Festival in month of chaitra (चैत्र मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)

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हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र माह यह पहला महिना होता है । हिन्दुओं का नयावर्ष इसी माह से आरंभ होता है और चैत्र माह पुरे ब्रहमांड का प्रथम दिन मन जाता है जिसे संवत्सर भी कहते है ।वेदों और पुराणों के मान्यतानुसार चैत्र महीने की शुक्ल प्रतिपदा से सृष्टि के निर्माण का आरंभ भगवान ब्रह्मा जी ने किया था और सतयुग का आरंभ भी इसी महीने से मन जाता है । भगवान विष्णु ने प्रथम अवतार के रूप मत्स्यावतार रूप में अवतरित इसी माह की पर्तिपदा के दिन माना जाता है ऐसा अपने पौराणिक कथाओं में अंकित है जहाँ प्रलय के बिच से मनु को सुरक्षित स्थान पर पहुचाया था और नए युग का आरम्भ हुआ ।

चैत्र नवरात्र

चैत्र माह में शुक्ल प्रतिपदा से लेकर रामनवमी तक नव दिन तक देवी की उपासना का यह व्रत चलता है । इन दिनों भगवती दुर्गा एवं कन्या पूजन का बड़ा महत्व है । भगवती दुर्गा या माँ जगदम्बा के नौ स्वरुप - शैलपुत्री , ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा , कुष्मांडा , स्कंदमाता , कात्यायनी , कालरात्रि , महागौरी , तथा सिद्धिदात्री है । इन नौ देवियों की जानकारी विस्तृत रूप में आगे है -

शैलपुत्री

शैलपुत्री :- माँ जगदंबा के नौ स्वरूपों में सबसे प्रथम स्वरुप माँ शैलपुत्री है । माँ शैलपुत्री भगवान शिव की शक्ति है जो भिन्न भिन्न रूपों में पुरे श्रृष्टि को संचालित कराती है । माँ शैलपुत्री को उमा ,शिवदूती , दक्षकुमारी, महेश्वरी, शैलजा, सती और पार्वती के नाम से भी जाना जाता है । माँ शैलपुत्री की शातियाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश के आशीर्वाद से समाहित है । एक बार राज दक्ष द्वारा सभी देवताओं को निमंत्रण देना और भगवान शिव जी को आमंत्रित नहीं करना और अपने पति के तिरस्कार को सहन ना कर सकी । अपने पिता द्वारा किये गए महायज्ञ के अग्निकुण्ड में कूदकर अपना प्राण त्याग दिया । उसके उपरांत वह पार्वती के रूप में हिमालय और मैना की पुत्री के रूप में जन्म लिया और तपस्या और साधना द्वारा भगवान शिव का वरण किया ।  

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्। वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्

माँ शैलपुत्री की पूजा अर्चना इस मंत्रो द्वारा की जाती है ।

ब्रह्मचारिणी-

जगत जननी के दूसरे स्वरूप की ब्रह्मचारिणी देवी के रूप में पूजा अर्चना होती है। ब्रह्म शब्द का एक अर्थ तप है-वेदस्तत्व तपो ब्रह्म। अर्थात् वेद तत्व और तप ब्रह्म के ही समान शब्द हैं। ब्रह्मचारिणी भगवान शंकर की ही शक्ति है। दाहिने हाथ में जप की माला और बायें हाथ में कमंडल धारण किये हुए है मुखमंडल कमलनयनी सुवर्णा और भाव प्रवण आकृतिवाली यह देवी तप की प्रतीक हैं। ब्रह्माण्ड में जो भी कुछ अवस्थित है, वह ब्रह्मचारिणी की ही कृपा से है। सृष्टि के निर्माण के समय एक प्रचंड ज्योति उत्पन्न हुआ। भगवान विष्णु, ब्रह्मा उस ज्योति को नमन करके पूछते हैं, यह कैसी ज्योति है? , यह कहाँ से उत्पन्न हुआ है ? यह शक्ति स्वरुप कौन है ? भगवान शंकर उसे अपना ही स्वरूप कहते हैं, क्योंकि यह ज्योति निर्विकार और शब्द वाणी के रूप में थी, अत: इसे सदाशिव की शक्ति भी कहा जाता है।शिव को पति के रूप में वरण करने के लिए पार्वतीजी ने तप किया। कठोर तप करने के कारण पार्वतीजी का नाम ही अपर्णा और ब्रह्मचारिणी पड़ा। इन्हें ही तपस्विनी भी कहा जाता है। नवरात्रि के प्रारम्भिक स्वरूप शिवदूती के हैं चाहे उन्हें सती कह लो या अपर्णा पार्वती या ब्रह्मचारिणी इस प्रकार है।

