Difference between revisions of "Grama Kul (ग्रामकुल)"

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आज भी खरे हैं तालाब, लेखक अनुपम मिश्र, प्रकाशक स्वदेशी साहित्य सदन (?) वर्धा
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आज भी खरे हैं तालाब, लेखक अनुपम मिश्र, प्रकाशक स्वदेशी साहित्य सदन वर्धा
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Revision as of 00:03, 10 October 2018

प्रस्तावना

वर्त्तमान में ग्राम विकास के नामपर चलनेवाले लगभग सभी उपक्रम ग्रामों के शहरीकरण के उपक्रम हैं| पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम जीने ‘पूरा’ की ग्रामविकास की कल्पना सामने रखी थी| इसका पूरा नाम है – प्रोव्हायडींग अर्बन फेसिलिटीज टू रूरल पूअर| यह ग्रामों के शहरीकरण की कल्पना ही है| ग्रामों का शहरीकरण करना यह विकास की नहीं विनाश की दिशा ही है| ऐसा करना अनर्थकारक ही होगा| आज ही विश्व का जितना शहरीकरण हुआ है उसके फलस्वरूप प्रकृति का बेतहाशा शोषण हो रहा है| विश्व के प्रत्येक ग्राम का शहरीकरण करने से यह शोषण का प्रमाण इतना बढ़ जाएगा कि पृथ्वी पर उपलब्ध मर्यादित संसाधनों को हथियाने के लिए बार बार विश्वयुद्ध होंगे| इसलिए हमें ग्राम कया होता है इसे सर्वप्रथम ठीक से समझना आवश्यक है|

सामाजिक जीवन का लक्ष्य और ग्राम की व्याख्या

जिस तरह मानव जीवन का व्यक्तिगत स्तरपर लक्ष्य मोक्ष है औ मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य इस मोक्ष की ही व्यावहारिक अभिव्यक्ति ‘स्वतंत्रता” है| स्वतंत्रता स्वावलंबन से प्राप्त होती है| सामान्यत: कोई भी मनुष्य अपने आप में स्वावलंबी नहीं बन सकता| अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ती नहीं कर सकता| अन्यों की मदद अनिवार्य होती है| एक कुटुंब भी अपने आप में पूर्णत: स्वावलंबी नहीं बन सकता| और जो स्वावलंबी नहीं है वह स्वतन्त्र भी नहीं बना सकता| स्वतंत्रता की मात्रा परावलंबन के अनुपात में ही मिल सकती है| जिन बातों में वह स्वावलंबी है उन बातों में वह स्वतन्त्र होता है| और जिन बातों में वह परावलंबी होता है उन बातों में उसका स्वातंत्र्य छिन जाता है| परस्परावलंबन से इस गुत्थी को सुलझा सकते हैं| यह समायोजन ही ग्राम निर्माण की संकल्पना का आधारभूत तत्त्व है| भारतीय ग्राम की संक्षिप्त व्याख्या : स्थानिक संसाधनोंपर निर्भर परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी समुदाय ही ग्राम है| ऐसे ग्राम में स्वतंत्रता और जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ती का समायोजन होता है|

ग्राम की विशेषताएँ

१. जीवन के लिए ग्राम ही विश्व है | ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए सारा विश्व ही ग्राम है| २. ग्राम को एक छोटा विश्व और बड़ा कुटुंब बनाने से सुख और समाधान युक्त समाज की नींव पड़ती है| कुटुंब से आगे वसुधैव कुटुम्बकम् की ओर बढ़ने का यह दूसरा महत्वपूर्ण चरण है| ३. ग्राम का क्षेत्र या ग्राम की सीमा कितनी हो? सुबह घर से निकलकर आजीविका के लिए श्रम कर वापस शामतक घर लौट सके यही ग्राम की सीमा है| ४. ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था ग्राम में ही होनी चाहिए| ५. ग्राम यह परस्परावलंबी परिवारों का मर्यादित भूक्षेत्रपर बसा हुआ स्वावलंबी समूह है| ६. ग्राम के सभी लोगों की जीवनदृष्टी, जीवनशैली, संगठन और व्यवस्थाओं की मान्यताएँ समान होनी चाहिए| ७. जहांतक हो सके ग्राम के सभी परस्पर व्यवहार कुटुम्ब के व्यवहारोंजैसे ही होने चाहिए| याने – - धन का या पैसे का हस्तांतरण नहीं हो| - अन्न, वस्त्र और भवन इन तीन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती ग्राम की सीमा में ही होनी चाहिए| - प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की सम्मान के साथ पूर्ती होनी चाहिए| - सभी लोग अपनी अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अन्यों के प्रति अपने कर्ताव्यों का पालन करें| - ग्राम की सीमा में उपलब्ध संसाधनों से ही आवश्यकताओं की पूर्ती की जाए| ८. ग्राम यह राष्ट्र की सबसे लघुतम आर्थिक इकाई है| यत पिंडे तत ब्रह्मांडे के न्याय से राष्ट्र में जो कुछ संभव है वह सभी ग्राम में संभव है| अंतर केवल मात्रात्मक का है|

