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एक समय पार्वतीजी स्नान कर रही थी। उस समय कोई सखी उनके पास न थी इसलिए उन्होंने अपने मैल से गणेशजी को बनाकर उन्हें द्वार पर खड़ा कर आज्ञा दी कि-"मेरी आज्ञा बिना किसी को भीतर ना आने देना।" माताजी की आज्ञा सुनकर गणेशजी अपना डण्डा लेकर द्वार पर खड़े हो गये। थोड़ी देर के पश्चात् भगवान शंकरजी वहां आये और उन्होंने भीतर प्रवेश करना चाहा परन्तु गणेशजी ने कहा कि अन्दर जाने की आज्ञा नहीं है, ऐसा माताजी ने कहा है। गणेशजी के वचन सुनकर भगवान ने कहा-“हे मूर्ख! निषेधाज्ञा का यह अर्थ नहीं है कि घर का स्वामी भी प्रवेश नहीं कर सकता। इसका मतलब है कि अन्य जाने-अनजाने पुरुषों को भीतर मत जाने दो। यदि उनका यह आशय नहीं है तो जाकर अपनी मां से पूछ लो। गणेशजी ने कहा-"व्यर्थ बात से क्या! मैं न तो भीतर पूछने ही जाऊंगा और न ही किसी को भीतर प्रवेश करने दूंगा। जब तक वे यहां आकर स्वयं मुझे नहीं हटाएंगी तब तक मैं किसी को भीतर प्रवेश नहीं करने दूंगा। फिर चाहे वह कोई भी होगा।
 
एक समय पार्वतीजी स्नान कर रही थी। उस समय कोई सखी उनके पास न थी इसलिए उन्होंने अपने मैल से गणेशजी को बनाकर उन्हें द्वार पर खड़ा कर आज्ञा दी कि-"मेरी आज्ञा बिना किसी को भीतर ना आने देना।" माताजी की आज्ञा सुनकर गणेशजी अपना डण्डा लेकर द्वार पर खड़े हो गये। थोड़ी देर के पश्चात् भगवान शंकरजी वहां आये और उन्होंने भीतर प्रवेश करना चाहा परन्तु गणेशजी ने कहा कि अन्दर जाने की आज्ञा नहीं है, ऐसा माताजी ने कहा है। गणेशजी के वचन सुनकर भगवान ने कहा-“हे मूर्ख! निषेधाज्ञा का यह अर्थ नहीं है कि घर का स्वामी भी प्रवेश नहीं कर सकता। इसका मतलब है कि अन्य जाने-अनजाने पुरुषों को भीतर मत जाने दो। यदि उनका यह आशय नहीं है तो जाकर अपनी मां से पूछ लो। गणेशजी ने कहा-"व्यर्थ बात से क्या! मैं न तो भीतर पूछने ही जाऊंगा और न ही किसी को भीतर प्रवेश करने दूंगा। जब तक वे यहां आकर स्वयं मुझे नहीं हटाएंगी तब तक मैं किसी को भीतर प्रवेश नहीं करने दूंगा। फिर चाहे वह कोई भी होगा।
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इधर तो भगवान शंकर और गणेशजी के बीच कहा-सुनी हो रही थी और उधर पार्वतीजी स्नान कर पूजा में बैठ गयीं और उनके मन से यह बात सर्वथा निकल गयी कि मैंने गणेशजी को निषेधाज्ञा देकर द्वार पर खड़ा कर रखा है। इधर बात बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ी की क्रोधित होकर भगवान शंकर ने गणेशजी का सिर काट दिया और भीतर प्रवेश करके पार्वतीजी से कहने लगे कि-"आज तुमने ऐसे दुष्ट को द्वार पर खड़ा कर दिया जो तुम्हारी आज्ञा के बिना मुझे भी भीतर प्रविष्ट होने से रोक रहा था। इसलिए मैंने उस दुष्ट का सिर उतार दिया।" शिवजी के वाक्यों को सुनकर पार्वतीजी दुःखी होकर बोलीं-"भगवन! यह आपने अच्छा नहीं किया जो उस अबोध बालक की बातों में आकर उसका मस्तक ही उतार दिया। अत: कृपा करके उसे न केवल नवजीवन ही दीजिये अपितु ऐसे मातृभक्त को सर्वोपरि पूजनीय बनाने की भी पार्वतीजी की प्रार्थना सुनकर सब जीवों पर दया करने वाले भगवान शंकर ने गणेशजी को नवजीवन प्रदान करते हुए कहा-"पार्वती! तेरे पुत्र को मैंने न केवल नवजीवन ही दिया है, अपितु उसके हाथी जैसा मस्तक लगाते हुए उसे सब देवों में प्रथम पूजनीय भी बना दिया है, अत: आज से जो भी कार्यारम्भ में गणेशजी का
