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== प्रस्तावना ==
 
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१७. ग्रामकुल
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प्रस्तावना  
   
वर्त्तमान में ग्राम विकास के नामपर चलनेवाले लगभग सभी उपक्रम ग्रामों के शहरीकरण के उपक्रम हैं| पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम जीने ‘पूरा’ की ग्रामविकास की कल्पना सामने रखी थी| इसका पूरा नाम है – प्रोव्हायडींग अर्बन फेसिलिटीज  टू रूरल पूअर| यह ग्रामों के शहरीकरण की कल्पना ही है| ग्रामों का शहरीकरण करना यह विकास की नहीं विनाश की दिशा ही है| ऐसा करना अनर्थकारक ही होगा| आज ही विश्व का जितना शहरीकरण हुआ है उसके फलस्वरूप प्रकृति का बेतहाशा शोषण हो रहा है| विश्व के प्रत्येक ग्राम का शहरीकरण करने से यह शोषण का प्रमाण इतना बढ़ जाएगा कि पृथ्वी पर उपलब्ध मर्यादित संसाधनों को हथियाने के लिए बार बार विश्वयुद्ध होंगे|
 
वर्त्तमान में ग्राम विकास के नामपर चलनेवाले लगभग सभी उपक्रम ग्रामों के शहरीकरण के उपक्रम हैं| पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम जीने ‘पूरा’ की ग्रामविकास की कल्पना सामने रखी थी| इसका पूरा नाम है – प्रोव्हायडींग अर्बन फेसिलिटीज  टू रूरल पूअर| यह ग्रामों के शहरीकरण की कल्पना ही है| ग्रामों का शहरीकरण करना यह विकास की नहीं विनाश की दिशा ही है| ऐसा करना अनर्थकारक ही होगा| आज ही विश्व का जितना शहरीकरण हुआ है उसके फलस्वरूप प्रकृति का बेतहाशा शोषण हो रहा है| विश्व के प्रत्येक ग्राम का शहरीकरण करने से यह शोषण का प्रमाण इतना बढ़ जाएगा कि पृथ्वी पर उपलब्ध मर्यादित संसाधनों को हथियाने के लिए बार बार विश्वयुद्ध होंगे|
 
इसलिए हमें ग्राम कया होता है इसे सर्वप्रथम ठीक से समझना आवश्यक है|
 
इसलिए हमें ग्राम कया होता है इसे सर्वप्रथम ठीक से समझना आवश्यक है|
सामाजिक जीवन का लक्ष्य और ग्राम की व्याख्या  
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== सामाजिक जीवन का लक्ष्य और ग्राम की व्याख्या ==
 
जिस तरह मानव जीवन का व्यक्तिगत स्तरपर लक्ष्य मोक्ष है औ मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य इस मोक्ष की ही व्यावहारिक अभिव्यक्ति ‘स्वतंत्रता” है| स्वतंत्रता स्वावलंबन से प्राप्त होती है| सामान्यत: कोई भी मनुष्य अपने आप में स्वावलंबी नहीं बन सकता| अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ती नहीं कर सकता| अन्यों की मदद अनिवार्य होती है| एक कुटुंब भी अपने आप में पूर्णत: स्वावलंबी नहीं बन सकता| और जो स्वावलंबी नहीं है वह स्वतन्त्र भी नहीं बना सकता| स्वतंत्रता की मात्रा परावलंबन के अनुपात में ही मिल सकती है| जिन बातों में वह स्वावलंबी है उन बातों में वह स्वतन्त्र होता है| और जिन बातों में वह परावलंबी होता है उन बातों में उसका स्वातंत्र्य छिन जाता है| परस्परावलंबन से इस गुत्थी को सुलझा सकते हैं| यह समायोजन ही ग्राम निर्माण की संकल्पना का आधारभूत तत्त्व है|  
 
जिस तरह मानव जीवन का व्यक्तिगत स्तरपर लक्ष्य मोक्ष है औ मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य इस मोक्ष की ही व्यावहारिक अभिव्यक्ति ‘स्वतंत्रता” है| स्वतंत्रता स्वावलंबन से प्राप्त होती है| सामान्यत: कोई भी मनुष्य अपने आप में स्वावलंबी नहीं बन सकता| अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ती नहीं कर सकता| अन्यों की मदद अनिवार्य होती है| एक कुटुंब भी अपने आप में पूर्णत: स्वावलंबी नहीं बन सकता| और जो स्वावलंबी नहीं है वह स्वतन्त्र भी नहीं बना सकता| स्वतंत्रता की मात्रा परावलंबन के अनुपात में ही मिल सकती है| जिन बातों में वह स्वावलंबी है उन बातों में वह स्वतन्त्र होता है| और जिन बातों में वह परावलंबी होता है उन बातों में उसका स्वातंत्र्य छिन जाता है| परस्परावलंबन से इस गुत्थी को सुलझा सकते हैं| यह समायोजन ही ग्राम निर्माण की संकल्पना का आधारभूत तत्त्व है|  
 
भारतीय ग्राम की संक्षिप्त व्याख्या : स्थानिक संसाधनोंपर निर्भर परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी समुदाय ही ग्राम है| ऐसे ग्राम में स्वतंत्रता और जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ती का समायोजन होता है|
 
भारतीय ग्राम की संक्षिप्त व्याख्या : स्थानिक संसाधनोंपर निर्भर परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी समुदाय ही ग्राम है| ऐसे ग्राम में स्वतंत्रता और जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ती का समायोजन होता है|
ग्राम की विशेषताएँ  
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== ग्राम की विशेषताएँ ==
 