ग्रामकुल की अर्थव्यवस्था

१७ वीं सदी में भारत में अंग्रेज आए । भारत में चलनेवाली विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं को समझना उन की समझ से परे था । यहाँ पहले स्नान कौन करेगा इस के लिये झगडते नि:स्वार्थी साधू देखे । मेकॉले को कोई भिखारी दिखाई नही दिया । लोग धर्मशाला बनवाते थे । अन्नछत्र चलाते थे। धर्म का काम करते थे । ऐसा ये लोग क्याप्त करते हैं ? यह उन की समझ से बाहर था

पॉल कैनेडी अपने 'राईज ऍंड फॉल ऑफ ग्रेट नेशन्स ' इस पुस्तक में कुछ सांख्यिकीय जानकारी देता है । इस जानकारी के अनुसार भारत का सन १७५० का औद्योगिक उत्पादन विश्व के उत्पादन का २४.५ प्रतिशत था । अर्थात् भारत विश्व का सब से प्रगत औद्योगिक देश था । एक सामान्य मजदूर दिन का कम से कम ५० ग्रॅम मक्खन खाने की हप्रसियत रखता था । इतनी भारत के जनजन की माली हालत अच्छी थी । भारत की इस प्रतिभा का रहस्य अंग्रेज जान नही पाए । इस आर्थिक समृध्दि के साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन भी करने का प्रयास अंग्रेजों ने किया । और उन्हें समझ में आया की भारत में चलन विनिमय से बहुत ही कम व्यवहार होते हैं। किन्तु उपभोग की वस्तुएं तो सभी को प्राप्त होती हैं। इसलिये उन्हे लगा की भारत की अर्थव्यवस्था वस्तू-विनिमय ( बार्टर सिस्टिम ) से चलती है। उन का यह आकलन भी गलत ही था । इस का कारण तो कोई सामान्य समझवाला मनुष्य भी समझ सकता है । थोडा वस्तू विनिमय की पध्दति का विश्लेषण कर के देखें ।

किसान धान पैदा करता है । कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है । कुम्हार अपने मिट्टी के बर्तन देकर किसान से धान प्राप्त करता है । यह है वस्तू विनिमय का स्वरूप । किन्तु इसमें कुम्हार धान के बगैर जी नही सकता । जब की किसान बगैर मिट्टी के बर्तनों के भी जी सकता है । इसलिये जब किसान को मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता नही होगी कुम्हार तो भूखा मर जाएगा । और कोई उदाहरण देख लें । जुलाहा कपडे बुनता है । सुनार गहने बनाता है । जुलाहे का काम तो गहनों के बिना चल सकता है । किन्तु सुनार का काम वस्त्रों के बिना नही चल सकता । इसलिये जब जुलाहे को गहनों की आवश्यकता नही होगी सुनार के लिये वस्त्रों की आपूर्ति संभव नही होगी । संक्षेप में कहें तो इस तरह की वस्तू-विनिमय की व्यवस्था अत्यंत अव्यावहारिक ऐसी है । प्रश्न यह उठता है की फिर अंग्रेजपूर्व भारत के ग्रामीण हिस्सों में आर्थिक व्यवहार कैसे चलते थे ? गाँव के हर मनुष्य का भरण-पोषण तो होता ही था । अनाथों के लिये अनाथालय, वृध्दों के लिये वृध्दाश्रम, विकलांगों के लिये अपंगाश्रम और विधवाओं के लिये विधवाश्रमों की कोई सरकारी व्यवस्था नही थी । फिर गाँव की अर्थव्यवस्था का आधार क्या था ? भारत की इस गाँवों की अर्थव्यवस्था को समझने से पहले हमें भारतीय तत्वज्ञान के कुछ सूत्रों को और व्यवस्थाओं को समझना होगा ।

