Difference between revisions of "Festival in month of Kartika (कार्तिक मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)"

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यह त्यौहार कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाया जाता है। इस दिन गायों और बछड़ो की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाला इस दिन प्रातः स्नान कर गाय और बछड़ों का पूजन करे। फिर उनको आटे का गोला बनाकर खिलाये। इस दिन गाय का दूध, गेहूं की बनी वस्तुएं और भैंस, बकरी का दूध और कटे फल नहीं खायें। इसके बाद गोवत्स द्वादशी की कहानी सुनें। फिर ब्राह्मणों को फल दान दें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। गोवत्स द्वादशी की कथा-बहुत समय पूर्व की बात है। भारतवर्ष में एक स्वर्णपुष्ट नाम का एक बहुत रमणिक नगर था। वहां देवरावी नाम का राजा राज्य करता था। राजा बहुत धर्मात्मा, दानी और गोमाता का सेवक था। उसके यहां एक गाय, बछड़ा और मैंसें रहती थीं। उस राजा के दो रानियां थीं। एक का नाम सीता और एक का नाम गीता था। सीता भैंस से प्यार करती थी और उसे अपनी सखी की तरह मानती थी जबकि गीता गाय और बछड़े से प्रेम करती थी। वह गाय को सहेली और बछड़े को अपने बच्चे के समान प्रेम करती थी।
 
यह त्यौहार कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाया जाता है। इस दिन गायों और बछड़ो की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाला इस दिन प्रातः स्नान कर गाय और बछड़ों का पूजन करे। फिर उनको आटे का गोला बनाकर खिलाये। इस दिन गाय का दूध, गेहूं की बनी वस्तुएं और भैंस, बकरी का दूध और कटे फल नहीं खायें। इसके बाद गोवत्स द्वादशी की कहानी सुनें। फिर ब्राह्मणों को फल दान दें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। गोवत्स द्वादशी की कथा-बहुत समय पूर्व की बात है। भारतवर्ष में एक स्वर्णपुष्ट नाम का एक बहुत रमणिक नगर था। वहां देवरावी नाम का राजा राज्य करता था। राजा बहुत धर्मात्मा, दानी और गोमाता का सेवक था। उसके यहां एक गाय, बछड़ा और मैंसें रहती थीं। उस राजा के दो रानियां थीं। एक का नाम सीता और एक का नाम गीता था। सीता भैंस से प्यार करती थी और उसे अपनी सखी की तरह मानती थी जबकि गीता गाय और बछड़े से प्रेम करती थी। वह गाय को सहेली और बछड़े को अपने बच्चे के समान प्रेम करती थी।
  