१. जीवन के लिए ग्राम ही विश्व है | ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए सारा विश्व ही ग्राम है|  
 
१. जीवन के लिए ग्राम ही विश्व है | ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए सारा विश्व ही ग्राम है|  
 
२. ग्राम को एक छोटा विश्व और बड़ा कुटुंब बनाने से सुख और समाधान युक्त समाज की नींव पड़ती है| कुटुंब से आगे वसुधैव कुटुम्बकम् की ओर बढ़ने का यह दूसरा महत्वपूर्ण चरण है|  
 
२. ग्राम को एक छोटा विश्व और बड़ा कुटुंब बनाने से सुख और समाधान युक्त समाज की नींव पड़ती है| कुटुंब से आगे वसुधैव कुटुम्बकम् की ओर बढ़ने का यह दूसरा महत्वपूर्ण चरण है|  
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७. जहांतक हो सके ग्राम के सभी परस्पर व्यवहार कुटुम्ब के व्यवहारोंजैसे ही होने चाहिए| याने – - धन का या पैसे का हस्तांतरण नहीं हो| - अन्न, वस्त्र और भवन इन तीन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती ग्राम की सीमा में ही होनी चाहिए|    - प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की सम्मान के साथ पूर्ती होनी चाहिए| - सभी लोग अपनी अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अन्यों के प्रति अपने कर्ताव्यों का पालन करें| - ग्राम की सीमा में उपलब्ध संसाधनों से ही आवश्यकताओं की पूर्ती की जाए|
 
७. जहांतक हो सके ग्राम के सभी परस्पर व्यवहार कुटुम्ब के व्यवहारोंजैसे ही होने चाहिए| याने – - धन का या पैसे का हस्तांतरण नहीं हो| - अन्न, वस्त्र और भवन इन तीन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती ग्राम की सीमा में ही होनी चाहिए|    - प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की सम्मान के साथ पूर्ती होनी चाहिए| - सभी लोग अपनी अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अन्यों के प्रति अपने कर्ताव्यों का पालन करें| - ग्राम की सीमा में उपलब्ध संसाधनों से ही आवश्यकताओं की पूर्ती की जाए|
 
८. ग्राम यह राष्ट्र की सबसे लघुतम आर्थिक इकाई है| यत पिंडे तत ब्रह्मांडे के न्याय से राष्ट्र में जो कुछ संभव है वह सभी ग्राम में संभव है| अंतर केवल मात्रात्मक का है|  
 
८. ग्राम यह राष्ट्र की सबसे लघुतम आर्थिक इकाई है| यत पिंडे तत ब्रह्मांडे के न्याय से राष्ट्र में जो कुछ संभव है वह सभी ग्राम में संभव है| अंतर केवल मात्रात्मक का है|  
ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था
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१७ वीं सदी में भारत में अंग्रेज आए । भारत में चलनेवाली विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं को समझना उन की समझ से परे था । यहाँ पहले स्नान कौन करेगा इस के लिये झगडते नि:स्वार्थी साधू देखे । मेकॉले को कोई भिखारी दिखाई नही दिया । लोग धर्मशाला बनवाते थे । अन्नछत्र चलाते थे। धर्म का काम करते थे । ऐसा ये लोग क्याप्त करते हैं ? यह उन की समझ से बाहर था  
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== ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था ==
पॉल कैनेडी अपने 'राईज ऍंड फॉल ऑफ ग्रेट नेशन्स ' इस पुस्तक में कुछ सांख्यिकीय जानकारी देता है । इस जानकारी के अनुसार भारत का सन १७५० का औद्योगिक उत्पादन विश्व के उत्पादन का २४.५ प्रतिशत था । अर्थात् भारत विश्व का सब से प्रगत औद्योगिक देश था । एक सामान्य मजदूर दिन का कम से कम ५० ग्रॅम मक्खन खाने की हप्रसियत रखता था । इतनी भारत के जनजन की माली हालत अच्छी थी । भारत की इस प्रतिभा का रहस्य अंग्रेज जान नही पाए । इस आर्थिक समृध्दि के साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन भी करने का प्रयास अंग्रेजों ने किया । और उन्हें समझ में आया की भारत में चलन विनिमय से बहुत ही कम व्यवहार होते हैं। किन्तु उपभोग की वस्तुएं तो सभी को प्राप्त होती हैं। इसलिये उन्हे लगा की भारत की अर्थव्यवस्था वस्तू-विनिमय ( बार्टर सिस्टिम ) से चलती है। उन का यह आकलन भी गलत ही था । इस का कारण तो कोई सामान्य समझवाला मनुष्य भी समझ सकता है । थोडा वस्तू विनिमय की पध्दति का विश्लेषण कर के देखें ।
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१७ वीं सदी में भारत में अंग्रेज आए । भारत में चलनेवाली विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं को समझना उन की समझ से परे था । यहाँ पहले स्नान कौन करेगा इस के लिये झगडते नि:स्वार्थी साधू देखे । मेकॉले को कोई भिखारी दिखाई नही दिया । लोग धर्मशाला बनवाते थे । अन्नछत्र चलाते थे। धर्म का काम करते थे । ऐसा ये लोग क्याप्त करते हैं ? यह उन की समझ से बाहर था
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पॉल कैनेडी अपने 'राईज ऍंड फॉल ऑफ ग्रेट नेशन्स ' इस पुस्तक में कुछ सांख्यिकीय जानकारी देता है । इस जानकारी के अनुसार भारत का सन १७५० का औद्योगिक उत्पादन विश्व के उत्पादन का २४.५ प्रतिशत था । अर्थात् भारत विश्व का सब से प्रगत औद्योगिक देश था । एक सामान्य मजदूर दिन का कम से कम ५० ग्रॅम मक्खन खाने की हप्रसियत रखता था । इतनी भारत के जनजन की माली हालत अच्छी थी । भारत की इस प्रतिभा का रहस्य अंग्रेज जान नही पाए । इस आर्थिक समृध्दि के साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन भी करने का प्रयास अंग्रेजों ने किया । और उन्हें समझ में आया की भारत में चलन विनिमय से बहुत ही कम व्यवहार होते हैं। किन्तु उपभोग की वस्तुएं तो सभी को प्राप्त होती हैं। इसलिये उन्हे लगा की भारत की अर्थव्यवस्था वस्तू-विनिमय ( बार्टर सिस्टिम ) से चलती है। उन का यह आकलन भी गलत ही था । इस का कारण तो कोई सामान्य समझवाला मनुष्य भी समझ सकता है । थोडा वस्तू विनिमय की पध्दति का विश्लेषण कर के देखें ।
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किसान धान पैदा करता है । कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है । कुम्हार अपने मिट्टी के बर्तन देकर किसान से धान प्राप्त करता है । यह है वस्तू विनिमय का स्वरूप । किन्तु इसमें कुम्हार धान के बगैर जी नही सकता । जब की किसान बगैर मिट्टी के बर्तनों के भी जी सकता है । इसलिये जब किसान को मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता नही होगी कुम्हार तो भूखा मर जाएगा । और कोई उदाहरण देख लें । जुलाहा कपडे बुनता है । सुनार गहने बनाता है । जुलाहे का काम तो गहनों के बिना चल सकता है । किन्तु सुनार का काम वस्त्रों के बिना नही चल सकता । इसलिये जब जुलाहे को गहनों की आवश्यकता नही होगी सुनार के लिये वस्त्रों की आपूर्ति संभव नही होगी । संक्षेप में कहें तो इस तरह की वस्तू-विनिमय की व्यवस्था अत्यंत अव्यावहारिक ऐसी है ।
 