तत्वज्ञान के कुछ सूत्र

१. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: । सारी सृष्टि में एक परमात्मा का वास है । सृष्टि के हर अस्तित्व में आत्मतत्व के होने से सभी में परस्पर आत्मीयता का सीधा संबंध है । इसलिये सृष्टि के चराचर के सुख में ही सब का सुख है। २. वसुधैव कुटुंबकम् । सारी सृष्टि/वसुधा एक कुटुंब है । और कुटुंब या परिवार का आधार यह आत्मीयता ही है। ३. जिसने पेट दिया है वह दाने की भी व्यवस्था करेगा । ऐसा विश्वास था । इसी कारण परिवारों में जो जन्मा है वह खाएगा और जो कमाएगा वह खिलाएगा ऐसा व्यवहार होता था । ४. जन्म लेनेवाला बच्चा केवल अपने हित की ही सोच रखता है । पंचमहाभूतों से बने शरीर के मोह से अपने अंदर उपस्थित आत्मतत्व को 'मै’ समझता है । परमात्वतत्व से भिन्न समझता है । ऐसे बच्चे को उस का ‘ स्वार्थ ' भुलाकर अपनों के लिये जीनेवाला मानव बनाना ही मानव का विकास है । ऐसे विकास का केन्द्र परिवार है । ५. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह चार पुरूषार्थ मानव जीवन के लिये आवश्यक माने गये हैं। धर्म के अनुकूल अर्थ और काम रखने से मोक्ष प्राप्ति होती है। ६. अर्थ पुरूषार्थ के अर्थ : हर मनुष्य में इच्छाएं होतीं हैं। और उन इच्छाओं को पूरी करने के प्रयास वह करता है । इन इच्छाओं और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों के कारण ही संसार के व्यवहार चलते हैं। जीवन आगे बढता है । इसलिये भारतीय तत्वज्ञान में इन्हें पुरूषार्थ कहा गया है। इन दोनों के धर्म के अविरोधी होने से समाज ठीक चलता हप्र । और मनुष्य अपने व्यक्तिगत् लक्ष्य मोक्ष की ओर बढता है । यहाँ अर्थ से तात्पर्य केवल पैसे कमाने से नही है। या केवल पैसे के विनिमय से नही है। इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये जानेवाले सभी प्रयासों और साधनों के उपयोग से है।

