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# सामाजिकता से व्यक्तिवादिता की ओर : यह अर्थव्यवस्था मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्ति व्यक्ति में बांटता है। सिंह बलवान होते हैं। सिंहों पर शासन करना कठिन होता है। संगठित समाज बलवान होता है। व्यक्ति दुर्बल होता है। अतः इस शासनाधिष्ठीत अर्थव्यवस्था का लक्ष्य समाज की सामाजिकता या संगठन तोड़कर इसे व्यक्ति व्यक्ति के रूप में विभाजित करने का होता है। ऐसे व्यक्तियों के झुण्ड पर शासन करना सरल होता है। अतः हमारी शिक्षा भी व्यक्तिवादिता या स्वार्थ को बढ़ावा देनेवाली है। नि:स्वार्थ भाव से समाज के हित का विचार करनेवाले लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। अन्न, औषधि और शिक्षा जैसी पवित्र बातें बिकाऊ बन गयीं हैं।
 
# सामाजिकता से व्यक्तिवादिता की ओर : यह अर्थव्यवस्था मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्ति व्यक्ति में बांटता है। सिंह बलवान होते हैं। सिंहों पर शासन करना कठिन होता है। संगठित समाज बलवान होता है। व्यक्ति दुर्बल होता है। अतः इस शासनाधिष्ठीत अर्थव्यवस्था का लक्ष्य समाज की सामाजिकता या संगठन तोड़कर इसे व्यक्ति व्यक्ति के रूप में विभाजित करने का होता है। ऐसे व्यक्तियों के झुण्ड पर शासन करना सरल होता है। अतः हमारी शिक्षा भी व्यक्तिवादिता या स्वार्थ को बढ़ावा देनेवाली है। नि:स्वार्थ भाव से समाज के हित का विचार करनेवाले लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। अन्न, औषधि और शिक्षा जैसी पवित्र बातें बिकाऊ बन गयीं हैं।
 
# पगढ़ीलापन इस अर्थव्यवस्था ने पूरे विश्व के समाजों को पगढ़ीला बना दिया है। मनुष्य का जन्म कहीं होता है, प्राथमिक शिक्षा कहीं होती है, महाविद्यालयीन शिक्षा ओर कहीं होती है, नौकरी के निमित्त पता नहीं कितनी स्थानों पर रहना होता है। निवृत्ति के उपरांत भी कहीं अन्य ही वह अपना डेरा जमाता है। यह बात अब अनिवार्य बन गयी है। इसके चलते संसार भर में सभी संस्कृतियों का नाश हो रहा है। संस्कृति के विकास के लिए समाज जीवन की जो इष्ट गति है उससे कहीं अधिक गति जीवन को मिल रही है। फलस्वरूप संस्कृति नष्ट होकर प्रकृति याने पशुता और विकृति में वृद्धि होती दिखाई दे रही है।
 
# पगढ़ीलापन इस अर्थव्यवस्था ने पूरे विश्व के समाजों को पगढ़ीला बना दिया है। मनुष्य का जन्म कहीं होता है, प्राथमिक शिक्षा कहीं होती है, महाविद्यालयीन शिक्षा ओर कहीं होती है, नौकरी के निमित्त पता नहीं कितनी स्थानों पर रहना होता है। निवृत्ति के उपरांत भी कहीं अन्य ही वह अपना डेरा जमाता है। यह बात अब अनिवार्य बन गयी है। इसके चलते संसार भर में सभी संस्कृतियों का नाश हो रहा है। संस्कृति के विकास के लिए समाज जीवन की जो इष्ट गति है उससे कहीं अधिक गति जीवन को मिल रही है। फलस्वरूप संस्कृति नष्ट होकर प्रकृति याने पशुता और विकृति में वृद्धि होती दिखाई दे रही है।
# कुटुंब का और कुटुंब भावना का क्षरण : यह अर्थव्यवस्था [[Family_Structure_(कुटुंब_व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] को तोड़नेवाली है। इसी के चलते हम कुटुंब से फेमिली और फेमिली से आगे स्वेच्छा सहनिवास (लिव्ह इन रिलेशनशिप) की ओर बढ़ रहे हैं। स्वेच्छा सहनिवास तो समाज को नष्ट करने का निश्चित और अत्यंत बलवान सूत्र है।
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# कुटुंब का और कुटुंब भावना का क्षरण : यह अर्थव्यवस्था कुटुंब व्यवस्था को तोड़नेवाली है। इसी के चलते हम कुटुंब से फेमिली और फेमिली से आगे स्वेच्छा सहनिवास (लिव्ह इन रिलेशनशिप) की ओर बढ़ रहे हैं। स्वेच्छा सहनिवास तो समाज को नष्ट करने का निश्चित और अत्यंत बलवान सूत्र है।
 
# प्रकृति का शोषण और प्रदूषण : जिस प्रकार से और जिस प्रमाण में प्रकृति का शोषण हो रहा है उस के कारण संसाधनों की कमी निर्माण हो गयी है। यह कमी दुनिया में अशांति फैला रही है। इंधन तेल जैसे संसाधन विश्वयुद्ध के कारण बन गए हैं। प्रकृति के प्रदूषण के कारण भी मनुष्य का जीना दूभर हो गया है। स्वास्थ्य की समस्याएँ बढ़ रहीं हैं।  
 