एक दिन मैंस सीता से बोली-“हे रानी! गाय का बछड़ा होने से मुझे द्वेष है। सीता ने कहा अगर ऐसी बात है तो मैं सब काम ठीक कर लूंगी। सीता ने उसी दिन गाय के बछड़े को उठाकर गेहूं के ढेर में दवा दिया। इस बात का किसी को पता न चला। जब राजा खाना खाने गया तो उसके महल में मांस की वर्षा होने लगी। चारों ओर महल में मांस और रक्त दिखाई देने लगा। जो खाना रखा था वह पखाना बन गया। यह देख राजा बहुत चिन्ता में पड़ गया कि यह सब क्या है? उसी समय आकाशवाणी हुई कि राजन, तेरी स्त्री सीता ने गाय के बछड़े को काटकर गेहूं की ढेरी में दबा दिया है। इसी कारण यह सब हुआ है। इतना सुनकर राजा गुस्से से कांपने लगा। तभी दुबारा स्वर गूंजा कि हे राजन! कल गोवत्स द्वादशी है। अत: भैंस को राहर से बाहर निकालकर तुम व्रत रखकर गाय के बछड़े को मन में विचारकर उसकी पूजा करना। गाय, भैंस का दूध और फल नहीं खाना। साथ ही गेहूं की कोई वस्तु भी न खाना। तब तेरा सब पाप दूर हो जायेगा और बछड़ा भी जीवित हो जायेगा । जब गाय शाम को आयी तो वह भी बछड़े के बिना वेचैन हुई। दूसरे दिन राजा ने आकाशवाणी के अनुसार ही कार्य किया। पूजा करते समय जैसे ही बछड़े को मन याद किया वैसे ही बछड़ा गेहूं के ढेर से निकल आया। यह देखकर राजा बहुत
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एक दिन मैंस सीता से बोली-“हे रानी! गाय का बछड़ा होने से मुझे द्वेष है। सीता ने कहा अगर ऐसी बात है तो मैं सब काम ठीक कर लूंगी। सीता ने उसी दिन गाय के बछड़े को उठाकर गेहूं के ढेर में दवा दिया। इस बात का किसी को पता न चला। जब राजा खाना खाने गया तो उसके महल में मांस की वर्षा होने लगी। चारों ओर महल में मांस और रक्त दिखाई देने लगा। जो खाना रखा था वह पखाना बन गया। यह देख राजा बहुत चिन्ता में पड़ गया कि यह सब क्या है? उसी समय आकाशवाणी हुई कि राजन, तेरी स्त्री सीता ने गाय के बछड़े को काटकर गेहूं की ढेरी में दबा दिया है। इसी कारण यह सब हुआ है। इतना सुनकर राजा गुस्से से कांपने लगा। तभी दुबारा स्वर गूंजा कि हे राजन! कल गोवत्स द्वादशी है। अत: भैंस को राहर से बाहर निकालकर तुम व्रत रखकर गाय के बछड़े को मन में विचारकर उसकी पूजा करना। गाय, भैंस का दूध और फल नहीं खाना। साथ ही गेहूं की कोई वस्तु भी न खाना। तब तेरा सब पाप दूर हो जायेगा और बछड़ा भी जीवित हो जायेगा । जब गाय शाम को आयी तो वह भी बछड़े के बिना वेचैन हुई। दूसरे दिन राजा ने आकाशवाणी के अनुसार ही कार्य किया। पूजा करते समय जैसे ही बछड़े को मन याद किया वैसे ही बछड़ा गेहूं के ढेर से निकल आया। यह देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और गोवत्स द्वादशी का व्रत करने को पूरे राज्य में घोषणा करवा दी।
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=== धनतेरस ===
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धनतेरस कार्तिक मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को मनाया जाता है। इस दिन घर में लक्ष्मी का वास मानते हैं। इस दिन को धन्वन्तरी वैद्य समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। अत: वह धनतेरस को “धनवन्तरी जयन्ती" भी कहते हैं। यह दिन दीपावली आने की पूर्व सूचना देता है, इस दिन बाजार से नया बर्तन खरीदकर घर में लाना शुभ माना जाता है।
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धनतेरस की कथा-
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एक दिन भगवान विष्णु लक्ष्मीजी के साथ मृत्युलोक में घूम रहे थे। एक जगह भगवान विष्णु कुछ सोचकर लक्ष्मीजी से बोले-मैं एक जगह जा रहा हूं। तुम यहीं पर बैठ जाओ लेकिन दक्षिण दिशा की ओर मत देखना। इतना कहकर भगवान विष्णु दक्षिण दिशा की ओर ही चले गये। जब लक्ष्मीजी ने भगवान विष्णु को दक्षिण दिशा की ओर जाते देखा तो सोचा कि भगवान ने मुझे तो दक्षिण दिशा की ओर देखने से भी मना कर दिया और स्वयं उसी ओर जा रहे हैं जरूर उसमें कोई भेद है।
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इतना विचार कर लक्ष्मीजी इस भेद की जानने के लिए दक्षिण दिशा की और देखने लगी। उस दिशा में उन्हें पीली सरसों का खेत दिखाई दिया। उसे देखकर लक्ष्मीजी की आंखें ललचायीं। उन्होंने वहां जाकर अपना शृंगार किया। आगे चलकर उन्हें गन्ने का खेत दिखाई दिया वहां से गन्ना तोड़कर चूसने लगीं। जब भगवान विष्णु वहां से लौटे तो लक्ष्मीजी को वहां देखकर क्रोध करने लगे। उनके हाथ में गन्ना देखकर कहने लगे कि तुमने खेत के गन्ने तोड़कर बहुत बड़ा अपराध किया है इसके बदले तुम्हें इस गरीब किसान की बारह वर्ष तक सेवा करनी होगी। यह सुनकर लक्ष्मीजी घबराई परन्तु जो बात भगवान के मुख से निकल गयी वही उनको करनी थी। तब भगवान लक्ष्मीजी को छोड़कर क्षीर सागर में चले गये।
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लक्ष्मीजी भगवान की आज्ञा मानकर उस किसान के घर चली गयी और उस किसान की नौकरानी बनकर उसकी सेवा करती रही जिस दिन लक्ष्मीजी किसान के घर में पहुंची किसान का घर उसी दिन से धन-धान्य से पूर्ण हो गया जब बारह वर्ष बीत गये लक्ष्मीजी जाने लगी। किन्तु किसान ने उन्हें जाने से रोक लिया। जब विष्णु भगवान ने देखा कि लक्ष्मीजी नहीं आई तो वह किसान के घर गये और लक्ष्मीजी से चलने के लिए कहने लगे, परन्तु किसान ने लक्ष्मीजी को नहीं जाने दिया। तब भगवान विष्णु बोले, अच्छा तुम अपने परिवार सहित गंगा स्नान के लिए जाओ और गंगाजी में इन चार कौड़ियों को छोड़ देना। जब तक तुम वापिस नहीं आयेंगे, जब तक हम नहीं जायेंगे। किसी ने ऐसा ही किया। जैसे ही किसान नेकौड़ियां पानी में छोड़ी तभी चार हाथ पानी से निकलकर उन कौड़ियों को ले गये।

