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वर्तमान में दुनिया के लगभग सभी देशों में मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था है। जिन देशों ने इसे स्वीकार करने से इनकार किया था उन पर विश्व व्यापार संगठन के बलवान देशों ने इसे बलपूर्वक लादा है। इस की स्थिति जैसी भारत में है उसी प्रकार से विश्व के अन्य देशों में भी है। अंतर केवल १९-२१ का है। इसके लक्षण और परिणाम अब देखेंगे। इनकी सूची काफी बड़ी है। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का ही हम विचार करेंगे:
 
वर्तमान में दुनिया के लगभग सभी देशों में मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था है। जिन देशों ने इसे स्वीकार करने से इनकार किया था उन पर विश्व व्यापार संगठन के बलवान देशों ने इसे बलपूर्वक लादा है। इस की स्थिति जैसी भारत में है उसी प्रकार से विश्व के अन्य देशों में भी है। अंतर केवल १९-२१ का है। इसके लक्षण और परिणाम अब देखेंगे। इनकी सूची काफी बड़ी है। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का ही हम विचार करेंगे:
 
# बेरोजगारी : यह व्यक्ति की समस्या है। लेकिन इसके साथ समाज का स्वास्थ्य, समाज की सुरक्षा व्यवस्था, समाज की संस्कृति आदि का भी निकट का संबंध है। बेरोजगारी की समस्या केवल भारत की ही नहीं अमरीका की भी समस्या है। अमरीका भी इसका समाधान नहीं ढूंढ सका है।
 
# बेरोजगारी : यह व्यक्ति की समस्या है। लेकिन इसके साथ समाज का स्वास्थ्य, समाज की सुरक्षा व्यवस्था, समाज की संस्कृति आदि का भी निकट का संबंध है। बेरोजगारी की समस्या केवल भारत की ही नहीं अमरीका की भी समस्या है। अमरीका भी इसका समाधान नहीं ढूंढ सका है।
# आर्थिक विषमता : हाल ही में धार्मिक (धार्मिक) अर्थव्यवस्था की जानकारी वृत्तपत्रों में छपी थी। भारत के केवल १ % लोगों का स्वामित्व भारत की ७२ % सम्पत्ति पर है। इस विषमता के कारण परस्पर द्वेष भावना, ईर्ष्या गलाकाट स्पर्धा, अशांति, धोखाधड़ी, शीघ्रातिशीघ्र अमीर बनने की लालसा और उसके कारण होनेवाला भ्रष्ट आचार आदि कई सामाजिक रोगों का शिकार समाज बन रहा है।
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# आर्थिक विषमता : हाल ही में धार्मिक (धार्मिक) अर्थव्यवस्था की जानकारी वृत्तपत्रों में छपी थी। भारत के केवल १ % लोगोंं का स्वामित्व भारत की ७२ % सम्पत्ति पर है। इस विषमता के कारण परस्पर द्वेष भावना, ईर्ष्या गलाकाट स्पर्धा, अशांति, धोखाधड़ी, शीघ्रातिशीघ्र अमीर बनने की लालसा और उसके कारण होनेवाला भ्रष्ट आचार आदि कई सामाजिक रोगों का शिकार समाज बन रहा है।
# अर्थ का अभाव और प्रभाव: पैसा यह ऐसी वस्तु है कि संस्कारहीन लोगों पर वह अपना प्रभाव छोड़ता ही है। धन का बल मनुष्य में अहंकार निर्माण कर देता है। धन अपने हाथ से निकल न जाए इस भय से मनुष्य हिंसा, अपराध, अप्रामाणिकता पर उतारू हो जाता है। इसी के साथ ही पैसे का अभाव निर्माण होने से मनुष्य लाचार और दीन हो जाता है। सच्चाई के साथ समझौते करने को बाध्य हो जाता है।
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# अर्थ का अभाव और प्रभाव: पैसा यह ऐसी वस्तु है कि संस्कारहीन लोगोंं पर वह अपना प्रभाव छोड़ता ही है। धन का बल मनुष्य में अहंकार निर्माण कर देता है। धन अपने हाथ से निकल न जाए इस भय से मनुष्य हिंसा, अपराध, अप्रामाणिकता पर उतारू हो जाता है। इसी के साथ ही पैसे का अभाव निर्माण होने से मनुष्य लाचार और दीन हो जाता है। सच्चाई के साथ समझौते करने को बाध्य हो जाता है।
 