# प्रकृति का शोषण और प्रदूषण : जिस प्रकार से और जिस प्रमाण में प्रकृति का शोषण हो रहा है उस के कारण संसाधनों की कमी निर्माण हो गयी है। यह कमी दुनिया में अशांति फैला रही है। इंधन तेल जैसे संसाधन विश्वयुद्ध के कारण बन गए हैं। प्रकृति के प्रदूषण के कारण भी मनुष्य का जीना दूभर हो गया है। स्वास्थ्य की समस्याएँ बढ़ रहीं हैं।  
 
इन समस्याओं की सूची और बढाई जा सकती है। जिन्हें विकसित देश माना जाता है उनकी समस्याएँ हमसे भी गंभीर हैं। भारत छोड़कर विश्व के अन्य देशों के सामने अर्थव्यवस्था का वर्तमान अर्थव्यवस्था से श्रेष्ठ अन्य कोई नमूना नहीं हैं। जो बलवान देश हैं वे अन्य गरीब देशों के शोषण से लाभ उठाने के लिए इस अर्थव्यवस्था को बनाए हुए हैं। और अन्य देश इसे नकार नहीं सकते क्यों कि उन के पास इस नाशकारी अर्थव्यवस्था को स्वीकार करने के सिवाय अन्य रास्ता नहीं है, शक्ति भी नहीं है। लेकिन भारत की स्थिति ऐसी नहीं है। भारत को एक श्रेष्ठतम  अर्थव्यवस्था का इतिहास है और साथ ही में दुनिया की लगभग २० % आबादी के कारण भारत अपने आप में एक विश्व है। अतः यह तो हमारे नेतृत्व का अज्ञान, दूरदृष्टि और हिम्मत की कमी है कि हम ऐतिहासिक धार्मिक (धार्मिक) अर्थव्यवस्था से कुछ सीखने का प्रयास नहीं कर रहे
 
इन समस्याओं की सूची और बढाई जा सकती है। जिन्हें विकसित देश माना जाता है उनकी समस्याएँ हमसे भी गंभीर हैं। भारत छोड़कर विश्व के अन्य देशों के सामने अर्थव्यवस्था का वर्तमान अर्थव्यवस्था से श्रेष्ठ अन्य कोई नमूना नहीं हैं। जो बलवान देश हैं वे अन्य गरीब देशों के शोषण से लाभ उठाने के लिए इस अर्थव्यवस्था को बनाए हुए हैं। और अन्य देश इसे नकार नहीं सकते क्यों कि उन के पास इस नाशकारी अर्थव्यवस्था को स्वीकार करने के सिवाय अन्य रास्ता नहीं है, शक्ति भी नहीं है। लेकिन भारत की स्थिति ऐसी नहीं है। भारत को एक श्रेष्ठतम  अर्थव्यवस्था का इतिहास है और साथ ही में दुनिया की लगभग २० % आबादी के कारण भारत अपने आप में एक विश्व है। अतः यह तो हमारे नेतृत्व का अज्ञान, दूरदृष्टि और हिम्मत की कमी है कि हम ऐतिहासिक धार्मिक (धार्मिक) अर्थव्यवस्था से कुछ सीखने का प्रयास नहीं कर रहे
    
== धार्मिक (धार्मिक) अर्थव्यवस्था में कौटुंबिक उद्योग का स्थान ==
 
== धार्मिक (धार्मिक) अर्थव्यवस्था में कौटुंबिक उद्योग का स्थान ==
धार्मिक (धार्मिक) [[Family_Structure_(कुटुंब_व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]], वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और ग्राम व्यवस्था, ये बातें धार्मिक (धार्मिक) पोषण व्यवस्था के अत्यंत महत्वपूर्ण घटक हैं। ये सब परस्पर पूरक और पोषक हैं। इनमें से एक को भी नकारने से अन्य घटक भी दुर्बल बन जाते हैं। इसमें धार्मिक (धार्मिक) [[Family Structure ([[Family_Structure_(कुटुंब_व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]])|[[Family_Structure_(कुटुंब_व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]]]] के विषय में, [[Varna System (वर्ण व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] के विषय में, [[Jaati System (जाति व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के विषय में और [[Grama Kul (ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]] की अर्थव्यवस्था के विषय में अलग अलग लेख देखें। यहाँ हम केवल कुटुंब उद्योगों के विषय में ही विचार करेंगे।
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धार्मिक (धार्मिक) कुटुंब व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और ग्राम व्यवस्था, ये बातें धार्मिक (धार्मिक) पोषण व्यवस्था के अत्यंत महत्वपूर्ण घटक हैं। ये सब परस्पर पूरक और पोषक हैं। इनमें से एक को भी नकारने से अन्य घटक भी दुर्बल बन जाते हैं। इसमें धार्मिक (धार्मिक) [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] के विषय में, [[Varna System (वर्ण व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] के विषय में, [[Jaati System (जाति व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के विषय में और [[Grama Kul (ग्रामकुल)|ग्राम व्यवस्था]] की अर्थव्यवस्था के विषय में अलग अलग लेख देखें। यहाँ हम केवल कुटुंब उद्योगों के विषय में ही विचार करेंगे।
    
=== कौटुम्बिक उद्योगों के लाभ ===
 
=== कौटुम्बिक उद्योगों के लाभ ===

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