Difference between revisions of "Festival in month of Margashirsha (मार्गशीर्ष मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)"

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'''मोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष परेडहिन शरण भवा।'''</blockquote>अर्थात् हे देव पुण्डरीकाक्ष! मैं पूर्णिमा को निराहार व्रत रखकर दूसरे दिन आपकी आज्ञा से भोजन करूंगा, आप मुझे अपनी शरण दें। इस प्रकार भगवान को व्रत समर्पित करके सायं को चन्द्रमा निकलने पर दोनों घुटने पृथ्वी पर टेककर सफेद फूल, अक्षत, चन्दन, जल सहित अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय चन्द्रमा से कहो-हे भगवन! रोहिणीपते! आपका जन्म अग्निकुल में हुआ और आप क्षीर सागर में प्रकट हुये हैं। मेरे दिये हुए अर्घ्य को स्वीकार करें। इसके बाद चन्द्रमा को अर्घ्य देकर उनकी ओर मुंह करके हाथ जोड़कर प्रार्थना "हे भगवन! आप श्वेत किरणों से सुशोभित हैं। आपको नमस्कार है, आप लक्ष्मी के भाई हैं, आपको नमस्कार है।" इस प्रकार रात्रि को नारायण भगवान की मूर्ति के पास ही शयन करें। दूसरे दिन सुबह ब्राह्मणों को भोजन करायें और दान देकर विदा करें। जो इस प्रकार व्रत धारण करते हैं वो पुत्र-पौत्रादि के साथ सुख भोगकर सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और अपनी 10 पीढ़ियों के साथ बैकुण्ठ को जाते हैं।
 
'''मोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष परेडहिन शरण भवा।'''</blockquote>अर्थात् हे देव पुण्डरीकाक्ष! मैं पूर्णिमा को निराहार व्रत रखकर दूसरे दिन आपकी आज्ञा से भोजन करूंगा, आप मुझे अपनी शरण दें। इस प्रकार भगवान को व्रत समर्पित करके सायं को चन्द्रमा निकलने पर दोनों घुटने पृथ्वी पर टेककर सफेद फूल, अक्षत, चन्दन, जल सहित अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय चन्द्रमा से कहो-हे भगवन! रोहिणीपते! आपका जन्म अग्निकुल में हुआ और आप क्षीर सागर में प्रकट हुये हैं। मेरे दिये हुए अर्घ्य को स्वीकार करें। इसके बाद चन्द्रमा को अर्घ्य देकर उनकी ओर मुंह करके हाथ जोड़कर प्रार्थना "हे भगवन! आप श्वेत किरणों से सुशोभित हैं। आपको नमस्कार है, आप लक्ष्मी के भाई हैं, आपको नमस्कार है।" इस प्रकार रात्रि को नारायण भगवान की मूर्ति के पास ही शयन करें। दूसरे दिन सुबह ब्राह्मणों को भोजन करायें और दान देकर विदा करें। जो इस प्रकार व्रत धारण करते हैं वो पुत्र-पौत्रादि के साथ सुख भोगकर सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और अपनी 10 पीढ़ियों के साथ बैकुण्ठ को जाते हैं।
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Latest revision as of 17:49, 15 April 2022