Revision as of 13:05, 9 November 2021

कार्तिक मास की कथा सुनने मात्र से मनुष्य के सब पाप नष्ट होकर बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति हो जाती है। एक समय श्री नारायणजी ब्रह्मलोक में गये और सारे जगत के कर्ता श्री ब्रह्माजी को अति विनीत भाव से कहने लगे-"आप! सारे जगत के कर्ता और सर्वज्ञ हो, अत: आप धर्मोपदेश की कोई सुन्दर कथा कहिए, क्योंकि मैं भगवान का भक्त और आपका दास हूं तथा आप कार्तिक मास की कथा भी कहिए, क्योंकि मैंने सुना है कि कार्तिक मास भगवान को अति प्रिय है, और इस मास में किया हुआ व्रत नियमन पादन दिया हुआ अनन्त फल को प्राप्त होता है।" ब्राह्माजी कहने लगे-“हे पुत्र, तुमने अति सुन्दर प्रश्न किया है, क्योंकि कुरूक्षेत्र पुष्कर तथा तीर्थों का वास इतना फल नहीं देते हैं। जैसे कि कार्तिक मास का फल है।" प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर व्रत करने वाला शौच आदि से निवृत होकर, बारह अगुल अथवा सुगन्धित वृक्ष का दातुन करें। श्राद्ध के दिन, सूर्य-चन्द्रमा के ग्रहण के दिन. एकम अमावस्या नवमी, छठ, एकादशी तथा रविवार को दातुन नहीं करना चाहिए । स्नान करने वाला श्री गंगाजी, शिव, सूर्य विष्णु का ध्यान करके स्नान कर जल से बाहर आकर शुद्ध वस्त्र धारण करे। तिल आदि से देवता ऋषि और मनुष्य (फितर) का तर्पण करें। इस प्रकार सान तर्पण के पश्चात् चन्दन, फल और पुष्प आदि से भगवान को अर्घ्य देना चाहिए। ब्रह्माजी करने लगे- हे नारद! प्रती मनुष्य फिर भगवान के मन्दिर में जाकर जोडशोपचार विधि से भगवान का पूजन करे। मंजरी सहित तुलसी भगवान पर बढ़ाये। जो मनुष्य मंजरी सहित भगवान शालिग्राम का एक बूंद भी चरणामृत पान कर लेता है. वह बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो जाता है और जो कोई शालिग्राम को मूर्ति के आगे अपने पिटरों का वार करता है. उनके पितर को बैकुण्ठ लोक प्राप्त होता है। अक्षतों से भगवान विष्णु का पूजन, शंख के जल से शिव का पूजन बिल्व पत्र से सूर्य का पूजन, तुलसी से गणेशजो का, धतूरे के पुष्पों से विष्णु का, केतकी के पुष्पों से शिव की पूजा करनी चाहिए।

गंगा, यमुन और तुलसी का बराबर हैं। इन तीनों से ही यमपुरी के दर्शन नहीं होते। एक समय नारदजो ब्रह्माजी से कहने लगे- हे ब्राह्मण! कार्तिक मास का महत्या आप मुझसे विधिपूर्वक कहिए।" तब ब्रह्माजी कहने लगे-“हे पुत्र! मैं तुम्हें एक समय की बात है श्री सत्याभामाजी ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि भगवान! मैं पहले जन्म में कौन थी? मेरे पिता कौन थे, जिससे मैं आप त्रिलोकीनाथ की सबसे प्रिय अर्धाग्निी बनो? मेरे कहने मात्र से आपने स्वर्ग से कल्प वृक्ष मेरे आंगन में लगा दिया। इतनी बात सुनकर कृष्ण अति प्रेम से हाथ पकड़कर कल्पवृक्ष के नीचे ले गये और बड़े स्नेह से कहने लगे- हे सत्यभामे! आप मुझे सब पलियों में प्रिय है, अत: मैं आपसे गुप्त-अति गुप्त बात कहने में भी संकोच नहीं करूंगा।"