किसान धान पैदा करता है । कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है । कुम्हार अपने मिट्टी के बर्तन देकर किसान से धान प्राप्त करता है । यह है वस्तू विनिमय का स्वरूप । किन्तु इसमें कुम्हार धान के बगैर जी नही सकता । जब की किसान बगैर मिट्टी के बर्तनों के भी जी सकता है । इसलिये जब किसान को मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता नही होगी कुम्हार तो भूखा मर जाएगा । और कोई उदाहरण देख लें । जुलाहा कपडे बुनता है । सुनार गहने बनाता है । जुलाहे का काम तो गहनों के बिना चल सकता है । किन्तु सुनार का काम वस्त्रों के बिना नही चल सकता । इसलिये जब जुलाहे को गहनों की आवश्यकता नही होगी सुनार के लिये वस्त्रों की आपूर्ति संभव नही होगी । संक्षेप में कहें तो इस तरह की वस्तू-विनिमय की व्यवस्था अत्यंत अव्यावहारिक ऐसी है ।
 
प्रश्न यह उठता है की फिर अंग्रेजपूर्व भारत के ग्रामीण हिस्सों में आर्थिक व्यवहार कैसे चलते थे ? गाँव के हर मनुष्य का भरण-पोषण तो होता ही था । अनाथों के लिये अनाथालय, वृध्दों के लिये वृध्दाश्रम, विकलांगों के लिये अपंगाश्रम और विधवाओं के लिये विधवाश्रमों की कोई सरकारी व्यवस्था नही थी । फिर गाँव की अर्थव्यवस्था का आधार क्या था ?  
 
प्रश्न यह उठता है की फिर अंग्रेजपूर्व भारत के ग्रामीण हिस्सों में आर्थिक व्यवहार कैसे चलते थे ? गाँव के हर मनुष्य का भरण-पोषण तो होता ही था । अनाथों के लिये अनाथालय, वृध्दों के लिये वृध्दाश्रम, विकलांगों के लिये अपंगाश्रम और विधवाओं के लिये विधवाश्रमों की कोई सरकारी व्यवस्था नही थी । फिर गाँव की अर्थव्यवस्था का आधार क्या था ?  
 
भारत की इस गाँवों की अर्थव्यवस्था को समझने से पहले हमें भारतीय तत्वज्ञान के कुछ सूत्रों को और व्यवस्थाओं को समझना होगा ।
 
भारत की इस गाँवों की अर्थव्यवस्था को समझने से पहले हमें भारतीय तत्वज्ञान के कुछ सूत्रों को और व्यवस्थाओं को समझना होगा ।
तत्वज्ञान के कुछ सूत्र
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== तत्वज्ञान के कुछ सूत्र ==
 
१.  सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: । सारी सृष्टि में एक परमात्मा का वास है । सृष्टि के हर अस्तित्व में आत्मतत्व के होने से सभी में परस्पर आत्मीयता का सीधा संबंध है । इसलिये सृष्टि के चराचर के सुख में ही सब का सुख है।
 
१.  सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: । सारी सृष्टि में एक परमात्मा का वास है । सृष्टि के हर अस्तित्व में आत्मतत्व के होने से सभी में परस्पर आत्मीयता का सीधा संबंध है । इसलिये सृष्टि के चराचर के सुख में ही सब का सुख है।
 