इस मास को राधा स्नान विधि कहा जाता है। प्रातः समय ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौच, स्नान आदि से निवृत होकर अपने नित्य नियम को करें और देवता और पितरों को अर्पण करें फिर वैष्णव लोगों को तिलक लगाकर भगवान का स्मरण करना चाहिये। मार्गशीर्ष मास में भगवान का पूजन करने से मनुष्य भगवान की सौ लोक मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। पूजा के आरम्भ में पहले मंगल पाठ करें, फिर शंख की पूजा करें और फिर भक्तिपूर्वक मन्त्रों को पढ़ते हुए शंख के जल से भगवान विष्णु को स्नान करायें। कस्तूरी, चन्दन आदि लगाकर अर्घपाद्य, आचमन तथा मधुपर्क विष्णुजी को अर्पण करें। यथा विधि सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से विष्णुजी को अलंकृत करें, पुष्पों से सिंहासन का पूजन कर उस पर विष्णुजी को विराजमान करें। स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण कर सुगंधित ताम्बूल अर्पण करके धूप तथा दीपक सामने रखे । आदरपूर्वक प्रणाम कर रात्रि को जागरण कराएँ । इस प्रकार जो मार्गशीर्ष मास में भक्ति और श्रद्धायुक्त चित से विष्णु भगवान की पूजा करता है, वह अवश्यमेघ नि:सदेह वैकुण्ठ लोक को जाता है। इस मास में जो विष्णुजी को गौ के दूध से स्नान कराता है, उसको अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। जो शंख ध्वनि करके विष्णुजी को स्नान कराता है, उसके पित स्वर्ग में प्रतिष्ठित होते हैं.. जो विष्णजी के सिर पर घुमाकर शंख के जल से मन्दिर का प्रोक्षण करता है उसके घर में कभी अशुभ नहीं होता। जो विष्णुजी को एक हजार बार स्नान कराता है वह सपरिवार मुक्त हो जाता है। जो चालीस बार शंख से स्नान कराता है वह चिरकाल तक इन्द्रलोक में वास करता है। जो मनुष्य विष्णु भगवान को स्नान व पूजन करते हुए घण्टा दान करते हैं वह करोड़ों वर्ष तक विष्णुलोक में वास करते हैं। जो ॐकार ध्वनि से पूजन करते हैं वे निरन्तर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य विष्णुजी के निमित्त तुलसी काष्ट का चन्दन अर्पण करते हैं, वे अश्वमेघ कृतार्थ हो जाते हैं। जो नित्य ही तुलसी पत्रों तथा आंवलों से नित्य प्रति विष्णुजी की पूजा करते हैं उन्हें मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य विष्णुजी को धूप अर्पित करता है उसके सौ कुलों का उद्धार होता है। पुष्प, इलायची, गूगल, हर्ड, कूट, गुड़, शैला, छड़ और नख-इन दस चीजों को मिलाकर दशांग धूप विष्णुजी को अर्पण करता है वह अति दुर्लभ कामनाओं को भी प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य कपूर से विष्णुजी की आरती करता है वह अन्त में उन्हीं में प्रवेश कर जाता है। जो मनुष्य मार्गशीर्ष मास में कपूर का दीपक जलाता है, वह अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करता है। जो मार्गशीर्ष मास में मन्दिर में, ब्राह्मण के घर, चौराहे पर दीपक जलाता है, वह मनुष्य बुद्धिमान ज्ञान से सम्पन्न तथा चक्षुष्मान हो जाता है। भक्तियुक्त होकर जो भी विष्णु को अर्पण करता है, वह उसी को ग्रहण कर लेता है। भोग लगाने के पश्चात् आचमन कर, तम्बूल अर्पण करें।

उत्पन्ना एकादशी

यह व्रत मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी को किया जाता है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण की पूजा का विधान है। व्रत रखने वाले को दशमी के दिन रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये। एकादशी के दिन ब्रह्मबेला में भगवान का पुष्प, जल, धूप, अक्षत से पूजन करके नीराजन करनी चाहिये। इस व्रत में केवल फलों का ही भोग लगाया जाता है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश त्रिदेव का संयुक्त अंश माना जाता है। यह मोक्ष देने वाला व्रत है । व्रत कथा-एक बार पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वतीजी को अपने-अपने पतिव्रत पर बड़ा घमण्ड हो गया। नारद इनके गर्व मर्दन के लिए सर्वप्रथम पार्वतीजा पास गये और अत्रि ऋषि पत्नी अनुसूइया की प्रशंसा करने लगे। नारदजी के जाने उपरान्त पार्वतीजी के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई और अनुसूइया का चरित्र भंग करने के लिये दिगम्बर शिव से निवेदन किया

नारद के मन कछु न भावाएक दिवस दो कुकुर लड़ावा॥

उक्ति को चरितार्थ करते हुए, ऋषिराज वीणातान में मस्त, विष्णुलोक पहुंचे। वहां भी लक्ष्मीजी से अनुसूइया की भूरि-भूरि प्रशंसा की। भला लक्ष्मी कब परगुणगान सुनने वाली थी। नारद के अदृश्य होते ही विष्णु से अनुसूइयां का प्रतिव्रत नष्ट करने का आग्रह किया। उधर ब्रह्मलोक में भी जाकर नारद ने सरस्वती से इसी तरह की अनुसूइया की बड़ाई सुनाई। सरस्वती ने भी इन दोनों देवियों का अनुकरण करते हुए प्रजापति से अत्रि पत्नी के सतीत्व, मर्यादा भंग करने की प्रार्थना की। इस प्रकार ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों देव अनुसूइया का व्रत भंग करने के लिये चल दिये। अत्रि ऋषि की कुटिया के पास ही तीनों का समागम हुआ। तब एक ही समस्या का समाधान वाले तीनों देव भिखारियों का रूप बनाकर भिक्षाटन करते हुए अनुसूइया के द्वार पर पहुंचे। अनुसूइया के भिक्षा देने पर सब लोगों ने इंकार कर दिया और भोजन करने की इच्छा प्रकट की।

