Difference between revisions of "Garbhadhan ( गर्भाधान )"

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(नया लेख बनाया)
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=== वैदिककाल ===
 
=== वैदिककाल ===
 
वैदिककाल में हम सन्तति के लिए प्रार्थना आदि के वचनों में पितृ-मातृक प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति देखते हैं। वीरपुत्र देवताओं द्वारा मनुष्य को दिये गये वरदान के रूप में माने जाते थे। तीन ऋणों का सिद्धान्त वैदिककाल में विकास की स्थिति में था। पुत्र को 'ऋणच्युत कहा जाता था जिससे कि पैतृक और आर्थिक दोनों ऋणों से मुक्ति का बोध होता है। साथ-ही-साथ सन्तति प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक और पवित्र कर्तव्य समझा जाता था। इसके अतिरिक्त वैदिक मन्त्रों में बहुत-सी उपमाएँ और प्रसंग है जो गर्भाधान के लिए स्त्री के पास किस प्रकार जाना चाहिए, इस पर प्रकाश में विकास की अवस्था में थी। डालते हैं। इस प्रकार गर्भाधान के विषय में विचार और क्रिया वैदिककाल गर्भाधान के विधि-विधान गृह्यसूत्रों के लेखबद्ध होने से पूर्व ही पर्याप्त विकसित क्रिया का रूप प्राप्त कर चुके होंगे, किन्तु प्राक्सूत्र काल में इसके विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती। परन्तु वैदिककाल में गर्भधारण की ओर इङ्गित करनेवाली अनेक प्रार्थनाएँ हैं । 'विष्णु गर्भाशय-निर्माण करें; त्वष्टा तुम्हारा रूप सुशोभित करें; प्रजापति बीज वपन करें; धाता भ्रूण स्थापन करें । हे सरस्वति ! भ्रूण को स्थापित करो, नील कमल की माला से सुशोभित दोनों अश्विनीकुमार तुम्हारे भ्रूण को प्रतिष्ठित करें। 'जैसे अश्वत्थ शमी पर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार सन्तति का प्रसव किया जाता है, यही सन्तति की प्राप्ति है, उसी को हम स्त्री में आधान करते हैं । वस्तुतः मनुष्य बीज से उत्पन्न होता है। उसी का स्त्री में वपन कर दिया जाता है। यही यथार्थ में सन्तति का प्राप्त करना है, यही प्रजापति का कथन हैं।'
 