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इधर तो भगवान शंकर और गणेशजी के बीच कहा-सुनी हो रही थी और उधर पार्वतीजी स्नान कर पूजा में बैठ गयीं और उनके मन से यह बात सर्वथा निकल गयी कि मैंने गणेशजी को निषेधाज्ञा देकर द्वार पर खड़ा कर रखा है। इधर बात बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ी की क्रोधित होकर भगवान शंकर ने गणेशजी का सिर काट दिया और भीतर प्रवेश करके पार्वतीजी से कहने लगे कि-"आज तुमने ऐसे दुष्ट को द्वार पर खड़ा कर दिया जो तुम्हारी आज्ञा के बिना मुझे भी भीतर प्रविष्ट होने से रोक रहा था। इसलिए मैंने उस दुष्ट का सिर उतार दिया।" शिवजी के वाक्यों को सुनकर पार्वतीजी दुःखी होकर बोलीं-"भगवन! यह आपने अच्छा नहीं किया जो उस अबोध बालक की बातों में आकर उसका मस्तक ही उतार दिया। अत: कृपा करके उसे न केवल नवजीवन ही दीजिये अपितु ऐसे मातृभक्त को सर्वोपरि पूजनीय बनाने की भी पार्वतीजी की प्रार्थना सुनकर सब जीवों पर दया करने वाले भगवान शंकर ने गणेशजी को नवजीवन प्रदान करते हुए कहा-"पार्वती! तेरे पुत्र को मैंने न केवल नवजीवन ही दिया है, अपितु उसके हाथी जैसा मस्तक लगाते हुए उसे सब देवों में प्रथम पूजनीय भी बना दिया है, अत: आज से जो भी कार्यारम्भ में गणेशजी का नाम लेगा वह विघ्नों से रहित होकर सब प्रकार के कार्यों को सम्पूर्ण करेगा। इसमें कदाचित् सन्देह नहीं है।
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==== पथरबा चौथ व्रत की कथा- ====
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ससेनजीत यादव ने भगवान सूर्य नारायण की प्रार्थना करके सिद्धिदाता समयन्तक मणि प्राप्त की थी। वह नित्य उसे अपने गले में धारण किये रखता था। एक दिन वह भगवान कृष्ण की सभा में चला गया। वहां उसे कई यादवों ने इस मणि को भगवान श्रीकृष्ण को समर्पण कर देने के लिए कहा, परन्तु उसने यह बात यूं ही कहा-सुनी में टाल दी। एक दिन उसका भाई प्रसेनजीत उस मणि को लेकर जंगल में शिकार खेलने चला गया। वहां उसे एक शेर ने मार दिया। जब कई दिन तक प्रसेनजीत वापस नहीं लौटा तो ससेनजीत ने श्रीकृष्ण को दोषी ठहरा दिया कि मणि कृष्ण के पास है। उन्होंने ही प्रसेनजीत को मार दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने जब यह बात सुनी तो वे चिन्तित और लज्जित होते हुए मणि की तलाश में जंगल की ओर चल पड़े और प्रसेनजीत के कंकाल के पास पहुंचकर उसे मारने वाले सिंह के पद चिन्हों का पीछा करते हुए एक गुफा में पहुंच गए। वहां जाकर उसने जाम्वंत की अत्यंत सुन्दरी कन्या को उस मणि से खेलते हुए देखा। तदपश्चात् उन्होंने मणि देने के लिए जाम्वंत से प्रार्थना की और उसके मना करने पर उसे में पराजित करके मणि को प्राप्त किया। हार जाने पर जाम्वंत ने अपनी सुन्दर कन्या को श्रीकृष्ण के समर्पित कर दिया। उसके बाद जाम्वंती को लेकर श्रीकृष्ण द्वारिकापुरी लौट आये और सभा में ससेनजीत को बुलाकर मणि की कथा के साथ-साथ समवन्तक मणि उसे सौंप दी। उक्त घटना से ससेनजीत इतना लज्जित हुआ कि उसने अपनी लड़की सत्यभागा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और समयचक्र मणि उसे गहने के रूप में प्रदान कर दी। जो मनुष्य इस कथा को भक्तिपूर्वक सुनेंगे, उनको भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को चार को देखने पर कदाचित् दोष नहीं लगेगा।
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=== दुबड़ी साते ===
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यह पर्व भादो शुक्ल
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