व्यवस्था

१. कुटुंब व्यवस्था : पति-पत्नि विवाह कर एकात्म होते हैं। अपने आत्मीयता के व्यवहार से पूरे परिवार को एकात्म बनाते हैं। परिवार में परस्पर व्यवहार के माध्यम से सामाजिकता की नींव बनाते हैं। गृहस्थ बनकर शैशव से लेकर वृध्दावस्थातक के सभी आयु के लोगों को आधार देते हैं। मनुष्य एक जीवन्त ईकाई है । मनुष्य के भिन्न भिन्न अवयव होते हैं। हर अवयव की अपनी विशेषता और काम करने की सामर्थ्य होती है । हर अवयव जब अपनी अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है तब ऐसा कहा जाता है की उस मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा है। जब कोई अवयव अपना काम कर नही पाता तब उस मनुष्य को लकवा मार गया है ऐसा कहा जाता है । ऐसा करने में कोई अवयव ऐसा होता है, जिसे उस की क्षमता और उपयुक्तता अधिक होने से बहुत काम करना पडता है। निरंतर करना पडता है। किन्तु इसलिये वह अवयव झगडा नही करता । मनुष्य शरीर की तरह ही परिवार भी एक जीवन्त ईकाई होती है। परिवार का भी हर सदस्य अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है। किसी को अधिक काम करना पडता है और किसी को कम । किन्तु इसलिये परिवार के सदस्यों में झगडे नही होते । पाण्डवों को जब वनवास हुवा था तब भीम की आवश्यकता के अनुसार उसे आधा अन्न खिलाया जाता था। आधे में बाकी चार पांडव और माता कुन्ती खाना खाते थे । इस के लिये कोई अन्य सदस्य झगडा नही करता था । इसी प्रकार जब कुन्तीमाता या नकुल, सहदेव इन में से कोई चलते चलते थक जाता था तो भीम उसे अपने कंधेपर उठाकर चलता था । २. ग्रामकुल व्यवस्था : गाँव भी एक परिवार ही होता था । व्यक्तियों के एकत्रित रहने से परिवार बनता है| कई परिवारों का मिलाकर एक बडा ग्राम परिवार बनता था । परिवार में परस्पर व्यवहार जिस प्रकार से चलते हैं उसी तरह ग्रामकुल में भी चलते थे । ऐसे ग्राम का स्वरूप ग्रामकुल का सा बनता था । ग्राम, गृह ये शब्द ' गृ ' धातु से बने हैं। ग्राम का भी अर्थ घर से ही है । गृह से ही है । जैसे परिवार यह एक जीवंत लोगों की जीवत ईकाई होती है। उसी प्रकार से ग्राम भी जीवंत परिवारों की जीवंत ईकाई होती है। इसीलिये हिन्दुस्तान में ग्राम के लिये देहात (मानव के देहजैसा) या रावलपिंडी (मनुष्य का जैसे पिण्ड होता है उसी तरह) जैसे शब्दों का उपयोग होता है। इसलिये परिवार में जैसे जीवंत परिवार सदस्यों के परस्पर संबंध होते हैं, उसी प्रकार से ग्राम के परिवारों के परस्पर संबंधों का भी स्वरूप पारिवारिक संबंधोंजैसा ही होता है । परिवार में परस्पर (आर्थिक) संबंधों का और व्यवहारों का स्वरूप अर्थात् पारिवारिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप भारतीय मान्यता के अनुसार हमने देखा की अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ती के लिये जो काम किये जाते हैं या परस्पर व्यवहार होते हैं, उन्हें 'अर्थ ' पुरूषार्थ कहते हैं। इन में धन या पैसे का लेनेदेन होता हप्र, तब भी और नही होता है तब भी, उन्हें अर्थ पुरूषार्थही कहा जाता है। परिवार के सभी सदस्यों के परस्पर व्यवहार को ही उपर्युक्त 'अर्थ' की कल्पना के अनुसार आर्थिक व्यवहार कहा जाता है। अब यह परस्पर (आर्थिक) व्यवहार परिवार में कैसे चलते हप्त उस का विवरण देखते हैं।

