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| राजा ह्येवाखिलं लोकं समुदीर्णं समुत्सुकम्। प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विराजते।। 12.67.9 (68.9)<ref name=":2">Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-067 Adhyaya 67]</ref> | | राजा ह्येवाखिलं लोकं समुदीर्णं समुत्सुकम्। प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विराजते।। 12.67.9 (68.9)<ref name=":2">Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-067 Adhyaya 67]</ref> |
| + | |
| + | कृपणानाथवृद्धानां विधवानां च योषिताम्। योगक्षेमं च वृत्तिं च नित्यमेव प्रकल्पयेत्।। 12.86.24<ref name=":9" /> |
| * '''Behaviour of the Raja (Ruler)''' | | * '''Behaviour of the Raja (Ruler)''' |
| नृपतिः सुभुखश्च स्यात्स्मितपूर्वाभिभाषिता।। 12.56.19 (57.19) | | नृपतिः सुभुखश्च स्यात्स्मितपूर्वाभिभाषिता।। 12.56.19 (57.19) |
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| बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम्। शास्त्रानीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम्।। 12.71.10<ref name=":6" /> | | बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम्। शास्त्रानीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम्।। 12.71.10<ref name=":6" /> |
| + | |
| + | विक्रयं क्रयमध्वानं भक्तं च सपरिव्ययम्। योगक्षेमं च संप्रेक्ष्य वणिजां कारयेत्करान्।। 12.87.13 |
| + | |
| + | उत्पत्तिं दानवृत्तिं च शिल्पं संप्रेक्ष्य चासकृत्। शिल्पं प्रति करानेवं शिल्पिनः प्रति कारयेत्।। 14 |
| + | |
| + | उच्चावचकरन्यायाः पूर्वराज्ञां युधिष्ठिर। यथायथा न सीदेरंस्तथा कुर्यान्महीपतिः।। 15 |
| + | |
| + | फलं कर्म च संप्रेक्ष्य ततः सर्वं प्रकल्पयेत्। 16<ref name=":10">Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-087 Adhyaya 87]</ref> |
| * '''Justice''' | | * '''Justice''' |
| यथा पुत्रास्तथा पौरा द्रष्टव्यास्ते न संशयः। भक्तिश्चैषु न कर्तव्या व्यवहारप्रदर्शने।। 12.68.29 (69.27) | | यथा पुत्रास्तथा पौरा द्रष्टव्यास्ते न संशयः। भक्तिश्चैषु न कर्तव्या व्यवहारप्रदर्शने।। 12.68.29 (69.27) |
| | | |
− | श्रोतुं चैव न्यसेद्राजा प्राज्ञान्सर्वार्थदर्शिनः। व्यवहारेषु सततं तत्र राज्यं प्रतिष्ठितम्।। 30 (28) | + | श्रोतुं चैव न्यसेद्राजा प्राज्ञान्सर्वार्थदर्शिनः। व्यवहारेषु सततं तत्र राज्यं प्रतिष्ठितम्।। 30 (28)<ref name=":4" /> |
| + | |
| + | ततः साक्षिबलं साधु द्वैधवादकृतं भवेत्। असाक्षिकमनाथं वा परीक्ष्यं तद्विशेषतः।। 12.85.19<ref name=":8">Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-085 Adhyaya 85]</ref> |
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| Qualification | | Qualification |
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| * '''Infrastructure''' | | * '''Infrastructure''' |
| विशालान्राजमार्गांश्च कारयेत नराधिपः। प्रपाश्च विपणीश्चैव यथोद्देशं समादिशेत्।। 12.68.58 (69.53)<ref name=":4" /> | | विशालान्राजमार्गांश्च कारयेत नराधिपः। प्रपाश्च विपणीश्चैव यथोद्देशं समादिशेत्।। 12.68.58 (69.53)<ref name=":4" /> |
| + | |
| + | While establishing a city, the Raja must develop the following |
