे हम समझने का प्रयास करेंगे। खुले आसमान में सितारें देखने के लिये दूरबीन लगाएं। दूरबीन के अगले कांच पर बीच में एक छोटा छेद वाला कागज चिपका दें। अब आकाश का एक छोटा हिस्सा ही दिखाई देगा। अब इस छोटे हिस्से में कितने तारे दिखाई देते है गिनती करें। संख्या लिख लें। अब एक अधू दृष्टि के मनुष्य को दूरबीन में से देखने दें। तारे गिनने दें। फिर संख्या लिख लें। अब तारों की संख्या कम हो गई होगी। अब एक अंधे को देखने दें। अब संख्या शून्य होगी। अब सोचिये तीनों मे से सत्य संख्या कौन सी है। तीनों संख्याओं के भिन्न होनेपर भी, तीनों ही अपने अपने हिसाब से सत्य का ही कथन कर रहे है।  
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धार्मिक (भारतीय) मनीषियों की यही विशेषता रही है कि जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्होंने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें। न्यूटन के काल में यदि किसी ने आइंस्टीन के सिध्दांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था। इसलिये आइंस्टीन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता। किन्तु आइंस्टीन के सिध्दांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आइंस्टीन के काल में।
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धार्मिक (भारतीय) मनीषियों की यही विशेषता रही है कि जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्होंने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें। न्यूटन के काल में यदि किसी ने आइंस्टीन के सिद्धांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था। इसलिये आइंस्टीन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता। किन्तु आइंस्टीन के सिद्धांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आइंस्टीन के काल में।
    
इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर शायद ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। यह तो अधार्मिक (अभारतीय) चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है।
 
इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर शायद ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। यह तो अधार्मिक (अभारतीय) चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है।
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स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है।  
 
स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है।  
ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
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ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रद्धा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
    
“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही धार्मिक (भारतीय) या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है।
 
“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही धार्मिक (भारतीय) या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है।
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सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी।  
 
सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी।  
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संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है।  
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संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रद्धा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है।  
    
मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
 
मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
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इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रध्दा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रध्दा उन्हें हमेशा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।   
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इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रद्धा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रद्धा उन्हें हमेशा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।   
    
धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा। आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।   
 
धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा। आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।   
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==== ४.५ कर्मसिध्दांत ====
 
==== ४.५ कर्मसिध्दांत ====
मनुष्य को सन्मार्ग पर रखने के लिये धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे। कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है। कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ जीवनदर्शन है। किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।  
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मनुष्य को सन्मार्ग पर रखने के लिये धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे। कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है। कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ जीवनदर्शन है। किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिद्धांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।  
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वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता। वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है। अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:  
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वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिद्धांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिद्धांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिद्धांत नहीं रहता। वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिद्धांत बन जाता है। अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:  
# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।  
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# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।  
# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिध्दांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:  
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# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिद्धांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिद्धांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:  
 
## एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।  
 
## एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।  
 
## दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।  
 
## दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।  
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# कर्मफलों का जोड या घटाव नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है। अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है। दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है। अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते। दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है।  
 
# कर्मफलों का जोड या घटाव नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है। अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है। दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है। अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते। दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है।  
 
# परमात्मा सर्वशक्तिमान है। किन्तु वह अपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है। उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है। किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है। फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों। हमारे कई संत कहते है कि परमात्मा दयालू है। किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं कि परमात्मा भक्त की परीक्षा लेता है। परीक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है कि बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है। परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परीक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते।   
 
# परमात्मा सर्वशक्तिमान है। किन्तु वह अपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है। उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है। किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है। फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों। हमारे कई संत कहते है कि परमात्मा दयालू है। किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं कि परमात्मा भक्त की परीक्षा लेता है। परीक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है कि बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है। परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परीक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते।   
#* वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है। केवल पादरी को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है। इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद पर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे। साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे। ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे। किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता।   
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#* वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है। केवल पादरी को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है। इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद पर श्रद्धा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपद्धर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे। साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे। ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे। किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता।   
    
==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
 
==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
अन्य समाज और धार्मिक (भारतीय) समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है। अन्य समाजों में  गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रध्दा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। स्वर्ग-नरक की धार्मिक (भारतीय) मान्यता बुद्धियुक्त है। धार्मिक (भारतीय) विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा। और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी। स्वर्ग और नरक की धार्मिक (भारतीय) कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता। व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में धार्मिक (भारतीय) स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है।  
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अन्य समाज और धार्मिक (भारतीय) समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है। अन्य समाजों में  गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रद्धा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। स्वर्ग-नरक की धार्मिक (भारतीय) मान्यता बुद्धियुक्त है। धार्मिक (भारतीय) विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा। और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी। स्वर्ग और नरक की धार्मिक (भारतीय) कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता। व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में धार्मिक (भारतीय) स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है।  
    
==== ४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ====
 
==== ४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ====
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==== ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति ) ====
 
==== ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति ) ====
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधि करने की प्रथा थी। इस विधि में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी। यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे। यह संकल्प १५ थे। इन में कहा गया है कि दान श्रध्दा से दो। भय के कारण दो। लज्जा के कारण दो। मित्रता के कारण दो। अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो।  
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गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधि करने की प्रथा थी। इस विधि में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी। यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे। यह संकल्प १५ थे। इन में कहा गया है कि दान श्रद्धा से दो। भय के कारण दो। लज्जा के कारण दो। मित्रता के कारण दो। अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो।  
    
कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे। हर युग में एक एक आधार कम हुआ। और कलियुग में सृष्टि केवल दान पर चलेगी। कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है। धार्मिक (भारतीय) समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है। देने वाला देता जाए। लेने वाला लेता जाए। लेने वाला एक दिन देने वाले के देने वाले हाथ ले ले। अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले। किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे। पुरुषार्थ की पराकाष्ठा करो। खूब धन कमाओ। लेकिन यह सब "मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं" इस भावना से करो।
 
कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे। हर युग में एक एक आधार कम हुआ। और कलियुग में सृष्टि केवल दान पर चलेगी। कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है। धार्मिक (भारतीय) समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है। देने वाला देता जाए। लेने वाला लेता जाए। लेने वाला एक दिन देने वाले के देने वाले हाथ ले ले। अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले। किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे। पुरुषार्थ की पराकाष्ठा करो। खूब धन कमाओ। लेकिन यह सब "मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं" इस भावना से करो।
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* '''तपस'''  का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
 
* '''तपस'''  का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
 
* स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
 
* स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
* '''ईश्वर प्रणिधान''' से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रध्दा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है। जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है। वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये। गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही। बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है। कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता। यह अपने आप होता है। किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है। किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है। वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है। यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है। और सृष्टि के अंततक चलेगा। इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई। किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है। किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है। यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनाया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा 'यह सब परमात्मा की लीला है'। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं। सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम:। और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का। अनूभूति के स्तर का। इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान।  
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* '''ईश्वर प्रणिधान''' से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रद्धा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है। जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है। वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये। गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही। बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है। कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता। यह अपने आप होता है। किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है। किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अणू में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है। वह अणू के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है। यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है। और सृष्टि के अंततक चलेगा। इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई। किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है। किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है। यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनाया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा 'यह सब परमात्मा की लीला है'। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं। सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम:। और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का। अनूभूति के स्तर का। इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान।  
    
=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
 
=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===

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