१. इन संबंधों में कोई पैसे का विनिमय नही होता । परिवार के सदस्यों में आवश्यकता और इच्छाओं की पूर्ति के लिये परस्पर वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान होता है । २. हर व्यक्ति की आवश्यकताओं की और इच्छाओं की पुर्ति करना पारिवारिक जिम्मेदारी है । ३. परिवार का एक मुखिया होता है। मुखिया परिवार के सभी सदस्यों के हित का रक्षण करता है। सभी परिवार के सदस्यों का विश्वास संपादन करता है। मुखिया का निर्णय गलत लगनेपर भी परिवार के सभी सदस्य परिवार के व्यापक हित में मान्य करते हैं। ४. परिवार में दुर्बल घटकों की जिम्मेदारी बलवान घटकोंपर होती है। यह स्वेच्छा से होता है। इसलिये बालक, वृध्द, विधवाएं, रोगी और घर के विकलांगों की जिम्मेदारी परिवार के बलवान सदस्य उठाते हैं। ५. यथासंभव हर आवश्यकता की पूर्ति परिवार में ही हो जाए ऐसा प्रयास होता है। जिन आवश्यकताओं की पूर्ति घर में नहीं हो सकती उन की पूर्ति के लिये गाँव के अन्य परिवारों की मदद ली जाती है। जिस की जैसी क्षमता, परिवार में वैसी उस की जिम्मेदारी तय होती है। ६. परिवार के सदस्यों में स्पर्धा नहीं सहयोग से काम चलते हैं। ईर्षा निर्माण कर नहीं, प्रोत्साहन से उत्साह बढाया जाता है । ७. परिवार के सभी सदस्यों में परस्पर प्रेम के संबंध होते हैं । कोई परिवार छोडकर जाने से अन्य सभी सदस्यों को दुख होता है । वह परिवार नही छोडे ऐसा प्रयास परिवार का हर घटक करता है। ८. परिवार के किसी सदस्य से गलती हो जाती है तो उसे यथासभव समझाया ही जाता है। दण्ड तो अपवादस्वरूप प्रसंगों में ही किया जाता है। ९. परिवार में कोई सदस्य निकम्मा नही माना जाता । वह आलसी होगा, प्रमादी होगा । फिर भी उस के स्वभाव और योग्यता-क्षमता के अनुसार घर के काम की जिम्मेदारी उसे सौंपी जाती ही है । ऐसी जिम्मेदारी सौंपते समय उस के स्वभाव से परिवार को न्यूनतम हानी हो ऐसा देखा जाता है। १०. पूरे परिवार के हित और सुख में प्रत्येक का हित और सुख होता है। इसी तरह प्रत्येक के हित और सुख में परिवार का हित और सुख निहित होता है। किन्तु हमेशा प्राधान्य परिवार के हित और सुख को ही दिया जाता है। ११. परिवार के सदस्यों के सभी परस्पर व्यवहारों का आधार आत्मीयता होता है। जिस दिन उन के परस्पर व्यवहार में स्वार्थ घुस जाता है, परिवार टूट जाता है। इसीलिये अपने कर्तव्यपालन और दूसरों के अधिकारों की पूर्तीपर बल दिया जाता था ।