२.  वसुधैव कुटुंबकम् । सारी सृष्टि/वसुधा एक कुटुंब है । और कुटुंब या परिवार का आधार यह आत्मीयता ही है।  
 
२.  वसुधैव कुटुंबकम् । सारी सृष्टि/वसुधा एक कुटुंब है । और कुटुंब या परिवार का आधार यह आत्मीयता ही है।  
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५.  धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह चार पुरूषार्थ मानव जीवन के लिये आवश्यक माने गये हैं। धर्म के अनुकूल अर्थ और काम रखने से मोक्ष प्राप्ति होती है।
 
५.  धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह चार पुरूषार्थ मानव जीवन के लिये आवश्यक माने गये हैं। धर्म के अनुकूल अर्थ और काम रखने से मोक्ष प्राप्ति होती है।
 
६.  अर्थ पुरूषार्थ के अर्थ : हर मनुष्य में इच्छाएं होतीं हैं। और उन इच्छाओं को पूरी करने के प्रयास वह करता है । इन इच्छाओं और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों के कारण ही संसार के व्यवहार चलते हैं। जीवन आगे बढता है । इसलिये भारतीय तत्वज्ञान में इन्हें पुरूषार्थ कहा गया है। इन दोनों के धर्म के अविरोधी होने से समाज ठीक चलता हप्र । और मनुष्य अपने व्यक्तिगत् लक्ष्य मोक्ष की ओर बढता है । यहाँ अर्थ से तात्पर्य केवल पैसे कमाने से नही है। या केवल पैसे के विनिमय से नही है। इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये जानेवाले सभी प्रयासों और साधनों के उपयोग से है।  
 
६.  अर्थ पुरूषार्थ के अर्थ : हर मनुष्य में इच्छाएं होतीं हैं। और उन इच्छाओं को पूरी करने के प्रयास वह करता है । इन इच्छाओं और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों के कारण ही संसार के व्यवहार चलते हैं। जीवन आगे बढता है । इसलिये भारतीय तत्वज्ञान में इन्हें पुरूषार्थ कहा गया है। इन दोनों के धर्म के अविरोधी होने से समाज ठीक चलता हप्र । और मनुष्य अपने व्यक्तिगत् लक्ष्य मोक्ष की ओर बढता है । यहाँ अर्थ से तात्पर्य केवल पैसे कमाने से नही है। या केवल पैसे के विनिमय से नही है। इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये जानेवाले सभी प्रयासों और साधनों के उपयोग से है।  
व्यवस्था
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१.  कुटुंब व्यवस्था : पति-पत्नि विवाह कर एकात्म होते हैं। अपने आत्मीयता के व्यवहार से पूरे परिवार को एकात्म बनाते       हैं। परिवार में परस्पर व्यवहार के माध्यम से सामाजिकता की नींव बनाते हैं। गृहस्थ बनकर शैशव से लेकर वृध्दावस्थातक के सभी आयु के लोगों को आधार देते हैं।  
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== व्यवस्था ==
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१.  कुटुंब व्यवस्था : पति-पत्नि विवाह कर एकात्म होते हैं। अपने आत्मीयता के व्यवहार से पूरे परिवार को एकात्म बनाते हैं। परिवार में परस्पर व्यवहार के माध्यम से सामाजिकता की नींव बनाते हैं। गृहस्थ बनकर शैशव से लेकर वृध्दावस्थातक के सभी आयु के लोगों को आधार देते हैं।  
 
मनुष्य एक जीवन्त ईकाई है । मनुष्य के भिन्न भिन्न अवयव होते हैं। हर अवयव की अपनी विशेषता और काम करने की सामर्थ्य होती है । हर अवयव जब अपनी अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है तब ऐसा कहा जाता है की उस मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा है। जब कोई अवयव अपना काम कर नही पाता तब उस मनुष्य को लकवा मार गया है ऐसा कहा जाता है । ऐसा करने में कोई अवयव ऐसा होता है, जिसे उस की क्षमता और उपयुक्तता अधिक होने से बहुत काम करना पडता है। निरंतर करना पडता है। किन्तु इसलिये वह अवयव झगडा नही करता ।  
 
मनुष्य एक जीवन्त ईकाई है । मनुष्य के भिन्न भिन्न अवयव होते हैं। हर अवयव की अपनी विशेषता और काम करने की सामर्थ्य होती है । हर अवयव जब अपनी अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है तब ऐसा कहा जाता है की उस मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा है। जब कोई अवयव अपना काम कर नही पाता तब उस मनुष्य को लकवा मार गया है ऐसा कहा जाता है । ऐसा करने में कोई अवयव ऐसा होता है, जिसे उस की क्षमता और उपयुक्तता अधिक होने से बहुत काम करना पडता है। निरंतर करना पडता है। किन्तु इसलिये वह अवयव झगडा नही करता ।  
 
मनुष्य शरीर की तरह ही परिवार भी एक जीवन्त ईकाई होती है। परिवार का भी हर सदस्य अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है। किसी को अधिक काम करना पडता है और किसी को कम । किन्तु इसलिये परिवार के सदस्यों में झगडे नही होते । पाण्डवों को जब वनवास हुवा था तब भीम की आवश्यकता के अनुसार उसे आधा अन्न खिलाया जाता था। आधे में बाकी चार पांडव और माता कुन्ती खाना खाते थे । इस के लिये कोई अन्य सदस्य झगडा नही करता था । इसी प्रकार जब कुन्तीमाता या नकुल, सहदेव इन में से कोई चलते चलते थक जाता था तो भीम उसे अपने कंधेपर उठाकर चलता था ।
 