| + | |
| + | भाण्डागारायुधागारं प्रयत्नेनाभिवर्धयेत्। निचयान्वर्धयेत्सर्वांस्तथा यन्त्रकटंकटान्।। 12.86.12<ref name=":9">Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-086 Adhyaya 86]</ref> |
| * '''36 Qualities of a Raja''' | | * '''36 Qualities of a Raja''' |
| चरेद्धर्मानकटुको मुञ्चेत्स्नेहं न चास्तिकः। अनृशंसश्चरेदर्थं चरेत्काममनुद्धतः।। 12.70.3 | | चरेद्धर्मानकटुको मुञ्चेत्स्नेहं न चास्तिकः। अनृशंसश्चरेदर्थं चरेत्काममनुद्धतः।। 12.70.3 |
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| संविनीयमदक्रोधौ मानमीर्ष्यां च निर्वृताः। नित्यं पञ्चोपधातीतैर्मन्त्रयेत्सह मन्त्रिभिः।। 52<ref name=":7" /> | | संविनीयमदक्रोधौ मानमीर्ष्यां च निर्वृताः। नित्यं पञ्चोपधातीतैर्मन्त्रयेत्सह मन्त्रिभिः।। 52<ref name=":7" /> |
| + | |
| + | '''Mantri Mandal''' |
| + | |
| + | चतुरो ब्राह्मणान्वैद्यान्प्रगल्भान्स्नातकाञ्शुचीन्। क्षत्रियान्दश चाष्टौ च बलिनः शस्त्रपाणिनः।। 12.85.7 |
| + | |
| + | वैश्यान्वित्तेन संपन्नानेकविंशतिसङ्ख्यया। त्रींश्च शूद्रान्विनीतांश्च शुचीन्कर्मणि पूर्वके।। 8 |
| + | |
| + | अष्टाभिश्च गुणैर्युक्तं सूतं पौराणिकं तथा। पञ्चाशद्वर्षवयसं प्रगल्भमनसूयकम्।। 9 |
| + | |
| + | श्रुतिस्मृतिसमायुक्तं विनीतं समदर्शिनम्। कार्ये विवदमानानां शक्तमर्थेष्वलोलुपम्।। 10 |
| + | |
| + | वर्जितं चैव व्यसनैः सुघोरैः सप्तभिर्भृशम्। अष्टानां मन्त्रिणां मध्ये मन्त्रं राजोपधारयेत्।। 11<ref name=":8" /> |
| + | |
| + | '''Qualities of an Amatya and Senapati''' |
| + | |
| + | धर्मशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः सांधिविग्रहिको भवेत्। मतिमान्धृतिमान्ह्रीमान्रहस्यविनिगूहिता।। 12.85.30 |
| + | |
| + | कुलीनः सत्वसंपन्नः शुक्लोऽमात्यः प्रशस्यते। एतैरेव गुणैर्युक्तस्तथा सेनापतिर्भवेत्।। 31<ref name=":8" /> |
| + | |
| + | Additional specific qualities required in a Senapati |
| + | |
| + | व्यूहयन्त्रायुधानां च तत्त्वज्ञो विक्रमान्वितः। वर्षशीतोष्णवातानां सहिष्णुः पररन्ध्रवित्।। 12.85.32<ref name=":8" /> |
| + | |
| + | '''Where should a Raja stay ?''' |
| + | |
| + | यत्पुरं दुर्गसंपन्नं धान्यायुधसमन्वितम्। दृढप्राकारपरिखं हस्त्यश्वरथसंकुलम्।। 12.86.6 |
| + | |
| + | विद्वांसः शिल्पिनो यत्र निचयाश्च सुसंचिताः। धार्मिकश्च जनो यत्र दाक्ष्यमुत्तममास्थितः।। 7 |
| + | |
| + | ऊर्जस्विनरनागाश्वं चत्वरापणशोभितम्। प्रसिद्धव्यवहारं च प्रशान्तमकुतोभयम्।। 8 |
| + | |
| + | सुप्रभं सानुनादं च सुप्रशस्तनिवेशनम्। शूराढ्यं प्राज्ञसंपूर्णं ब्रह्मघोषानुनादितम्।। 9 |
| + | |
| + | समाजोत्सवसंपन्नं सदापूजितदैवतम्। वश्यामात्यबलो राजा तत्पुरं स्वयमाविशेत्।। 10<ref name=":9" /> |
| + | |
| + | '''A Raja must protect''' |
| + | |
| + | आशयाश्चोदपानाश्च प्रभूतसलिलाकराः। निरोद्धव्याः सदा राज्ञा क्षीरिणश्च महीरुहाः।। 12.86.15<ref name=":9" /> |
| + | |
| + | '''Governance principles''' |
| + | |
| + | बाह्यमाभ्यन्तरं चैव पौरजानपदं तथा। चारैः सुविदितं कृत्वा ततः कर्म प्रयोजयेत्।। 12.86.19 |
| + | |
| + | चरान्मन्त्रं च कोशं च दण्डं चैव विशेषतः। अनुतिष्ठेत्स्वयं राजा सर्वं ह्यत्र प्रतिष्ठितम्।। 20<ref name=":9" /> |