ग्रामकुल के परिवारों के परस्पर (आर्थिक) संबंध

अब उपर्युक्त पारिवारिक आर्थिक व्यवहारों की तरह गाँव के व्यवहार कैसे चलते थे यह देखेंगे । १. जिस प्रकार परिवार में परस्पर व्यवहार बिना पैसे के लेनेदेन के चलते हैं, उसी प्रकार ग्राम में भी यथासंभव परस्पर व्यवहार बिना पैसे की लेनेदेन के ही होते थे । किन्तु हर मनुष्य फिर वह बलवान हो चाहे दुर्बल, वह कारीगर हो, कलाकार हो, शिक्षक हो या तत्वज्ञानी उस की आवश्यकताओं की और सम्मान की यथोचित व्यवस्था की जाती थी । जिन बालकों, वृध्दों, विधवाओं और विकलांगों के अपने परिवार नही होते थे उन की आजीविका और सम्मान को भी गाँव की जिम्मेदारी माना जाता था । इस प्रकार से सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये 49 प्रकारके पारिवारिक संस्कार और 2000 प्रकार के व्रत, उत्सव और त्यौहारों की योजना होती थी। हर गाँव में इन की संख्या गाँव की आवश्यकताओं के अनुसार कम-अधिक हुवा करती थी । हर ऐसे कार्यक्रम में सभी कारीगरों, कलाकारों की वस्तुओं के उपयोग को रीति रिवाज में बिठाया गया था । सम्मानपूर्वक यह वस्तुएं उन से ली जाती थीं । बदले में उन्हें पर्याप्त मात्रा में जीवनोपयोगी वस्तुएं दी जाती थीं । इस से उन की आजीविका भी चलती थी और उन्हें सम्मान भी मिलता था । जैसे कर्णवेध का संस्कार करना है तो वह स्वर्णकार के हाथों ही होता था । ब्राह्मण या विद्वान या गाँव का मुखिया भी उसे सम्मान के साथ न्यौता देता था । २. गाँव के सभी परिवारों और मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति गाँव में ही हो ऐसा विचार होता था । फिर दुनियाँभर में जो भी कुछ श्रेष्ठ बनता है वह अपने गाँव में बने ऐसा देखा जाता था । हर प्रकार के तंत्रज्ञानी, कलाकार, और ज्ञानी लोग अपने गाँव में हों इस के लिये हर संभव प्रयास गाँव के लोग करते थे । इस हेतु ऐसे हर मनुष्य को सम्मानपूर्ण आजीविका की निश्ंचितता की आश्वस्ति प्रत्यक्ष व्यवहार से दी जाती थी । ३. परिवार की तरह ही गाँव का भी एक मुखिया होता है। वह भी परिवार की तरह ही गाँव के सभी लोगों को सर्वमान्य होता है। सभी के हित की चिन्ता करनेवाला होता है। गाँव के हर परिवार और हर मनुष्य के सम्मान की और आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी वह लेता है। गाँव के समझदार लोगों की सहायता से संस्कारों, व्रतों , त्यौहारों और उत्सवों की योजना बनाता है। ऐसी योजना के क्रियान्वयन से गाँव का हर व्यक्ति सुख, समाधान और सुरक्षा अनुभव करता है। ४. गाँव में जिन घरों में कोई काम करनेवाला नही रह जाता ऐसे परिवारों के बालक, वृध्द, विधवाएं, रोगी और विकलांगों जैसे दुर्बल घटकों की जिम्मेदारी गाँव लेता था । जब नयी फसल आती थी, इन दुर्बल घटकों के लिये पहले उस में से अलग हिस्सा निकाला जाता था । बाद में गाँव का हिस्सा, मंदिर का हिस्सा आदि अलग निकाले जाते थे । जुलाहेद्वारा बनाए कपडे में भी इन दुर्बल घटकों का हिस्सा हुवा करता था । यह गाँव के सभी परिवारों की सहमति से होता था । ५. यथासंभव हर आवश्यकता की पूर्ति गाँव में ही हो जाए ऐसा प्रयास होता था । इस कारण बडे बडे तंत्रज्ञान की जानकारी अपने गाँव के किसी ना किसी सदस्य को हो ऐसा देखा जाता था । ऐसे होनहार लोगों को प्रोत्साहन दिया जाता था । गांधीजीके अनुयायी धर्मपालजीद्वारा वर्णित 18वीं सदी के भारत के वर्णन से यह स्पष्ट होता है की तंत्रज्ञान के मामले में हमारे छोटे छोटे गाँव भी बहुत प्रगत थे । जिस की जैसी क्षमता वैसी उस की जिम्मेदारी तय होती है। कई प्रकार से नमक बनानेवाले लोग आज भी कई गाँवों में पाए जाते हैं । सामान्य कचरे जैसी वस्तुओं में से तांबा बनाने का तंत्रज्ञान लोग जानते थे । इस तरह गाँव को स्वावलंबी बनाने की तीव्र इच्छा सब रखते थे और वैसा प्रयास भी करते थे । ६. गाँव में स्पर्धाएं नही होती थीं । शक्ति के, कला के, कारीगरी के प्रदर्शन होते थे । दुनियाँभर के सभी प्रकार के श्रेष्ठ काम, कारीगरी, कला आदि अपने गाँव में हों इस के लिये सब भरसक प्रयास करते थे । ७. गाँव छोडकर कोई जाता नही था । कोई भी गाँव छोडकर नही जाए ऐसी सब की इच्छा होती थी । वैसा प्रयास भी सब करते थे । फिर भी कोई जाने लगता तो लोग उस की मिन्नतें करते, उसे अपनी ओर से जाने या अनजाने में कुछ तकलीफ हुई होगी उस के लिये क्षमा माँगी जाती । वह गाँव ना छोडकर जाए इसलिये हर संभव प्रयास सब के द्वारा होते थे । ८. मनुष्य काम करता है, तो गलतियाँ हो सकती है। ऐसी गलतियों के कारण किसी परिवार का कोई सदस्य अन्य परिवारों के लिये कष्ट का कारण बन जाता था । ऐसी स्थिति में उसे सुयोग्य व्यक्तियोंद्वारा यथासंभव समझाने के प्रयास किये जाते थे । दण्डित करने के प्रसंग तो अपवादस्वरूप ही होते थे । इस से परिवारों में परस्पर कडवाहट नही आती थी । परस्पर स्नेह बना रहता था । कठिनाई में एक दूसरे की मदद करने की मानसिकता बनी रहती थी । ९. हर गाँव में विभिन्न जातियों में व्यवसाय बँटे हुवे थे। उन को उस व्यवसाय में पिढियों से काम करने के कारण महारत प्राप्त थी। गाँव की हर आवश्यकता की पूर्ति हो ऐसी व्यवस्था की जाती थी । गाँव में किसी विशेष परिस्थिति का सामना करने के लिये किसी व्यक्तिपर, परिवारपर या जातिपर, उस की योग्यता समझकर कोई जिम्मेदारी दी जाती थी तो वह अपनी पूरी क्षमता के साथ उसे पूरा करते थे । ऐसी जिम्मेदारी स्वीकार कर वे गौरव अनुभव करते थे । १०. पूरे गाँव के हित में ही गाँव के सभी परिवारों का हित होता है। उसी प्रकार गाँव के परिवारों के हित में ही गाँव का हित होता है। किन्तु हमेशा परिवार के हित से प्राथमिकता गाँव के हित को दी जाती थी । इस हेतु परिवार भी अपने अहित की बात स्वीकार कर गाँव के हित के लिये त्याग करने को तैयार रहता था । इस से अन्य परिवारों के सामने भी उदाहरण बनते थे और गाँव के हित में त्याग करने की परंपरा बन जाती थी । ११. गाँव के सभी परिवारों का परस्पर व्यवहार आत्मीयता का रहता था । पूरा गाँव जैसे एक परिवार हो ऐसा सभी का व्यवहार होता था । लोगों के घर में मंगलकार्य होते थे । बाहर के गाँवों से मेहमान आते थे । जात, बिरादरी के लोग आते थे । इतने सारे मेहमानों की व्यवस्था उस अकेले घर में संभव नही होती थी । किन्तु चिंता की कोई बात नही थी । पडोसी (गाँववाले) मेहमानों को बाँट लेते थे । अपने घर ले जाते थे । खातिरदारी करते थे । और इसे उपकार के तौरपर नही तो परस्पर प्यार के कारण करते थे । आज भी हिन्दीभाषी प्रदेशों में लोगों को यह कहते सुना जा सकता है की,' इस गाँव में हमारे गाँव की बेटी ब्याही है । मै इस गाँव का पानी नही पी सकता । अब लडकी की ससुराल का पानी पीना ठीक हप्र या गलत यह भिन्न विषय है, किन्तु उस की भावना तो यही होती है की उस के गाँव की बेटी याने उस की अपनी बेटी ही है। अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव जिन गाँवों में अभी कम हुवा है ऐसे गाँवोें में आज भी यह ग्रामकुल की भावना अनुभव की जा सकती है। १२. गाँव में बाजार नहीं होते थे। बाजार तो ग्राम संकुलों में या शहरों में हाट के रूप में होते थे। हाट में से खरीदी हुई वस्तू गाँव में बेचने खरीदने से गाँव की अर्थव्यवस्था में दोष निर्माण हो जाता था। इसलिये हाट में से खरीदी वस्तु गाँव में बाँटने के लिये होती थी बेचने के लिये नहीं। गाँव में जिन वस्तुओं की बहुलता हो उनका व्यापार अन्य गाँवों के साथ या शहरों में या विदेशों में जाकर होता था। दशहरे को लोग व्यापार के लिये बाहर जाते थे। व्यापार में अपने ग्राम के उत्पादन के बदले में सामान्यत: सोना और चाँदी लिया जाता था। यह सोना और चाँदी भी ग्राम में वापस लौटकर बेचने के लिये नहीं होती थी। इसे बाँटा जाता था। लुटाया जाता था। आज भी यह प्रथा तो शेष है। लेकिन सोने के स्थानपर आपटे के या शमी के पत्ते 'सोना' मानकर बाँटे जाते हैं।

