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अंडज, स्वेदज, योनिज, उद्भिज आदि चार प्रकार के जीव जी सकें इस लिये परमात्मा ने अपने में से ही सर्वप्रथम जड जगत का निर्माण किया।  
 
अंडज, स्वेदज, योनिज, उद्भिज आदि चार प्रकार के जीव जी सकें इस लिये परमात्मा ने अपने में से ही सर्वप्रथम जड जगत का निर्माण किया।  
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जड की व्याख्या ब्रह्मसूत्र में दी गई है। <blockquote>व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्षत्वात् ॥ (ब्रह्मसूत्र 2-2-4)</blockquote>अर्थ : जड पदार्थ अपनी स्थिति नहीं बदलता जब तक कोई अन्य शक्ति उसपर प्रभाव न डाले। इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के तीसरे नियम में करता है -  
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जड की व्याख्या ब्रह्मसूत्र में दी गई है:<ref>ब्रह्मसूत्र 2-2-4</ref> <blockquote>व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्षत्वात् ॥ 2-2-4 </blockquote>अर्थ : जड पदार्थ अपनी स्थिति नहीं बदलता जब तक कोई अन्य शक्ति उसपर प्रभाव न डाले। इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के तीसरे नियम में करता है - Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.  
 
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Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.
      
इस के बाद परमात्मा ने जीव जगत का निर्माण किया। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री पचास वर्ष के लगभग की आयु में प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वीद्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। और भी एक बात यह है कि जीव जगत में भी आज जो पशू, पक्षी, प्राणि आदि जिस रूप में हैं उसी रूप में परमात्मा ने उन्हें अपने में से ही उत्पन्न किया। यह प्रक्रिया सातवें मन्वंतर तक चली। श्रीमद्भगवद्गीता के ७ वें अध्याय के श्लोक ४-५ में कहा है - यह सारी चराचर सृष्टि मैंने ही मेरी परा प्रकृति के और मेरी ही अपरा प्रकृति के संयोग कर बनाई है। इसी का अर्थ यह है कि आज जो जीव जिस स्वरूप में दिखाई देते हैं उन को परमात्मा ने वैसा ही निर्माण किया था।  
 
इस के बाद परमात्मा ने जीव जगत का निर्माण किया। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री पचास वर्ष के लगभग की आयु में प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वीद्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। और भी एक बात यह है कि जीव जगत में भी आज जो पशू, पक्षी, प्राणि आदि जिस रूप में हैं उसी रूप में परमात्मा ने उन्हें अपने में से ही उत्पन्न किया। यह प्रक्रिया सातवें मन्वंतर तक चली। श्रीमद्भगवद्गीता के ७ वें अध्याय के श्लोक ४-५ में कहा है - यह सारी चराचर सृष्टि मैंने ही मेरी परा प्रकृति के और मेरी ही अपरा प्रकृति के संयोग कर बनाई है। इसी का अर्थ यह है कि आज जो जीव जिस स्वरूप में दिखाई देते हैं उन को परमात्मा ने वैसा ही निर्माण किया था।  
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ये सभी प्राणि आज जैसे दिखाई देते हैं उसी रूप में उन्हें परमात्मा ने प्रकृति के साथ संयोग कर उन का निर्माण किया। अमीबा बना तो जैसा आज है वैसा ही निर्माण हुआ और मानव बना तो आज जैसा है वैसा ही निर्माण किया गया।
 
ये सभी प्राणि आज जैसे दिखाई देते हैं उसी रूप में उन्हें परमात्मा ने प्रकृति के साथ संयोग कर उन का निर्माण किया। अमीबा बना तो जैसा आज है वैसा ही निर्माण हुआ और मानव बना तो आज जैसा है वैसा ही निर्माण किया गया।
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मानव भी निर्माण हुआ तो समाज के और यज्ञ के साथ निर्माण हुआ। श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय 3 में श्लोक 10 और 11 में भगवान कहते हैं -<blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति ।</blockquote><blockquote>अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ 10 ॥</blockquote>अर्थ : कल्प के आदि में ब्रह्माने यज्ञसहित प्रजाओं का निर्माण कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ (नि:स्वार्थ लोकहितरूपी कार्य सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) के द्वारा वृध्दिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। यह है मानव और अन्य मानव यानी सामाजिक संबंधों की भारतीय मान्यता। <blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।</blockquote><blockquote>परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 11 ॥</blockquote>अर्थ : तुम लोग इस यज्ञ (सूर्य, पृथ्वी, वायू, जल, अग्नि आदि महाभूतों को जिन्हें देवता माना गया है उन की पुष्टि के लिये होम-हवन आदि) के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से (सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
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मानव भी निर्माण हुआ तो समाज के और यज्ञ के साथ निर्माण हुआ। श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय 3 में श्लोक 10 और 11 में भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10 and 3.11</ref> -<blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति ।</blockquote><blockquote>अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ 10 ॥</blockquote>अर्थ : कल्प के आदि में ब्रह्माने यज्ञसहित प्रजाओं का निर्माण कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ (नि:स्वार्थ लोकहितरूपी कार्य सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) के द्वारा वृध्दिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। यह है मानव और अन्य मानव यानी सामाजिक संबंधों की भारतीय मान्यता। <blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।</blockquote><blockquote>परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 11 ॥</blockquote>अर्थ : तुम लोग इस यज्ञ (सूर्य, पृथ्वी, वायू, जल, अग्नि आदि महाभूतों को जिन्हें देवता माना गया है उन की पुष्टि के लिये होम-हवन आदि) के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से (सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
    
कुछ अन्य बिंदु इस प्रकार हैं:
 
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