| + | |
| + | ग्रामस्याधिपतिः कार्यो दशग्रामपतिस्तथा। विंशतित्रिंशतीशं च सहस्रस्य च कारयेत्।। 12.87.3 |
| + | |
| + | ग्रामेयान्ग्रामदोषांश्च ग्रामिकः प्रतिभावेयेत्। तानाचक्षीत दशिने दशिको विंशिने पुनः।। 4 |
| + | |
| + | विंशाधिपस्तु तत्सर्वं वृत्तं जानपदे जने। ग्रामाणां शतपालाय सर्वमेव निवेदयेत्।। 5 |
| + | |
| + | यानि ग्राम्याणि भोज्यानि ग्रामिकस्तान्युपाश्निया। दशपस्तेन भर्तव्यस्तेनापि द्विगुणाधिपः।। 6 |
| + | |
| + | ग्रामं ग्रामशताध्यक्षो भोक्तुमर्हति सत्कुरः। महान्तं भरतश्रेष्ठ सुस्फीतं जनसंकुलम्। तत्र ह्यनेकपायत्तं राज्ञो भवति भारत।। 7 |
| + | |
| + | शाखानगरमर्हस्तु सहस्रपतिरुत्तमः। धान्यहैरण्यभोगेन भोक्तुं राष्ट्रीयसंगतः।। 8 |
| + | |
| + | तेषां संग्रामकृत्यं स्याद्वामकृत्यं च तेषु यत्। धर्मज्ञः सचिवः कश्चित्तत्तत्पश्येदतन्द्रितः।। 9<ref name=":10" /> |
| + | |
| + | '''Self introspection / Self-evaluation''' |
| + | |
| + | किं छिद्रं कोनु सङ्गो मे किंवाऽस्त्यविनिपातितम्। कुतो मामाश्रयेद्दोष इति नित्यं विचिन्तयेत्।। 12.89.14<ref>Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-089 Adhyaya 89]</ref> |
| + | |
| + | '''What constitutes Raja Dharma ?''' |
| + | |
| + | संविभज्य यदा भुङ्क्ते नचान्यानवमन्यते। निहन्ति बलिनं दृप्तं स राज्ञो धर्म उच्यते।। 12.91.31 |
| + | |
| + | त्रायते हि यदा सर्वं वाचा कायेन कर्मणा। पुत्रस्यापि न मृष्येच्च स राज्ञो धर्म उच्यते।। 32 |
| + | |
| + | संविभज्य यदा भुङ्क्ते नृपतिर्दुर्बलान्नरान्। तदा भवन्ति बलिनः स राज्ञो धर्म उच्यते।। 33 |
| + | |
| + | यदा रक्षति राष्ट्राणि यदा दस्यूनपोहति। यदा जयति संग्रामे स राज्ञो धर्म उच्यते।। 34 |
| + | |
| + | पापमाचरतो यत्र कर्मणा व्याहृतेन वा। प्रियस्यापि न मृष्येत स राज्ञो धर्म उच्यते।। 35 |
| + | |
| + | यदा सारणिकान्राजा पुत्रवत्परिरक्षति। भिनत्ति न च मर्यादां स राज्ञो धर्म उच्यते।। 36 |
| + | |
| + | यदाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्यजते श्रद्धयाऽन्वितः। कामद्वेषावनादृत्य स राज्ञो धर्म उच्यते।। 37 |
| + | |
| + | कृपणानाथवृद्धानां यदाऽश्रु परिमार्जति। हर्षं संजनयन्नॄणां स राज्ञो धर्म उच्यते।। 38 |
| + | |
| + | विवर्धयति मित्राणि तथाऽरींश्चापि कर्षति। संपूजयति साधूंश्च स राज्ञो धर्म उच्यते।। 39 |
| + | |
| + | सत्यं पालयति प्रीत्या नित्यं भूमिं प्रयच्छति। पूजयेदतिथीन्भृत्यान्स राज्ञो धर्म उच्यते।। 40 |
| + | |
| + | ऋत्विक्पुरोहिताचार्यान्सत्कृत्यानवमत्य च। यदा सम्यक्प्रगृह्णाति स राज्ञो धर्म उच्यते।। 43<ref name=":11">Mahabharata, Shanti Parva, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-091 Adhyaya 91]</ref> |
| + | |
| + | '''Aishwarya vardhaka Sadhana''' |
| + | |
| + | त्यजन्ति दारान्पुत्रांश्च मनुष्याः परिपूजिताः। संग्रहश्चैव भूतानां दानं च मधुरा च वाक्।। 12.91.53 |
| + | |
| + | अप्रमादश्च शौचं च राज्ञो भूतिकरं महत्। एतेभ्यश्चैव मान्धातः सततं मा प्रमादिथाः।। 54<ref name=":11" /> |
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| == References == | | == References == |
| <references /> | | <references /> |