अतिथि सत्कार को ही जीवन समझने वाली अनुसूइया ने भिक्षुकों की बात स्वीकार कर ली। इसके बाद उन्हें स्नानादि से निवृत होने को कहा। तीनों देवों के आते ही श्रद्धा से अनुसूइया जब भोजन की थाली परोसकर लायी। उन लोगों ने इन्कार करते हुए कहा कि-"जब तक तू नग्न होकर नहीं परोसेगी तब तक हम भोजन ग्रहण नहीं करेंगे।" यह सुनकर अनुसूइया पहले तो सिर से पैर तक क्रोध में जल उठी, परन्तु पतिव्रत शक्ति से देवों का प्रयोजन जानकर पतिव्रत के प्रभाव से तीनों देवों को बालक बना दिया। उसके द्वार अत्रि ऋषि के चरणोदक को छिड़कते ही त्रिदेव छोटे-छोटे बच्चों की तरह खेलने लगे। तब सती ने उन्हें भरपेट भोजन कराया और पालने में झुलाती हुई वात्सल्य प्रेम में दिन व्यतीत करने लगी। इधर काफी समय बीत जाने पर भी त्रिदेवों के ना लौटने पर तीनों देवियां घबराने लगी। तब एक दिन ज्ञात हुआ कि तीनों देव एक बार अनुसूइया के घर जाते दिखाई दिये थे। इतना सुनते ही लक्ष्मी, ब्राह्मणी और पार्वतीजी अत्रि मुनि के आश्रम में पहुंची और अनुसूइया से अपने अपने पतियों के विषय में पूछा। अनुसूइया ने पालने की ओर संकेत करके अपने-अपने स्वामियों को पहचानने को कहा। लक्ष्मी ने अत्यधिक चालाकी से विष्णुजी को पहचानना चाहा मगर जब पति समझकर उठाया तो भगवान शंकर निकले. इस पर उनका बड़ा उपहास हुआ। इस प्रकार तीनों देवियों है. इसलिए इन्हें बच्चों के रूप में ही रहना होगा। इस पर तीनों के अंग में एक के अनुनय विनय करने पर अनुसूइया ने कहा कि इन लोगों ने मेरा दूध पिया विशिष्ट अवतार हुआ। जिसके तीन सिर और छ: भुजाए थी। यही दत्तात्रेय ऋषि को उत्पत्ति को कथा है। अनुसूइया ने पुनः पति चरणोदक से तीनों देवताओं को पूर्ववत् कर दिया।

मोक्षदा एकादशी

यह व्रत मोक्षदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इसके करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व मोहित हुए अर्जुन को श्रीमदभागवत गीता का उपदेश दिया था। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण व गोता की पूजन आरती करके उसका पाठ करना चाहिये। इसी दिन महर्षि को पत्नी सती अनुसूइया से दत्तात्रेय उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने 24 गुण धारण कर लोगों को शिक्षा दी कि तुच्छ समझी जाने वाली छोटी-छोटी चीजों से भी ज्ञान प्राप्त करते रहना चाहिये और किसी भी प्राणी की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। यह उत्तमव्रत मार्गशीर्ष मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है। मोक्षदा एकादशी के दिन मिथ्या भाषण, चुगली व अन्य दुष्कर्मों का परित्याग करना चाहिये। भगवान दामोदार को धूप-दीप-नैवेद्य से पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मण को भोजन कराकर दानादि देने से इस व्रत का विशेष फल प्राप्त होता है। इस दिन कृष्ण भगवान का पूजन करके आरती करनी चाहिये।