मनुष्य शरीर की तरह ही परिवार भी एक जीवन्त ईकाई होती है। परिवार का भी हर सदस्य अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है। किसी को अधिक काम करना पडता है और किसी को कम । किन्तु इसलिये परिवार के सदस्यों में झगडे नही होते । पाण्डवों को जब वनवास हुवा था तब भीम की आवश्यकता के अनुसार उसे आधा अन्न खिलाया जाता था। आधे में बाकी चार पांडव और माता कुन्ती खाना खाते थे । इस के लिये कोई अन्य सदस्य झगडा नही करता था । इसी प्रकार जब कुन्तीमाता या नकुल, सहदेव इन में से कोई चलते चलते थक जाता था तो भीम उसे अपने कंधेपर उठाकर चलता था ।
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ग्राम, गृह ये शब्द ' गृ ' धातु से बने हैं। ग्राम का भी अर्थ घर से ही है । गृह से ही है । जैसे परिवार यह एक जीवंत लोगों की जीवत ईकाई होती है। उसी प्रकार से ग्राम भी जीवंत परिवारों की जीवंत ईकाई होती है। इसीलिये हिन्दुस्तान में ग्राम के लिये देहात (मानव के देहजैसा) या रावलपिंडी (मनुष्य का जैसे पिण्ड होता है उसी तरह) जैसे शब्दों का उपयोग होता है। इसलिये परिवार में जैसे जीवंत परिवार सदस्यों के परस्पर संबंध होते हैं, उसी प्रकार से ग्राम के परिवारों के परस्पर संबंधों का भी स्वरूप पारिवारिक संबंधोंजैसा ही होता है ।
 
ग्राम, गृह ये शब्द ' गृ ' धातु से बने हैं। ग्राम का भी अर्थ घर से ही है । गृह से ही है । जैसे परिवार यह एक जीवंत लोगों की जीवत ईकाई होती है। उसी प्रकार से ग्राम भी जीवंत परिवारों की जीवंत ईकाई होती है। इसीलिये हिन्दुस्तान में ग्राम के लिये देहात (मानव के देहजैसा) या रावलपिंडी (मनुष्य का जैसे पिण्ड होता है उसी तरह) जैसे शब्दों का उपयोग होता है। इसलिये परिवार में जैसे जीवंत परिवार सदस्यों के परस्पर संबंध होते हैं, उसी प्रकार से ग्राम के परिवारों के परस्पर संबंधों का भी स्वरूप पारिवारिक संबंधोंजैसा ही होता है ।
 
परिवार में परस्पर (आर्थिक) संबंधों का और व्यवहारों का स्वरूप अर्थात् पारिवारिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप  
 
परिवार में परस्पर (आर्थिक) संबंधों का और व्यवहारों का स्वरूप अर्थात् पारिवारिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप  
भारतीय मान्यता के अनुसार हमने देखा की अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ती के लिये जो काम किये जाते हैं या परस्पर व्यवहार होते हैं, उन्हें 'अर्थ ' पुरूषार्थ कहते हैं। इन में धन या पैसे का लेनेदेन होता हप्र, तब भी और नही होता है तब भी, उन्हें अर्थ पुरूषार्थही कहा जाता है। परिवार के सभी सदस्यों के परस्पर व्यवहार को ही उपर्युक्त 'अर्थ' की कल्पना के अनुसार आर्थिक व्यवहार कहा जाता है। अब यह परस्पर (आर्थिक) व्यवहार परिवार में कैसे चलते  
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भारतीय मान्यता के अनुसार हमने देखा की अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ती के लिये जो काम किये जाते हैं या परस्पर व्यवहार होते हैं, उन्हें 'अर्थ ' पुरूषार्थ कहते हैं। इन में धन या पैसे का लेनेदेन होता हप्र, तब भी और नही होता है तब भी, उन्हें अर्थ पुरूषार्थही कहा जाता है। परिवार के सभी सदस्यों के परस्पर व्यवहार को ही उपर्युक्त 'अर्थ' की कल्पना के अनुसार आर्थिक व्यवहार कहा जाता है। अब यह परस्पर (आर्थिक) व्यवहार परिवार में कैसे चलते हप्त उस का विवरण देखते हैं।     
      हप्त उस का विवरण देखते हैं।     
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१.  इन संबंधों में कोई पैसे का विनिमय नही होता । परिवार के सदस्यों में आवश्यकता और इच्छाओं की पूर्ति के लिये परस्पर वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान होता है ।
 
१.  इन संबंधों में कोई पैसे का विनिमय नही होता । परिवार के सदस्यों में आवश्यकता और इच्छाओं की पूर्ति के लिये परस्पर वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान होता है ।
 
२.  हर व्यक्ति की आवश्यकताओं की और इच्छाओं की पुर्ति करना पारिवारिक जिम्मेदारी है ।
 
२.  हर व्यक्ति की आवश्यकताओं की और इच्छाओं की पुर्ति करना पारिवारिक जिम्मेदारी है ।
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१०. पूरे परिवार के हित और सुख में प्रत्येक का हित और सुख होता है। इसी तरह प्रत्येक के हित और सुख में परिवार का हित और सुख निहित होता है। किन्तु हमेशा प्राधान्य परिवार के हित और सुख को ही दिया जाता है।
 
१०. पूरे परिवार के हित और सुख में प्रत्येक का हित और सुख होता है। इसी तरह प्रत्येक के हित और सुख में परिवार का हित और सुख निहित होता है। किन्तु हमेशा प्राधान्य परिवार के हित और सुख को ही दिया जाता है।
 