स्वावलंबी ग्राम योजना

कौटुम्बिक उद्योग के प्रयोग स्वावलंबी ग्राम के साथ ही करने होंगे| ऐसा करने से सफलता की संभावनाएं बढेंगी| १. ग्राम से प्रारम्भ / ग्राम में निवास की मानसिकता : ग्राम को आधार बनाकर प्रयोग करना होगा| शहर में इसका प्रयोग वर्त्तमान में संभव नहीं है| ग्राम का चयन ग्राम के लोगों की मानसिकता के आधारपर करना होगा| ग्राम के लोगों की पहल, समझ और सहयोग इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हैं| २. ग्राम के लोगों की मानसिकता / निश्चय, कुटुंब भावना, सर्वसहमति से नेतृत्व निश्चिती : ग्राम के लोगों में सहज कुटुंब भावना होना आवश्यक है| इस दृष्टी से एक ही जाति के लोगों के ग्राम का चयन शायद उपयुक्त साबित हो सकता है| एक ही जाति के होने से उनमें भाईचारे की भावना अधिक होने की संभावनाएं हो सकती हैं| ३. स्वावलंबी ग्राम के निर्माण का संकल्प| ग्राम के लोग यह संकल्प करें कि ग्राम को स्वावलंबी बनाना है| इसके लिए ग्राम से युवक, धन और पानी ग्राम से बाहर न जाने की व्यवस्था करनी होगी| यह जोर जबरदस्ती से नहीं किया जा सकता| सहभागियों को प्रेम, सम्मान और सुखपूर्ण आजीविका की आश्वस्ति मिलनी चाहिए| ग्राम का विद्यालय इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है| अगली पीढी के लोगों में संकल्प और श्रेष्ठ परम्परा का संक्रमण विद्यालय के माध्यम से किया जा सकेगा| इसी प्रकार से नए जन्म लेनेवाले बच्चों के जन्म से पूर्व से ही श्रेष्ठ जीवात्मा को आवाहन करना होगा| प्रयोग को सफल बनाने की क्षमतावाले ऐसे जीवात्माको गर्भ में धारण करने की मानसिकता युवा दम्पत्ती में रहे| ४. संसाधनों की उपलब्धता के आधारपर ग्राम की आवश्यकताओं की सूचि और उत्पादनों की आपूर्ति की योजना करना| ग्राम को स्वावलंबी बनाने में स्थानिक संसाधनों की अच्छी जानकारी आवश्यक है| उपलब्ध संसाधनों में से ही भिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए आवश्यक कल्पनाशीलता भी लगेगी| जिन आवश्यक उत्पादनों के लिए सस्न्साधन उपलब्ध नहीं हैं ऐसे सभी आवश्यक उत्पादनों के निर्माण के लिए वैकल्पिक संसाधनों के माध्यम से वस्तुओं के निर्माण की योजना बनानी होगी| ४. पस्परावलंबन की दृष्टी से आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए उत्पादनों का चयन और वितरण, विभाजन करना| आवश्यकताओं की पूर्ती और उपलब्ध कुशलताओं का तालमेल बिठाना होगा| ग्राम के लिए किसी आवश्यक वस्तू की कमी न रहे इस लिए उत्पादन की जिम्मेदारी का वितरण भी ठीक से करना होगा| एकबार यह संतुलन ठीक से बैठ जाने से आनुवांशिकता से उस की पूर्ती नित्य होने की व्यवस्था बन जाएगी| ५. ग्राम की वितरण व्यवस्था : ग्राम की वितरण व्यवस्था बहुत ही महत्त्वपूर्ण है| यह वितरण विवेकपूर्ण होना चाहिए| ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था होनी चाहिए|

समारोप

वर्तमान अर्थशास्त्री यह जानते हैं और कहते भी हैं की, ' मनी इज द बिगेस्ट डिस्टॉर्टर ऑफ एकॉनॉमी, अनलेस इट इज केप्ट अंडर स्ट्रिक्ट कंट्रोल ' । अर्थात् पैसे का चलन अर्थव्यवस्था को बिगाडनेवाला सबसे बडा घटक होता है। किन्तु फिर भी पैसे के कारण निर्माण होनेवाली गडबडियों से छुटकारे के लिये कोई प्रयास करता दिखाई नहीं देता| इस का कारण यह है की यह अर्थव्यवस्था का बिगाड बलवानों के स्वार्थ के लिये हितकारी होता है। यही पश्चिमी अर्थशास्त्र का समाजशास्त्रीय आधार है। सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यह पश्चिमी समाज का वर्तनसूत्र भी बलवानों के हित की ही बात करता है। भारतवर्ष में सर्वे भवन्तु सुखिन: को ध्यान में रखकर अर्थव्यवस्था को विकसित और स्थापित किया गया था । इस अर्थव्यवस्था में पेसे के लेनदेन से होनेवाले व्यवहारों को न्यूनतम रखने के कारण पप्रसे या चलनपर कडा नियंत्रण रहता था । पैसे के कारण व्यवहारों में बिगाड नही निर्माण होते थे । लगभग सभी व्यवहार आत्मीयता के, प्यार के आधारपर वस्तुओं के आदानप्रदान की व्यवस्था से चलाए जाते थे । यही कारण था की भारत एक श्रेष्ठ संस्कृति का अनुसरण करनेवाला और फिर भी अत्यंत समृध्द देश बना था । आज भी हमें आत्मीयतापर आधारित वर्तमान युग के अनुरूप अपनी अर्थव्यवस्था की फिर से स्थापना के प्रयास करने होंगे ।

वाचनीय साहित्य :

References

आज भी खरे हैं तालाब, लेखक अनुपम मिश्र, प्रकाशक स्वदेशी साहित्य सदन वर्धा