व्रत कथा-

प्राचीन समय में कम्पिल्य नगर में बीरबाहु नाम वाला राजा था। वह राजा बड़ा धर्मात्मा, सत्यवादी और ब्राह्मण-भक्त सदैव ही भक्ति में लीन रहता था। वह राजा रण में विजयी, ऋषि में कुबेर के समान और पुत्रवान था, उस राजा की स्त्री का नाम कोनिमती धा। वह अति सुन्दर और पतिव्रता थी और वह राजा अपनी स्त्री के साथ प्रजा का पालन किया करता था। एक दिन उस राजा के घर महामुनि भारद्वाज आये। राजा ने बड़ा सत्कार किया, पाद्य, अर्घ्य उन्हें अर्पण करके उनके बैठने के लिए स्वयं अपने हाथ से आसन बिछाया और उनको बिठाकर बड़े विनीत भाव से उनको कहने लगा, "हे महात्मन! मेरे अहो भाग्य हैं, तथा मेरे करोड़ों जन्मों के पाप नाश हो गये जो यहां पर पधार कर आपने दर्शन दिये।" फिर राजा कहने लगा - "हे मुनिश्वर पहले जन्म में मैंने कौन-से पुण्य-कर्म किये जिससे मुझे यह राज्य व अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई?"

यह सुनकर मुनि भारद्वाज कुछ विचार कर कहने लगे, “राजन, मुझको योग बल द्वारा तुम्हारे पूर्व जन्म के संचित कर्म मालूम हो गये। सो मैं तुमसे कहता हूं। राजा पूर्व जन्म में तुम शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे, हिंसा में सदैव रत, दुष्ट चरित्र, नास्तिक तथा पापी थे और पूर्व जन्म में भी यही स्त्री तुम्हारी पत्नी थी। यह बड़ी पतिव्रता और निरन्तर आपकी सेवा किया करती थी। तुम्हारे दुष्ट कर्मों से तुम्हारे सब बन्धुओं ने तुमको त्याग दिया तथा तुम्हारे पूर्वजों से साँचत किया हुआ धन भी सब तुमने जब नष्ट कर दिया, परन्तु इस क्षीण अवस्था में भी उस पतिव्रता ने अपको नहीं त्यागा। इस पर तुम दु:खी होकर निर्जन वन में चले गये। एक समय उस निर्जन वन में एक अति भूखा-प्यासा ब्राह्मण,आ गया तब तुम्हारी स्त्री ने उसकी बड़ी सेवा की इस ब्राह्मण के संसर्ग से तुम्हारी बुद्धि में धर्म का संचार हो गया और नुमने उस ब्राह्मण से पूछा कि-हे ब्राह्मण, तुम इस घोर वन में कैसे आये? तब ब्राह्मण बोला-

“मैं मार्ग भटक गया था और आपने मेरे प्राण बचाये, बताओ मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं?" तुम बोले-“महाराज मैं अति पापी और दुष्ट हूं, भाई- बन्धुओं से त्यागा जाकर इस वन में आ गया और नित्य ही जीवों को मारकर अपनी स्त्री सहित इस घोर वन में निर्वाह करता हूं। भगवन, मैं और कुछ नहीं चाहता केवल यह चाहता हूं कि आप कोई ऐसा उपाय बतायें, जिससे मुझ जैसे पापी का भी उद्धार हो जाए।" तब वह ब्राह्मण कहने लगा-"मैंने योग द्वारा तुम्हारे सब कार्य जान लिये हैं। पहले जन्म में तुम ब्राह्मण थे। भगवान के परम भक्त थे। परन्तु तुमने दशमी विधा, एकादशी का व्रत किया इसी कारण से तुम्हारी यह दशा हो गई। अब जब भी एकादशी आये तुम भक्तिपूर्वक एकादशी का व्रत करो तो तुम इस दुर्गति से मुक्त हो जाओगे। कुछ दिनों के पश्चात् मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी आई और तुमने अपनी स्त्री सहित इस व्रत को किया और उसी समय तुम देवदूतों सहित स्वर्ग को चले गये और बहुत समय तक स्वर्ग के सुखों को भोग कर उस राज्य तथा वैभव को प्राप्त हो गये, अत: हे राजन! तुम अपने इस भक्ति-भाव तथा एकादशी के व्रत के प्रभाव से शीघ्र ही भगवान सालैक्स मुक्ति को प्राप्त होकर सदैव ही सुख भोगोगे। जो लोग एकादशी के व्रतादि से विमुख रहते हैं, उनकी परलोक में भी गति नहीं होती, अत: कलियुग में मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी का व्रत अवश्य रखना चाहिये।