# सामाजिकता से व्यक्तिवादिता की ओर : यह अर्थव्यवस्था मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्ति व्यक्ति में बांटता है। सिंह बलवान होते हैं। सिंहों पर शासन करना कठिन होता है। संगठित समाज बलवान होता है। व्यक्ति दुर्बल होता है। अतः इस शासनाधिष्ठीत अर्थव्यवस्था का लक्ष्य समाज की सामाजिकता या संगठन तोड़कर इसे व्यक्ति व्यक्ति के रूप में विभाजित करने का होता है। ऐसे व्यक्तियों के झुण्ड पर शासन करना सरल होता है। अतः हमारी शिक्षा भी व्यक्तिवादिता या स्वार्थ को बढ़ावा देनेवाली है। नि:स्वार्थ भाव से समाज के हित का विचार करनेवाले लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। अन्न, औषधि और शिक्षा जैसी पवित्र बातें बिकाऊ बन गयीं हैं।
 
# सामाजिकता से व्यक्तिवादिता की ओर : यह अर्थव्यवस्था मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्ति व्यक्ति में बांटता है। सिंह बलवान होते हैं। सिंहों पर शासन करना कठिन होता है। संगठित समाज बलवान होता है। व्यक्ति दुर्बल होता है। अतः इस शासनाधिष्ठीत अर्थव्यवस्था का लक्ष्य समाज की सामाजिकता या संगठन तोड़कर इसे व्यक्ति व्यक्ति के रूप में विभाजित करने का होता है। ऐसे व्यक्तियों के झुण्ड पर शासन करना सरल होता है। अतः हमारी शिक्षा भी व्यक्तिवादिता या स्वार्थ को बढ़ावा देनेवाली है। नि:स्वार्थ भाव से समाज के हित का विचार करनेवाले लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। अन्न, औषधि और शिक्षा जैसी पवित्र बातें बिकाऊ बन गयीं हैं।
 
# पगढ़ीलापन इस अर्थव्यवस्था ने पूरे विश्व के समाजों को पगढ़ीला बना दिया है। मनुष्य का जन्म कहीं होता है, प्राथमिक शिक्षा कहीं होती है, महाविद्यालयीन शिक्षा ओर कहीं होती है, नौकरी के निमित्त पता नहीं कितनी स्थानों पर रहना होता है। निवृत्ति के उपरांत भी कहीं अन्य ही वह अपना डेरा जमाता है। यह बात अब अनिवार्य बन गयी है। इसके चलते संसार भर में सभी संस्कृतियों का नाश हो रहा है। संस्कृति के विकास के लिए समाज जीवन की जो इष्ट गति है उससे कहीं अधिक गति जीवन को मिल रही है। फलस्वरूप संस्कृति नष्ट होकर प्रकृति याने पशुता और विकृति में वृद्धि होती दिखाई दे रही है।
 
# पगढ़ीलापन इस अर्थव्यवस्था ने पूरे विश्व के समाजों को पगढ़ीला बना दिया है। मनुष्य का जन्म कहीं होता है, प्राथमिक शिक्षा कहीं होती है, महाविद्यालयीन शिक्षा ओर कहीं होती है, नौकरी के निमित्त पता नहीं कितनी स्थानों पर रहना होता है। निवृत्ति के उपरांत भी कहीं अन्य ही वह अपना डेरा जमाता है। यह बात अब अनिवार्य बन गयी है। इसके चलते संसार भर में सभी संस्कृतियों का नाश हो रहा है। संस्कृति के विकास के लिए समाज जीवन की जो इष्ट गति है उससे कहीं अधिक गति जीवन को मिल रही है। फलस्वरूप संस्कृति नष्ट होकर प्रकृति याने पशुता और विकृति में वृद्धि होती दिखाई दे रही है।
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# महँगी तकनीकी या व्यवस्थापन की शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। इस के लिए वर्तमान में अनिवार्य तकनीकी और व्यवस्थापन के महाविद्यालयों की आवश्यकता न्यूनतम हो जाती है।
 
# महँगी तकनीकी या व्यवस्थापन की शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। इस के लिए वर्तमान में अनिवार्य तकनीकी और व्यवस्थापन के महाविद्यालयों की आवश्यकता न्यूनतम हो जाती है।
 