कार्तिक व्रत कथा

पहले सतयुग में मायापुरी में अत्रिकुल में वेद तथा शास्त्रों का पारगामी वेदशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह सूर्य का बड़ा भक्त था। वह नित्य ही अग्नि तथा अतिथि की सेवा करता हुआ सूर्य की आराधना किया करता था। उसके कोई पुत्र न था परन्तु बड़ी आयु में उसके एक कन्या हुई जिसका नाम गुणवती था। उसने अपनी कन्या का विवाह अपने शिष्य चन्द्र के साथ कर दिया। एक दिन वह ब्राह्मण हो मूर्छा खाकर भूमि पर गिर पड़ी। अपने जामात सहित लकड़ी लेने जंगल में गया। वन में वे दोनों एक राक्षस के हाथों मारे गये और वहां के क्षेत्र के प्रभाव से बैकुण्ठ को गये। गुणवता दुःख से ग्रस्त जब उसे चेतना आई तो उसने घर का सामान बेचकर उन दोनों की अंत्येष्टी क्रिया की और मेरी प्रिय एकादशी और कार्तिक का व्रत करने लगी। कार्तिक मास में जो प्रात:काल स्नान करता है; जागरण, दीपदान, भगवान के मन्दिर की सफाई, पूजन करता है वह मनुष्य जीवनमुक्त हो बैकुण्ठ को प्राप्त होता है। एक समय वह दुर्बल शरीर वाली, स्नान के निमित्त गंगाजी में प्रवेश करते ही उसकी सारी देह शीत के मारे कांपने लगी और वह शिथिल हो गयी। उसी समय हमारे तुलापार्षदों ने उसको विमान में बैठाकर बैकुण्ठ पहुंचा दिया। कार्तिक के व्रत के प्रभाव से तुम सत्यभामा होकर हमारी प्रिया बनीं। आजन्म तुलसी रोपने से तुम्हारे आंगन में कल्पवृक्ष है। तुमने कार्तिक में जो दीपदान किया, इसी से तुम्हारे घर में लक्ष्मी का वास है। अत: हे सत्यभामे! जो मनुष्य कार्तिक मास में व्रत करता है, वह तुम्हारी तरह हमको प्रिय है।

करवा चौथ की पूजा विधि

करवा चौथ के दिन अर्थात् कार्तिक मास की चतुर्थी के दिन लकड़ी का पाट-पूजकर उस पर जल का भरा लोटा रखें। बायना निकालने के लिए एक मिट्टी का करवा रखकर करवे में गेहूं व उसके ढक्कन में चीनी और नकद रुपये रखें। फिर उसे रोली से बांधकर गुड़-चावल से पूजा करें। पुन: 13 बार करवे का टोका करें, उसे सात बार पाट के चारों तरफ घुमावें तब भी हाथ में 13 दाने गेहूं के लेकर कहानी सुनें। कहानी सुनने के पश्चात् करवे पर हाथ फेरकर सासुजी के पांव छुएं। तदुपरान्त वह तेरह दाने गेहूं व लोटा यथा स्थान रख दें। रात होने पर चाँद देखकर चन्द्रमा को अर्घ्य दें। इस तरह करके प्रसाद खाकर व्रत रखने वाली स्त्री व्रत खोले। करवा चौथ करने वाली को चाहिए कि बहन और बेटी को भी व्रत की सामग्री भेजे। करवा चौथ कथा-एक साहूकार था जिसके सात पुत्र और एक पुत्री थो! सातों भाई व बहन एक साथ बैठकर भोजन करते। एक दिन कार्तिक चौथ का व्रत आया तो भाई बोला-"बहन आओ भोजन करें। बहन कहा कि आज चौथ का व्रत है। चाँद उगने पर खाऊंगी। भाइयों ने सोचा कि चाँद उगने तक बहन भूखी रहेगी। यह सोचकर एक भाई ने दीया जलाया दूसरे भाई ने छलनी लेकर उसे ढका और नकली चाँद दिखाकर बहन से कहने लगे-"चल, चाँद उग आया है, अर्घ्य दे ले।

" बहन अपनी भाभियों से बोली-"चलो अर्घ्य दे लें।" भाभियां बोलीं-"तुम्हारा चाँद उगा होगा। हमारा तो रात को उगेगा।" बहन ने अकेले ही अर्घ्य दे दिया और खाना खाने लगी। पहले ग्रास में बाल निकला, दूसरे में किकर, तीसरे में ससुराल से पति की बीमारी का संदेश आ गया। मां ने लड़की को विदा करते हुए कहा-"मार्ग में जो बड़ा मिले उसके पांव छूकर सुहाग का आशीष ले लेना। पल्ले में गांठ लगा लेना और उसे कुछ रुपये देना।" मार्ग में उसे जो भी मिला उसने यही आशीष दिया-“तुम सात भाइयों की बहन हो। तुम्हारे भाई सुखी रहें। तुम उनका सुख देखो।" किसी ने भी सुहाग का आशीष नहीं दिया। जब वह ससुराल पहुंची तो दरवाजे पर खड़ी ननद के पांव छुए और उसने आशीष दिया-"सुहागिन रहो, सपूती हो।" तो उसने पल्ले में गांठ बांधकर ननंद को सोने का सिक्का दिया। जब भीतर गयी. तो सास बोली-"तेरा पति धरती पर पड़ा है।" उसके पास जाकर उसकी सेवा करने लगी। सास दासी के हाथ बची-कुची रोटी भेज देती। इस तरह बीतते-बीतते मंगसिर की चौथ आई तो चौध माता बोली-“करवा ले, करवा ले, भाइयों को प्यारी करवा ले।" लेकिन जब उसे चौथ माता नहीं दिखीं तो वह बोली-“मां आपने ही मुझे उजाड़ा है आप ही मेरा उद्धार करोगी।" चौथ माता बोलीं-“पौष की चौथ आयेगी वही तुम्हारा उद्धार करेगी। तुम उससे सब कहना वह तुम्हारा सुहाग देगी। इसी प्रकार पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ और सावन, भादों की चौथ माता आकर यह कहकर चली गयी कि आगे आने वाली से लेना। असौज की चौथ आयी तो उसने बताया कि-कार्तिक की चौथ तुम पर नाराज है, उसी ने तुम्हारा सुहाग लिया है नहीं वापस कर सकती है, वह आये तो उसके पांव पकड़कर विनती करना।" यह कहकर वह भी चली गयी जब कार्तिक की चौथ माता आई तो वह क्रोध में बोलीं- भाइयों की प्यारी करवा ले, दिन में चाँद उगनी करवा ले, व्रत खंडन करने वाली करवा ले, भूखी करवा ले।" यह सुनकर चौथ माता को देखकर उसके पैर पकड़कर गिड़गिड़ाने लगी।