चन्द्रघण्टा-

देवी का तीसरा स्वरूप चन्द्रिका या चन्द्रघण्टा का है। पृथ्वी पर एक बार चण्ड-मुण्ड नाम के दो राक्षस पैदा हुए थे। दोनों इतने बलवान थे कि संसार में अपना राज्य फैला दिया तथा स्वर्ग देवताओं को हराकर वहां भी अपना अधिकार जमा लिया। इस तरह देवता बहुत दुःखी हुए तथा देवी की स्तुति करने लगे। तब देवी चन्द्रघण्टा (चन्द्रिका) के रूप में अवतरित हुईं एवं चण्ड-मुण्ड नामक राक्षसों को मारकर संसार का दुःख दूर किया। देवताओं का गया हुआ स्वर्ग पुनः उन्हें दे दिया। इस तरह चारों ओर सुख का साम्राज्य स्थापित हुआ।

कूष्माण्डा-

मां भगवती का चौथा या चतुर्थ स्वरूप कृष्माण्डा का है। चैत्र नवरात्र में संयम से व्रत रखने वाले को मां कूष्माण्डा की कृपा से किसी वस्तु की कमी नहीं रहा करती तथा वह हर प्रकार की विपत्तियों को सरलता से प्राप्त कर लेता है ।

स्कन्दमाता-

मां भगवती के पांचवें स्वरूप में स्कन्दमाता अवतरित हुईं। युग निर्माण परिवार के लाखों परिजनों ने वंदनीय माताजी का स्नेह, दुलार एवं संरक्षण पाया है। वन्दनीय स्कन्दमाताजी का परिचय भी शब्दों के रूप में नहीं किया जा सकता, फिर भी साधक मन में अपने ईष्ट का स्मरण और कीर्तन, दृश्यों के भावों तथा शब्दों में ही किया जाता है।

कात्यायिनी-

कात्यायिनी देवी मां भगवती का छठा रूप है। कात्यायन ऋषि के आश्रम में प्रकट होने के कारण इनका नाम कात्यायिनी पड़ा। ऋषिकुल का गोत्र भी कात्या था। अस्तु वह कात्यायिनी के रूप में विख्यात हैं। ऋषि ने देवी की आराधना व तप करके प्रार्थना की-"हे देवी, आप मेरे यहां पुत्री के रूप में जन्म लें।"कात्यायन ऋषि का तप सफल हुआ और देवी ने उसके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए गोपियों ने इन्हीं देवी की आराधना की थी। दिव्य स्वरूप और वरणी त्रिनेत्री, अष्टभुजी सिंह पे सवार यह देवी साधना और तपस्या को फलीभूत करने वाली हैं।

कालरात्रि -

काल ही शाश्वत एवं मुक्ति का प्रतीक है। काल की सत्यता से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता। महत्त्वाकांक्षाओं की मुट्ठी बांधकर जीव जगत मेंआता है तथा फिर हाथ पसारे चला जाता है। जो साक्षात् स्वयं में काल हो वह कालरात्रि है। देवी तन्त्र में काली ही कालजयी है। भगवान शंकर मृत्यु तथा प्रलय के देव हैं और काली उनकी शक्ति है। पार्वतीजी को आमोद-प्रमोद में काली कह देने से शक्ति स्वरूपा मां भगवती काली के नाम से भी प्रसिद्ध हो गयी । अनन्त शौर्य और शक्ति की आराध्य देवी काली को उपनिषदों में सर्वलोक प्रतिष्ठा कहा जाता है। यह शक्ति अजन्मा और विघ्न-विनाशिका है। मुक्तकेश, लोलरसना, शमशान, शव जलती हुई चिता, नरमुण्ड, पात्र में परिपूर्ण मदिरा काली को प्रिय है। मनुष्य जिन चीजों से दूर भागता है, देवी काली की वह सब प्रिय हैं। नवरात्रि में काली की पूजा विशिष्ट है। काल और परिस्थितियों को वह पावन और मंगल करती हैं।