# तंत्रज्ञान, उत्पादन, व्यवस्थापन आदि सीखने के लिए युवावस्था के वर्षों का अलग समय निकालना नहीं पड़ता। यह बचा हुआ समय बच्चा सामाजिकता, नैतिकता की शिक्षा के लिए लगा सकता है।
 
# तंत्रज्ञान, उत्पादन, व्यवस्थापन आदि सीखने के लिए युवावस्था के वर्षों का अलग समय निकालना नहीं पड़ता। यह बचा हुआ समय बच्चा सामाजिकता, नैतिकता की शिक्षा के लिए लगा सकता है।
# कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हिसाब से अपने हित के लिए समायोजित करता है। जब कि वर्तमान के विशालकाय उद्योग समाज को अपने हित में प्रभावित करते हैं। पहले माँग से अधिक या माँग के बगैर भी उत्पादन बनाकर उसे झूठे, अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से बेचते हैं। इस तरह बड़े उद्योग विभक्त परिवारों का शोषण करते हैं। संयुक्त कुटुम्बों को तोड़ने के प्रयास करते हैं। अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों को निरस्त करनेवाली यह अर्थव्यवस्था है। सर्वप्रथम तो बहुत अधिक अतिरिक्त धन इसमें एक कुटुंब के हाथ में संचय नहीं हो पाता। दूसरे अतिरिक्त धन को दान में देने की प्रवृत्ति भी अभाव और प्रभाव की स्थिति निर्माण नहीं होने देती। धार्मिक (धार्मिक) सोच के अनुसार धन के तीन ही अंत हैं। दान, भोग या नाश। अपने न्यूनतम उपभोग से बहुत अधिक संचय किये धन का कोई उपयोग नहीं है। इसे यदि दान में नहीं दिया गया यह नष्ट होनेवाला है। समाज में धन का केन्द्रीकरण नहीं हो इस के लिए दान देने की मानसिकता का घर घर में और विद्यालयों में संस्कार। इसके अनुरूप समाज में दान का वातावरण बनाए रखना। ऐआ वातावरण लोगों को दान के लिए प्रवृत्त करता है। तैत्तीरीय उपनिषद् में दान देने का आदेश और उपदेश है। कहा है – श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया अदेयम्, श्रिया देयम्, भिया देयम्, संविदा देयम्। अर्थ अहै – श्रद्धा से दान दो, आर्थिक स्थिति के अनुसार दान दो, लज्जावश दान दो, विवेकपूर्वक दान दो। लेकिन दान देते रहो। इसी से अर्थ के अभाव और प्रभाव की स्थिति निर्माण नहीं हो पाती।
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# कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हिसाब से अपने हित के लिए समायोजित करता है। जब कि वर्तमान के विशालकाय उद्योग समाज को अपने हित में प्रभावित करते हैं। पहले माँग से अधिक या माँग के बगैर भी उत्पादन बनाकर उसे झूठे, अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से बेचते हैं। इस तरह बड़े उद्योग विभक्त परिवारों का शोषण करते हैं। संयुक्त कुटुम्बों को तोड़ने के प्रयास करते हैं। अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों को निरस्त करनेवाली यह अर्थव्यवस्था है। सर्वप्रथम तो बहुत अधिक अतिरिक्त धन इसमें एक कुटुंब के हाथ में संचय नहीं हो पाता। दूसरे अतिरिक्त धन को दान में देने की प्रवृत्ति भी अभाव और प्रभाव की स्थिति निर्माण नहीं होने देती। धार्मिक (धार्मिक) सोच के अनुसार धन के तीन ही अंत हैं। दान, भोग या नाश। अपने न्यूनतम उपभोग से बहुत अधिक संचय किये धन का कोई उपयोग नहीं है। इसे यदि दान में नहीं दिया गया यह नष्ट होनेवाला है। समाज में धन का केन्द्रीकरण नहीं हो इस के लिए दान देने की मानसिकता का घर घर में और विद्यालयों में संस्कार। इसके अनुरूप समाज में दान का वातावरण बनाए रखना। ऐआ वातावरण लोगोंं को दान के लिए प्रवृत्त करता है। तैत्तीरीय उपनिषद् में दान देने का आदेश और उपदेश है। कहा है – श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया अदेयम्, श्रिया देयम्, भिया देयम्, संविदा देयम्। अर्थ अहै – श्रद्धा से दान दो, आर्थिक स्थिति के अनुसार दान दो, लज्जावश दान दो, विवेकपूर्वक दान दो। लेकिन दान देते रहो। इसी से अर्थ के अभाव और प्रभाव की स्थिति निर्माण नहीं हो पाती।
 