वह बोली-“हे चौथमाता! मेरा सुहाग आपके हाथ में है आप मुझे सुहागिन करें।" तब माता बोली-“पापिन, हत्यारी मेरे पांव पकड़कर क्यूं बैठ गयी।" तब बहन बोली-“हे मां! मुझसे भूल हो गयी। अब मुझे क्षमा कर दें, अब कोई भूल न होगी। तब माता ने खुश होकर आंखों से काजल, नाखूनों से मेहंदी एवं टीके से रोली लेकर छोटी अंगुली से उसके आदमी पर छींटा दिया। उसका आदमी उठकर बैठ गया। और बोला-"आज मैं बहुत सोया। वह बोली-"क्या सोया पूरे बारह महीने हो गये।" अत: इस प्रकार चौथ माता ने सुहाग लौटाया।" तब उसने कहा-“शीघ्रता से माता का उजमन करो।" जब चौथ की कहानी सुनी, करवा पूजन किया तो प्रसाद खाकर दोनों पति-पत्नी चौपड़ खेलने बैठ गये। नीचे से दासी आई, उसने सासुजी को जाकर बताया। तब से सम्पूर्ण गांवों में यह प्रसिद्ध होती गयी कि-"सब स्त्रियां चौथ का व्रत करें तो सुहाग अटल रहेगा।"जिस तरह साहूकार की पुत्री को सुहाग दिया। उसी तरह सबको सुहाग दे। यही करवा चौथ के व्रत की पुरातन महिमा है।

श्री गणेशजी की कथा-एक बुढ़िया हमेशा गणेशजी की पूजा किया करती थी। गणेशजी उस बुढ़िया से कहते थे-मां तू जो चाहे सो मांग ले। बुढ़िया कह देती थी- भगवान मुझे मांगना नहीं आता, कैसे और क्या मांगू? तब गणेशजी ने कहा-अपने बेटे-बहू से पूछकर मांग ले। तब बुढ़िया ने बेटे से पूछा कि गणेशजी कहते हैं कि तू कुछ मांग ले। बता क्या मांगू? बेटा बोला-मां धन मांग ले? बहू से पूछा तो बोली-पोते मांग ले। तब बुढ़िया ने सोचा कि ये तो अपने-अपने मतलब की चीज मांग रहे हैं। यह सोचकर बुढ़िया अपनी पड़ोसिन के पास गयी और उससे पूछा। पड़ोसिन बोली बुढ़िया तू तो थोड़े ही दिन जीयेगी। धन और पोतों से क्या लाभ! तू अपनी आंखें मांग ले जिससे तेरा जीवन आराम से कट सके। बुढ़िया ने पड़ोसिन की बात भी नहीं मानी और घर में जाकर विचारने लगी कि ऐसी चीज मांगूगी कि जिससे बेटा-बहू भी खुश हो जायें और मुझे भी आराम हो जाये। अगले दिन गणेशजो आये और बोले, बुढ़िया जो चाहे मांग ले। बुढ़िया बोली-“महाराज! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे नौ करोड़ की माया नीरोगी काया, अमर सुहाग, आंखों की ज्योति, नाति, पोटी और सम्पूर्ण परिवार का सुख और समय पर मोक्ष दे।" तब गणेशजी बोले-"बुढ़िया मां तुने तो हमें ठग लिया।

खैर तूने जो मांगा है वह तुझे मिलेगा।" इस प्रकार कहकर गणेशजी अन्तध्यान हो गये। बुढ़िया को मांगे अनुसार सब मिल गया। हे गणेशजी! जैसे तुमने बुढ़िया को समस्त सुख दिया वैसे सब को देना। करवा चौथ का उजमन-उजमन करने के लिए एक थाल में तेरह जगह चार-चार पृडी और थोड़ा-थोड़ा सीरा रख लें। उसके ऊपर एक साड़ी-ब्लाउज और अपनी श्रद्धा अनुसार रुपये रख लें। फिर उस थाली के चारों ओर रोली, चावल और जल से हाथ फेरकर अपनी सासु मां को पैर छूकर दे दें। इसके बाद तेरह ब्राह्मणियों को भोजन करायें। उनके रोली की बिन्दी लगाकर यथाशक्ति दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर विदा करें।