वैदिककाल में हम सन्तति के लिए प्रार्थना आदि के वचनों में पितृ-मातृक प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति देखते हैं। वीरपुत्र देवताओं द्वारा मनुष्य को दिये गये वरदान के रूप में माने जाते थे। तीन ऋणों का सिद्धान्त वैदिककाल में विकास की स्थिति में था। पुत्र को 'ऋणच्युत कहा जाता था जिससे कि पैतृक और आर्थिक दोनों ऋणों से मुक्ति का बोध होता है। साथ-ही-साथ सन्तति प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक और पवित्र कर्तव्य समझा जाता था। इसके अतिरिक्त वैदिक मन्त्रों में बहुत-सी उपमाएँ और प्रसंग है जो गर्भाधान के लिए स्त्री के पास किस प्रकार जाना चाहिए, इस पर प्रकाश में विकास की अवस्था में थी। डालते हैं। इस प्रकार गर्भाधान के विषय में विचार और क्रिया वैदिककाल गर्भाधान के विधि-विधान गृह्यसूत्रों के लेखबद्ध होने से पूर्व ही पर्याप्त विकसित क्रिया का रूप प्राप्त कर चुके होंगे, किन्तु प्राक्सूत्र काल में इसके विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती। परन्तु वैदिककाल में गर्भधारण की ओर इङ्गित करनेवाली अनेक प्रार्थनाएँ हैं । 'विष्णु गर्भाशय-निर्माण करें; त्वष्टा तुम्हारा रूप सुशोभित करें; प्रजापति बीज वपन करें; धाता भ्रूण स्थापन करें । हे सरस्वति ! भ्रूण को स्थापित करो, नील कमल की माला से सुशोभित दोनों अश्विनीकुमार तुम्हारे भ्रूण को प्रतिष्ठित करें। 'जैसे अश्वत्थ शमी पर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार सन्तति का प्रसव किया जाता है, यही सन्तति की प्राप्ति है, उसी को हम स्त्री में आधान करते हैं । वस्तुतः मनुष्य बीज से उत्पन्न होता है। उसी का स्त्री में वपन कर दिया जाता है। यही यथार्थ में सन्तति का प्राप्त करना है, यही प्रजापति का कथन हैं।'
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अथर्ववेद के एक मन्त्र में गर्भधारण करने के लिए स्त्री को पर्यङ्क पर आने के मुझ अपने पति के लिए सन्तति उत्पन्न करो।" लिए निमन्त्रण का उल्लेख है :-'प्रसन्न चित्त होकर शय्या पर आरूढ़ हो, प्राक्सूत्र साहित्य में सहवास के भी स्पष्ट विवरण प्राप्त हैं ।२ उपर्युक्त प्रसङ्गों से हमें ज्ञात होता है कि प्राक्सूत्रकाल में पति पत्नी के समीप जाता, उसे गर्भाधान के लिए आमन्त्रित करता, उसके गर्भ में भ्रूण-संस्थापन के लिए देवों से प्रार्थना करता और तब गर्भाधान समाप्त होता था। यह बहुत सरल विधि थी। इसके अतिरिक्त कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। अधिक सम्भव है कि इस अवसर पर कोई उत्सव भी मनाया जाता रहा हो, किन्तु इसके विषय में हम पूर्णतया अन्धकार में हैं । इस उत्सव के उल्लेख न किये जाने का कारण यह हो सकता है कि इसे प्रारम्भिक काल में विवाह का ही एक अंग समझा जाता रहा हो।
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=== सूत्र-काल ===
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गृह्यसूत्रों में ही गर्भाधान-विषयक विद्वानों का सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप से विवेचन हुआ है। उनके अनुसार विवाह के उपरान्त ऋतुस्नान से शुद्ध पत्नी के समीप पति को प्रति मास जाना होता था। किन्तु गर्भाधान से पूर्व उसे विभिन्न प्रकार के पुत्रों-ब्राह्मण, श्रोत्रिय ( जिसने एक शाखा का अध्ययन किया हो ), अनूचान (जिसने केवल वेदाङ्गों का अनुशीलन किया हो), ऋषिकल्प ( कल्पों का अध्येता), भ्रूण ( जिसने सूत्रों और प्रवचनों का अध्ययन किया हो), ऋषि (चारों वेदों का अध्येता) और देव (जो उपर्युक्त से श्रेष्ठ हो)-की इच्छा के लिए व्रत का अनुष्ठान करना होता था । व्रत-समाप्ति पर अग्नि में पक्वान्न की आहुति दी जाती थी। तदुपरांत सहवास के हेतु पति-पत्नी

Revision as of 13:23, 24 March 2022

अर्थ

मानव का सम्पूर्ण जीवन संस्कारों का क्षेत्र है । इसलिए प्रजनन भी इसके अन्तर्गत आता है । धर्मशास्त्र के अनुसार इसके साथ कोई अशुचिता का भाव नहीं लगा है । इसलिए अधिकांश गृह्यसूत्र गर्भाधान के साथ ही संस्कारों को प्रारम्भ करते हैं।

जिस कर्म के द्वारा पुरुष स्त्री में अपना बीज स्थापित करता है उसे गर्भाधान कहते थे ।' शौनक भी कुछ भिन्न शब्दों में ऐसी ही परिभाषा देते हैं । 'जिस कर्म की पूर्ति में स्त्री ( पति द्वारा ) प्रदत्त शुक्र धारण करती है उसे गर्भालम्भन या गर्भाधान कहते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह कर्म कोई काल्पनिक धार्मिक कृत्य नहीं था, अपितु एक यथार्थ कर्म था । इस प्रजनन-कार्य को सोद्देश्य और संस्कृत बनाने के निमित्त गर्भाधान संस्कार किया जाता था। हमें ज्ञात नहीं कि पूर्व वैदिककाल में बच्चों के प्रसव-सम्बन्धी क्या भाव और कर्म थे। इस संस्कार का विकास होने में अवश्य ही अति दीर्घकाल लगा होगा। आदिम युग में तो प्रसव एक प्राकृतिक कर्म था। शारीरिक आवश्यकता प्रतीत होने पर मानव-युगल संतानप्राप्ति की किसी पूर्वकल्पना के बिना सहवास कर लेता था, यद्यपि था यह स्वाभाविक परिणाम । किन्तु गर्भाधान संस्कार से पूर्व एक सुव्यवस्थित घर की भावना, विवाह अथवा सन्तति होने की अभिलाषा और यह विश्वास कि देवता मनुष्य को सन्तति- प्राप्ति में सहायता करते हैं, अस्तित्व में आ चुके थे। इस प्रकार इस संस्कार की प्रक्रिया उस काल से सम्बन्धित है जब कि आर्य अपनी आदिम अवस्था से बहुत आगे बढ़ चुके थे।