# कौटुम्बिक उद्योगों के कारण कुटुंब भावना को बल मिलता है। इसी के विस्तार से ग्राम ग्रामकुल बन जाता है और वसुधा या विश्व वसुधैव कुटुम्बकम् बनता है। जैसी व्यवस्थाएँ और व्यवस्था ठीक से चलाने के लिए मानसिकता कुटुंब उद्योग में आवश्यक होती है वैसी ही मानसिकता राष्ट्रकुटुंब और वसुधैव कुटुम्बकम् के लिए आवश्यक होती हैं। कौटुम्बिक उद्योग इस तरह एक वैश्विकता की पाठशाला के रूप में काम करता है।
 
# कौटुम्बिक उद्योगों के कारण कुटुंब भावना को बल मिलता है। इसी के विस्तार से ग्राम ग्रामकुल बन जाता है और वसुधा या विश्व वसुधैव कुटुम्बकम् बनता है। जैसी व्यवस्थाएँ और व्यवस्था ठीक से चलाने के लिए मानसिकता कुटुंब उद्योग में आवश्यक होती है वैसी ही मानसिकता राष्ट्रकुटुंब और वसुधैव कुटुम्बकम् के लिए आवश्यक होती हैं। कौटुम्बिक उद्योग इस तरह एक वैश्विकता की पाठशाला के रूप में काम करता है।
 
# स्त्रियों को अपने शील और शरीर को खतरे में डाले बिना ही अपने गुणों के विकास और उपयोग की दृष्टि से इससे अच्छा अन्य मार्ग नहीं है। अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देने की इससे अच्छी सुविधा अन्य अर्थव्यवस्थाओं में नहीं है। कुटुंब में रहने से स्त्री अपने बच्चों को ‘मातृवत् परदारेषु’ के संस्कार दे सकती है।  संस्कारहीन पुरुषों की संख्या घट जाने से स्त्री जाति को संस्कारहीन पुरूषों के शोषण से मुक्त करने का इससे बेहतर अन्य विकल्प नहीं है।
 
# स्त्रियों को अपने शील और शरीर को खतरे में डाले बिना ही अपने गुणों के विकास और उपयोग की दृष्टि से इससे अच्छा अन्य मार्ग नहीं है। अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देने की इससे अच्छी सुविधा अन्य अर्थव्यवस्थाओं में नहीं है। कुटुंब में रहने से स्त्री अपने बच्चों को ‘मातृवत् परदारेषु’ के संस्कार दे सकती है।  संस्कारहीन पुरुषों की संख्या घट जाने से स्त्री जाति को संस्कारहीन पुरूषों के शोषण से मुक्त करने का इससे बेहतर अन्य विकल्प नहीं है।
    
=== कौटुंबिक उद्योग : व्याख्या ===
 
=== कौटुंबिक उद्योग : व्याख्या ===
ग्राम के लोगों की किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए लोगों की माँग और रूचि के अनुसार कुटुंब के सदस्यों के साझे प्रयासों द्वारा स्थानिक और निकटस्थ संसाधनों के माध्यम से उपयोगी उत्पाद के गुणवत्तापूर्ण निर्माण की रचना को कौटुम्बिक उद्योग कहते हैं।
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ग्राम के लोगोंं की किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए लोगोंं की माँग और रूचि के अनुसार कुटुंब के सदस्यों के साझे प्रयासों द्वारा स्थानिक और निकटस्थ संसाधनों के माध्यम से उपयोगी उत्पाद के गुणवत्तापूर्ण निर्माण की रचना को कौटुम्बिक उद्योग कहते हैं।
    
कौटुम्बिक उद्योग की विशेषताएं:
 
कौटुम्बिक उद्योग की विशेषताएं:
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* अनुसंधान/ज्ञान, कौशल, आजीविका अर्जन।
 
* अनुसंधान/ज्ञान, कौशल, आजीविका अर्जन।
 
* प्रकृति सुसंगतता : सभी प्रकार का कच्चा माल, उत्पादन की प्रक्रियाएँ, प्रत्यक्ष उत्पादन आदि सभी में यथासंभव पुनर्नवीकरणीय पदार्थों का उपयोग।
 