अहोई अष्टमी

यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी को मनाया जाता है, इस दिन पुत्रों की माता पूरे दिन व्रत करती हैं। इस दिन सायंकाल तारे निकलने के पश्चात् दीवार पर अहोई बनाकर उसको पूजा करें। व्रत रखने वाली माताएं कहानी सुनें, कहानी सुनते समय एक पत्ते पर जल से भरा लौटा रखें। एक चाँदी की अहोई बनवायें और दो चाँदी के मोती एक डोरे में डलवायें जिस तरह हार में पेंडिल लगा होता है। उसकी जगह चाँदी की अहोई लगवाएं और डोरे, चांदी के मोती डलवा दें। फिर अहोई की रोली, चावल, दूध-भात से पूजा करें। जल के लौटे पर एक सतिया काढ़कर एक कटोरे में सीरी और रुपये का बायना निकालकर और हाथ में सात दाने गेहूं को लेकर कहानी सुनें। फिर अहोई को गले में पहन लें। जो बायना निकाला था उसे सासुजी को पांव छूकर अष्टमी के पश्चात् किसी अच्छे दिन अहोई गले में से उतारकर, जितने बेटे होवें उतनी बार और जितने बेटों का विवाह हुआ हो, उतनी बार दो चाँदी के दाने डालती जायें। जब अहोई उतारें उसको गुड़ से भोग लगाकर तथा जल के छीटें देकर रख दें। चन्द्रमा को अर्घ्य देकर भोजन करें। इस दिन ब्राह्मणों को दान में पेठा अवश्य देना चाहिए। यह व्रत छोटे बच्चों के कल्याण के लिए किया जाता है, अहोई देवी के चित्र के साथ-साथ बच्चे के चित्र भी बनवायें एवं उनकी पूजा करें।

अहोई व्रत कथा-

प्राचीन काल की बात है भारतवर्ष के दतिया नामक नगर में चन्द्रभान नाम का साहूकार रहता था। उसकी पत्नी चन्द्रिका गुणवान व पतिव्रता थी। उसके कोई भी सन्तान जीवित नहीं रहती थी। वे दोनों दुःखी होकर सोचा करते थे-हमारी मृत्यु के पश्चात् इस वैभव का कौन स्वामी होगा? एक दिन वे निश्चय करके घर-धन छोड़कर जंगल में निवास करने चले गये।

जब दोनों चलते-चलते थक जाते तब बैठ जाते फिर चलने लगे। इसी तरह वे बद्रिकाश्रम के निकट एक शील कुण्ड के पास पहुंचे। वहां पहुंचकर दोनों ने अन्न-जल त्याग दिया। जब उन्हें भूखे-प्यासे सात दिन हो गये तो वहां आकाशवाणी हुई कि तुम लोग अपने प्राण मत त्यागो। यह दु:ख तुम्हें पूर्व जन्म के कारण मिला है। अतएव हे साहूकार! अब तुम अपनी पत्नी से अहोई अष्टमी के दिन जो कार्तिक कृष्ण पक्ष को आती है व्रत रखवाना। इस व्रत के प्रभाव से अहोई से अपने पुत्रों की दीर्घायु मांगना। व्रत के दिन रात्रि को राधाकुण्ड में स्नान करवाना। कार्तिक पक्ष की अष्टमी आने पर चंद्रिका में बड़ी श्रद्धा से अहोई देवी का व्रत धारण किया एवं रात्रि को साहूकार राधा कुण्ड में स्नान करने गया। साहूकार जब स्नान करके घर वापस आ रहा था तो मार्ग में अहोई देवी ने उसे दर्शन दिया एवं बोली-"साहूकार!

मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं, तुम मुझसे कुछ भी वर मांग लो।" साहूकार अहोई देवी के दर्शन कर, बहुत प्रसन्न हुआ और कहा, मां! मेरे बच्चे कम उम्र में ही देवलोक को चले जाते हैं। इसलिए मां उनकी दीर्घायु होने का आशीर्वाद दीजिये। अहोई देवी बोलीं, ऐसा ही होगा। इतना कहकर देवी अन्तध्यान हो गयीं। कुछ दिन उपरान्त साहूकार के एक पुत्र पैदा हुआ, जो बड़ा होने पर विद्वान, बलशाली, प्रतापी और आयुष्मान हुआ। अगर किसी स्त्री के पुत्र हुआ हो या पुत्र का विवाह हुआ तो अहोई व्रत की समाप्ति का उत्सव करे। एक थाली में सात जगह पूड़ी एवं श्रोड़ा-सा मीठा रखे। इसके अतिरिक्त एक साड़ी ब्लाउज एक रूपया रखकर थाली में रखे एवं थाली में चारों ओर हाथ फेरकर पूड़ी का वायना वितरण कर दे, अगर लड़की कहीं अन्य जगह हो तो उसके लिए बायना वहीं भेज देना चाहिए।