धन व्रत

यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का होता है। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिये। प्रातः ही व्रत रखने वाले भगवान की प्रतिमा को स्नान कराकर तथा समस्त सामग्री से पूजन कर भोग लगायें और आरती उतारें। इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर और दान देकर विदा करें। रात्रि में भगवान की मूर्ति के सामने देव मन्त्रों से आहुति देकर हवन करें और आरती करके उस मूर्ति को दो लाल वस्त्रों से ढक कर ब्राह्मण को दे दें। जो इस तरह से व्रत रखता है वह मनुष्य धन-धान्य से सम्पन्न होकर स्वर्ग को प्राप्त होता है। हवन करने से अग्निदेव उसके सब पापों को नष्ट कर देते हैं।

नन्दनी नवमी व्रत

यह व्रत मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की नवमी को किया जाता है। इस दिन माता जगदम्बा की पूजा करनी चाहिये। व्रत रखने वाले माता जगदम्बा को स्नान कराकर सजे हुए उच्च आसन पर बैठाकर उसके सामने हवन आदि करें। माता जगदम्बा के हवन में खीर की आहुति दें और भोग लगायें। फिर जगदम्बा की आरती उतारे जो इस प्रकार धारण करते हैं और पूजा करते हैं, पापों से मुक्त होंगे और अश्वमेघ यज्ञ के बराबर फल प्राप्त करते हैं और अन्त में ब्रह्मलोक को जाकर सब सुखों को प्राप्त करते हैं।

गीता-जयन्ती

यह जयन्ती मार्गशीर्ष शुक्ल की एकादशी को ही मनाई जाती है। इस दिन भगवान श्रीकृष्णजी ने महाभारत के युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। इस दिन श्री गीताजी का पूजन करें, आरती करें और इसका पाठ भी करें। गीता सभी वेदों का सार है। इसका प्रचार कृष्ण-प्रेमियों में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में विस्तार से फैला हुआ है और अपने सिद्धान्तों और ज्ञान के लिये विख्यात और माननीय है। अगर हर प्राणी इसके एक-एक श्लोक के अनुसार अपने जीवन को बना ले तो वह ईश्वर को बिना तप के प्राप्त कर सकता है। इस दिन मुनि दत्तात्रेयजी का भी जन्म-दिवस मनाया जाता है। इसलिये इसे दत्त जयन्ती भी कहते हैं।

मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत और गंगास्नान

यह व्रत मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को होता है। इस दिन भगवान नारायण की पूजा की जाती है। सबसे पहले नियमपूर्वक पवित्र होकर स्नान करें और सफेद कपड़े पहनें, फिर आचमन करें। इसके बाद व्रत रखने वाले “ॐ नमो नारायण" कहकर आवाहन करें। आसन और गंध पुष्प आदि भगवान को अर्पण करें। फिर भगवान का गुणगान करें। भगवान के सामने चौकोर वेदी बनायें। जिसकी लम्बाई व चौड़ाई एक-एक हाथ हो। हवन करने के लिये अग्नि स्थापित करें और उसमें तिल, घी, आदि की आहुति दें। हवन की समाप्ति के बाद फिर भगवान का पूजन करें और अपना व्रत उनको अर्पण करें और कहें-

पोर्णमास्यं निराहारः स्थिता देवतवा ज्ञया मोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष परेडहिन शरण भवा।

अर्थात् हे देव पुण्डरीकाक्ष! मैं पूर्णिमा को निराहार व्रत रखकर दूसरे दिन आपकी आज्ञा से भोजन करूंगा, आप मुझे अपनी शरण दें। इस प्रकार भगवान को व्रत समर्पित करके सायं को चन्द्रमा निकलने पर दोनों घुटने पृथ्वी पर टेककर सफेद फूल, अक्षत, चन्दन, जल सहित अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय चन्द्रमा से कहो-हे भगवन! रोहिणीपते! आपका जन्म अग्निकुल में हुआ और आप क्षीर सागर में प्रकट हुये हैं। मेरे दिये हुए अर्घ्य को स्वीकार करें। इसके बाद चन्द्रमा को अर्घ्य देकर उनकी ओर मुंह करके हाथ जोड़कर प्रार्थना "हे भगवन! आप श्वेत किरणों से सुशोभित हैं। आपको नमस्कार है, आप लक्ष्मी के भाई हैं, आपको नमस्कार है।" इस प्रकार रात्रि को नारायण भगवान की मूर्ति के पास ही शयन करें। दूसरे दिन सुबह ब्राह्मणों को भोजन करायें और दान देकर विदा करें। जो इस प्रकार व्रत धारण करते हैं वो पुत्र-पौत्रादि के साथ सुख भोगकर सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और अपनी 10 पीढ़ियों के साथ बैकुण्ठ को जाते हैं।