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| === गणेश चतुर्थी === | | === गणेश चतुर्थी === |
− | भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को गणेश-पूजन महोत्सव होता है और लड्डुओं का भोग लगाया जाता है। भोग से पूर्ण विधिवत् गणेशजी का पूजन होता है। इसी दिन डण्डा चौथ मनाते हैं। गणेश पूजन होता है और गुल्ली-डण्डा बजाकर लोगों से | + | भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को गणेश-पूजन महोत्सव होता है और लड्डुओं का भोग लगाया जाता है। भोग से पूर्ण विधिवत् गणेशजी का पूजन होता है। इसी दिन डण्डा चौथ मनाते हैं। गणेश पूजन होता है और गुल्ली-डण्डा बजाकर लोगों से चन्दा लिया जाता है। इस दिन चन्द्रमा देखने से भगवान कृष्ण को कलंकित होना पड़ा था, इसलिए इसका नाम पथरवा चौथ भी है। |
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| + | === कथा- === |
| + | एक समय पार्वतीजी स्नान कर रही थी। उस समय कोई सखी उनके पास न थी इसलिए उन्होंने अपने मैल से गणेशजी को बनाकर उन्हें द्वार पर खड़ा कर आज्ञा दी कि-"मेरी आज्ञा बिना किसी को भीतर ना आने देना।" माताजी की आज्ञा सुनकर गणेशजी अपना डण्डा लेकर द्वार पर खड़े हो गये। थोड़ी देर के पश्चात् भगवान शंकरजी वहां आये और उन्होंने भीतर प्रवेश करना चाहा परन्तु गणेशजी ने कहा कि अन्दर जाने की आज्ञा नहीं है, ऐसा माताजी ने कहा है। गणेशजी के वचन सुनकर भगवान ने कहा-“हे मूर्ख! निषेधाज्ञा का यह अर्थ नहीं है कि घर का स्वामी भी प्रवेश नहीं कर सकता। इसका मतलब है कि अन्य जाने-अनजाने पुरुषों को भीतर मत जाने दो। यदि उनका यह आशय नहीं है तो जाकर अपनी मां से पूछ लो। गणेशजी ने कहा-"व्यर्थ बात से क्या! मैं न तो भीतर पूछने ही जाऊंगा और न ही किसी को भीतर प्रवेश करने दूंगा। जब तक वे यहां आकर स्वयं मुझे नहीं हटाएंगी तब तक मैं किसी को भीतर प्रवेश नहीं करने दूंगा। फिर चाहे वह कोई भी होगा। |
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| + | इधर तो भगवान शंकर और गणेशजी के बीच कहा-सुनी हो रही थी और उधर पार्वतीजी स्नान कर पूजा में बैठ गयीं और उनके मन से यह बात सर्वथा निकल गयी कि मैंने गणेशजी को निषेधाज्ञा देकर द्वार पर खड़ा कर रखा है। इधर बात बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ी की क्रोधित होकर भगवान शंकर ने गणेशजी का सिर काट दिया और भीतर प्रवेश करके पार्वतीजी से कहने लगे कि-"आज तुमने ऐसे दुष्ट को द्वार पर खड़ा कर दिया जो तुम्हारी आज्ञा के बिना मुझे भी भीतर प्रविष्ट होने से रोक रहा था। इसलिए मैंने उस दुष्ट का सिर उतार दिया।" शिवजी के वाक्यों को सुनकर पार्वतीजी दुःखी होकर बोलीं-"भगवन! यह आपने अच्छा नहीं किया जो उस अबोध बालक की बातों में आकर उसका मस्तक ही उतार दिया। अत: कृपा |