अहोई का उजमन-यदि किसी स्त्री के बेटा हुआ हो या बेटे का विवाह हो तो होई का उजमन करे। एक थाली में सात जगह चार-चार पूड़ी और थोड़ा थोड़ा सीरा रखे। साथ ही एक साड़ी ब्लाउज रखे। फिर थाली के चारों ओर जल का हाथ फेरकर अपनी सासु मां को पैर छूकर दे दे। साड़ी-ब्लाउज सास पहन ले और बायना बांट दे। यदि लड़की कहीं दूर हो तो उसके लिए बायना वहीं भेज दे।

रमा या रम्भा एकादशी

यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी को रखा जाता है। इस दिन भगवान का समस्त सामग्री से पूजन करें! भोग लगाकर आरती उतारें, आरती के उपरान्त भोग को बांट दें। फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपनी शक्ति के अनुसार दान-दक्षिणा देकर विदा करें। इस प्रकार जो व्रत धारण करता है, उसे इस लोक व परलोक दोनों में सुख मिलता है। एकादशी की कृपा से स्वर्ग में रम्भा या रमा आदि अप्सरायें सेवा करती हैं। रमा या रम्भा एकादशी की कथा-एक समय भारतवर्ष में एक मृचुकन्द नाम का दानी, धर्मपरायण और महाप्रतापी राजा हुआ था। उसको एकादशी व्रत पर पूरा विश्वास था, इसी कारण वह एकादशी व्रत धारण भी करता था। साथ ही साथ उसके राज्य में सभी नियमपूर्वक एकादशी का व्रत भी करते थे। उसके एक चन्द्रभागा नाम की एक रूपवती, गुणवती और धर्मपरायण पुत्री थी! बाप और बेटी दोनों ही भगवान केशव के पूर्ण भक्त थे। उनकी पुत्री चन्द्रभागा का विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र के साथ हुआ, जो राजा मृचुकुन्द के पास ही रहता था। जब एकादशो आयी तो सभी व्यक्तियों ने व्रत धारण किया। सोभन कुमार ने कमजोर होते हुए भी व्रत धारण किया। सोभन कुमार को व्रत के प्रभाव से मन्दराचल पर्वत पर स्थित देवनगर में निवास मिला। वहां उसकी सेवा में रम्भादिक अप्सरायें भी धीं। एक दिन राजा मृचुकुन्द घूमता-घूमता मन्दराचल पर्वत पहुंचा, उसने वहां अपने दामाद को देखा। वह तभी अपनी पुत्री के पास लौट आया और आकर सम्पूर्ण वृतान्त अपनी पुत्री को कह सुनाया। तब चन्द्रभागा ने अपने पिता से मंदराचल जाने की आज्ञा मांगी और वहां गयी। वहां पर रम्भादिक अप्सरायें दोनों पति-पत्नियों की सेवा किया करती थीं। इस प्रकार के समान सुख भोगने लगे।

गोवत्स द्वादशी का व्रत

यह त्यौहार कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाया जाता है। इस दिन गायों और बछड़ो की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाला इस दिन प्रातः स्नान कर गाय और बछड़ों का पूजन करे। फिर उनको आटे का गोला बनाकर खिलाये। इस दिन गाय का दूध, गेहूं की बनी वस्तुएं और भैंस, बकरी का दूध और कटे फल नहीं खायें। इसके बाद गोवत्स द्वादशी की कहानी सुनें। फिर ब्राह्मणों को फल दान दें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। गोवत्स द्वादशी की कथा-बहुत समय पूर्व की बात है। भारतवर्ष में एक स्वर्णपुष्ट नाम का एक बहुत रमणिक नगर था। वहां देवरावी नाम का राजा राज्य करता था। राजा बहुत धर्मात्मा, दानी और गोमाता का सेवक था। उसके यहां एक गाय, बछड़ा और मैंसें रहती थीं। उस राजा के दो रानियां थीं। एक का नाम सीता और एक का नाम गीता था। सीता भैंस से प्यार करती थी और उसे अपनी सखी की तरह मानती थी जबकि गीता गाय और बछड़े से प्रेम करती थी। वह गाय को सहेली और बछड़े को अपने बच्चे के समान प्रेम करती थी।