११. परिवार के सदस्यों के सभी परस्पर व्यवहारों का आधार आत्मीयता होता है। जिस दिन उन के परस्पर व्यवहार में स्वार्थ घुस जाता है, परिवार टूट जाता है। इसीलिये अपने कर्तव्यपालन और दूसरों के अधिकारों की पूर्तीपर बल दिया जाता था ।
 
११. परिवार के सदस्यों के सभी परस्पर व्यवहारों का आधार आत्मीयता होता है। जिस दिन उन के परस्पर व्यवहार में स्वार्थ घुस जाता है, परिवार टूट जाता है। इसीलिये अपने कर्तव्यपालन और दूसरों के अधिकारों की पूर्तीपर बल दिया जाता था ।
ग्रामकुल के परिवारों के परस्पर (आर्थिक) संबंध
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अब उपर्युक्त पारिवारिक आर्थिक व्यवहारों की तरह गाँव के व्यवहार कैसे चलते थे यह देखेंगे ।
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== ग्रामकुल के परिवारों के परस्पर (आर्थिक) संबंध ==
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अब उपर्युक्त पारिवारिक आर्थिक व्यवहारों की तरह गाँव के व्यवहार कैसे चलते थे यह देखेंगे ।
 
१. जिस प्रकार परिवार में परस्पर व्यवहार बिना पैसे के लेनेदेन के चलते हैं, उसी प्रकार ग्राम में भी यथासंभव परस्पर व्यवहार बिना पैसे की लेनेदेन के ही होते थे । किन्तु हर मनुष्य फिर वह बलवान हो चाहे दुर्बल, वह कारीगर हो, कलाकार हो, शिक्षक हो या तत्वज्ञानी उस की आवश्यकताओं की और सम्मान की यथोचित व्यवस्था की जाती थी । जिन बालकों, वृध्दों, विधवाओं और विकलांगों के अपने परिवार नही होते थे उन की आजीविका और सम्मान को भी गाँव की जिम्मेदारी माना जाता था ।   
 
१. जिस प्रकार परिवार में परस्पर व्यवहार बिना पैसे के लेनेदेन के चलते हैं, उसी प्रकार ग्राम में भी यथासंभव परस्पर व्यवहार बिना पैसे की लेनेदेन के ही होते थे । किन्तु हर मनुष्य फिर वह बलवान हो चाहे दुर्बल, वह कारीगर हो, कलाकार हो, शिक्षक हो या तत्वज्ञानी उस की आवश्यकताओं की और सम्मान की यथोचित व्यवस्था की जाती थी । जिन बालकों, वृध्दों, विधवाओं और विकलांगों के अपने परिवार नही होते थे उन की आजीविका और सम्मान को भी गाँव की जिम्मेदारी माना जाता था ।   
 
इस प्रकार से सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये 49 प्रकारके पारिवारिक संस्कार और 2000 प्रकार के व्रत, उत्सव और त्यौहारों की योजना होती थी। हर गाँव में इन की संख्या गाँव की आवश्यकताओं के अनुसार कम-अधिक हुवा करती थी । हर ऐसे कार्यक्रम में सभी कारीगरों, कलाकारों की वस्तुओं के उपयोग को रीति रिवाज में बिठाया गया था । सम्मानपूर्वक यह वस्तुएं उन से ली जाती थीं । बदले में उन्हें पर्याप्त मात्रा में जीवनोपयोगी वस्तुएं दी जाती थीं । इस से उन की आजीविका भी चलती थी और उन्हें सम्मान भी मिलता था । जैसे कर्णवेध का संस्कार करना है तो वह स्वर्णकार के हाथों ही होता था । ब्राह्मण या विद्वान या गाँव का मुखिया भी उसे सम्मान के साथ न्यौता देता था ।   
 
इस प्रकार से सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये 49 प्रकारके पारिवारिक संस्कार और 2000 प्रकार के व्रत, उत्सव और त्यौहारों की योजना होती थी। हर गाँव में इन की संख्या गाँव की आवश्यकताओं के अनुसार कम-अधिक हुवा करती थी । हर ऐसे कार्यक्रम में सभी कारीगरों, कलाकारों की वस्तुओं के उपयोग को रीति रिवाज में बिठाया गया था । सम्मानपूर्वक यह वस्तुएं उन से ली जाती थीं । बदले में उन्हें पर्याप्त मात्रा में जीवनोपयोगी वस्तुएं दी जाती थीं । इस से उन की आजीविका भी चलती थी और उन्हें सम्मान भी मिलता था । जैसे कर्णवेध का संस्कार करना है तो वह स्वर्णकार के हाथों ही होता था । ब्राह्मण या विद्वान या गाँव का मुखिया भी उसे सम्मान के साथ न्यौता देता था ।   
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११. गाँव के सभी परिवारों का परस्पर व्यवहार आत्मीयता का रहता था । पूरा गाँव जैसे एक परिवार हो ऐसा सभी का व्यवहार होता था । लोगों के घर में मंगलकार्य होते थे । बाहर के गाँवों से मेहमान आते थे । जात, बिरादरी के लोग आते थे । इतने सारे मेहमानों की व्यवस्था उस अकेले घर में संभव नही होती थी । किन्तु चिंता की कोई बात नही थी । पडोसी (गाँववाले) मेहमानों को बाँट लेते थे । अपने घर ले जाते थे । खातिरदारी करते थे । और इसे उपकार के तौरपर नही तो परस्पर प्यार के कारण करते थे । आज भी हिन्दीभाषी प्रदेशों में लोगों को यह कहते सुना जा सकता है की,' इस गाँव में हमारे गाँव की बेटी ब्याही है । मै इस गाँव का पानी नही पी सकता । अब लडकी की ससुराल का पानी पीना ठीक हप्र या गलत यह भिन्न विषय है, किन्तु उस की भावना तो यही होती है की उस के गाँव की बेटी याने उस की अपनी बेटी ही है। अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव जिन गाँवों में अभी कम हुवा है ऐसे गाँवोें में आज भी यह ग्रामकुल की भावना अनुभव की जा सकती है।
 