महागौरी-

भवानी का आठवां स्वरूप महागौरी रूप कहा जाता है। सुख-समृद्धि की प्रतीक और सौन्दर्य की यह देवी अधिष्ठात्री हैं। कृषभ वाहिनी और चतुर्भुजी महागौरी अनेक नामों से पुकारी जाती हैं। डमरू वरमुद्रा धारण करने

वाली महागौरी सुवासिनी हैं। देवी भागवत में विश्व प्रसूता, सर्वभूतेश महेश्वर सच्चिदानन्द स्वरूपिणी। आत्म-स्वरूपिणी ब्रह्मा, विष्णु, महेश, रूपा आदि नामों से देवी की स्तुति की गयी है। देवी स्वयं कहती हैं, मैं सबकी ईश्वरी, स्वामिनी हूं. उपासकों को धन देने वाली, सूर्य, चन्द्रादि नक्षत्रों को चलाने वाली परब्रह्म ज्ञान स्वरूपा में ही हूं। ऐसी गुणों वाली सच्चिदानन्द स्वरूपा सब प्राणियों में चैतऱ्य रूप से रहने वाली मुझको सब कर्मों में विद्यान करते हैं । नारद पांचराक्ष के अनुसार भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए गौरी ने कठोर तप किया। तप व धूल-मिट्टी से उनका शरीर मलीन हो गया था। शिव ने गंगाजल छिड़का तो उनका शरीर कान्तिमय होकर महागौरी हो गया। महांगौरी अंक्षत सुहाग की ही अधिष्ठात्री हैं।

सिद्धदात्री-

देवी का नवां स्वरूप सिद्धदात्री है। देवी ही अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, सौम्य, वारीत्व और रशत्व जैसी आठ सिद्धियों को देने वाली है। मानव जीवन के यही सिंह तत्व हैं। देवी पुराण के अनुसार भगवान शंकर ने उनकी उपासना से सम्पूर्ण शक्तियों को सिद्ध किया। इसलिये इनकी समस्त शक्तियों के रूपों में पूजा हुई। सिंहसवार, प्रसन्नवदना, दिव्यपुंज, चंचल नेत्र वाग्देवी, सिद्धदात्री, धनधान्य की अधिष्ठा श्री तथा सरस्वती के समान वाणी को अमूत प्रदान करने वाली हैं। ऋतु परिवर्तन से होने वाले विकार, व्याधियां चैत्र नवरात्रों की पूजा और उपवास और तप से हो जाते हैं। दुर्गा सप्तशती में सिद्धदात्री देवी को सदानन्द, परानन्द और सर्वमंगलों की आराध्य कहा गया है। चैत्र शुक्ल प्रतिस्पदा के ही दिन से घट-स्थापना और जौ बोने की क्रिया भक्तों द्वारा की जाती है। दुर्गा सप्तशती का पाठ होता है, नौ दिन पाठ के साथ हवन और ब्राह्मण भोजन कराना वांछनीय है। नवरात्रि व्रत कथा-प्राचीन काल में सुरथ नामक राजा थे। एक बार शत्रुओं ने उन पर चढ़ाई कर दी। कात्री आदि लोग राजा के साथ विश्वासधात करके पक्ष से मिल गये। इस तरह राजा की हार हुई। वे दुःखी और निराश होकर तपस्वी वेष में वन में निवास करने लगे। उसी वन में उन्हें समाधि नाम का वाणिक मिला जो अपने स्त्री-पुत्रों के दुर्व्यवहार से अपमानित होकर वहां निवास करता था। दोनों में परस्पर परिचय हुआ। वे महर्षि मेधा के आश्रम में पहुंचे महामुनि मेधा के आने का कारण पूछने पर दोनों ने बताया कि "यद्यपि हम दोनों ही अपनों से ही अत्यन्त अपमानित एवं तिरस्कृत हैं, फिँर भी उनके प्रति मोह नहीं छूटता, इसका क्या कारण है?" महर्षि मेधा ने बताया कि-"मन शक्ति के अधीन होता है। आदिशक्ति भगवती के दो रूप हैं-विद्या एवं अविद्या। प्रथम ज्ञान स्वरूप। है तथा दूसरी अज्ञान स्वरूपा। अविद्या के आदि कारण रूप में उपासना करते हैं । उन्हें वे विद्या स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं।