एक दिन मैंस सीता से बोली-“हे रानी! गाय का बछड़ा होने से मुझे द्वेष है। सीता ने कहा अगर ऐसी बात है तो मैं सब काम ठीक कर लूंगी। सीता ने उसी दिन गाय के बछड़े को उठाकर गेहूं के ढेर में दवा दिया। इस बात का किसी को पता न चला। जब राजा खाना खाने गया तो उसके महल में मांस की वर्षा होने लगी। चारों ओर महल में मांस और रक्त दिखाई देने लगा। जो खाना रखा था वह पखाना बन गया। यह देख राजा बहुत चिन्ता में पड़ गया कि यह सब क्या है? उसी समय आकाशवाणी हुई कि राजन, तेरी स्त्री सीता ने गाय के बछड़े को काटकर गेहूं की ढेरी में दबा दिया है। इसी कारण यह सब हुआ है। इतना सुनकर राजा गुस्से से कांपने लगा। तभी दुबारा स्वर गूंजा कि हे राजन! कल गोवत्स द्वादशी है। अत: भैंस को राहर से बाहर निकालकर तुम व्रत रखकर गाय के बछड़े को मन में विचारकर उसकी पूजा करना। गाय, भैंस का दूध और फल नहीं खाना। साथ ही गेहूं की कोई वस्तु भी न खाना। तब तेरा सब पाप दूर हो जायेगा और बछड़ा भी जीवित हो जायेगा । जब गाय शाम को आयी तो वह भी बछड़े के बिना वेचैन हुई। दूसरे दिन राजा ने आकाशवाणी के अनुसार ही कार्य किया। पूजा करते समय जैसे ही बछड़े को मन याद किया वैसे ही बछड़ा गेहूं के ढेर से निकल आया। यह देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और गोवत्स द्वादशी का व्रत करने को पूरे राज्य में घोषणा करवा दी।

धनतेरस

धनतेरस कार्तिक मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को मनाया जाता है। इस दिन घर में लक्ष्मी का वास मानते हैं। इस दिन को धन्वन्तरी वैद्य समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। अत: वह धनतेरस को “धनवन्तरी जयन्ती" भी कहते हैं। यह दिन दीपावली आने की पूर्व सूचना देता है, इस दिन बाजार से नया बर्तन खरीदकर घर में लाना शुभ माना जाता है।

धनतेरस की कथा-

एक दिन भगवान विष्णु लक्ष्मीजी के साथ मृत्युलोक में घूम रहे थे। एक जगह भगवान विष्णु कुछ सोचकर लक्ष्मीजी से बोले-मैं एक जगह जा रहा हूं। तुम यहीं पर बैठ जाओ लेकिन दक्षिण दिशा की ओर मत देखना। इतना कहकर भगवान विष्णु दक्षिण दिशा की ओर ही चले गये। जब लक्ष्मीजी ने भगवान विष्णु को दक्षिण दिशा की ओर जाते देखा तो सोचा कि भगवान ने मुझे तो दक्षिण दिशा की ओर देखने से भी मना कर दिया और स्वयं उसी ओर जा रहे हैं जरूर उसमें कोई भेद है।

इतना विचार कर लक्ष्मीजी इस भेद की जानने के लिए दक्षिण दिशा की और देखने लगी। उस दिशा में उन्हें पीली सरसों का खेत दिखाई दिया। उसे देखकर लक्ष्मीजी की आंखें ललचायीं। उन्होंने वहां जाकर अपना शृंगार किया। आगे चलकर उन्हें गन्ने का खेत दिखाई दिया वहां से गन्ना तोड़कर चूसने लगीं। जब भगवान विष्णु वहां से लौटे तो लक्ष्मीजी को वहां देखकर क्रोध करने लगे। उनके हाथ में गन्ना देखकर कहने लगे कि तुमने खेत के गन्ने तोड़कर बहुत बड़ा अपराध किया है इसके बदले तुम्हें इस गरीब किसान की बारह वर्ष तक सेवा करनी होगी। यह सुनकर लक्ष्मीजी घबराई परन्तु जो बात भगवान के मुख से निकल गयी वही उनको करनी थी। तब भगवान लक्ष्मीजी को छोड़कर क्षीर सागर में चले गये।

लक्ष्मीजी भगवान की आज्ञा मानकर उस किसान के घर चली गयी और उस किसान की नौकरानी बनकर उसकी सेवा करती रही जिस दिन लक्ष्मीजी किसान के घर में पहुंची किसान का घर उसी दिन से धन-धान्य से पूर्ण हो गया जब बारह वर्ष बीत गये लक्ष्मीजी जाने लगी। किन्तु किसान ने उन्हें जाने से रोक लिया। जब विष्णु भगवान ने देखा कि लक्ष्मीजी नहीं आई तो वह किसान के घर गये और लक्ष्मीजी से चलने के लिए कहने लगे, परन्तु किसान ने लक्ष्मीजी को नहीं जाने दिया। तब भगवान विष्णु बोले, अच्छा तुम अपने परिवार सहित गंगा स्नान के लिए जाओ और गंगाजी में इन चार कौड़ियों को छोड़ देना। जब तक तुम वापिस नहीं आयेंगे, जब तक हम नहीं जायेंगे। किसी ने ऐसा ही किया। जैसे ही किसान नेकौड़ियां पानी में छोड़ी तभी चार हाथ पानी से निकलकर उन कौड़ियों को ले गये।