वैदिककाल

वैदिककाल में हम सन्तति के लिए प्रार्थना आदि के वचनों में पितृ-मातृक प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति देखते हैं। वीरपुत्र देवताओं द्वारा मनुष्य को दिये गये वरदान के रूप में माने जाते थे। तीन ऋणों का सिद्धान्त वैदिककाल में विकास की स्थिति में था। पुत्र को 'ऋणच्युत कहा जाता था जिससे कि पैतृक और आर्थिक दोनों ऋणों से मुक्ति का बोध होता है। साथ-ही-साथ सन्तति प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक और पवित्र कर्तव्य समझा जाता था। इसके अतिरिक्त वैदिक मन्त्रों में बहुत-सी उपमाएँ और प्रसंग है जो गर्भाधान के लिए स्त्री के पास किस प्रकार जाना चाहिए, इस पर प्रकाश में विकास की अवस्था में थी। डालते हैं। इस प्रकार गर्भाधान के विषय में विचार और क्रिया वैदिककाल गर्भाधान के विधि-विधान गृह्यसूत्रों के लेखबद्ध होने से पूर्व ही पर्याप्त विकसित क्रिया का रूप प्राप्त कर चुके होंगे, किन्तु प्राक्सूत्र काल में इसके विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती। परन्तु वैदिककाल में गर्भधारण की ओर इङ्गित करनेवाली अनेक प्रार्थनाएँ हैं । 'विष्णु गर्भाशय-निर्माण करें; त्वष्टा तुम्हारा रूप सुशोभित करें; प्रजापति बीज वपन करें; धाता भ्रूण स्थापन करें । हे सरस्वति ! भ्रूण को स्थापित करो, नील कमल की माला से सुशोभित दोनों अश्विनीकुमार तुम्हारे भ्रूण को प्रतिष्ठित करें। 'जैसे अश्वत्थ शमी पर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार सन्तति का प्रसव किया जाता है, यही सन्तति की प्राप्ति है, उसी को हम स्त्री में आधान करते हैं । वस्तुतः मनुष्य बीज से उत्पन्न होता है। उसी का स्त्री में वपन कर दिया जाता है। यही यथार्थ में सन्तति का प्राप्त करना है, यही प्रजापति का कथन हैं।'

अथर्ववेद के एक मन्त्र में गर्भधारण करने के लिए स्त्री को पर्यङ्क पर आने के मुझ अपने पति के लिए सन्तति उत्पन्न करो।" लिए निमन्त्रण का उल्लेख है :-'प्रसन्न चित्त होकर शय्या पर आरूढ़ हो, प्राक्सूत्र साहित्य में सहवास के भी स्पष्ट विवरण प्राप्त हैं ।२ उपर्युक्त प्रसङ्गों से हमें ज्ञात होता है कि प्राक्सूत्रकाल में पति पत्नी के समीप जाता, उसे गर्भाधान के लिए आमन्त्रित करता, उसके गर्भ में भ्रूण-संस्थापन के लिए देवों से प्रार्थना करता और तब गर्भाधान समाप्त होता था। यह बहुत सरल विधि थी। इसके अतिरिक्त कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। अधिक सम्भव है कि इस अवसर पर कोई उत्सव भी मनाया जाता रहा हो, किन्तु इसके विषय में हम पूर्णतया अन्धकार में हैं । इस उत्सव के उल्लेख न किये जाने का कारण यह हो सकता है कि इसे प्रारम्भिक काल में विवाह का ही एक अंग समझा जाता रहा हो।

सूत्र-काल

गृह्यसूत्रों में ही गर्भाधान-विषयक विद्वानों का सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप से विवेचन हुआ है। उनके अनुसार विवाह के उपरान्त ऋतुस्नान से शुद्ध पत्नी के समीप पति को प्रति मास जाना होता था। किन्तु गर्भाधान से पूर्व उसे विभिन्न प्रकार के पुत्रों-ब्राह्मण, श्रोत्रिय ( जिसने एक शाखा का अध्ययन किया हो ), अनूचान (जिसने केवल वेदाङ्गों का अनुशीलन किया हो), ऋषिकल्प ( कल्पों का अध्येता), भ्रूण ( जिसने सूत्रों और प्रवचनों का अध्ययन किया हो), ऋषि (चारों वेदों का अध्येता) और देव (जो उपर्युक्त से श्रेष्ठ हो)-की इच्छा के लिए व्रत का अनुष्ठान करना होता था । व्रत-समाप्ति पर अग्नि में पक्वान्न की आहुति दी जाती थी। तदुपरांत सहवास के हेतु पति-पत्नी