* प्रकृति सुसंगतता : सभी प्रकार का कच्चा माल, उत्पादन की प्रक्रियाएँ, प्रत्यक्ष उत्पादन आदि सभी में यथासंभव पुनर्नवीकरणीय पदार्थों का उपयोग।
* विज्ञापन बाजी की गुन्जाइश न होने से लोगों को बेवकूफ बनाने की संभावनाएं नहीं। समाज द्वारा नियमित, नियंत्रित। लोगों की रूचि या पसंद और माँग के अनुसार उत्पादन होगा।
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* विज्ञापन बाजी की गुन्जाइश न होने से लोगोंं को बेवकूफ बनाने की संभावनाएं नहीं। समाज द्वारा नियमित, नियंत्रित। लोगोंं की रूचि या पसंद और माँग के अनुसार उत्पादन होगा।
 
* मालिकों की मानसिकता:आत्मविश्वासयुक्त, जिम्मेदार, मेहनती, चुनौतियों पर मात करने की हिम्मत रखनेवाला मनुष्य।
 
* मालिकों की मानसिकता:आत्मविश्वासयुक्त, जिम्मेदार, मेहनती, चुनौतियों पर मात करने की हिम्मत रखनेवाला मनुष्य।
 
* ग्राम स्तर आधारित नियोजन। परस्परावलंबनपर आधारित स्वावलंबी ग्राम का एक हिस्सा।
 
* ग्राम स्तर आधारित नियोजन। परस्परावलंबनपर आधारित स्वावलंबी ग्राम का एक हिस्सा।
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** लक्ष्यप्राप्ति तक अविरत प्रयास करते रहो।  
 
** लक्ष्यप्राप्ति तक अविरत प्रयास करते रहो।  
 
** अगली पीढी को अधिक श्रेष्ठ बनाने के प्रयास शुद्ध जीवात्मा के आवाहन से आज से ही आरम्भ करो। बहू के रूप में बाहर से घर में आनेवाले व्यक्ति को और उसके परिवार को अच्छी तरह से जांच परखकर स्वीकार करना। इसी तरह जमाई बनने वाले व्यक्ति को और उसके परिवार को भी अच्छी तरह जांच परखकर ही सम्बन्ध जोड़ना उचित होगा। इन के कारण कुटुंब के परस्पर संबंधों में खटास न आ पाए, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है।
 
** अगली पीढी को अधिक श्रेष्ठ बनाने के प्रयास शुद्ध जीवात्मा के आवाहन से आज से ही आरम्भ करो। बहू के रूप में बाहर से घर में आनेवाले व्यक्ति को और उसके परिवार को अच्छी तरह से जांच परखकर स्वीकार करना। इसी तरह जमाई बनने वाले व्यक्ति को और उसके परिवार को भी अच्छी तरह जांच परखकर ही सम्बन्ध जोड़ना उचित होगा। इन के कारण कुटुंब के परस्पर संबंधों में खटास न आ पाए, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है।
* गणितीय पहलू : रक्तसम्बन्धी लोगों की संख्या में वृद्धि और उन्हें उद्योग से जोड़ने के प्रयास करना। पहली और दूसरी  पीढी में जन्मे बच्चे कौटुम्बिक उद्योग को छोडें नहीं ऐसे संस्कार और वातावरण घर में रखना होगा। बाहर के वातावरण से उन्हें बचाना होगा। इसमें पति-पत्नि संबंधों की धार्मिक (धार्मिक) दृष्टि से उन्हें अवगत और स्वीकृत कराना होगा।
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* गणितीय पहलू : रक्तसम्बन्धी लोगोंं की संख्या में वृद्धि और उन्हें उद्योग से जोड़ने के प्रयास करना। पहली और दूसरी  पीढी में जन्मे बच्चे कौटुम्बिक उद्योग को छोडें नहीं ऐसे संस्कार और वातावरण घर में रखना होगा। बाहर के वातावरण से उन्हें बचाना होगा। इसमें पति-पत्नि संबंधों की धार्मिक (धार्मिक) दृष्टि से उन्हें अवगत और स्वीकृत कराना होगा।
    
=== प्रक्रिया ===
 
=== प्रक्रिया ===

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