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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
१९६ में अंग्रेजी पार्लियामेंट ने यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेज १९४८ के बाद भारत में शासक नहीं रहेंगे। भारत स्वाधीन होगा। तब गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था। पत्र में कहा था कि अब स्वतंत्रता सामने दिख रही है। अब समय आ गया है, हम तय करें कि भारत की अर्थव्यवस्था कैसी होगी। नेहरूजीने उन्हें पत्र लिखकर यह कहा था कि, ‘आपने १९३० में हिन्द स्वराज लिखकर धार्मिक  अर्थव्यवस्था की एक कल्पना प्रस्तुत की थी। मैं उस समय भी आपसे सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूँ। इस पर गांधीजी ने नेहरूजी को दूसरा पत्र लिखकर कहा था कि इस विषय पर जनता में बहस छेड़ी जाए। और जनता यह तय करे कि हमारी अर्थव्यवस्था का स्वरूप कैसा होना चाहिए। इसपर नेहरूजीने फिर एक पत्र लिखकर कहा कि स्वाधीन भारत की संसद को यह तय करने के लिए हम छोड़ दें। इसके साथ यह विनती भी की कि कृपया अभी ऐसी कोई बहस न छेड़ें। गांधीजी शायद मन गए। उन्होंने फिर नेहरूजी को आगे कुछ नहीं कहा। लेकिन ऐसी कोई बहस स्वाधीनता के बाद नहीं छेडी गई। नेहरूजी पर सोव्हियत रशिया का बहुत प्रभाव था। नेहरूजी ने अपनी चलाई। और जब भारत स्वाधीन हुआ तब हमने समाजवादी और पूँजीवादी की एक मिली-जुली अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया था। यह एक नया प्रयोग था। इस प्रयोग का अनुभव न तो नेहरूजी को और उनके सहयोगी नेताओं को था और न ही अन्य किसी देश ने ऐसा कोई सफल प्रयोग कर दिखाया था। नेहरूजी का धार्मिक  इतिहास का और ऐतिहासिक धार्मिक  अर्थव्यवस्था का ज्ञान नहीं के बराबर था। वे और उनके सहयोगी नेता यह शायद जानते नहीं थे कि भारत में वेद पूर्व काल से एक समर्थ राष्ट्र था। इसकी अर्थव्यवस्था अत्यंत श्रेष्ठ थी। इसी अर्थव्यवस्था से निर्माण हुए धन को लूटने के लिए ही भारत पर बारबार विदेशी आक्रमण हुए थे। उनके दिमाग में ‘वी आर ए नेशन इन द मेकिंग’ हम राष्ट्र निर्माता हैं, ऐसा भ्रम था। इस कारण इतने बड़े देश को उन्होंने एक अनिश्चित अर्थव्यवस्था में झोंक दिया। इसी अर्थव्यवस्था के चलते भारत दुनिया में एक अविकसित और विकासशील देश बना रहा। वर्तमान में हम जिस अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं उसे मुक्त बाजार अर्थ व्यवस्था कहते हैं। हम इस व्यवस्था के भी निर्माता नहीं हैं। हम केवल यूरोअमरीकी देशों की नक़ल करने का प्रयास कर रहे हैं। आज भी यदि हम कुछ ठीक स्थिति में हैं तो उसका कारण यह तथाकथित आधुनिक अर्थव्यवस्था नहीं है। हमारे सैंकड़ों वर्षों से चले आ रहे, बर्बर आक्रान्ताओं से जूझते हुए भी हम जो संस्कार, आदतें और जीवनदृष्टि आदि बचा पाए हैं, वे हैं।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १४, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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१९६ में अंग्रेजी पार्लियामेंट ने यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेज १९४८ के बाद भारत में शासक नहीं रहेंगे। भारत स्वाधीन होगा। तब गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था। पत्र में कहा था कि अब स्वतंत्रता सामने दिख रही है। अब समय आ गया है, हम तय करें कि भारत की अर्थव्यवस्था कैसी होगी। नेहरूजीने उन्हें पत्र लिखकर यह कहा था कि, ‘आपने १९३० में हिन्द स्वराज लिखकर धार्मिक  अर्थव्यवस्था की एक कल्पना प्रस्तुत की थी। मैं उस समय भी आपसे सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूँ। इस पर गांधीजी ने नेहरूजी को दूसरा पत्र लिखकर कहा था कि इस विषय पर जनता में बहस छेड़ी जाए। और जनता यह तय करे कि हमारी अर्थव्यवस्था का स्वरूप कैसा होना चाहिए। इसपर नेहरूजीने फिर एक पत्र लिखकर कहा कि स्वाधीन भारत की संसद को यह तय करने के लिए हम छोड़ दें। इसके साथ यह विनती भी की कि कृपया अभी ऐसी कोई बहस न छेड़ें। गांधीजी संभवतः मन गए। उन्होंने फिर नेहरूजी को आगे कुछ नहीं कहा। लेकिन ऐसी कोई बहस स्वाधीनता के बाद नहीं छेडी गई। नेहरूजी पर सोव्हियत रशिया का बहुत प्रभाव था। नेहरूजी ने अपनी चलाई। और जब भारत स्वाधीन हुआ तब हमने समाजवादी और पूँजीवादी की एक मिली-जुली अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया था। यह एक नया प्रयोग था। इस प्रयोग का अनुभव न तो नेहरूजी को और उनके सहयोगी नेताओं को था और न ही अन्य किसी देश ने ऐसा कोई सफल प्रयोग कर दिखाया था। नेहरूजी का धार्मिक  इतिहास का और ऐतिहासिक धार्मिक  अर्थव्यवस्था का ज्ञान नहीं के बराबर था। वे और उनके सहयोगी नेता यह संभवतः जानते नहीं थे कि भारत में वेद पूर्व काल से एक समर्थ राष्ट्र था। इसकी अर्थव्यवस्था अत्यंत श्रेष्ठ थी। इसी अर्थव्यवस्था से निर्माण हुए धन को लूटने के लिए ही भारत पर बारबार विदेशी आक्रमण हुए थे। उनके दिमाग में ‘वी आर ए नेशन इन द मेकिंग’ हम राष्ट्र निर्माता हैं, ऐसा भ्रम था। इस कारण इतने बड़े देश को उन्होंने एक अनिश्चित अर्थव्यवस्था में झोंक दिया। इसी अर्थव्यवस्था के चलते भारत दुनिया में एक अविकसित और विकासशील देश बना रहा। वर्तमान में हम जिस अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं उसे मुक्त बाजार अर्थ व्यवस्था कहते हैं। हम इस व्यवस्था के भी निर्माता नहीं हैं। हम केवल यूरोअमरीकी देशों की नक़ल करने का प्रयास कर रहे हैं। आज भी यदि हम कुछ ठीक स्थिति में हैं तो उसका कारण यह तथाकथित आधुनिक अर्थव्यवस्था नहीं है। हमारे सैंकड़ों वर्षों से चले आ रहे, बर्बर आक्रान्ताओं से जूझते हुए भी हम जो संस्कार, आदतें और जीवनदृष्टि आदि बचा पाए हैं, वे हैं।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १४, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== वर्तमान अर्थव्यवस्था के अनिष्ट ==
 
== वर्तमान अर्थव्यवस्था के अनिष्ट ==

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