गणगौर व्रत

यह व्रत चैत्र शुक्ल तृतीय को मनाया जाता है । इसी दिन सुहागन स्त्रियाँ व्रत रखती है । कहा जाता है कि भगवान शिव ने माता पार्वती तथा सभी स्त्रियों को सौभाग्य का वर दिया था । पूजन के समय रेणुका की गौरी बनाकर उसपर चूड़ी , माहवार , सिंदूर चढ़ाने का नियम है । चन्दन , अक्षत ,धुप , दीप , नैवेद्य से पूजन करना , सुहागन के सिंगार का सामान चढ़ाना और भोग लगाने का नियम है । यह व्रत रखने वाली स्त्रियों को गौर पर चढ़े सिंदूर को अपनी मांग में लगाना चाहिए । व्रत कथा-एक बार चैत्र शुक्ल की तृतीया को शंकरजी नारद व पार्वती सहित पृथ्वी का भ्रमण करते हुए एक गांव में पहुंचे। गांव के लोगों को जब पता लगा तो वहां की निर्धन घर की स्त्रियों ने जैसे वे बैठी थीं, वैसे ही थाल में हल्दी, चावल, अक्षत, जल लेकर शिव-पार्वती की पूजा कर पार्वतीजी से हरिद्रा (हल्दी) का छींटा लगवाकर मातेश्वरी गौरी से आशीर्वाद व मंगल कामना प्राप्त की। दूसरी तरफ गांव की सम्पन्न परिवार की स्त्रियां सोलह सिंगार से पूर्ण हो, छत्तीस प्रकार के भोजन लेकर देर से आईं। शिवजी तब पार्वतीजी से बोले-“हे पार्वती तुमने सारा सुहाग प्रसाद तो पहले ही बांट दिया अब इनको क्या दोगी?" पार्वतीजी बोलीं-"आप उनकी बात छोड़ें उन्हें ऊपरी पदार्थों से निर्मित रस दिया है इसलिए उनका सुहाग अक्षुष्ण रहेगा। इन लोगों को मैं अपनी अंगुली चीरकर रक्त सुहाग रस दूंगी जो मेरे समान ही सौभाग्यशालिनी बन जायेंगी। उन्हें आशीर्वाद दें। पति से आज्ञा ले पार्वतीजी ने स्नान कर बालु का महादेव बनाकर पूजन किया तथा प्रसाद खा अपने मस्तक पर टीका लगाया। तब महादेव ने पार्वतीजी को आशीर्वाद दिया कि "आज के दिन जो भी स्त्री मेरा पूजन तथा तुम्हारा व्रत करेगी उसका पति दीर्घायु होगा औरअन्त में मोक्ष को प्राप्त होगा। शिवजीजी यह कहकर अन्तर्ध्यान हो गये।

चैत्र शुक्ल दोज (बालेन्द्र व्रत)

यह व्रत चैत्र मास की शुक्ल पक्ष दोज को रखा जाता है। इस दिन साल के प्रारम्भ में सबसे पहले दिन चन्द्रमा के दर्शन होते हैं। इस दिन चन्द्रमा छोटे होते हैं; इसलिए इन्हें बालेन्द्र कहते हैं। इस दिन ब्रह्माजी की पूजा करें तथा उनकी प्रतिमा के समक्ष बैठकर हवन करें। जिसमें छवि, अन्न मिष्ठान आदि की आहुति दें। साथ ही रात्रि में चन्द्रमा को अर्घ्य दें। इस दिन दही, घी का भोजन करें। यह व्रत समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है तथा यह व्रत मृत्यु के पश्चात् मोक्ष प्रदान करता है। इस व्रत के प्रभाव से सुख-समृद्धि व धन में वृद्धि होती है।