११. गाँव के सभी परिवारों का परस्पर व्यवहार आत्मीयता का रहता था । पूरा गाँव जैसे एक परिवार हो ऐसा सभी का व्यवहार होता था । लोगों के घर में मंगलकार्य होते थे । बाहर के गाँवों से मेहमान आते थे । जात, बिरादरी के लोग आते थे । इतने सारे मेहमानों की व्यवस्था उस अकेले घर में संभव नही होती थी । किन्तु चिंता की कोई बात नही थी । पडोसी (गाँववाले) मेहमानों को बाँट लेते थे । अपने घर ले जाते थे । खातिरदारी करते थे । और इसे उपकार के तौरपर नही तो परस्पर प्यार के कारण करते थे । आज भी हिन्दीभाषी प्रदेशों में लोगों को यह कहते सुना जा सकता है की,' इस गाँव में हमारे गाँव की बेटी ब्याही है । मै इस गाँव का पानी नही पी सकता । अब लडकी की ससुराल का पानी पीना ठीक हप्र या गलत यह भिन्न विषय है, किन्तु उस की भावना तो यही होती है की उस के गाँव की बेटी याने उस की अपनी बेटी ही है। अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव जिन गाँवों में अभी कम हुवा है ऐसे गाँवोें में आज भी यह ग्रामकुल की भावना अनुभव की जा सकती है।
 
१२. गाँव में बाजार नहीं होते थे। बाजार तो ग्राम संकुलों में या शहरों में हाट के रूप में होते थे। हाट में से खरीदी हुई वस्तू गाँव में बेचने खरीदने से गाँव की अर्थव्यवस्था में दोष निर्माण हो जाता था। इसलिये हाट में से खरीदी वस्तु गाँव में बाँटने के लिये होती थी बेचने के लिये नहीं। गाँव में जिन वस्तुओं की बहुलता हो उनका व्यापार अन्य गाँवों के साथ या शहरों में या विदेशों में जाकर होता था। दशहरे को लोग व्यापार के लिये बाहर जाते थे। व्यापार में अपने ग्राम के उत्पादन के बदले में  सामान्यत: सोना और चाँदी लिया जाता था। यह सोना और चाँदी भी ग्राम में वापस लौटकर बेचने के लिये नहीं होती थी। इसे बाँटा जाता था। लुटाया जाता था। आज भी यह प्रथा तो शेष है। लेकिन सोने के स्थानपर आपटे के या शमी के पत्ते 'सोना' मानकर बाँटे जाते हैं।  
 
१२. गाँव में बाजार नहीं होते थे। बाजार तो ग्राम संकुलों में या शहरों में हाट के रूप में होते थे। हाट में से खरीदी हुई वस्तू गाँव में बेचने खरीदने से गाँव की अर्थव्यवस्था में दोष निर्माण हो जाता था। इसलिये हाट में से खरीदी वस्तु गाँव में बाँटने के लिये होती थी बेचने के लिये नहीं। गाँव में जिन वस्तुओं की बहुलता हो उनका व्यापार अन्य गाँवों के साथ या शहरों में या विदेशों में जाकर होता था। दशहरे को लोग व्यापार के लिये बाहर जाते थे। व्यापार में अपने ग्राम के उत्पादन के बदले में  सामान्यत: सोना और चाँदी लिया जाता था। यह सोना और चाँदी भी ग्राम में वापस लौटकर बेचने के लिये नहीं होती थी। इसे बाँटा जाता था। लुटाया जाता था। आज भी यह प्रथा तो शेष है। लेकिन सोने के स्थानपर आपटे के या शमी के पत्ते 'सोना' मानकर बाँटे जाते हैं।  
स्वावलंबी ग्राम योजना  
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== स्वावलंबी ग्राम योजना ==
 
कौटुम्बिक उद्योग के प्रयोग स्वावलंबी ग्राम के साथ ही करने होंगे| ऐसा करने से सफलता की संभावनाएं बढेंगी|  
 
कौटुम्बिक उद्योग के प्रयोग स्वावलंबी ग्राम के साथ ही करने होंगे| ऐसा करने से सफलता की संभावनाएं बढेंगी|  
 
१. ग्राम से प्रारम्भ / ग्राम में निवास की मानसिकता : ग्राम को आधार बनाकर प्रयोग करना होगा| शहर में इसका प्रयोग वर्त्तमान में संभव नहीं है| ग्राम का चयन ग्राम के लोगों की मानसिकता के आधारपर करना होगा| ग्राम के लोगों की पहल, समझ और सहयोग इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हैं|  
 
१. ग्राम से प्रारम्भ / ग्राम में निवास की मानसिकता : ग्राम को आधार बनाकर प्रयोग करना होगा| शहर में इसका प्रयोग वर्त्तमान में संभव नहीं है| ग्राम का चयन ग्राम के लोगों की मानसिकता के आधारपर करना होगा| ग्राम के लोगों की पहल, समझ और सहयोग इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हैं|  
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४. पस्परावलंबन की दृष्टी से आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए उत्पादनों का चयन और वितरण, विभाजन करना| आवश्यकताओं की पूर्ती और उपलब्ध कुशलताओं का तालमेल बिठाना होगा| ग्राम के लिए किसी आवश्यक वस्तू की कमी न रहे इस लिए उत्पादन की जिम्मेदारी का वितरण भी ठीक से करना होगा| एकबार यह संतुलन ठीक से बैठ जाने से आनुवांशिकता से उस की पूर्ती नित्य होने की व्यवस्था बन जाएगी|   
 
४. पस्परावलंबन की दृष्टी से आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए उत्पादनों का चयन और वितरण, विभाजन करना| आवश्यकताओं की पूर्ती और उपलब्ध कुशलताओं का तालमेल बिठाना होगा| ग्राम के लिए किसी आवश्यक वस्तू की कमी न रहे इस लिए उत्पादन की जिम्मेदारी का वितरण भी ठीक से करना होगा| एकबार यह संतुलन ठीक से बैठ जाने से आनुवांशिकता से उस की पूर्ती नित्य होने की व्यवस्था बन जाएगी|   
 
५. ग्राम की वितरण व्यवस्था : ग्राम की वितरण व्यवस्था बहुत ही महत्त्वपूर्ण है| यह वितरण विवेकपूर्ण होना चाहिए| ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था होनी चाहिए|  
 
५. ग्राम की वितरण व्यवस्था : ग्राम की वितरण व्यवस्था बहुत ही महत्त्वपूर्ण है| यह वितरण विवेकपूर्ण होना चाहिए| ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था होनी चाहिए|  
समारोप
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वर्तमान अर्थशास्त्री यह जानते हैं और कहते भी हैं की, ' मनी इज द बिगेस्ट डिस्टॉर्टर ऑफ एकॉनॉमी, अनलेस इट इज केप्ट अंडर स्ट्रिक्ट कंट्रोल ' । अर्थात् पैसे का चलन अर्थव्यवस्था को बिगाडनेवाला सबसे बडा घटक होता है। किन्तु फिर भी पैसे के कारण निर्माण होनेवाली गडबडियों से छुटकारे के लिये कोई प्रयास करता दिखाई नहीं देता| इस का कारण यह है की यह अर्थव्यवस्था का बिगाड बलवानों के स्वार्थ के लिये हितकारी होता है। यही पश्चिमी अर्थशास्त्र का समाजशास्त्रीय आधार है। सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यह पश्चिमी समाज का वर्तनसूत्र भी बलवानों के हित की ही बात करता है।   
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== समारोप ==
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वर्तमान अर्थशास्त्री यह जानते हैं और कहते भी हैं की, ' मनी इज द बिगेस्ट डिस्टॉर्टर ऑफ एकॉनॉमी, अनलेस इट इज केप्ट अंडर स्ट्रिक्ट कंट्रोल ' । अर्थात् पैसे का चलन अर्थव्यवस्था को बिगाडनेवाला सबसे बडा घटक होता है। किन्तु फिर भी पैसे के कारण निर्माण होनेवाली गडबडियों से छुटकारे के लिये कोई प्रयास करता दिखाई नहीं देता| इस का कारण यह है की यह अर्थव्यवस्था का बिगाड बलवानों के स्वार्थ के लिये हितकारी होता है। यही पश्चिमी अर्थशास्त्र का समाजशास्त्रीय आधार है। सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यह पश्चिमी समाज का वर्तनसूत्र भी बलवानों के हित की ही बात करता है।   
 
भारतवर्ष में सर्वे भवन्तु सुखिन: को ध्यान में रखकर अर्थव्यवस्था को विकसित और स्थापित किया गया था । इस अर्थव्यवस्था में पेसे के लेनदेन से होनेवाले व्यवहारों को न्यूनतम रखने के कारण पप्रसे या चलनपर कडा नियंत्रण रहता था । पैसे के कारण व्यवहारों में बिगाड नही निर्माण होते थे । लगभग सभी व्यवहार आत्मीयता के, प्यार के आधारपर वस्तुओं के आदानप्रदान की व्यवस्था से चलाए जाते थे । यही कारण था की भारत एक श्रेष्ठ संस्कृति का अनुसरण करनेवाला और फिर भी अत्यंत समृध्द देश बना था । आज भी हमें आत्मीयतापर आधारित वर्तमान युग के अनुरूप अपनी अर्थव्यवस्था की फिर से स्थापना के प्रयास करने होंगे ।
 
भारतवर्ष में सर्वे भवन्तु सुखिन: को ध्यान में रखकर अर्थव्यवस्था को विकसित और स्थापित किया गया था । इस अर्थव्यवस्था में पेसे के लेनदेन से होनेवाले व्यवहारों को न्यूनतम रखने के कारण पप्रसे या चलनपर कडा नियंत्रण रहता था । पैसे के कारण व्यवहारों में बिगाड नही निर्माण होते थे । लगभग सभी व्यवहार आत्मीयता के, प्यार के आधारपर वस्तुओं के आदानप्रदान की व्यवस्था से चलाए जाते थे । यही कारण था की भारत एक श्रेष्ठ संस्कृति का अनुसरण करनेवाला और फिर भी अत्यंत समृध्द देश बना था । आज भी हमें आत्मीयतापर आधारित वर्तमान युग के अनुरूप अपनी अर्थव्यवस्था की फिर से स्थापना के प्रयास करने होंगे ।
  
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